पिछले दिनों उत्तर प्रदेश की दलित मुख्यमंत्री के मेरठ स्थित कार्यालय पर यहां के दलितों ने कब्जा जमा लिया। इस घटना से जिला प्रशासन के हाथ-पांव फूल गये। घटना जरुर नई थी लेकिन विषय पुराना था। मेरठ के दलितों को लग रहा है कि पश्चिमी उत्तर प्रदेश में दलितों के ऊपर जिस तरह से हमले होते रहते हैं, उस पर अब मुख्यमंत्री की निगाह नहीं जाती है। सही मायने में देखा जाए तो बात भी सही लगती है। अभी पिछले दिनों शरण लिंबाले ने एक किताब लिखी है। किताब का शीर्षक है ‘दलित ब्राहम्ण’। इस किताब में शरण लिंबाले ने एक नई किंतु सही बहस उठाई है। अगर यहां के दलितों ने इस किताब को पढ़ा होता तो शायद वे आज मायावती से इतनी ज्यादा उम्मीद नहीं पालते। यह अलग बात है कि वे इसे शायद ही पढ़ पाएं क्योंकि मुश्किल से 30 पेज की इस किताब का मूल्य पूरे 60 रूपया है। बहरहाल, आज दलितों के बीच एक तबका ऐसा जरुर पैदा हुआ है जो अपने आचार व्यवहार में सवर्णों की नकल करने का काम करता है। वह भी गरीब दलितों के साथ वैसे ही व्यवहार करता है जैसे कि ब्राम्हण करते हैं। सांस्कृतिक तौर पर इसने जरुर नई बहस का श्रीगणेश किया है।
भारत के मार्क्सवादी लम्बे समय तक भारत में यूरोपीय जमीन की तलाश करते रहे। यानी वहां वर्ग संघर्ष का जो स्वरुप था, उसी नजरिए से भारत को भी देख रहे थे। नतीजा, उन्होंने शूद्र जातियों के दुर्दशा के लिए आर्थिक पहलू को ही सबसे ज्यादा जिम्मेदार ठहराया। उन्होंने क्लास स्ट्रगल का काम तो भारत में किया लेकिन उनके दिमाग में संदर्भ यूरोप का था। इस बात में भी दो राय नहीं कि उन्होंने दलितों के बीच खूब काम किया। यहां तक कि उनकी पार्टी सीपीआई को शुरुआती दिनों में यहां के सवर्ण शूद्रों की पार्टी कहा करते थे। लेकिन इसके बावजूद वे सामन्तवाद की सांस्कृतिक ताकत का सही ढंग से नहीं समझ पाये। भारत के कम्युनिस्टों और कुुछ मायनों में दुनिया के कम्युनिस्टों की भी यह समझ चीन में माओ के नेतृत्व में हुई सांस्कृतिक क्रांति के बाद ही बनी। भारत के कम्युनिस्ट अपनी इस नासमझी के लिए अपने ही देश के विभिन्न राजनीतिक ग्रुपों और आम जनता से आज तक गाली गाली खाते हैं।
जाहिर सी बात है कम्युनिस्टों के इस काम को अम्बेडकर जैसे लोगों ने पूरा किया। इसलिए जब काशीराम ने अम्बेडकर के विचारों की रोशनी में दलितों की पार्टी का गठन किया तो उसे दलितों के बीच अपना बढ़ाने में वक्त नहीं लगा। अब हालत यह है कि दोनों ही पार्टियों का गरीब दलितों के बीच आधार सिकुड़ रहा है। एक का अपनी गलत समझदारी के आधार पर तो दूसरी वर्ग रुपान्तरण के कारण। शरण लिंबाले ने इस बात को सही ढंग से समझा है और उसे उठाया भी जोरदार ढंग से है। बावजूद इसके यह गम्भीर बहस का विषय है। क्योंकि जिस समय कम्युनिस्टों ने गलती की थी, उस समय समाज में पूजीवादी उत्पादन सम्बन्ध ठीक से विकसित नहीं हुए थे, जबकि आज सामन्तवादी उत्पादन सम्बन्ध अवशेष की स्थिति में पहुंच गये हैं।
देवेन्द्र प्रताप
मोबाइल नंबर - 08909982424
भारत के मार्क्सवादी लम्बे समय तक भारत में यूरोपीय जमीन की तलाश करते रहे। यानी वहां वर्ग संघर्ष का जो स्वरुप था, उसी नजरिए से भारत को भी देख रहे थे। नतीजा, उन्होंने शूद्र जातियों के दुर्दशा के लिए आर्थिक पहलू को ही सबसे ज्यादा जिम्मेदार ठहराया। उन्होंने क्लास स्ट्रगल का काम तो भारत में किया लेकिन उनके दिमाग में संदर्भ यूरोप का था। इस बात में भी दो राय नहीं कि उन्होंने दलितों के बीच खूब काम किया। यहां तक कि उनकी पार्टी सीपीआई को शुरुआती दिनों में यहां के सवर्ण शूद्रों की पार्टी कहा करते थे। लेकिन इसके बावजूद वे सामन्तवाद की सांस्कृतिक ताकत का सही ढंग से नहीं समझ पाये। भारत के कम्युनिस्टों और कुुछ मायनों में दुनिया के कम्युनिस्टों की भी यह समझ चीन में माओ के नेतृत्व में हुई सांस्कृतिक क्रांति के बाद ही बनी। भारत के कम्युनिस्ट अपनी इस नासमझी के लिए अपने ही देश के विभिन्न राजनीतिक ग्रुपों और आम जनता से आज तक गाली गाली खाते हैं।
जाहिर सी बात है कम्युनिस्टों के इस काम को अम्बेडकर जैसे लोगों ने पूरा किया। इसलिए जब काशीराम ने अम्बेडकर के विचारों की रोशनी में दलितों की पार्टी का गठन किया तो उसे दलितों के बीच अपना बढ़ाने में वक्त नहीं लगा। अब हालत यह है कि दोनों ही पार्टियों का गरीब दलितों के बीच आधार सिकुड़ रहा है। एक का अपनी गलत समझदारी के आधार पर तो दूसरी वर्ग रुपान्तरण के कारण। शरण लिंबाले ने इस बात को सही ढंग से समझा है और उसे उठाया भी जोरदार ढंग से है। बावजूद इसके यह गम्भीर बहस का विषय है। क्योंकि जिस समय कम्युनिस्टों ने गलती की थी, उस समय समाज में पूजीवादी उत्पादन सम्बन्ध ठीक से विकसित नहीं हुए थे, जबकि आज सामन्तवादी उत्पादन सम्बन्ध अवशेष की स्थिति में पहुंच गये हैं।
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