(कात्यायनी और अन्य लोगों की ओर से भेजे गए नोटिस पर राहुल फाउण्डेशन के संस्थापक सचिव मुकुल जी ने एक पत्र भेज है। पाठकों की जानकारी के लिए बता दें कि साथी मुकुल जनचेतना के निदेशक भी रह चुके हैं। मुकुल जी का आरोप है कि अब रामबाबू पाल नमक एक व्यक्ति ने इस संस्था पर कब्जा जमाकर
सरकार से पंजीकरण हासिल कर लिया है। पत्र को पढ़कर पाठक खुद फैसला करें क्या सही है और क्या गलत है .... )
मुझे पता चला है कि कात्यायनी एंड कंपनी ने 'मानहानि' का नोटिस भेजवाया है। आधिकारिक रूप से तो मुझे अभी यह मिला नहीं है, लेकिन जनज्वार व 100 फ्लावर्स से जो बातें सामने आई हैं, वे इस काकश की धोखाधड़ी, कब्जा और फ्राड का एक और बड़ा मामला है। मुझे किसी कोर्ट के वकील की ज़रूरत नहीं, क्योंकि मैं तो इसे जनता की अदालत में ही ले जाना मुनासिब समझता हूँ।
इस सम्बन्ध में जनज्वार पर किन्हीं विवेक कुमार द्वारा उठाए गए कई मुद्दे तो अनधिकृत, अनावश्यक और किसी खुन्दक में उठाए लगते हैं। इस बारे में राकेश सिंह की टिप्पणी उचित हस्तक्षेप है।
बहरहाल आइए, मूल मुद्दे की बात करें। क्या खूबसूरत अदाएं हैं इन सम्मानियों के! हमारी संस्थाओं के कब्जाधारी हमें ही मानहानि का खौफ दिखाकर ताल ठोंक रहे हैं। गौर करें इनके 'मान' की कुछ बानगी पर।
पहली बात यह कि जिन संस्थाओं की ओर से कथित नोटिस भेजा गया है उनमें प्रथम, जनचेतना, एक पुस्तक विक्रय केन्द्र के रूप में 26 नवम्बर, 1986 को गोरखपुर में हमने खोला था और मैं उसका निदेशक रहा। बिजया बैंक गोरखपुर के चालू खाता संख्या 848/932 और देश भर के तमाम प्रकाशकों व लघु पत्रिकाओं से खतो-किताबत इसके कुछ उदाहरण मात्र हैं। तब रामबाबू पाल का इससे कोई वास्ता ही नहीं था। लखनऊ में जनचेतना का काम आगे बढ़ाते हुए 1997 में अपंजीकृत संस्था, के रूप में नैनीताल बैंक में बचत खाता खोला गया था। इसके सदस्य मेरे साथ ओ.पी. सिन्हा, सत्येन्द्र कुमार और डी.सी.वर्मा एडवोकेट भी थे। आज भी रुद्रपुर (उत्तराखण्ड) में जनचेतना का संचालन जारी है। कथित नोटिस से पता चला कि सन 2011 में रामबाबू पाल ने हमारी इस संस्था पर भी कब्जा जमाकर सरकार से पंजीकरण हासिल कर लिया है।
कथित नोटिस जारीकर्ता दूसरी संस्था, राहुल फाउण्डेशन का गठन राहुल सांकृत्यायन जन्मशती आयोजन समिति द्वारा 1993 में हुआ। मैं इसका संस्थापक सचिव हूँ। डा. एम.पी.सिंह, संस्थापक अध्यक्ष थे व विश्वनाथ मिश्र, ओ.पी. सिन्हा, आदेश सिंह, सत्यम वर्मा व मीनाक्षी (सहकोषाध्यक्ष) प्रबन्धकारिणी समिति में थे। डा. एम.पी. सिंह के निधन के बाद विश्वनाथ मिश्र वरिष्ठता के आधार पर इस संस्था के कार्यवाहक अध्यक्ष बने। लेकिन बैक डोर से कात्यायनी, जो कि प्रबन्धकारिणी में भी नहीं थीं, राहुल फाउण्डेशन की अध्यक्ष बन बैठीं (इस प्रक्रिया, मुझसे हुए विवाद और धीरे-धीरे पूरे फाउण्डेशन पर कब्जे की कहानी फिर कभी)। स्थिति यह है कि संस्था के कागजात छलकपट से हासिल कर जालसाजी रच कागजों में आज पूरी संस्था के 60 फीसदी से ज्यादा साधारण सदस्य और प्रबन्धकारिणी के दो तिहाई से अधिक सदस्यों को बदला जा चुका है।
इन 'मान'धारियों की महानता देखिए। लगातार बीमार चल रहे हमारे संस्थापक अध्यक्ष डा. एम.पी. सिंह की खबर, लखनऊ में रहकर भी इन्हें हफ्तों बाद लगी। बाद में लाज बचाने की गरज से उनकी स्मृति में ब्याख्यानमाला आयोजन की घोषणा हुई, लेकिन 'लाभकारी' न होने के कारण अघोषित रूप से यह डब्बाबन्द हो गयी। वैसे भी नयी 'फलदाई स्मृतियाँ' ज्यादा महफूज थीं। यही नहीं, 1994 के राहुल फाउण्डेशन-सहारा विवाद के चल रहे मुक़दमें से भी यह बहादुर वीरांगना फरार चल रही हैं।
अब आगे देखिए। कोई कहाँ तक निगले खड़ी मक्खी।
कथित नोटिस में मुझे प्रतिवादी नं.-4 बताया गया है, जिसमें मेरा इन संस्थाओं से जुड़ाव 1994 बताया गया है। जबकि मेरा उपरोक्त बयान ही मेरी इन संस्थाओं से जुड़ाव की तवारीख खुद बयां कर देती है। इसी तरह प्रतिवादी नं.-2 सत्येन्द्र कुमार को 1998 से जुड़ा बताते हैं 'मान'धारी। जबकि राहुल फाउण्डेशन के स्थापना वर्ष 1993 से ही वे इसके संस्थापक सदस्य रहे हैं। यहाँ तक कि 1994 में सहारा समूह से विवाद के समय इनकी पत्नी शिवकुमारी जी न केवल जेल गईं, अपितु गम्भीर रूप से घायल भी रहीं। 1994 में जब फाउण्डेशन का काम लखनऊ शिफ्ट हुआ तो कार्यालय भी सत्येन्द्र जी के तात्कालिक आवास 3/274 विश्वास खण्ड में साझातौर पर चल रहा था। 1995 में इन्होंने राहुल फाउण्डेशन के सहयाग हेतु अनुबन्ध पर परिकल्पना प्रकाशन शुरू किया था। आज उस पर भी ये 'माननीय' काबिज हैं। यही नहीं, इस काकस ने फाउण्डेशन से कथित तौर मुझे 24-4-06 को निकाला गया बताया है, जबकि मैं सप्रमाण (फिलहाल जिसकी ज़रूरत मुझे नहीं है) 11 से 14 मई, 2006 और उसके बाद की कई महत्वपूर्ण सामग्री जनता को उपलब्ध करा सकता हूँ।
ध्यानतलब है कि इन संस्थाओं को हम तमाम साथियों ने अपना खून-पसीना और बहुत कुछ न्योछावर कर खड़ा किया था। इसलिए इसकी बारीकियाँ और इनके कई तकनीकी गूढ़ रहस्य हम ही जानते हैं। हमने तो अपना जीवन शोषण मुक्त समाज की जद्दोजहद के लिए समर्पित किया है और यथासंभव उसी उद्यम में हम लगे भी हैं। जब हमारी कोशिशें इन संस्थाओं को दलदल में जाने से रोकने में कामयाब न होती दिखीं और हमने सही राह पर आगे बढ़ने की कोशिष की तो ये 'मान'धारी हमारी संस्थाओं पर कब्जा कर बैठे और अब कथित तौर पर नोटिस भेजने का दुस्साहस कर दिया। इससे पूर्व मुझे पीटने की नाकामयाब कोशिशें भी करने से ये बाज नहीं आए थे। देवेन्द्र प्रताप पर नोएडा में साजिश रचकर हमले भी करवाया, लेकिन बेचारे कई कार्यकर्ता ही हवालात की खाक छान बैठे।
'मान'धारियों के तौरतरीकों की फेहरिश्त बड़ी लम्बी है। जब 1996 में गोरखपुर आह्वान अखबार, (जिसका तब मैं सम्पादक था) के कार्यालाय के बहाने एक ग़रीब दलित परिवार को बेदखल करने के लिए हमें हमलावर होना पड़ा, 2002 में रुद्रपुर (उत्तराखण्ड) के होण्डा आन्दोलन के विकट दौर में संगठन द्वारा सहयोग के आश्वासन के बावजूद राहुल फाउण्डेशन-जनचेतना विश्वपुस्तक मेला में मशगूल रहा, 2004 में हमारे 1986 से समर्थक रहे बी.डी. सक्सेना के लखनऊ आवास पर 'माननीयों' द्वारा कब्जा हुआ, समाजिक परिवर्तन के नाम पर धनउगाही और संगठन-संघर्ष के घोषित लक्ष्य की जगह प्रकाशन और पुस्तक बिक्री मुख्य पेशा बन गया (और भी वे बेपनाह बातें, जो वक्त-ज़रूरत पर खोली जाएंगी) तो हमारे लिए उस पाप का भागीदार बनना संभव न था।
फिर तो नाराजगी होनी ही थी। अब कुछ नहीं मिला तो डेढ़ करोड़ वसूलने का एक नया तीर छोड़ दिया। हलांकि मुझे अपने सकारात्मक कामों से इतनी फुर्सत ही नहीं है कि मैं ऊल-जुलूल हरकतों में उलझूं। लेकिन जब कोई आ बैल मुझे मार की ही हैसियत में हो तो फिर गैर ज़रूरी समय निकालना ही विवशता है। मधुमक्खी के छत्ते में हाथ डालेंगे तो.....
दरअसल, स्वंभू विद्वानों की चालाकियाँ ही प्रायः उसके विध्वंस का कारण बन जाती हैं। डरा-धमकाकर छा जाने की आदत से मजबूर जो ठहरे! कात्यायनी एंड कंपनी नोटिस भेजकर हम साथियों को डराना चाहती थी। इसके पीछे भी उनके 'माननीय' का ही हाथ रहा होगा। पर हुआ उल्टा, मैडम की जूती साहब के सर पर ही जा गिरी। 'माननीय' साहब झल्लाए तो खूब, लेकिन करें क्या? वैसे अब माननीय को इसकी आदत डाल लेनी चाहिए!
मुझे पता चला है कि कात्यायनी एंड कंपनी ने 'मानहानि' का नोटिस भेजवाया है। आधिकारिक रूप से तो मुझे अभी यह मिला नहीं है, लेकिन जनज्वार व 100 फ्लावर्स से जो बातें सामने आई हैं, वे इस काकश की धोखाधड़ी, कब्जा और फ्राड का एक और बड़ा मामला है। मुझे किसी कोर्ट के वकील की ज़रूरत नहीं, क्योंकि मैं तो इसे जनता की अदालत में ही ले जाना मुनासिब समझता हूँ।
इस सम्बन्ध में जनज्वार पर किन्हीं विवेक कुमार द्वारा उठाए गए कई मुद्दे तो अनधिकृत, अनावश्यक और किसी खुन्दक में उठाए लगते हैं। इस बारे में राकेश सिंह की टिप्पणी उचित हस्तक्षेप है।
बहरहाल आइए, मूल मुद्दे की बात करें। क्या खूबसूरत अदाएं हैं इन सम्मानियों के! हमारी संस्थाओं के कब्जाधारी हमें ही मानहानि का खौफ दिखाकर ताल ठोंक रहे हैं। गौर करें इनके 'मान' की कुछ बानगी पर।
पहली बात यह कि जिन संस्थाओं की ओर से कथित नोटिस भेजा गया है उनमें प्रथम, जनचेतना, एक पुस्तक विक्रय केन्द्र के रूप में 26 नवम्बर, 1986 को गोरखपुर में हमने खोला था और मैं उसका निदेशक रहा। बिजया बैंक गोरखपुर के चालू खाता संख्या 848/932 और देश भर के तमाम प्रकाशकों व लघु पत्रिकाओं से खतो-किताबत इसके कुछ उदाहरण मात्र हैं। तब रामबाबू पाल का इससे कोई वास्ता ही नहीं था। लखनऊ में जनचेतना का काम आगे बढ़ाते हुए 1997 में अपंजीकृत संस्था, के रूप में नैनीताल बैंक में बचत खाता खोला गया था। इसके सदस्य मेरे साथ ओ.पी. सिन्हा, सत्येन्द्र कुमार और डी.सी.वर्मा एडवोकेट भी थे। आज भी रुद्रपुर (उत्तराखण्ड) में जनचेतना का संचालन जारी है। कथित नोटिस से पता चला कि सन 2011 में रामबाबू पाल ने हमारी इस संस्था पर भी कब्जा जमाकर सरकार से पंजीकरण हासिल कर लिया है।
कथित नोटिस जारीकर्ता दूसरी संस्था, राहुल फाउण्डेशन का गठन राहुल सांकृत्यायन जन्मशती आयोजन समिति द्वारा 1993 में हुआ। मैं इसका संस्थापक सचिव हूँ। डा. एम.पी.सिंह, संस्थापक अध्यक्ष थे व विश्वनाथ मिश्र, ओ.पी. सिन्हा, आदेश सिंह, सत्यम वर्मा व मीनाक्षी (सहकोषाध्यक्ष) प्रबन्धकारिणी समिति में थे। डा. एम.पी. सिंह के निधन के बाद विश्वनाथ मिश्र वरिष्ठता के आधार पर इस संस्था के कार्यवाहक अध्यक्ष बने। लेकिन बैक डोर से कात्यायनी, जो कि प्रबन्धकारिणी में भी नहीं थीं, राहुल फाउण्डेशन की अध्यक्ष बन बैठीं (इस प्रक्रिया, मुझसे हुए विवाद और धीरे-धीरे पूरे फाउण्डेशन पर कब्जे की कहानी फिर कभी)। स्थिति यह है कि संस्था के कागजात छलकपट से हासिल कर जालसाजी रच कागजों में आज पूरी संस्था के 60 फीसदी से ज्यादा साधारण सदस्य और प्रबन्धकारिणी के दो तिहाई से अधिक सदस्यों को बदला जा चुका है।
इन 'मान'धारियों की महानता देखिए। लगातार बीमार चल रहे हमारे संस्थापक अध्यक्ष डा. एम.पी. सिंह की खबर, लखनऊ में रहकर भी इन्हें हफ्तों बाद लगी। बाद में लाज बचाने की गरज से उनकी स्मृति में ब्याख्यानमाला आयोजन की घोषणा हुई, लेकिन 'लाभकारी' न होने के कारण अघोषित रूप से यह डब्बाबन्द हो गयी। वैसे भी नयी 'फलदाई स्मृतियाँ' ज्यादा महफूज थीं। यही नहीं, 1994 के राहुल फाउण्डेशन-सहारा विवाद के चल रहे मुक़दमें से भी यह बहादुर वीरांगना फरार चल रही हैं।
अब आगे देखिए। कोई कहाँ तक निगले खड़ी मक्खी।
कथित नोटिस में मुझे प्रतिवादी नं.-4 बताया गया है, जिसमें मेरा इन संस्थाओं से जुड़ाव 1994 बताया गया है। जबकि मेरा उपरोक्त बयान ही मेरी इन संस्थाओं से जुड़ाव की तवारीख खुद बयां कर देती है। इसी तरह प्रतिवादी नं.-2 सत्येन्द्र कुमार को 1998 से जुड़ा बताते हैं 'मान'धारी। जबकि राहुल फाउण्डेशन के स्थापना वर्ष 1993 से ही वे इसके संस्थापक सदस्य रहे हैं। यहाँ तक कि 1994 में सहारा समूह से विवाद के समय इनकी पत्नी शिवकुमारी जी न केवल जेल गईं, अपितु गम्भीर रूप से घायल भी रहीं। 1994 में जब फाउण्डेशन का काम लखनऊ शिफ्ट हुआ तो कार्यालय भी सत्येन्द्र जी के तात्कालिक आवास 3/274 विश्वास खण्ड में साझातौर पर चल रहा था। 1995 में इन्होंने राहुल फाउण्डेशन के सहयाग हेतु अनुबन्ध पर परिकल्पना प्रकाशन शुरू किया था। आज उस पर भी ये 'माननीय' काबिज हैं। यही नहीं, इस काकस ने फाउण्डेशन से कथित तौर मुझे 24-4-06 को निकाला गया बताया है, जबकि मैं सप्रमाण (फिलहाल जिसकी ज़रूरत मुझे नहीं है) 11 से 14 मई, 2006 और उसके बाद की कई महत्वपूर्ण सामग्री जनता को उपलब्ध करा सकता हूँ।
ध्यानतलब है कि इन संस्थाओं को हम तमाम साथियों ने अपना खून-पसीना और बहुत कुछ न्योछावर कर खड़ा किया था। इसलिए इसकी बारीकियाँ और इनके कई तकनीकी गूढ़ रहस्य हम ही जानते हैं। हमने तो अपना जीवन शोषण मुक्त समाज की जद्दोजहद के लिए समर्पित किया है और यथासंभव उसी उद्यम में हम लगे भी हैं। जब हमारी कोशिशें इन संस्थाओं को दलदल में जाने से रोकने में कामयाब न होती दिखीं और हमने सही राह पर आगे बढ़ने की कोशिष की तो ये 'मान'धारी हमारी संस्थाओं पर कब्जा कर बैठे और अब कथित तौर पर नोटिस भेजने का दुस्साहस कर दिया। इससे पूर्व मुझे पीटने की नाकामयाब कोशिशें भी करने से ये बाज नहीं आए थे। देवेन्द्र प्रताप पर नोएडा में साजिश रचकर हमले भी करवाया, लेकिन बेचारे कई कार्यकर्ता ही हवालात की खाक छान बैठे।
'मान'धारियों के तौरतरीकों की फेहरिश्त बड़ी लम्बी है। जब 1996 में गोरखपुर आह्वान अखबार, (जिसका तब मैं सम्पादक था) के कार्यालाय के बहाने एक ग़रीब दलित परिवार को बेदखल करने के लिए हमें हमलावर होना पड़ा, 2002 में रुद्रपुर (उत्तराखण्ड) के होण्डा आन्दोलन के विकट दौर में संगठन द्वारा सहयोग के आश्वासन के बावजूद राहुल फाउण्डेशन-जनचेतना विश्वपुस्तक मेला में मशगूल रहा, 2004 में हमारे 1986 से समर्थक रहे बी.डी. सक्सेना के लखनऊ आवास पर 'माननीयों' द्वारा कब्जा हुआ, समाजिक परिवर्तन के नाम पर धनउगाही और संगठन-संघर्ष के घोषित लक्ष्य की जगह प्रकाशन और पुस्तक बिक्री मुख्य पेशा बन गया (और भी वे बेपनाह बातें, जो वक्त-ज़रूरत पर खोली जाएंगी) तो हमारे लिए उस पाप का भागीदार बनना संभव न था।
फिर तो नाराजगी होनी ही थी। अब कुछ नहीं मिला तो डेढ़ करोड़ वसूलने का एक नया तीर छोड़ दिया। हलांकि मुझे अपने सकारात्मक कामों से इतनी फुर्सत ही नहीं है कि मैं ऊल-जुलूल हरकतों में उलझूं। लेकिन जब कोई आ बैल मुझे मार की ही हैसियत में हो तो फिर गैर ज़रूरी समय निकालना ही विवशता है। मधुमक्खी के छत्ते में हाथ डालेंगे तो.....
दरअसल, स्वंभू विद्वानों की चालाकियाँ ही प्रायः उसके विध्वंस का कारण बन जाती हैं। डरा-धमकाकर छा जाने की आदत से मजबूर जो ठहरे! कात्यायनी एंड कंपनी नोटिस भेजकर हम साथियों को डराना चाहती थी। इसके पीछे भी उनके 'माननीय' का ही हाथ रहा होगा। पर हुआ उल्टा, मैडम की जूती साहब के सर पर ही जा गिरी। 'माननीय' साहब झल्लाए तो खूब, लेकिन करें क्या? वैसे अब माननीय को इसकी आदत डाल लेनी चाहिए!
मुकुल जी, राहुल फाउण्डेशन का मैं भी तो संस्थापक सदस्य रहा। आपतो प्रमुख भागीदार रहे हैं। 1993-94 में फाउण्डेशन ने धनउगाही के लिए संरक्षक सदस्य का फार्मुला पेश किया। इसके लिए 1000 रुपये देने वाले संरक्षक सदस्यको को संस्था की गतिविधियों की नियमित रिपोर्टिंग, सुझाव-परामर्श लेने के साथ ही आजीवन ‘दायित्वबोध’ पत्रिका देने की घोषणा हुई थी। मैने भी खूब मेहनत से काम किया। हाईकोर्ट लखनऊ बेंच के दर्जनों वकीलों, जिनमें ज़फरयाब जिलानी, एस.के. कालिया, मुस्ताक अहमद सिद्धिकी, इरफान अहमद, असित चतुर्वेदी, डा. एम.एस. मुर्तजा आदि शामिल थे, से मैंने भी एक-एक हजार रुपए वसूले। रिपोर्टिंग तो दूर, किसी को एक दो अंक के बाद दायित्वबोध तक नहीं दी गई।
जवाब देंहटाएंमानहानि और धोखाधड़ी का मुक़दमा तो कात्यायनी एण्ड कम्पनी पर ठोंकना चाहिए।
-चन्द्रमोहन शुक्ला एडवोकेट
कब्जा करना तो इनका जन्मसिद्ध अधिकार बन चुका है। मेरे स्वामित्व में निकलने वाले अखबार ‘आह्वान’ पर कात्यायनी पुत्र अभिनव ने कब्जा कर लिया और डा. दूधनाथ के अखबार ‘बिगुल’ पर खुद कात्यायनी ने कुण्डली मार ली। साथी विश्वनाथ मिश्र से ‘दायित्वबोध’ हड़पने का भी प्रयास हुआ था। मैं तब संगठन में था और कात्यायनी की बहन मीनाक्षी के नाम इसे करने की कोशिश मुझे बीच में करके हुई थी। कुछ कागज तो अभी भी मेरे पास हैं।
जवाब देंहटाएंअब यह कुनबा ‘दायित्वबोध’ से विमुख हो ‘नान्दीपाठ’ में जुटा है। लगता है कि इनका ‘भरतवाक्य’ लिखना पड़ेगा। -आदेश सिंह