राजकुमार
तमिलनाडु के तिरुपुर शहर का नाम देश के कोने-कोने में जाना जाता है। गंजी-बनियान इस्तेमाल करने वाला हर व्यक्ति कभी न कभी तिरुपुर में तैयार इस वस्त्र का जरुर इस्तेमाल किया होगा। लेकिन यह अब एक पुरानी बात हो गयी है। तिरुपुर अब विदेशों को सिले-सिलाए वस्त्र निर्यात करने वाला भारत का सबसे बड़ा केन्द्र बन गया है। इसलिए आजकल इसे डालर शहर कहा जाता है। लेकिन पिछले साल भर से पूरे तिरुपुर जिले में गार्मेंट मजदूरों की आत्महत्या की घटनाओं में भारी बढ़ोत्त्री हुई है। बीस स्त्री पुरुष हर रोज! इन घटनाओं के चलते डालर शहर की चकाचौंध का दूसरा पक्ष भी उजागर हुआ है, जो कि बहुत ही ज्यादा बदसूरत और बर्बर है।
तिरुपुर और उसके आस-पास गार्मेंट उद्योग से जुड़ी कुल 6250 फैक्ट्रियां मौजूद हैं। इनमें करीब चार लाख मजदूर काम करते हैं। इनमें से ज्यादातर बाहर से आये हुए मजदूर हैं। इन प्रवासी मजदूरों में तमिलनाडु के विभिन्न जिलों तथा उड़ीसा, विहार, झारखण्ड व राजस्थान के मजदूरों की संख्या ज्यादा है। अधिकांश मजदूर अभी 30 साल से कम उम्र के युवा हैं। मजदूरों में पुरुषों की तुलना में महिलाओं की संख्या ज्यादा है।
सिले-सिलाए या बुने हुए वस्त्रों की विदेशों में निर्यात कर डालर कमाने में तिरुपुर ने कमाल कर दिखाया है। सन् 1985 में यहां से मात्र 15 करोड़ मूल्य के कपड़े निर्यात हुआ था। जबकि पिछले साल यह 11,500 करोड़ रुपये पर पहुंच गया। तिरुपुर की फैक्ट्रियां जिन कम्पनियों या ब्राण्डों के लिए कपड़े बनाती हैं उनमें वालमार्ट, एच एण्ड एम, स्विचर, केयर फोर, गैप, टामी हिल फिगर आदि हैं। ये कम्पनियां या ब्राण्ड दुनियां भर में मशहूर हैं। यूरोप और अमेरिका में इनकी सैकड़ों आलीशान दुकाने हैं जो अरबों डालर का व्यापार करती हैं। इन विदेशी कम्पनियों, तिरुपुर के निर्यातकों और व्यापारियों की अरबों डालर की कमाई जिन लाखों मजदूरों की बेहिसाब मेहनत के बल पर सम्भव होती है, उन मजदूरों का हाल दुनियां की नजरों से तब तक ओझल रहता है, जब तक कि कोई बड़ा हादसा नहीं हो जाता। लेकिन क्या गार्मेंट मजदूरों की आत्महत्या की घटनाओं के चर्चा में आ जाने से यहां काम करने वाले मजदूरों को कोई राहत मिलने की उम्मीद की जा सकती है? ऐसा नहीं लगता। गार्मेंट उद्योग का पूरा ढांचा ही मजदूर विरोधी है। इस ढांचे में सबसे ऊपर वे विशालकाय विदेशी कम्पनियां होती हैं जिनके आर्डर पर रेडीमेड गार्मेंट बनाए जाते हैं। ये कम्पनियां सबसे ज्यादा मुनाफा कमाती हैं और ढांचे के हर स्तर पर कीमतों का नियंत्रण करती हैं। देश के निर्यातकों, छोटी-छोटी इकाइयों, और ठेकेदारों का स्थान इनके बाद आता है। गार्मेंट उद्योग में मजदूरों का स्थान सबसे आखिर में होता है, जिनके ऊपर यह समूचा ढांचा टिका होता है। चूंकि कीमतें विदेशी कम्पनियों के पूरी तरह कब्जे में होती हैं और ये कम्पनियां ज्यादा से ज्यादा मुनाफा बटोरने की होड़ में लगी रहती हैं। इसलिए, इस ढांचे में शामिल हर हिस्सा जबरदस्त प्रतियोगिता में शामिल रहता है। इन प्रतियोगिताओं का कुुल असर मजदूरों को कम से कम पैसे पर ज्यादा से ज्यादा काम कराने के रुप में होता है।तिरुपुर में भी निर्यातकों और फैक्ट्री मालिकों ने मजदूरों पर खर्च कम करने के लिए तरह-तरह के हथकण्डों को अपनाया। पिछड़े इलाकों से मजदूरों को लाकर 'हास्टल योजनाÓ के तहत फैक्ट्री परिसर में ही एक-एक कमरे में ठूंस-ठूंस कर रखा जाने लगा। इन्हें अन्य मजदूरों से कम मजदूरी दी जाती है। लड़कियों के लिए भी 'सुमंगली योजनाÓ चालू की गयी। इसके तहत लड़कियों को कमरे में एक साथ रहने व भोजन की व्यवस्था की गयी। इन्हें तीन साल के काम के बाद बीस हजार से पचास हजार रुपये एकमुस्त देने का वादा किया गया। ऐसी योजनाओं के तहत रखे गये स्त्री और पुरुषों के कामों के लिए कोई समय सीमा निर्धारित नहीं होती है। इन्हें हर रोज न्यूनतम 12घंटे तक करना होता है। जरुरत पडऩे पर आधी रात में जगाकर भी इनसे काम लिया जाता है। इतनी ज्यादा मेहनत एक नौजवान शरीर ही बर्दाश्त कर सकता है। इसलिए कोई लम्बे समय तक इसमें टिकने का सपना नहीं पालता।गार्मेंट उद्योग में ढेरों काम इस तरह के हैं जिनके लिए किसी विशेष ट्रेनिंग की जरुरत नहीं होती है। इसलिए गांवों और कस्बों की बेरोजगार युवक-युवतियां बड़े पैमाने पर इस उद्योग की ओर आकर्षित होते हैं। कम्पनियां भी दूर-दराज के गांवों तक जाकर फिल्मों के जरिए इस उद्योग की हसीन तस्वीर दिखाकर नौजवानों की भर्ती करती हैं। लेकिन गार्मेंट उद्योग में कुछ दिन काम करने के बाद ही उनके सपने टूटने लगते हैं। काम की कठोर परिस्थितियां, रोजगार की अनिश्चितता, और बिना किसी मनोरंजन के लगातार काम करते जाना, अभाव-गरीबी और अनिश्चित भविष्य मजदूरों में रोज-रोज हताशा और निराशा पैदा कर रहा है। परिवार के साथ रहने वाले मजदूरों के लिए मंहगाई का बोझ, बच्चों की चिन्ता तथा कर्ज का दबाव अलग से है। यही वे परिस्थितियां हैं जो तिरुपुर के डालर शहर में मजदूरों की आत्महत्या की जमीन को तैयार कर रही है।
तिरुपुर और उसके आस-पास गार्मेंट उद्योग से जुड़ी कुल 6250 फैक्ट्रियां मौजूद हैं। इनमें करीब चार लाख मजदूर काम करते हैं। इनमें से ज्यादातर बाहर से आये हुए मजदूर हैं। इन प्रवासी मजदूरों में तमिलनाडु के विभिन्न जिलों तथा उड़ीसा, विहार, झारखण्ड व राजस्थान के मजदूरों की संख्या ज्यादा है। अधिकांश मजदूर अभी 30 साल से कम उम्र के युवा हैं। मजदूरों में पुरुषों की तुलना में महिलाओं की संख्या ज्यादा है।
सिले-सिलाए या बुने हुए वस्त्रों की विदेशों में निर्यात कर डालर कमाने में तिरुपुर ने कमाल कर दिखाया है। सन् 1985 में यहां से मात्र 15 करोड़ मूल्य के कपड़े निर्यात हुआ था। जबकि पिछले साल यह 11,500 करोड़ रुपये पर पहुंच गया। तिरुपुर की फैक्ट्रियां जिन कम्पनियों या ब्राण्डों के लिए कपड़े बनाती हैं उनमें वालमार्ट, एच एण्ड एम, स्विचर, केयर फोर, गैप, टामी हिल फिगर आदि हैं। ये कम्पनियां या ब्राण्ड दुनियां भर में मशहूर हैं। यूरोप और अमेरिका में इनकी सैकड़ों आलीशान दुकाने हैं जो अरबों डालर का व्यापार करती हैं। इन विदेशी कम्पनियों, तिरुपुर के निर्यातकों और व्यापारियों की अरबों डालर की कमाई जिन लाखों मजदूरों की बेहिसाब मेहनत के बल पर सम्भव होती है, उन मजदूरों का हाल दुनियां की नजरों से तब तक ओझल रहता है, जब तक कि कोई बड़ा हादसा नहीं हो जाता। लेकिन क्या गार्मेंट मजदूरों की आत्महत्या की घटनाओं के चर्चा में आ जाने से यहां काम करने वाले मजदूरों को कोई राहत मिलने की उम्मीद की जा सकती है? ऐसा नहीं लगता। गार्मेंट उद्योग का पूरा ढांचा ही मजदूर विरोधी है। इस ढांचे में सबसे ऊपर वे विशालकाय विदेशी कम्पनियां होती हैं जिनके आर्डर पर रेडीमेड गार्मेंट बनाए जाते हैं। ये कम्पनियां सबसे ज्यादा मुनाफा कमाती हैं और ढांचे के हर स्तर पर कीमतों का नियंत्रण करती हैं। देश के निर्यातकों, छोटी-छोटी इकाइयों, और ठेकेदारों का स्थान इनके बाद आता है। गार्मेंट उद्योग में मजदूरों का स्थान सबसे आखिर में होता है, जिनके ऊपर यह समूचा ढांचा टिका होता है। चूंकि कीमतें विदेशी कम्पनियों के पूरी तरह कब्जे में होती हैं और ये कम्पनियां ज्यादा से ज्यादा मुनाफा बटोरने की होड़ में लगी रहती हैं। इसलिए, इस ढांचे में शामिल हर हिस्सा जबरदस्त प्रतियोगिता में शामिल रहता है। इन प्रतियोगिताओं का कुुल असर मजदूरों को कम से कम पैसे पर ज्यादा से ज्यादा काम कराने के रुप में होता है।तिरुपुर में भी निर्यातकों और फैक्ट्री मालिकों ने मजदूरों पर खर्च कम करने के लिए तरह-तरह के हथकण्डों को अपनाया। पिछड़े इलाकों से मजदूरों को लाकर 'हास्टल योजनाÓ के तहत फैक्ट्री परिसर में ही एक-एक कमरे में ठूंस-ठूंस कर रखा जाने लगा। इन्हें अन्य मजदूरों से कम मजदूरी दी जाती है। लड़कियों के लिए भी 'सुमंगली योजनाÓ चालू की गयी। इसके तहत लड़कियों को कमरे में एक साथ रहने व भोजन की व्यवस्था की गयी। इन्हें तीन साल के काम के बाद बीस हजार से पचास हजार रुपये एकमुस्त देने का वादा किया गया। ऐसी योजनाओं के तहत रखे गये स्त्री और पुरुषों के कामों के लिए कोई समय सीमा निर्धारित नहीं होती है। इन्हें हर रोज न्यूनतम 12घंटे तक करना होता है। जरुरत पडऩे पर आधी रात में जगाकर भी इनसे काम लिया जाता है। इतनी ज्यादा मेहनत एक नौजवान शरीर ही बर्दाश्त कर सकता है। इसलिए कोई लम्बे समय तक इसमें टिकने का सपना नहीं पालता।गार्मेंट उद्योग में ढेरों काम इस तरह के हैं जिनके लिए किसी विशेष ट्रेनिंग की जरुरत नहीं होती है। इसलिए गांवों और कस्बों की बेरोजगार युवक-युवतियां बड़े पैमाने पर इस उद्योग की ओर आकर्षित होते हैं। कम्पनियां भी दूर-दराज के गांवों तक जाकर फिल्मों के जरिए इस उद्योग की हसीन तस्वीर दिखाकर नौजवानों की भर्ती करती हैं। लेकिन गार्मेंट उद्योग में कुछ दिन काम करने के बाद ही उनके सपने टूटने लगते हैं। काम की कठोर परिस्थितियां, रोजगार की अनिश्चितता, और बिना किसी मनोरंजन के लगातार काम करते जाना, अभाव-गरीबी और अनिश्चित भविष्य मजदूरों में रोज-रोज हताशा और निराशा पैदा कर रहा है। परिवार के साथ रहने वाले मजदूरों के लिए मंहगाई का बोझ, बच्चों की चिन्ता तथा कर्ज का दबाव अलग से है। यही वे परिस्थितियां हैं जो तिरुपुर के डालर शहर में मजदूरों की आत्महत्या की जमीन को तैयार कर रही है।
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