डा. डेविड सी. कार्टेन
‘‘आधुनिक और सम्पन्न’’ उत्तर में भी लाखों कामगारों की दुर्दशा का वर्णन शुरुआती औद्योगिक क्रान्ति के दिनों की याद दिलाता है। आधुनिक सम्पन्न सान फ्रान्सिस्को की ठेके की वस्त्रों की दुकानों के हालातों के वर्णन पर विचार कीजिए: ज्यादातर दुकानें अंधेरी, ठसाठस भरी और बिना खिड़की वाली हैं- 12 घण्टे दिन का काम, कोई छुट्टी का दिन नहीं और केवल दोपहर के भोजन के लिए अन्तराल, यह सामान्य बात है। और इस धनी कास्मोपोलिटन नगर में अनेक दुकानों में राक्षसी नियम लागू होते हैं जो उन्नीसवीं सदी की याद दिलाते हैं। ‘‘कामगारों को आपस में बातें करने की इजाजत नहीं थी, और वे हमें शौचालय जाने की इजाजत नहीं देते थे।’’ यह बात एक एशियाई वस्त्र कामगार ने कही। निर्माताओं में सबसे नीची कीमतों की सौदेबाजी करने के जोश का बयान रखते हुए खाड़ी क्षेत्र के 600 सिलाई के ठेकेदार गलाकाट प्रतिस्पर्धा में जुटे रहते हैं जो अक्सर डार्विनीय तल तक दौड़ होती है। निर्माताओं के पास बोलियों को नीचा रखने की एक और शक्तिशाली चिप होती है। सान फ्रान्सिस्को में अन्तरराष्ट्रीय महिला वस्त्र कारीगर संघ की प्रबन्धक केटीक्वान इसकी व्याख्या इस प्रकार करती हैं। ‘वे कहती हैं अगर आप इसे नहीं लेते तो हम उसे जहाज द्वारा विदेशों में भेज देंगे और आपको काम नहीं मिलेगा और आपके कारीगर भूखे मरेंगे। 1992 में अमेरिका के संरक्षण वाले देश सैपान में श्रम विभाग द्वारा वस्त्रों की दुकानों की जाँच में श्रमिकों के हालात बँधुआ गुलामों के समान पाये गये। चीनी कामगारों, जिनके पासपोर्ट जब्त कर लिये गये थे, सप्ताह में 84 घण्टे काम करते थे और न्यूनतम से भी कम वेतन पाते थे। भूगोल द्वारा परिभाषित दक्षिण और उत्तर में हालातों के बीच की रेखा लगातार और अधिक धूमिल होती जाती है। 20 वर्षीय वस्त्र कारीगर डोर्का डियाज पहले होण्डुराज में अमरीका आधारित बहुराष्ट्रीय कम्पनी लेजली फे में काम करती थी। उसने अमरीकी प्रतिनिधि सभा की श्रम-प्रबन्धन सम्बन्धों की उपसमिति के सामने बयान दिया कि वह लेजली फे के लिए होण्डुराज में 12-13 साल की लड़कियों के साथ काम करती थी। उन्हें एक फैक्ट्री में बन्द करके ताला लगा दिया जाता था। फैक्ट्री के अन्दर तापमान अक्सर 100 डिग्री पहुँच जाता था और वहाँ पीने के लिए साफ पानी नहीं था। हफ्ते में 54 घण्टे काम करने के लिए उसे 20 डालर से थोड़ा सा ज्यादा वेतन मिलता था। वे और उसका 3 साल का बेटा लगभग भूखे रहते थे। अप्रैल 1994 में मजदूर संघ संगठित करने के आरोप में उसे निकाल दिया गया। दक्षिण अफ्रीका में तायवान की मालकियत वाली स्वैटर फैक्ट्री में एक घण्टे के पचास सेण्ट की मजदूरी पर बुनाई मशीन पर काम करने वाली अश्वेत महिलाओं ने जब यह जाहिर किया कि नेलसन मण्डेला के चुनाव के बाद उन्हें मजदूर संगठन बनाने, बेहतर वेतन पाने और थोड़ा सा सम्मान पाने की आशा है तो तायवानी मालिकों ने अपनी सात अफ्रीकी फैक्टरियाँ अचानक बन्द कर दीं और 1000 कारीगरों की छुट्टी कर दी। अफ्रीका में वेतनमान कम है फिर भी वे ब्राजील या मैक्सिको के वेतनमानों के दूने हैं और थाईलैण्ड या चीन के वेतनमानों से कई गुना अधिक हैं।5 इस बात को ध्यान में रखते हुए कि दक्षिण में संभावित विदेशी निवेशक आशंकित हो गये हैं, न्यूयार्क टाइम्स ने सुझाव दिया, ‘‘सरकार पूँजीवाद के प्रति लम्बी अवधि के लिए निष्ठावान रहेगी, इस पर सन्देह है। इस पर भी सन्देह है कि अपोषित बहुसंख्यक लोगों की आशाओं को पूरा कर पायेंगे।’’ बड़ी पूँजी और लाखों डालर मुआवजों के पैकेजों की दुनिया में लालच काम करेगा। दक्षिण के अनेक देशों में यह कहना अतिशयोक्ति नहीं होगी कि हालात गुलामी के कगार पर पहुँच चुके हैं। विदेशी निवेशकों और कारपोरेशनों का चहेता देश चीन बन गया है क्योंकि वहाँ सस्ता श्रम है और अति नीची कीमतों पर कच्चा माल मिल जाता है। चीन के फैक्टरी मजदूरों के हालात पर बिजनेस वीक ने लिखा है, ‘‘चीन के तटवर्ती प्रदेशों में विदेशी पूँजी से चल रहे कारखानों में 60 लाख चीनी लोग काम करते हैं। इन कारखानों में दुर्घटनाएँ बहुत होती हैं। कुछ कारखानों में कामगारों को सजा दी जाती है, पीटा जाता है, नंगा करके तलाशी ली जाती है और यहाँ तक कि काम के घण्टों में शौचालय जाने की मनाही कर दी जाती है। फ्यूजियान प्रदेश के जियामिन शहर की एक विदेशी मालकियत वाली कम्पनी में कुल मजदूरों की तादात का दसवाँ भाग यानी 40 मजदूरों की पुरानी पड़ गयी मशीनों से अंगुलियाँ कट गयीं। सरकारी रिपोर्ट के मुताबिक पिछले साल गुआनडोंग में 45000 औद्योगिक दुर्घटनाएँ हुईं जिनमें 8700 लोगों की जानें गयी। पिछले महीने एक गुआनडोंग कारखाने में 70 मजदूर मारे गये। यों तो बताया गया है कि चीन की सरकार मानकों में कसावट लाने की कोशिश कर रही है, परन्तु जब से उसने बाजार की शक्तियों को मुक्त करने का निर्णय लिया है, वह भारी बेरोजगारी की समस्या का सामना कर रही है। करोड़ों ग्रामीण मजदूर शहरों की ओर रोजगार की तलाश में जा रहे हैं। 1994 के मध्य में शहरी बेरोजगारी 50 लाख थी जो एक साल में 25 प्रतिशत बढ़ गयी। केवल 1993 में हेलोंगजियांग प्रांत में 20 लाख कामगारों का रोजगार छिन गया। लाखों शहरी कामगार वेतन में कटौती का सामना कर रहे हैं। सरकारी उद्यमों में शहरों का लगभग आधा कार्यबल रोजगार पाता है। इन उद्यमों में धन घट रहा है जिससे भारी छँटनी के और कारखानों के बन्द होने के आसार बन रहे हैं। अपराधों और भ्रष्टाचार की ऊँची दर के कारण मानकों में कसावट लाने के लिए ‘‘इस मुक्त बाजार चमत्कार’’ में सरकार के प्रयत्नों में रुकावट आ रही है। बांग्लादेश में कपड़ों की सिलाई के कारखानों में अनुमानित 14 साल से कम के बच्चे ज्यादातर लड़कियाँ अनुमानित 80,000 प्रति सप्ताह कम से कम 60 घण्टे काम करती हैं। गिनती में या अन्य प्रकार की गलतियाँ करने पर उनके पुरुष सुपरवाइजर उनकी पिटाई करते हैं या उन्हें फर्श पर मुर्गा बना देते हैं या 10 से 13 मिनटों तक सिर के बल खड़ा होने को मजबूर करते हैं। यह मामला केवल कपड़ों की सिलाई उद्योग में ही नहीं है। भारत में 5.5 करोड़ से ज्यादा बच्चे दासता के हालातों में काम करते हैं, इनमें से ज्यादातर बंधुआ मजदूर एक तरह के गुलाम की तरह अत्यन्त दयनीय हालात में काम करते हैं। हर बच्चे की अपनी ही कहानी है। बंधुआ मुक्ति के कुछ महीनों बाद देवानन्दन ने एक पत्रकार को बताया कि जब वह स्कूल को जा रहा था तो उसे यह वायदा करके फँसाया गया कि एक करघे पर 2 घण्टे काम करके उसे 100 डाॅलर प्रति माह मिलेंगे। जब वह राजी हो गया तो उसे एक कमरे में ताले में बन्द कर दिया। जहाँ वह खाना खाता था, सोता था और सबेरे चार बजे से देर शाम तक हर दिन कुछ पेनियों पर काम करता था। भारत के पूर्व मुख्य न्यायाधीश श्री पी. एन. भगवती ने 14 से 20 घण्टे रोज काम करने वाले बच्चों के प्रमाण सार्वजनिक रूप से दिये हैं। उन्हें पीटा जाता है, लाल गर्म छड़ों से दागा जाता है और पेड़ों से उलटा लटका दिया जाता है। भारत का कालीन उद्योग हर साल 30 करोड़ डाॅलर का निर्यात करता है और यह निर्यात मुख्यतः संयुक्त राज्य और जर्मनी को होता है। ये कालीनें 300,000 बच्चों द्वारा बनायी जातीं हैं जो हर रोज 14 से 16 घण्टे, हफ्ते में सात दिन और साल में 52 हफ्ते काम करते हैं। इनमें से अनेक बंधुआ मजदूर हैं जो अपने माता-पिता के कर्ज का भुगतान करने के लिए बेच दिये गये हैं या छोटी जाति के माता-पिता के घर से उनका अपहरण कर लिया गया है। उनमें से जो भाग्यशाली हैं, उन्हें मामूली सा वेतन मिल जाता है। जो अभागे हैं, उन्हें कोई भी वेतन नहीं मिलता। कालीन निर्माता यह तर्क देते हैं कि पाकिस्तान, नेपाल, मोरोक्को और अन्य स्थानों के उद्योग से मुकाबला करने के लिए उन्हें बालश्रम का सहारा लेना पड़ता है क्योंकि इन देशों में भी बालश्रम का इस्तेमाल होता है। भूमण्डलीकृत प्रतिस्पद्र्धी दुनिया में जैसे ही हम तल तक दौड़ में घुसते हैं तो यह समझदारी होगी कि हम यह ध्यान में रखें कि यह तल कितना गहरा है जिसमें हम दौड़ रहे हैं।
(डेविड सी. कार्टन अमरीकी शोधकर्ता हैं जिन्होंने 'व्हेन कारपोरेशन रूल द वर्ल्ड' पुस्तक लिखी
है। उसी पुस्तक से सह लेख लिया गया है)
(डेविड सी. कार्टन अमरीकी शोधकर्ता हैं जिन्होंने 'व्हेन कारपोरेशन रूल द वर्ल्ड' पुस्तक लिखी
है। उसी पुस्तक से सह लेख लिया गया है)
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