मंगलवार, 4 अक्तूबर 2011

अंधेरे में गुम हो जाते ये किसके बच्चे


शांतनु
हमारे देश की कुल आबादी का अस्सी फीसद अर्थात 96 करोड़ लोग मेहनतकश पेशा लोग हैं। इसका एक बड़ा हिस्सा तो हमेशा ही गरीब और अभाव से जूझता रहता है। 1991 में नई आर्थिक नीति के लागू होने के बाद से इस आबादी का बहुत तेजी से कंगालीकरण हुआ है। इनकी रोजी-रोटी छिनने का सबसे ज्यादा असर उनके बच्चों पर पड़ा है। आज मामूली सुविधाओं के अभाव में बीस लाख बच्चे हर साल मौत के मुंह में समा जाते हैं। लेकिन बात बस इतनी सी नहीं है? देश के मेहनतकशों के बच्चों के खिलाफ शासक वर्गों की साजिश इससे भी ज्यादा खतरनाक है।
भारत के संविधान देश के हर नागरिक को बराबरी का दर्जा देने की बात करता है, लेकिन एक कोरी बकवास से ज्यादा कुछ नहीं है। देश की मेहनकश व गरीब जनता के बच्चे जन्म से ही भेदभाव और उपेक्षा के शिकार होते हैं। भारत के राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वे ने वर्ष 2005-06 के बीच देश के 70 फीसदी अर्थात 10 में से 7 बच्चों को कुपोषित पाया। इस सर्वे के अनुसार छह माह से ज्यादा और 5 साल से कम उम्र के 8 करोड़ 60 लाख बच्चे कुपोषण के शिकार हैं। इनमें से ढाई करोड़ बच्चों की स्थिति स्वास्थ्य के सबसे खराब मानकों को भी पीछे छोड़ देती है। इन बच्चों के लिए तय है कि या तो वे जल्दी ही मर जायेंगे या फिर जिंदगी भर घुट-घुटकर मरेंगे। शेष 6 करोड़ 10 लाख कुपोषित बच्चों की हालत ठीक हो सकती है, बशर्तें उन्हें ठीक से भोजन पानी मिले। दुनिया का दानदाता बनने का दंभ भरने वाला संयुक्त राष्ट्र संघ भी यह जानता है कि इन कुपोषित बच्चों के जिन्दा रहने की संभावना कम ही है। ऐसे बच्चों को गम्भीर संक्रामक रोग लग जाने की सम्भावना हमेशा बनी रहती है। इसलिए डायरिया, निमोनिया और मीजल्स जैसी सामान्य बीमारियों में ही इनकी मौत हो जाती है। गरीब बच्चों की असामयिक मौत का सबसे बड़ा कारण कुपोषण ही है। जो बच्चे कुपोषण के बाद भी जीवित रह जाते हैं वे उनका जीवन एक जिंदा लाश से ज्यादा और कुछ नहीं होता। हो सकते हैं कि इनमें से कुछ स्कूल भी जाएं, लेकिन वहां भी उन्हें अपमान ही झेलना होता है, क्योंकि उनका मानसिक विकास कम होने के कारण वे पढ़ाई में कुछ बेहतर नहीं कर पाते। शरीर और दिमाग की कोशिकाओं के स्वस्थ विकास के लिए प्रोटीन की सबसे ज्यादा जरूरत होती है। प्रोटीन का सामान्य स्रोत- दूध, दालें, अंडे व मांस-मछली हैं। आमतौर पर इन बच्चों को यह नसीब ही नहीं होता है।
जब हमारा मुल्क अंग्रेजों से आजाद हुआ था, अनाज और अन्य जरूरी चीजें बहुत कम पैदा होती थीं। लेकिन आज अनाज समेत व्यक्ति के उपभोग की सभी जरूरी चीजों का उत्पादन सैकड़ों गुना बढ़ गया है। हां कुछ लोग जनसंख्या के बढ़ने की बात भी करते हैं, इसलिए बताते चलें कि जिस अनुपात में उत्पादन बढ़ा है, उस अनुपात में जनसंख्या नहीं बढ़ी है। आज इस उत्पादन को और ज्यादा बढ़ाने की तकनीक और साधन भी देश के अन्दर मौजूद है। इसके बावजूद यह देश अगर अपने बच्चों को भरपेट भोजन नहीं दे सकता और उन्हें भूखो मारता है, तो क्या यह इस देश के लिए शर्म की बात नहीं है? इतनी बड़ी संख्या में कुपोषित बच्चों की फौज के साथ कोई मूर्ख देश ही विश्व महाशक्ति बनने के सपने देखेगा। विश्व बैंक के कर्मठ कार्यकर्ता रह चुके वर्तमान प्रधानमंत्री खुद बच्चों की कुपोषण की समस्या को ‘राष्ट्रीय शर्म’ का दर्जा दे चुके हैं। लेकिन यह सिर्फ एक दिखावा से ज्यादा और कुछ नहीं है। इन बच्चों की हडिडयों को अपने दानदाताओं को दिखाकर सरकार में बैठे लोग और एनजीओ अपनी जेबें गर्म करते हैं।
ये नरकंकाल भी उनकी कमाई का एक जरिया हैं। इन कफनखसोटों से इससे ज्यादा उम्मीद भी क्या की जा सकती है। सरकार की मिड-डे-मील और आंगनबाड़ी योजनाएं भी ऐसे ही कुछ कदम भर हैं। बच्चों में कुपोषण की घटना को मेहनतकश तबके की दुर्दशा से काटकर देखना असली समस्या से नजरें चुराना है। एक बच्चा बीमार और कमजोर इसलिए पैदा होता है, क्योंकि उसकी मां को गर्भ के दौरान उचित भोजन नहीं मिलता। ऐसे में बच्चे की समस्या को उसकी माँ से अलग करके कैसे समझा जा सकता है? एक ऐसे बच्चे का परिवार किसी तरह नमक और रोटी का जुगाड़ कर पाता है, ऐसी स्थिति में परिवार को छोड़कर सिर्फ बच्चे की स्कूली पढ़ाई को पूरा कैसे कराया जा सकता है? दिखावा समाधान कैसे बन सकता है? लेकिन इसका मतलब यह नहीं कि इस समस्या का समाधान नहीं हो सकता है। इसका समाधान भी हमारे देश के अन्दर ही मौजूद है। इसके लिए हमें किसी के सामने हाथ फैलाने की जरूरत नहीं है।
दरअसल मेहनतकश आबादी की बदहाली, गांवों से उनका पलायन और कुपोषण की समस्याओं को हर हाथ को रोजगार और उचित मेहनताना देकर खत्म किया जा सकता है। लेकिन सरकार इसके लिए गंभीर ही नहीं है। कारण, समाज के रसूखदार लोग जो पूंजी और संपत्ति पर कुंडली मारकर बैठे हुए हैं, इससे उनके हितों पर चोट पहुंचेगी। वे मेहनतकश जनता का शोषण करके ही अपनी तिजोरियां भरते हैं।
इसलिए वे जनता की खुशहाली कभी नहीं चाहेंगे। वे यही चाहते हैं कि कुपोषित बच्चे कम से कम गुजारे पर उनके लिए पीढ़ी दर पीढ़ी मजदूरी करते रहें। यही वजह है कि आज सरकारी नीतियां हमारे करोड़ों बच्चों के वर्तमान और भविष्य का दम घोंट रही हैं। आज इन बच्चों के परिवारों में रोजी-रोटी के लिए हाहाकार मचा है और हमारे देश का शासक वर्ग अमीर तबके की आमदनी अपने सारे रिकार्ड तोड़कर आसमान छू रही है। ऐसा लगता है कि भूखां-नंगांे के इस देश में उन्होंने अपने लिए एक अलग देश बना रखा है। जिस देश में करोड़ों बच्चे कुपोषण के शिकार हों, वहां के जन प्रतिनिधियों को संसद में दिखावे और झूठी बहसों के नाम पर हर रोज करोड़ों रुपये फूंकने का क्या अधिकार है? आखिर यह पैसा किसका है जिसे वे इस तरह उड़ा रहे हैं? और आखिर वे किसके प्रतिनिधि हैं? लेकिन यह बात इतनी आसान नहीं है। अगर वे इतनी आसानी से जनता को मौत के मुंह में ढकेल पा रहे हैं, उसकी मेहनत के पैसे पर डाका डाल रहे हैं, करोड़ों बच्चों को कुपोषित बना रहे हैं तो जाहिर है यह यूं ही नहीं हो रहा है। वे इस बात को बखूबी जानते हैं कि जनता के खिलाफ उनके हित एक हैं, इसलिए वे बहुत ज्यादा संगठित हैं। जनता के किसी बड़े असंतोष को बेरहमी से कुचलने के लिए यह तत्काल एकजुट हो जाता है।
एक कहावत है कि बहुत पहले पहले जब रोम देश में रोजी रोटी के लिए हाहाकार मचा हुआ था, वहां चारांे तरफ आग लगी हुई थी, तो वहां का सम्राट नीरो आराम से बैठा बांसुरी बजा रहा था। हमारे देश में जब अंग्रेजों का राज था और जनता भूखों मर रही थी, पूरा देश नरक बना हुआ था, तब अंग्रेजों के क्लबों में हमारे देशी राजे-रजवाडे और सामंत भी उनके दलालों के रुप में उसका भरपूर लुत्फ उठाया करते थे। आज अंग्रेज तो नहीं हैं, लेकिन सब कुछ जस का तस आज भी जारी है। सवाल यह उठता है कि यह सब कब तक ऐसे ही चलता रहेगा?
(शांतनु , मेहनतकश पत्रिका के संपादक हैं. उनका यह लेख मेहनतकश पत्रिका के अंक-४ में प्रकाशित हो चुका है. पत्रिका के बारे में जानने या मांगने के लिए mehnatkash2010@gmail.com पर संपर्क किया जा सकता है.)

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