शान्तनु
दुनिया के मशहूर ब्राण्ड या कम्पनियां जैसे वालमार्ट, गैप, हिल फीगर आदि के अरबों-खरबों डालर का साम्राज्य और हमारे देश के पांच सितारा होटलों में अक्सर होने वाले फैशन शो व फैशन की दुनिया के जलवों का भारत, बांग्लादेश, वियतनाम, कम्बोडिया आदि जगहों के गरीबी से जूझते करोड़ों गार्मेन्ट मजदूरों का क्या रिस्ता क्या हो सकता है इसे गार्मेन्ट उद्योग से परिचित हर आदमी जानता है ।
भारत में कुल सिले-सिलाए या बुने हुए कपड़ों का मात्र 25 प्रतिशत हिस्सा ही निर्यात होता है और 75 प्रतिशत हिस्सा घरेलू खपत में इस्तेमाल होता है। लेकिन गार्मेन्ट निर्यात का ग्लैमर कहीं ज्यादा है। क्योंकि निर्यात या एक्सपोर्ट के जरिए थोड़े समय में ही ज्यादा कमाई हो जाती है और यह कमाई भी अमेरिकी डालर में होती है।
इसके अलावा एक्सपोर्ट के धन्धे में काली कमाई की गुंजाइश भी बहुत ज्यादा होती है। आज भारत का कुल गार्मेन्ट निर्यात लगभग 50 हजार करोड़ रुपये का है। दिल्ली, गुडग़ांव, नोएडा, तिरुपुर, सूरत और मुम्बई इसके प्रमुख केन्द्र हैं। इस क्षेत्र में आज लगभग 15 लाख मजदूर काम करते हैं। इन मजदूरों का एक बहुत छोटा हिस्सा ही संगठित क्षेत्र में आता है जबकि बड़ा हिस्सा असंगठित क्षेत्र में काम करता है। गार्मेन्ट उद्योग में काम करने वाले मजदूरों की 50 प्रतिशत गार्मेन्ट तैयार करने का मुख्य काम करता है जबकि शेष अप्रत्यक्ष काम करते हैं। अप्रत्यक्ष कामों में-हाथ की सिलाई, एम्ब्रायडरी, बटन, बकल, जिप, स्टीकर आदि लगाना तथा पैकिंग आदि आता है। चूंकि इस क्षेत्र के ज्यादातर कामों के लिए कोई अलग से प्रशिक्षण देने की जरुरत नहीं होती है इसलिए गरीब व पिछड़े इलाकों से भारी आबादी इस ओर आकर्षित होती है। इस कारण गार्मेन्ट उद्योग में प्रवासी मजदूरों की संख्या ज्यादा होती है।
गार्मेन्ट निर्यात क्षेत्र की बनावट और इसका ताना बाना बेहद महत्व का होता है। इस क्षेत्र के सबसे शीर्ष में वे विदेशी ब्राण्ड या कम्पनियां होती हैं जिनके आर्डर पर गार्मेंट तैयार किया जाता है। पहले ये कम्पनियां आमतौर पर अपने-अपने ब्राण्डों का लेबल लगवाकर थोक बिक्री का काम करती थीं। लेकिन पिछले 20-25 साल के दौरान ये अपने ब्राण्डों की खुदरा बिक्री भी करने लगी हैं। आज पूरी दुनियां में इनकी हजारों आलीशान दुकानें मौजूद हैं। ये कम्पनियां गार्मेन्ट बनाने वाले हर देश में या उत्पादन क्षेत्र में अपने एजेन्ट (बायर) नियुक्त करती हैंै। इसके बाद एक्सपोर्टर की बारी आती है। एक्सपोर्टर के पास खुद अपनी फैक्ट्री हो भी सकती है या वह बाहर से माल बनवाकर एक्सपोर्ट कर सकता है।
गार्मेन्ट तैयार करने वाली फैक्ट्रियां सारा काम खुद नहीं करती हैं। वे ढेरों काम फैब्रिकेटर से करवाती हैं। ये फैब्रिकेटर छोटी-छोटी इकाइयों में थोड़े बहुत मजदूरों के बल पर अपना काम करते हैं। सिर्फ हाथ से होने वाले छोटे या बारीक कामों (जैसे- बटन लगाना, मोती सितारा लगाना, हैण्ड एम्ब्रायडरी आदि)को ठेकेदारों के द्वारा करवाया जाता है। ठेकेदार द्वारा करवाये जाने वाले इन कामों को महिलाएं और बच्चे भी करते हैं। इस तरह स्पस्ट है कि गार्मेन्ट उद्योग के इस विशाल ढांचे में मजदूरों का स्थान सबसे नीचे है। पर बैठी विदेशी कम्पनियों और देशी पूंजीपतियों को ज्यादा से ज्यादा मुनाफा हो इसके लिए जरुरी है कि माल की ज्यादा से ज्यादा खपत हो, मजदूरी की दर कम हो और मजदूर संगठित भी न होने पाएं। लोग ज्यादा से ज्यादा कपड़ों को खरीदें इसके लिए माहौल बनाना भी जरुरी है। इस काम में मीडिया की महत्वपूर्ण भूमिका बन जाती है। फैशन डिजाइनर, फैशन शो और माडलिंग की मायानगरी का निर्माण मीडिया ही करती है। इसके चलते ही मध्यवर्ग के एक तबके में इन कपड़ों को पाने की हवस बढ़ जाती है। ज्यादा से ज्यादा मुनाफा कमाने की होड़ गार्मेन्ट उद्योग के पूरे तंत्र में भीषण प्रतियोगिता को जन्म देता है जिसकी चपेट में मजदूर भी आ जाता है। देश की सीधी-सादी जनता की मेहनत पर खड़ा गार्मेन्ट निर्यात का पूरा तंत्र इतना स्वच्छन्द तरीके से काम ही नहीं कर पाता अगर उसे सरकारी नीतियों की मदद नहीं मिली होती। 1991 से जारी उदारीकरण, निजीकरण और भूमण्डलीकरण की नीतियों ने जहां पूंजी और माल के आयात निर्यात पर लगी बंदिशों को ढीला कर दिया वहीं श्रम कानूनों को मानने की बाध्यता को भी व्यवहार में खत्म कर दिया। न्यूनतम मजदूरी कानून और ठेका मजदूरी कानून की धज्जियां उड़ा दी गयी। ईएसआई और पीएफ की बात कौन करे लाखों की संख्या में ऐसे मजदूर हैं जिन्हें कानून की नजर में मजदूर ही नहीं माना जाता। फैक्ट्रियों में मजदूरों के साथ मारपीट व गाली गलौज करना, 12-16 घंटे तक काम करवाना, जब चाहा निकाल देना, मजदूरों के पैसे को मार लेना-यही वे जमीनी हालात हैं जिसके ऊपर गार्मेन्ट और फैशन उद्योग का पूरा महल खड़ा है। दरअसल गार्मेन्ट एक्सपोर्ट उद्योग का पूरा अस्तित्व ही सस्ते श्रम पर टिका हुआ है। गार्मेन्ट उद्योग का मुख्य बाजार और कम्पनियां अमेरिकी और यूरोपीय देश हैं। सस्ते श्रम की खोज में ये कम्पनियां पूरी दुनिया में खाक छानती फिरती हैं। आज अमेरिका में मजदूरी की न्यूनतम दर 14 डालर (644 रुपये) प्रति घंटे की है जबकि चीन में यही दर 1.44 डालर (66.24 रुपये),भारत में 0.51 डालर (23.46 रुपये), इन्डोनेशिया में 0.44 डालर (20.24 रुपये), वियतनाम में 0.38 डालर (17.48 रुपये) और बांग्लादेश में 0.31 डालर (14.26 रुपये) है। आज बांग्लादेश ने इसी सस्ती मजदूरी के कारण दुनिया के 30 प्रतिशत कपड़े के बाजार को दूसरे देशों से छीन लिया है। यहां तक कि भारत की गार्मेन्ट फैक्ट्रियां भी बांग्लादेश में कपड़े तैयार करवाकर निर्यात करने लगी हैं। सस्ते श्रम की यह लूट गरीब देशों में भारी तबाही फैला रही है और सामाजिक ताने बाने को नष्ट कर रही है। यह सब आज इसलिए सम्भव हो पा रहा है क्योंकि गार्मेन्ट मजदूरों की जुबान आज बन्द है तथा वे संगठित नहीं हैं। उसके संगठन बनाने के रास्ते में बाधाएं खड़ी की गयी हैं। लेकिन जिस दिन मजदूर संगठित होकर अपनी मजदूरी का वाजिब दाम मांगेगा, सस्ते श्रम की लूट, फैशन के ग्लैमर की दुनियां और लाखों परोपजीवियों की शानोशौकत का यह सामा्रज्य भहराकर गिर जायेगा।
(शान्तनु एक सामाजिक कार्यकर्त्ता और मेहनतकश पत्रिका के संपादक हैं)
बहुत शानदार लेख। बहुत सारी जानकारी दी. बहुत-बहुत धन्यवाद. लेकिन इस आलेख से उल्लिखित परिस्थितियों से उबरने की कोई किरण नहीं दिखाई देती है। कोई दशा दिशा का उल्लेख नहीं है कि कैसे एकजुटता बने, ताकि संघर्ष परवान चढ़े। कुछ ऐसे बिंदुओं पर भी जो भ्रूण रूप में ही सही अंकुरित हो रहे हैं..उनके आगे जाकर वटवृक्ष बनने की संभावना हो...आलेख चुप है। हम अपेक्षा यही करते हैं कि अगली किश्त में इन पर विचार प्रकट होंगे।
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