हरियाणा का गुड़गांव इलाका मेडिकल से जुड़े सामान बनाने का एक बहुत बड़ा केंद्र है। यहां के उद्योग विहार के प्लॉट नं 110-111, फेज-4 में ‘हरसोरिया हेल्थ केयर प्रा. लि.’ नाम से एक आधुनिक फैक्ट्री है। कंपनी का कुल सालाना व्यवसाय 30 करोड़ डालर का है। कंपनी के उत्पाद का 98 प्रतिशत हिस्सा विदेश निर्यात किया जाता है। मेडिकल से जुड़े सामान बनाने वाली कंपनियों में हरसोरिया का अपना अलग नाम है। दुनिया के 40 देशों में इसका बाजार फैला हुआ है। दुनिया के सामने कंपनी अपने मजदूरों की गुणवत्ता पर गर्व करती है, जबकि फैक्ट्री के अंदर मजदूरों के साथ मैनेजमेंट का सलूक कुछ और ही चीज को बयां करता है। कंपनी में 640 मजदूर काम करते हंै। इनमें से 300 मजदूर स्थाई हैं और शेष कैजुअल तथा ठेका श्रमिक हैं। मजदूरों में कुछ को न्यूनतम वेतन ही दिया जाता है और कुछ को इससे भी कम मिलता है। इस फैक्ट्री में मजदूरों को कोई सुविधा हासिल नहीं है। उल्टे उनके साथ अक्सर ही गाली गलौज की जाती है। यहां तक की फैक्ट्री अधिकारी मजदूरों को जाति सूचक गालियां भी देते हैं। फैक्ट्री के अंदर खुफिया कैमरों से मजदूरों के ऊपर चैबीस घंटे निगरानी रखी जाती है। अभी पिछले दिनों कंपनी ने मजदूरों को मैक्स नाम की एक निजी बीमा पॉलिसी लेने के लिए बाध्य किया था। इसके लिए हर मजदूर की पगार में से 500 रुपये प्रतिमाह जमा कराया गया। बाद मंे जब मजदूरों ने इसका विरोध किया, तो मैक्स नाम की कंपनी मजदूरों का पैसा हड़प कर भाग गयी। इन्हीं सब बातों से आजिज आकर मजदूरों ने यूनियन बनाने का फैसला लिया। जनवरी 2011 में उन्होंने यूनियन का रजिस्ट्रेशन भी करवा लिया। एक केंद्रीय ट्रेड यूनियन ने इस काम मंे उनकी मदद की।
मजदूरों का यूनियन बनाना फैक्ट्री मैनेजमेंट को गंवारा नहीं हुआ। वह मजदूरों से बदला लेने के मौका तलाशता रहा। सात अप्रैल को यूनियन अध्यक्ष की एक सुपरवाइजर के साथ मामूली कहासुनी हो गयी। यह सुपरवाइजर यूनियन के खिलाफ मजदूरों को भड़काने में लगा हुआ था। इस मामूली घटना को बहाना बनाकर मैनेजमेंट ने यूनियन के अध्यक्ष और सचिव समेत कार्यकारिणी के सातों सदस्यों को आठ अप्रैल को सस्पेंड कर दिया। मैनेजमेंट के इस तानाशाहाना रवैए का सभी मजदूरों ने एकजुट होकर विरोध किया और मैनेजमेंट से अपने अध्यक्ष को काम पर वापस लेने की मांग की। मैनेजमेंट ने इसका जवाब 9 अप्रैल की रात की शिफ्ट में काम कर रहे 250 मजदूरों को फैक्ट्री के अंदर बंधक बना कर दिया। उसने पांच दिन तक बगैर खाना-पीना और पंखे के भयंकर गर्मी में उन्हें कैद रखा। इसी दौरान मैनेजमेंट ने नौ और मजदूरों को सस्पेंड कर दिया।
मैनेजमेंट के चंगुल से मुक्त होने के बाद मजदूर फैक्ट्री के पास ही एक पार्क में धरने पर बैठ गये। मैनेजमेंट ने उन्हें डराया, धमकाया, लेकिन उन्होंने अध्यक्ष का निलंबन वापस लिए बिना काम पर जाने से इंकार कर दिया। इस प्रकार 17 दिन लगातार दिन तक मजदूर अपनी जगह डटे रहे। इधर 25 अप्रैल को मैनेजमेंट ने जब फैक्ट्री से माल निकालना चाहा तो मजदूरों ने इसका विरोध किया। लेकिन मैनेजमेंट प्रशासन से मिलकर मजदूरों से निपटने की योजना बना चुका था। फक्ट्री को पुलिस ने चारों ओर से घेरकर पुलिस ने मजदूरों के ऊपर बर्बर लाठीचार्ज किया। इस पुलिसिया हमले में काफी मजदूर घायल हुए और कुछ को गंभीर चोटें आयीं। आंदोलन का कू्ररता से दमन करने के बाद डीएलसी और केंद्रीय ट्रेडयूनियन ने मिलकर एक ऐसे समझौते को अंजाम दिया, जिसे अभी तक कोई भी मजदूर पचा नहीं पा रहा है। इस समझौते के तहत यूनियन के पदाधिकारियों को न सिर्फ संस्पेंड ही रहना था बल्कि कंपनी द्वारा उनके ऊपर इनक्वाइरी बिठाने की बात कही गयी। कंपनी ने बाकी मजदूरों को काम पर वापस लौटने को कहा। हरसोरिया के मजदूरों के शानदार आंदोलन का जो अंत हुआ, उसकी किसी न कल्पना नहीं की थी। लोग एक बेहतर समझौते की उम्मीद कर रहे थे।
यह समझौता तो दरअसल मालिकों द्वारा मजदूरों को यूनियन करने के एवज में दी गयी सजा को स्वीकारना ही हुआ, जबकि यूनियन बनाना और अन्य कानूनी अधिकारों के लिए संघर्ष करना मजदूरों का संवैधानिक अधिकार है। मालिकों और मैनेजमेंट ने इस मामले में एक गैरकानूनी काम किया है। दरअसल हरसोरिया के मजदूर अपनी लड़ाई में अकेले ही रह गये। अगर मजदूरों की इस न्यायपूर्ण लड़ाई में दूसरी यूनियनों का साथ मिला होता तो परिणाम कुछ और ही निकलता। आंदोलन के इस नतीजों ने पूरे गुड़गांव क्षेत्र के मजदूर आंदोलन की एक गंभीर कमजोरी को सामने ला दिया। यहां सक्रिय सभी केंद्रीय ट्रेड यूनियनें मजदूरों के व्यापक हितों को तरजीह देने की जगह अपने-अपने संकीर्ण सांगठनिक हितों को ज्यादा तरजीह देते हैं। फैक्ट्री स्तर के नेतृत्व की तरह ही आजकल केंद्रीय ट्रेड यूनियनें भी आमतौर पर मजदूरों की व्यापक एकता को आगे बढ़ाने की कोई कोशिश नहीं कर रहीं हैं। जब तक क्षेत्र में एक दूसरे की मदद और विरादराना भाईचारे का माहौल नहीं तैयार किया जाता, मजदूर आंदोलन उसकी कीमत चुकाता रहेगा।मैनेजमेंट के चंगुल से मुक्त होने के बाद मजदूर फैक्ट्री के पास ही एक पार्क में धरने पर बैठ गये। मैनेजमेंट ने उन्हें डराया, धमकाया, लेकिन उन्होंने अध्यक्ष का निलंबन वापस लिए बिना काम पर जाने से इंकार कर दिया। इस प्रकार 17 दिन लगातार दिन तक मजदूर अपनी जगह डटे रहे। इधर 25 अप्रैल को मैनेजमेंट ने जब फैक्ट्री से माल निकालना चाहा तो मजदूरों ने इसका विरोध किया। लेकिन मैनेजमेंट प्रशासन से मिलकर मजदूरों से निपटने की योजना बना चुका था। फक्ट्री को पुलिस ने चारों ओर से घेरकर पुलिस ने मजदूरों के ऊपर बर्बर लाठीचार्ज किया। इस पुलिसिया हमले में काफी मजदूर घायल हुए और कुछ को गंभीर चोटें आयीं। आंदोलन का कू्ररता से दमन करने के बाद डीएलसी और केंद्रीय ट्रेडयूनियन ने मिलकर एक ऐसे समझौते को अंजाम दिया, जिसे अभी तक कोई भी मजदूर पचा नहीं पा रहा है। इस समझौते के तहत यूनियन के पदाधिकारियों को न सिर्फ संस्पेंड ही रहना था बल्कि कंपनी द्वारा उनके ऊपर इनक्वाइरी बिठाने की बात कही गयी। कंपनी ने बाकी मजदूरों को काम पर वापस लौटने को कहा। हरसोरिया के मजदूरों के शानदार आंदोलन का जो अंत हुआ, उसकी किसी न कल्पना नहीं की थी। लोग एक बेहतर समझौते की उम्मीद कर रहे थे।
कानून का पालन सरकारें कराती हैं। सरकारें हमेशा मालिकों का पक्ष लेती हैं। वे मजदूरों के पक्ष के कानूनों की पालना नहीं कराती। उस के उलट वे मालिकों के अनुचित पक्षसमर्थन के लिए पुलिस का इंतजाम करती है। मौजूदा निजाम पूरी तरह से पूंजीपतियों का चाकर है। इस निजाम को बदलना होगा। इस के लिए मजदूरों की यूनियनों को राजनैतिक लड़ाई के लिए तैयार होना होगा। जब तक स्वयं मजदूर वर्ग एक राजनैतिक ताकत के रूप में नहीं खड़ा होगा यह दमन चलता ही रहेगा। मौजूदा जनतंत्र वास्तव में जनतंत्र के मुखौटे के पीछे पूंजीपतियों का अधिनायकवाद है।
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