मंगलवार, 2 अगस्त 2011

भूमि अधिग्रहण


कानून ही किस तरह आम जनता के शोषण-उत्पीड़न के लिए सत्ता के हाथ में एक हथियार की तरह होता है, किसानों के लिए फिलहाल इसका सबसे बढ़िया उदाहरण 1894 में बना अधिग्रहण कानून है। 1894 में अंग्रेजों द्वारा बनाया गया यह कानून, विकास के नाम पर जमीन के मालिकों को धोखे का एक सब्जबाग दिखाता है। देश में लोकतंत्र होने के बावजूद, इस कानून की अंतर्वस्तु में इसके लिए कोई जगह नहीं है। यही वजह है कि पूरे देश में जहां कहीं भी जमीन का अधिग्रहण हुआ है, वहां अधिग्रहण की समूची प्रक्रिया में किसानों की मर्जी का जरा भी ध्यान नहीं दिया गया। हकीकत तो यह है कि रियल स्टेट मालिकों, उद्योगपतियों और कारपोरेट घरानों के लिए किए जाने वाले भूमि अधिग्रहण में, सरकार उनके एजेंट के तौर पर काम करती है। आप समझ ही सकते हैं कि यह ऐसा एजेंट है, जिसके पास असीम शक्तियां हैं। ‘क्षेत्र के विकास’ का मानक भी वही बनाता है, और मुआवजा भी वही तय करता है। यानी सब कुछ जबरन। आज इस नापाक गठबंधन की जो कीमत देश के किसानों को चुकानी पड़ रही है, आने वाले समय में इसकी कीमत पूरे समाज को चुकानी पड़ सकती है, क्योंकि इसकी वजह से पहले ही सुरसा की तरह मुंह बाए खड़ी बेरोजगारी और भी विकराल रूप धारण करने वाली है। आगे बढ़ने से पहले एक लाइन में इतना बताते चलें कि मायावती द्वारा दर्जनों किसानों की हत्या के बाद बनाया गया कानून, उस बड़ी समस्या को हल करने में पूरी तरह नाकाम है, जो भविष्य में ज्यादा बड़े स्तर पर नजर आने वाली है।
पिछली साल जब टप्पल में किसानों ने आंदोलन किया तो वहां के पांच गांवों ने मिलकर एक मांगपत्रक बनाया था। इस मांग पत्रक में सबसे पहली मांग तो यही थी कि सरकार गांव के किसानों की जमीनों का अधिग्रहण न करे। किसानों का अगर बस चलता तो कभी अपनी जमीनों को नहीं बेचते। वैसे भी सदियों से खेती किसानी पर आश्रित किसानों की लिए परंपरा ने जमीन को मां की तरह पूज्य बना दिया है। जिस जमीन का जेपी ग्र्रुप के लिए सरकार अधिग्रहण कर रही थी, वह अलीगढ़ जिले की सबसे उपजाऊ जमीन है। वाकई इस मिट्टी में सोना पैदा होता है। अगर सरकार इस जमीन का अधिग्रहण करती, तो इस पर आश्रित भूमिहीन परिवार पूरी तरह उजड़ जाते। इसलिए किसानों की एक महत्वपूर्ण मांग यह थी कि उनकी जमीनों पर काम करने वाले भूमिहीन मजदूरों के लिए सरकार वैकल्पिक रोजगार की व्यवस्था करे। बतातें चलें कि टप्पल आंदोलन में किसानों के साथ बड़ी संख्या में भूमिहीन मजदूरों ने भी हिस्सा लिया था। किसानों की इस मांग का बहुत दूरगामी महत्व है।
दरअसल सरकार का उपजाऊ जमीनों के अधिग्रहण का काम, सदियों से आबाद एक भरी पूरी सभ्यता को उजाड़ने जैसा होता है। वहां का पारिस्थितिक तंत्र, पेड़-पौधे, उन पर बसेरा करने वाले जीव, कुंए, तालाब और सबसे बड़ी बात इन सब की वजह से और इन्हीं पर आश्रित आदमी को भी इसका दंड भुगतना पड़ता है। क्या मुआवजा भर दे देने से सरकार इस पाप से बच सकती है? क्या सरकार को वाकई भूमिहीन मजदूरों के लिए कुछ नहीं करना चाहिए? कानून इस मामले में मौन है। सरकार के लिए इस सवाल से बचने के लिए फिलहाल इतना काफी है।
इकोनॉमिक सर्वे आॅफ इंडिया 2009-2010 के अनुसार देश का कृषि क्षेत्र इस समय करीब 52.1 प्रतिशत लोगों को रोजगार मुहैया करवा रहा है। यह अलग बात है कि सकल घरेलू उत्पादन में इसका योगदान महज 13.2 प्रतिशत ही है। जीडीपी में ज्यादा हिस्सा सृजित करने के बावजूद, हकीकत यही है कि देश के उद्योगों के लिए, यहां मौजूद बेरोजगारों की कुल फौज को खपाना मुश्किल हो रहा है। बताते चलें कि जो लोग कृषि क्षेत्र पर आश्रित हैं, उनकी स्थिति बहुत बेहतर नहीं है, हां किसी तरह नमक रोटी का जुगाड़ हो जाता है। ऐसे में सरकार का कृषि क्षेत्र के विकास पर अतिरिक्त ध्यान देने के बजाय, किसानों की जमीनों को छीनकर, उसे देश के उद्योगपतियों और रियल स्टेट मालिकों को देना, किसी भी दृष्टिकोण से सही नहीं है।
कम से कम एक बात तो बिल्कुल साफ है कि सरकार का यह कदम गरीब पृष्ठभूमि से ताल्लुक रखने वाले युवाओं को बेरोजगार करेगा। या फिर जिन लोगों की आजीविका का एक मात्र सहारा ही यही है, उनसे इस आसरे को भी छीन लिया जाएगा। अगर मायावती के बहुजन पार्टी के संदर्भ में बात की जाए, तो उनके इस कदम को सीधे-सीधे दलित विरोधी करार दिया जा सकता है। क्योंकि जो लोग गांवों में भूमिहीन मजदूरों के तौर पर काम कर रहे हैं, उनका बड़ा हिस्सा दलितों और दूसरी पिछड़ी जातियों का ही है। इस मामले में मुलायम को भी माफ नहीं किया जा सकता। यहां फिलहाल इन्हीं दोनों पार्टियों को इसलिए संदर्भ के तौर पर दिया गया है, क्योंकि इनमें से एक अपने को दलित का मसीहा के रूप में जनता के सामने रखती है, तो दूसरी पिछड़ी जातियों का।
आज किसान सरकार के ‘क्षेत्र के विकास’ के पीछे के खेल को बहुत अच्छी तरह जान गए हैं। वे देख रहे हैं कि सरकार क्षेत्र के विकास के नाम पर उनकी जमीनों को लेकर जेपी, अंसल जैसी रियल स्टेट से जुड़ी कंपनियों को दे देती है और उनसे इसके एवज में कई गुना ज्यादा दाम वसूलती है। ये रियल स्टेट कंपनियां उसी जमीन पर बहुमंजिला भवन बनाकर सरकार को भुगतान की गई राशि से भी हजारों गुना ज्यादा दाम पर बेचती हैं। यानी इन दोनों के बीच में किसान ही मारा जाता है। अपने इसी अनुभव के चलते किसानों ने उस स्थिति में मुआवजे को बढ़ाने की मांग रखी, जब उनके पास अपनी जमीनों को बचाने का और कोई चारा शेष नहीं बचा।
यहां इस बात पर भी चर्चा जरूरी है कि सरकार ‘क्षेत्र के विकास’ के नाम पर जो जमीनें ले रही है क्या उनसे वहां से उजड़ने वाली आबादी को कोई फायदा होगा? फिलहाल तो सच्चाई यही है कि अधिग्रहण की जाने वाली जमीनों का बड़ा हिस्सा कारपोरेट हाउसों, हाइटेक कंपनियों, बड़े-बड़े आधुनिक उद्योगों, निजी शैक्षिक संस्थानों और सबसे ज्यादा रियल स्टेट कंपनियों के लिए लिया गया है। अभी तक तो यही देखने में आया है कि इनमें (क्षेत्र विशेष के) गांव के गरीबों के लिए कोई जगह नहीं होती है। इसकी एक बड़ी वजह यह है कि देश के गरीबों का बड़ा हिस्सा अनपढ़ है या फिर वह इन संस्थानों में रोजगार के लिए तय मानकों पर खरा नहीं उतरता है। गरीब किसानों के बच्चों को न तो कारपोरेट हाउसों में जगह मिलने वाली है और न ही कारपोरेट हाउस तक की तैयारी करवाने वाले शिक्षण संस्थानों में ही। इस समय पश्चिचमी यूपी, त्रावणकोर समेत देश के कई हिस्सों में ऐसे एजुकेशन हब बन रहे हैं, जिसमें सिर्फ खाते-पीते मध्यवर्ग के बच्चे ही शिक्षा ले सकते हैं। इनकी साल भर की फीस ही लाखों रुपये होती है। रियल स्टेट कंपनियों द्वारा बनाए जा रहे मकान भी उसकी पहुंच से बाहर हैं और यहां भी उसके लिए रोजगार के अवसर न के बराबर होते हैं। ऐसे में यह सवाल उठना लाजमी है कि हमारी सरकार गरीबों को उजाड़कर आखिर कौन सी दुनिया बनाने की तैयारी कर रहा है?
यह सुनकर और अजीब लगता है कि जिन जमीनों को तथाकथित क्षेत्र के विकास के नाम पर लिया जा रहा है, उनमें से ज्यादातर दसियों साल बीत जाने के बाद या तो खाली पड़ी हैं या फिर उनको बेचकर उद्योगपति भारी भरकम मुनाफा कमाने का काम कर रहे हैं। महाराष्ट्र में औद्योगिक विकास के नाम पर अभी तक जितनी भी जमीनें अधिग्रहीत की गई हैं, उनमें से करीब 50 प्रतिशत प्लॉट अभी भी खाली पड़े हैं। यह ऐसी इकलौती घटना नहीं है। ऐसा कई दूसरी जगहों पर भी देखने में आया है कि जिन उद्योगपतियों ने उद्योग स्थापित करने के नाम पर जमीनें लीं, या तो उनके प्लॉट अभी भी खाली पड़े हैं या फिर उन्होंने अपने प्लॉट को कई गुना ऊंचे दामों पर बेच दिया। गौर करने वाली बात यह है कि सरकार उन जमीनों को जिन किसानों से क्षेत्र के विकास के नाम पर लेती है, उन्हें बहुत कम पैसे मिलते हैं। उनकी तुलना में जिन लोगों ने उन प्लॉट को खरीदा, वे कई गुना ज्यादा कीमत पर बेचकर भारी मुनाफा कमाते हैं। सरकार को करना तो यह चाहिए कि जिन प्लॉट्स पर लंबे समय तक कोई औद्योगिक इकाई न लगे उन्हें उनके पहले के मालिकों को वापस लौटा दे, या फिर कुछ ऐसा प्रावधान करे, ताकि जिस मकसद के लिए सरकार ने प्लॉट बेचे हों, उस जमीन पर वही काम हो। हांलाकि यह बात सभी लोग जानते हैं कि क्षेत्र के विकास के नाम पर पूंजीपतियों को दी जाने वाली जमीन से वास्तविक फायदा तो सिर्फ उद्योगपतियों को ही होता है। सरकार का यह कहना कि किसानों से ली जाने वाली जमीनों से उस क्षेत्र विशेष का विकास होगा, यह तो बस बहाना मात्र होता है।
जाहिर है जमीन अधिग्रहण रोजगार छीनने का काम कर रहा है। इसके चलते शहरों में पहले से ही मौजूद बेरोजगारो की फौज में इजाफा ही होगा। अगर इसे समय रहते सरकार रोकने का काम नहीं करती तो उसे इसका दुष्परिणाम भी भोगने के लिए तैयार रहना चाहिए। जमीन अधिग्रहण की हिमायती सरकार और उसके लग्गू-भग्गुओं का एक तर्क यह भी है कि इससे रोजगार में वृद्धि होगी। यह सरासर गलत है। एक्सप्रेस वे बनने से गांव के किसान का आखिर क्या फायदा हो सकता है। रियल स्टेट कंपनियों के बहुमंजिला भवनों से किसानों को क्या फायदा मिलेगा। आखिर उसके बच्चों के लिए ये निर्माण कार्य किस तरह से रोजगार मुहैया करवाएंगे। जहां तक हाइटेक उद्योगों के लिए जमीन अधिग्रहण की बात है, तो उनमें प्रयोग होनी वाली उन्नत टेक्नोलॉजी पहले से ही रोजगार के अवसर को कम कर देती है। दूसरी बात ये उद्योग जो थोड़ा बहुत रोजगार देगें भी वह भी पढ़े लिखे मध्यवर्ग के लिए आरक्षित होता है, न कि गांव के गरीबों के लिए। जहां-जहां सेज के लिए जमीनें ली गर्इं, उसके पीछे भी यह तर्क दिया गया कि इससे बड़ी संख्या में रोजगार का सृजन होगा। आज इसकी हकीकत भी सबके सामने आ चुकी है। सेज मजदूरों के लिए यातना गृह बन गए हैं। कई जगहों पर सरकार ने किसानों से जबरन ली गई जमीनों पर बड़े-बड़े शिक्षण संस्थान खोले गए। ये शिक्षण संस्थान देश के गरीब किसानों के बच्चों को किस तरह शिक्षित कर रहे हैं, यह जगजाहिर है। इनकी फीस ही लाखों रुपये में होती है। ऐसे में दिमाग मेंं यह बात सहज ही आती है कि आखिर सरकार किसे मूर्ख बना रही है। यही सवाल किसानों का भी है। जाहिर है इस तरह की नीतियां समाज में पहले ही मौजूद गैरबराबरी को और ज्यादा बढ़ाने का काम करेंगी। पूंजीपतियों के प्यार में अंधी हो चुकी सरकारों को सोचना चाहिए कि खेती किसानी लाभ के लिए नहीं है, वरन यह समाज की जरूरत है। इसे खत्म करके वे क्या इन सड़कों और बहुमंजिला भवनों को खाकर अपना पेट भरेंगे। आज पूंजीपतियों का यह वर्ग अपनी मूर्खता, अहंकार और तानाशाही के मामले में अपनी पराकाष्ठा पर पहुंच चुका है। आज वह इस तरह के सारे अनैतिक कामों को डंके की चोट पर कर रहा है। किसान अगर कहता है कि वह उसकी खेती-किसानी की जमीन को छोड़कर ऊसर, बंजर पड़ी जमीनों का अधिग्रहण करे, तो जैसे उसके अहं पर हथौड़ा चलने लगता है। वह आम लोगों को कुछ समझता ही नहीं। नतीजा यह होता है कि अपने अहं तुष्टि के लिए वह किसानों पर गोलियां चलवाता है, उनके ऊपर फर्जी मुकद्में दायर करता है यहां तक कभी-कभी वह अपने गुंडों तक को किसानों का दमन करने के लिए इस्तेमाल करता है, जैसा कि टप्पल के मामले में हुआ। आखिर जब कोर्ट, कचहरी, पुलिस और सबसे बड़ी बात सत्ता ही उसकी ही मुठ्ठी में हो, तो फिर ऐसे में अहं से भर जाना स्वाभाविक भी है। अपनी इसी मानसिकता का प्रदर्शन उसने नंदीग्राम, सिंगूर, टप्पल, कुशीनगर, नोएडा, ग्रेटर नोएडा आदि जगहों पर किया है और आगे भी अभी हजारों इलाकों में हम उसकी इस नंगई का प्रदर्शन देखेंगे। अगर सरकार ने किसानों से ली गई जमीनों कृषि आधारित उद्योग खड़ा किया होता या फिर सघन श्रम वाले उद्योग खोला होता, तो किसानों की ओर से इस स्तर का विरोध कभी नहीं होता। आखिर किसानों को भी अपने देश-समाज की तरक्की पसंद है, बल्कि सच कहा जाए तो इन पूंजीपतियों से कहीं ज्यादा ही। इसलिए अगर सरकार के अंदर जरा भी गैरत बाकी है, तो उसके सुधरने के लिए अभी भी वक्त है। उसे किसानों से अपनी गलती के लिए माफी मांगनी चाहिए। किसानों का दिल बहुत बड़ा है। आखिरकार वह सबका अन्नदाता जो है। वह अवश्य ही इन्हें माफ कर देगा। अगर वे आज ऐसा नहीं करते, तो यह निश्चित मानिए कि आज जो कुछ अरब में हो रहा है, वह सब हिंदुस्तान में भी दोहराया जाएगा।

1 टिप्पणी: