शुक्रवार, 26 अगस्त 2011

अरुंधति तुमने चिदंबरम को ऑक्सीजन क्यों दिया?


विश्वदीपक
करीब एक दशक पहले इलाहाबाद के आनंद भवन (जहां हिंदुस्तान के कॉरपोरेट नीति के पैगंबर जवाहर लाल नेहरू पैदा हुए थे जिसका एक छोर अन्ना तक जाता है और दूसरा तुम तक) के सामने फुटपाथ पर लगने वाली किताबों की दुकान पर तुम्हे देखा था… नीली बरसाती के ऊपर धूल से सनी हुई. मटमैली सी. अनेक मोटी-पतली, नई-ताजी, सड़ी-गली किताबों के बीच तुम्हारे चेहरे पर इलाहाबाद युनिवर्सिटी के ग्योथिक स्टाइल में बने बुर्ज की छाया पड़ रही थी. लापरवाही से (बाद में पता चला कि सावधानी पूर्वक) चेहरे की आखिरी सीमा को छूती तुम्हारी लटों में हमने गुस्सा महसूस किया था. लेकिन हमारा मन तुम्हारे दाएं नाक के समानांतर उभरे तिल और पार्ददर्शी आंखों पर अटक गया. तब हम तुम्हारा नाम भी नहीं जानते थे. फ्लैप पलटकर देखा तो पता चला कि तुम ‘गॉड ऑफ स्मॉल थिंग्स’ की लेखिका अरूंधति हो.तब से लेकर आज तक किसी आयत की तरह तुम हमारी जिंदगी में घुली मिली हो.तुमने लिखा है कि ऐसा कोई दिन नहीं जब तुमने ‘नोम चोम्स्की जिंदाबाद’ (the loneliness of Nom Chomski) न बोला हो. और आज हम तुम्हें ये बता रहे हैं कि हमारी जिंदगी का शायद ही ऐसा कोई पल रहा होगा जब हमने ‘अरुंधति जिंदाबाद’ न गुनगुनाया होगा. बाद में जब हमने तुम्हें दिल्ली में ‘नर्मदा बचाओ आंदोलन’ के दौरान देखा तो समझ आया कि ‘अंधेरे में’ जीने वाले हिंदी के कवि मुक्तिबोध ने ‘संवेदनात्क ज्ञान’ किसे कहा था. तुमने शायद मुक्तिबोध का नाम भी नहीं सुना होगा. लेकिन ये तय है कि ‘एक साहित्यिक की डायरी’ में उन्होंने ये बातें तुम्हारे जैसी किसी अरुंधति को देखकर ही लिखा होगा! अरुंधति, तुम्हारे तर्क हमें सम्मोहन की हद तक ले जाते हैं. अकाट्य. पुख्ता. बेजोड़. दुनिया के अनजान रहस्यों से पर्दा उठाने वाली तुम्हारी नर्म कोमल आवाज, लापरवाह दिखने वाली मासूम मर्मभेदी आंखों की चमक ने हमें ‘सबसे बड़े लोकतंत्र’ (ऐसा अमेरिकी साम्राज्यवाद का मानना है) पर शक करना सिखा दिया, हमें सोचने के लिए मजबूर किया. कॉरपोरेट लूट के प्रति आगाह किया. पर आज… इस देश को वास्तविक गृहयुद्ध में झोंकने वाला (जबकि तुमने आंदोलन पर गृहयुद्ध का आरोप लगाया है) गृहमंत्री जश्न मना रहा होगा. जिसके माथे पर माओवादी प्रवक्ता, आज़ाद की हत्या का दाग़ है. और जिसने पूरे मध्यभारत को नरसंहार की जमीन बना दिया है. और जो पिछले काफी समय से आंतरिक दबाब में घुट रहा था तुमने उसके लिए ऑक्सीजन सिलिंडर की व्यवस्था कर दी है. यह इतिहास का सबसे विचित्र किंतु दुखदायी तालमेल है. एक असंगत त्रासदी. क्या तुम बता सकती हो कि तुमने अपने लेख में इंकलाब जिंदाबाद का जिक्र क्यों नहीं किया? जबकि ये नारा भी लोगों ने प्रमुखता से लगाया है. ये तुम्हारी लापरवाही है या जानबूझकर तुमने इसे ड्रॉप किया है? क्या तुमने भी वामपंथी-प्रगतिशील-क्लब की सदस्यता ले ली है? जिस भारतीय राज्य को तुम ‘बनाना रिपब्लिक’ कहती हो उसके लिए इस नए नवेले मोह का कारण क्या है? (अरूणा रॉय का हश्र हमें मालूम है) किस आधार पर तुमने ये निष्कर्ष निकाल लिया कि अन्ना के आंदोलन में शामिल लोग भारतीय राज्य को उखाड़ फेंकना चाहते हैं? क्या तुम्हें माओवादियों और अन्ना के आंदोलन के लक्ष्य का फर्क समझाने की जरूरत है? तुम न सिर्फ माओवादी आंदोलन को रिड्यूस कर रही हो बल्कि उसी सरकारी तर्क को हवा दे रही हो जिसके मुताबिक हर विरोध करने वाले को माओवादी करार दिया जाता है. ताकि उसकी हत्या करने में आसानी हो. गनीमत है कि इस आंदोलन में अब तक कोई हिंसा नहीं हुई है. तुमने इस आंदोलन की नीयत पर ‘कॉरपोरेट भ्रष्टाचार’ को लेकर सवाल उठाया है. क्या तुमसे ये कहने की जरूरत है कि भारतीय राजनीति में संभवत सबसे विनम्र, ईमानदार, प्रधानमंत्री, जो पहले वित्तमंत्री भी रह चुके हैं, की देखरेख में कॉरपोरेट लीडरान को बकायदा लोकतांत्रिक पद्धति से चुनकर संसदीय नेता बनाया गया. चिदंबरम क्या हैं—कॉरपोरेट या नेता? विजय माल्या, नवीन जिंदल? इन्हें किस जातिवाचक संज्ञा के दायरे में रखा जा सकता है? राजनीतिक भ्रष्टाचार और कॉरपोरेट भ्रष्टाचार पानी और शक्कर की तरह आपस में घुल चुके हैं. इन्हें तुम कैसे अलग-अलग इकाई के रूप में देख रही हो यह समझ नहीं आता. हर देश, समाज और यहां तक कि व्यक्ति अपने-अपने तरीके से खुद को अभिव्यक्त करता है. (चीन, रूस, ईरान, दक्षिणी अमेरिकी आंदोलन इसके गवाह हैं. सबके कुछ न कुछ राष्ट्रीय प्रतीक हैं) क्या हिंदुस्तान का झंडा हमेशा ही सांप्रदायिक राष्ट्रवाद का ही प्रतीक है? पिछले कई दशकों में तुम या तुम्हारे जैसे लोग जनता को दूसरा झंडा क्यों नहीं थमा सके? जब मिस्र में ‘मुस्लिम ब्रदर हुड’ लोकतांत्रिक तानाशाह, होस्नी मुबारक के ख़िलाफ़ आंदोलन का नेतृत्व करता है तो तुम जैसों को प्रगतिशीलता नजर आती है. गोएल गोनिम, सबसे बड़े बहुराष्ट्रीय निगम, गूगल का कर्मचारी उस आंदोलन का नेतृत्व करता है तब तुम जैसे इंटरनेशनल-हिंदुस्तानी एलीट को दिक्कत नहीं होती. उस वक्त तुम लोगों के दिमाग में कॉरपोरेट नैतिकता का सवाल पैदा नहीं होता. तुमने आंदोलन को एक ‘तमाशा’ बताया है और जनता को “भीड़”. शायद तुम्हारी आंखें तमाशा देखने की आदी हो गई हैं. तब तो तुम ये भी कह सकती हो कि प्रशांत भूषण इस तमाशे के सबसे बड़े रिंग मास्टर हैं. सातारा, झांसी, बगहा, मुजफ्फरपुर, जबलपुर जैसे छोटे कस्बे के लोग जिनकी सम्मिलित कमाई तुम्हारी रॉयल्टी से कम होगी-तमाशा करने निकले हैं? बेशक तुम आंदोलन के इस रूप से असहमत हो सकती हो लेकिन क्या तुमने इस भीड़ के बीच उतरकर इसकी नाड़ी नापने की कोशिश की है? ये उबाल पहले, लोकतंत्राकि फासीवादी व्यव्स्था और उसी कॉरपोरेट लूट के खिलाफ है जिसकी तुम बात करती हो. दूसरे नंबर पर ये जनलोकपाल के साथ है. तुमने अरविंद केजरीवाल को फोर्ड फाउंडेशन से मिलने वाले 4 लाख डॉलर अनुदान की बात की है. हम इसकी आलोचना करते हैं. तुम पर संदेह करें हमारा दिल गवाही नहीं देता. हम फिर अरविंद की आलोचना करते हैं. और उनसे इस बारे में जवाब भी मांगेंगे. लेकिन -क्या तुम बता सकती हो कि दुनिया जिस बुकर पुरस्कार की वजह से तुम्हें जानती है उसको स्पांसर करने वाले ‘द मैन ग्रुप’ की पुरस्कार राशि तुमने इसलिए स्वीकार की क्योंकि ये निगम जनवादी है? सिडनी शांति पुरस्कार के पीछे कौन सा पवित्र कॉरपोरेट हाउस है? तुम्हारी किताबें हार्पर कॉलिन्स और पेंगुइन (दोनों मीडिया मुगल उर्फ मर्डौक की कंपनियां हैं जिनके ख़िलाफ़ अपराध और फर्जीवाड़े के जाने कितने आरोप हैं) से छपती हैं तो क्या हम तुम्हें मोहब्बत करना बंद कर दें. तुम्हारे साथ खड़े होना बंद कर दें? हम एजाज अहमद के उस तर्क को क्यों न स्वीकार कर लें जिसमें उन्होंने कहा था कि तुम्हें बुकर इसलिए दिया गया ताकि हिंदुस्तान के वामपंथी आंदोलन को कमजोर किया जा सके.

(‘The God of Small Things is too much anxiously written, and therefore overwritten…the book panders to the prevailing anti-Communist sentiment which damages it both ideologically and formally…she has neither a feel for Communist politics nor a rudimentary knowledge of it’— Aijaz Ahmed, ‘Reading Arundhati Roy Politically.)

तुमने भारतीय राज्य की दमनकारी ‘नीतियों का विरोध करने और अपनी असहमतियों को पुन: दृढ़ता से कहने के लिए’ (tehelka, jan 2006) में साहित्य अकादमी पुरस्कार लौटा दिया. लेकिन उससे पहले जब तुम्हें ‘अहिंसा की वकालत’ के लिए मई 2004 में ‘सिडनी शांति पुरस्कार’ दिया गया तब तुम चुप बैठ गई. पूरे इराक को क्रबगाह बना देने वाले और हमेशा हमेशा के लिए इराक को बंजर-नपुंसक बना देने वाले अमेरिका के छोटे प्यादे, ऑस्ट्रेलिया की नीतियों से तुम्हें दिक्कत नहीं हुई? और आखिर में. तुम जिस जनता को ‘बेवकूफ’ समझती हो. वो दरअसल है नहीं. वो झंडे लहराने से अगर प्रभावित होती तो हिंदुस्तान में कब की वामपंथी क्रांति हो चुकी होती. कब का इंडिया शाइन हो चुका होता. इसी जनता ने इंदिरा से लेकर अटल जैसे नेताओं को खारिज कर दिया है. अगर अरविंद और अन्ना इसके साथ धोखा करेंगे तो ये उन्हें भी खारिज कर देगी. और हां, तुम्हें भी. शायद तुम्हें भी.

2 टिप्‍पणियां:

  1. बहुत ही भोड़े तरीके से लिखा गया लेख

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  2. शहीदों का सन्देश........
    क्रांतिकारियों का लेख पढ़े
    (अन्ना हजारे आन्दोलन पर क्रांतिकारियों के विचार)


    वर्ग रूचि का आंदोलनों पर असर

    http://krantikarisandesh.blogspot.com/p/blog-page_9588.html

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