शनिवार, 8 अक्तूबर 2011

अमेरीका में वॉल स्ट्रीट कब्जा करो आंदोलन: स्वर्ण किले पर दावेदारी


अंजनी कुमार
वैश्वीकरण के दौर में बुद्धिजीवियों के हिस्से ने अमेरिका को इम्पायर यानी महान सम्राट के नाम से संबोधित किया था। यह नाम उसकी अपराजेयता और उसका खात्मा होने पर साम्राज्य के पहले जैसे बने न रहने के में दिया गया था। इस बात में कितनी सच्चाई है यह अब भविष्य के गर्भ में है। पर यह भी सच है कि आज यूरोपीय साम्राज्यवाद अपने ही भार से जिस तरह भहरा रहा है उससे अमेरिकी साम्राज्यवाद अछूता नहीं रह गया है। ग्रीस का बजट घाटा और बाजार में देनदारी व खुद सरकार की वैश्विक बाजार में गिर चुकी साख की बीमारी पड़ोसी देशों में इस कदर फैलती जा रही है कि उसने महज दो सालों में अमेरिका की वित्तीय साख में भी बट्टा लगा दिया है। वैश्विक मुद्रा कोष की अध्यक्षा ने साफ घोषित कर दिया कि यदि इस तरह के हालात बने रहे तो मुद्रा कोष इस तबाही को संभल नहीं पाएगा। अब तक कुल 160 बिलियन डॉलर ग्रीस में झोंक देने के बाद भी संप्रभू साख यानी सरकार चलाने के लिए जरूरी आय को हासिल करने की क्षमता हासिल नहीं हो पा रही है।
चंद दिनों पहले सरकारी खर्च की कटौती के लिए 30 हजार लोगों को नौकरी से बाहर कर दिया गया। यही हालत इटली, स्पेन, फ्रांस आदि देशों की भी है। अमेरिका में त्रिस्तरीय उच्च ग्रेड के एक हिस्से के ए से बी हो जाने का असर यह हुआ है कि लाखों लाख लोग सड़क पर फेंक दिए गए। आय को बचाने के लिए सामाजिक कटौती करने की नीति पर चर्चा होने लगी। बावजूद इसके वॉल स्ट्रीट पर हालात नहीं सुधरे। बोइंग कंपनी से निकाले जाने वालों की संख्या में कमी नहीं आई। ओबामा ने एक तरफ रोजगार के अवसर बनाने का आश्वासन दिया, तो दूसरी ओर वित्तीय साख को हासिल करने के लिए हर संभव प्रयास करने का आश्वासन भी पर सूचकांक की गिरावट में कभी -कभार के चंद सुधारों के बाद भी हालात बिगड़ते ही गए। आज खुद अमेरिका में स्थितियां इतनी जटिल होती गई हैं और कारपोरेट व वित्तीय संस्थानों की पकड़ इतनी मजबूत हो चुकी है कि वहां कींस के सिद्धांत पर अमल की बात करना भी एक क्रांतिकारी काम हो गया है। अमेरिका में इस इंपायर के स्वर्ण किला वॉल स्ट्रीट पर कब्जा करने का अभियान चल रहा है। वॉल स्ट्रीट पर कब्जा यानी वित्तीय संस्थानों की घेराबंदी। वॉल स्ट्रीट के सूचकांकों के ऊपर या नीचे होने से सिर्फ कंपनियों में शेयर खरीदने वालों की ही तबाही नहीं होती, इससे सीधा बाजार भाव व आय और रोजगार जुड़ा होता है। यहां प्रति मिनट अरबों डालर हवा की तरह भले उड़कर जाता या आता हुआ न दिखे, पर रोजमर्रा की जिंदगी में यह बेहद ठोस रूप में आता-जाता है।
सितंबर 2011 के मध्य में अमेरिका में नौकरी खोजने वाले युवा, नौकरी खो देने वाले कर्मचारी, श्रम करने वाले विभिन्न विभागों के लोग, मध्यम आय वर्ग के बुजुर्ग आदि एक लंबे सुगबुगाहट सोशल नेटवर्क पर एक दूसरे के साथ संपर्क बनाने के बाद विभिन्न जुटानों, चैराहों पर बहस-मुबाहिसों के बाद 17 सितंबर को न्यूयार्क की सड़कों पर मार्च किया। 18 सितंबर को न्यूयार्क के एक चैराहे- 12 स्ट्रीट, जिसे अब ‘लिबर्टी चैराहा’ कहा जा रहा है, पर आम सभा- जनरल एसेंबली बुलाई गई। न्यूयार्क पुलिस ने वहां किसी भी तरह का टेंट आदि लगाने पर रोक लगा दी। बावजूद इसके मेडिकल, भोजन उपलब्ध कराने वाले गु्रप व मीडिया खुलकर सहयोग में आ गए। यहां विभिन्न समूहों के बीच चली घंटों बहस के बाद नारा तय किया : आॅक्यूपाई वॉल स्ट्रीट यानी वॉल स्ट्रीट पर कब्जा करो। 18 सितंबर की सुबह वॉल स्ट्रीट की ओर हजारों लोगों ने मार्च किया गया। इसके बाद अमेरिका के विभिन्न शहरों में इस तरह के जुटान व वित्तीय और पुलिस सस्थानों के खिलाफ प्रदर्शन का सिलसिला शुरू हो गया। वाशिंगटन, लॉस ऐजेंल्स, शिकागो, बोस्टन मियामी, पोर्टलैंड, ओरेगों, सीएटल, देनेवर आदि शहरों में हजारों की संख्या में लोग इकठ्ठा होकर वॉल स्ट्रीट कब्जा करो के अभियान में लग गए। विभिन्न टेड यूनियनों ने इसमें भागीदारी का खुलकर समर्थन किया है। अमेरिका की सबसे बड़ी यूनियन एएफएल-सीआईओ ने ब्रुकलिन पुल पर कब्जा करने की रणनीति का समर्थन देते हुए इसके अध्यक्ष ने कहा कि वॉल स्ट्रीट हमारे नियंत्रण से बाहर हो गया है। इस पर कब्जा करने की नीति से हमारी ओर इनका ध्यान खींचना आसान होगा। सैनफ्रांसिस्को लेबर काउंसिल ने इस प्रदर्शन को समर्थन देते हुए नारा दिया: संपत्ति की असमानता को खत्म करो, बेघरों को घर दो, गरीबी खत्म करो,भ्रष्टाचार खत्म करो। आॅक्यूपाई वॉल स्ट्रीट मूवमेंट ने 13 मांग को सामने रखा है: जीने के लिए वेतन, बीमार होने पर दवा करा सकने की मेडिकल सुरक्षा, बेरोजगारी भत्ता, मुफ्त शिक्षा, तेल की तबाह करने वाली अर्थव्यवस्था को खत्म करने के लिए उर्जा के अन्य साधनों का अनिवार्य प्रयोग, अधिसंरचना विकास के लिए एक ट्रिलियन डालर का निवेश, नस्ल व लैंगिक बराबरी को लागू करना, प्रवास पर रोक का खात्मा, चुनाव को पारदर्शी बनाना, सभी तरह के कर्ज का खात्मा, देनदारी सूचकांक एजेंसी का खात्मा, यूनियन बनाने व मजदूरों को अपना यूनियन चुनने का अधिकार। 12 लाख की सक्रिय सदस्यता वाली यूनियन अमेरिकी स्टील वर्कर्स ने इस आंदोलन में हिस्सेदारी करने का निर्णय लिया है। न्यूयार्क की 40 हजार सदस्यता वाली ट्रांसपोर्ट वर्करस यूनियन, जिसमें रिटायर लोग भी शामिल हैं, ने इसमें भागीदारी व जरूरत पड़ने पर हड़ताल पर जाने का निर्णय लिया है। आज अमेरीका में एक करोड़ लोग सामान्य जीवन जीने की सुविधाओं से बंचित हो चुके है। यहां 20 प्रतिशत युवा बेरोजगार है। प्रतिवर्ष लाखों लोग नौकरी से बाहर किए जा रहे हैं। दूसरी ओर उतनी ही तेजी से धनाढ्यता के टापू खड़े हो रहे हैं। इस आंदोलन को नोअमी क्लेन, नोम चोम्सकी, माइकेल मूर, एनी रैंड, जोसेफ स्टील्ज, जार्ज सोरोस आदि ने खुल समर्थन दिया है व इसमें भागीदारी की है। इसमें विभिन्न वैचारिक धाराओं- अराजकतावादी, लिबरल, समाजिक जनवादी जैसे लोग शामिल हो रहे हैं। इस प्रदर्शन के प्रति पुलिस का रवैया काफी कड़ा है। अब तक हजारों लोगों को गिरफ्तार किया जा चुका है। सैकड़ों लोग पुलिस के बल प्रयोग से बुरी तरह घायल हुए हैं। इस अभियान में शामिल प्रदर्शनकारी महिलाओं के खिलाफ पुलिस अत्यंत हिंसक और यौन उत्पीड़क व्यवहार कर रही है। यह अमेरिका में अपने ही लोगों के खिलाफ के खिलाफ किया जा रहा व्यवहार एक भिन्न तरह का नमूना है, जो बताता है कि वहां की राजसत्ता किस तरह अपना नकाब उतार कर फेंक चुकी है। अमेरिका में चल रहा आंदोलन यूरोप में चल रहे मजदूर आंदोलन का विस्तारित रूप है। यह उपर से देखने पर अरब में उभरकर आए जनांदोलन जैसा दिख सकता है। यह रूप की समानता भले ही हो, पर अंतर्वस्तु में एकदम भिन्न है। यह आंदोलन एक भिन्न देश व सन्दर्भ में उभरकर आया है। जिसकी काफी हद तक समानता यूरोप में उठ रहे असंतोष, मजदूर व आम लोगों के द्वारा किए जा रहे हड़ताल प्रदर्शन के साथ है। दरअसल यह पूंजी के साम्राज्य का उतरता हुआ आवरण है, जो बुरी तरह झीना हो चुका है। बमुश्किल चार साल पहले- 2008 में मंदी की मार से एशियाई व यूरोपीय देश बुरी तरह तबाह थे। उस समय यह दावा किया गया कि मंदी खत्म हो चुका है और पूंजीवादी अर्थव्यवस्था एक बार फिर पटरी पर है। पर न तो उस समय मंदी की मार खत्म हुई और न ही उससे निपटने के शगूफे सफल हो पाए। जापान का विकास दर .05 प्रतिशत के आसपास बना। यूरोपीय देशों में जर्मनी, स्वीडेन जैसे कुछ देषों को छोड़कर वहां के हालात बद से बदतर बने रहे। अमेरीका में 1947 से 2011 की षुरूआत तक औसत विकास दर 3.80 प्रतिशत रहा है वह 2011 के मध्य में आकर 1.30 प्रतिशत रह गया है। आमतौर पर मैन्यूफैक्चरिंग यूनिटों में विकास दर गिरने का अर्थ बड़े पैमाने पर मजदूरों की छंटनी होना होता है। जब यह आम बिमारी की तरह फैलने लगता है तब इसका सीधा असर बैंकिंग या वित्तिय पूंजी पर होता है। पूंजीवादी व्यवस्था पर खड़ी सरकार के आय व व्यय पर पड़ने वाले इसके असर से इसके न केवल विभिन्न संस्थान संकट में जाते हैं बल्कि यदि संकट गंभीर हो तो खुद सरकार के होने का ही संकट खड़ा हो जाता है। मध्यम आयवर्ग के लोगों की आय में या तो सीधी कटौती की जाती है या उनकी खरीद क्षमता को ही गिराकर उनसे अधिक वसूल किया जाने लगता है। मध्यम व उच्च आय के लोग अपनी जरूरत पूरा करने के लिए कर्ज के सहारा भी लेते हैं जिसे आय न होने के चलते भर पर पाना मुश्किल होता है। वित्तिय बाजार में यह संकट बचत से अधिक खर्च के रूप में प्रकट होता है। वैश्वीकरण के दौर में पूंजीवादी साम्राज्यवाद ने जिस वृहद एकाकार होते वैश्विक पूंजी के राज का चित्र खींचा था वह एक एक देश में अपने विषिष्ट संकटों के साथ दूसरे देशों के आम संकट से मिलकर एक वृहद संकट का चित्र खड़ा कर रहा है। वैष्वीकरण के दौर में जिस वित्तिय पूंजी के सहारे गैर उत्पादक कार्य के माध्यम से अर्थव्यस्था को फूंककर फुलाया गया वह आज अपनी वास्तविक जमीन को खोजते हुए नीचे आ रहा है। आज भारत व चीन में जो विकास दर दिख रहा है उसके पीछे भागकर आ रही वित्तिय पूंजी का निवेश ही जो अमेरीकी संकट के दौरान कमाई का जरिया खोजने में लगी हैं। वैष्विक मुद्रा की दावेदारी करने वाले डालर को राजनीतिक जोरजबरदस्ती के बदौलत उसकी साख को अमेरीका बचाने में लगा है। वास्तविक उत्पादन विनिमय में मुद्रा की यह भूमिका पहले से कहीं अधिक जटिल व आक्रामक होकर उभरा है। वैष्वीकरण जिस पूंजीवादी साम्राज्यवाद को बचाने के लिए युद्ध व वित की व्यवस्था के साथ उभरा आज वह तबाही का मंजर खड़ा करते हुए अंतत: खुद अपने ही देश में बन रहे दलदल में फंस गया है। वॉल स्ट्रीट पर कब्जा आंदोलन यह बता रहा है कि मंदी 2008 के बाद भी खत्म नहीं हुआ बल्कि वह बढ़ता गया है। आज इस मंदी की बाढ़ से लोगों का दम घुट रहा है। यह मिडिया ही है जो संकट की तस्वीर देने के बजाय यह दिखाने की कोशिश कर रहा है कि मंदी तो बस ग्रीस तक है और वह भी उबर ही जाएगा जबकि अमेरीकी अर्थव्यवस्था अपने ही पैरों पर गिरने को हो रही है। यहां यह जरूर याद कर लेना ठीक होगा कि मंदी से धनिकों की संपत्ति में इजाफा होना नहीं रूकता और न ही उनके सीइओ की तनख्वाहों में कमी आती है। हां, धनिकों का एक हिस्सा तबाह हो जाता है और संचित नीधि का बंटवारा चंद पूंजीपति अपनी ताकत के अनुसार कर लेते हैं। पूंजीवाद जब तक है वह अपने राजनीति व अर्थनीति में धनी होने का सिद्धांत है। इसकी सबसे बड़ी मार आम जन व श्रमिक समुदाय पर पड़ता है। आज अमेरीका के आम लोग व श्रमिक समुदाय जिस वॉल स्ट्रीट कब्जा आंदोलन के साथ आगे आये हैं वह अमेरीकी पूंजीवादी साम्राज्यवाद के खिलाफ संघर्ष की शुरूआत है। यह आंदोलन धनिकों पर नियंत्रण रखने, सरकार की नीतियो में फेर बदल कर जन के पक्ष में ले आने, बेरोजगार व नौकरी खो रहे लोगों को सामाजिक सुरक्षा देने व मजदूरों को उनके यूनियन बनाने के अधिकार के साथ सामने आया है। यदि हम इसे अमेरीका के श्रमिक आंदोलन के इतिहास के सामने रखकर देखें तो यह बेहद कमजोर दिखेगा। पर यदि हम इसे आज के सन्दर्भ में रखें तो निश्चय ही इसके विभिन्न मायने निकलेगें।
(अंजनी कुमार, स्वतंत्र पत्रकार हैं)

1 टिप्पणी:

  1. बहुत बढिया विश्लेषण है. धन्यवाद. इसके साथ बाल कहानी पढ़ें.........
    सियार का अनशन-भाग 1

    http://merirachanayen.blogspot.com/

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