एक भाषा से दूसरे भाषा में अनुवाद की राजनीति
चमड़िया
हमने कई तर्कों से हिन्दी का विकास मान लिया है।हिन्दी के विकास के लिए मुंबईयां फिल्मों की उपलब्धि बतायी जाती है।फिल्मों को उसके पूरे सांस्कृतिक प्रभाव से अलगकर भाषा के विकास की उपलब्धि के तौर पर प्रस्तुत करने वाला यह वर्ग कौन है?हिन्दी का आधुनिककरण उसका हिंग्लिश होना माना जाने लगा हैं। यह वर्ग कौन है?जो जैसे चाहें हिन्दी का इस्तेमाल करें उसकी खुली छूट हैं।दिल्ली के मैट्रों स्टेशनों पर जाए और वहां रेड लाइन की जगह पर लाल लाइन लिखा मिलें तो उसका भी स्वागत है। भाषा का कोई मालिक होता नहीं है। इसीलिए कोई किसी तरह की टोका-टाकी नहीं कर सकता है।यदि मैट्रों को आधुनिकतम विकास का नमूना माना जाए तो हिन्दी इस विकास के साथ कैसी होगी ?यह मैट्रों ट्रेन की हिन्दी से जाना जा सकता है। मैट्रों के हर डिब्बे पर एक वाक्य चिपका है- कृपया खाली जगह का ध्यान रखें।यह अंग्रेजी के प्लीज माइंड द गैप का अनुवाद है।चलती मैट्रों में सूचनाएं और हिदायतें देती रेकॉर्डेड आवाज को सुना जाए तो इस वाक्य का मतलब समझ में आता है।हिन्दी में रेकॉर्डेड आवाज में तो यह वाक्य सुना जाता है कि कृपया सावधानी से उतरें।वास्तव में यह ट्रेन और प्लेटफॉर्म के बीच की खाली जगह का ध्यान रखने की चेतावनी है। यहां एक ही वाक्य के दो अनुवादक दिखाई देते हैं। एक लिखकर करने वाला है और दूसरा बोलकर करता है। जो लिखकर करता है उसे अर्थ बताने के लिए चित्र का इस्तेमाल करना पड़ता है। यह तलाश की जानी चाहिए कि ये दो तरह के अनुवादक कौन हैं?तकनीकी परिवर्तन के साथ स्क्रिप्ट में जो फर्क होता है उक्त वाक्य के अनुवाद में केवल वही फर्क दिखाई नहीं देता है।यहां साफतौर से अनुवादक के सरोकार और उद्देश्य का फर्क दिखता है।
भारत जैसे बहुभाषी देशों में अनुवाद का व्यापार काफी तेजी से बढ़ा है।सालाना टर्न ओवर करोडों का है।टेलीविजन के कार्यक्रमों और फिल्मों की निर्माता कंपनियां अपने उत्पाद को ज्यों का त्यों बेचने के लिए अनुवाद की आउटसोर्सिंग करा रही है।पिछले वर्ष 250 करोड़ का व्यापार विदेशी फिल्मों ने भारत में किया।पूंजी के कारखानों में बनें कार्यक्रमों में किसी देश या क्षेत्र की भाषा भर चस्पां की जा रही है।कार्यक्रम अपने पूरे सांस्कृतिक परिवेश और प्रभाव के साथ चाहें जिस भाषा में तैयार हो जाता है। भाषा सांस्कृतिक घटक का हिस्सा नहीं रहा।बाजार ने यह किया है। इस तरह भाषा का अनुवाद एक बड़े व्यापार के रूप में उभर रहा है।लेकिन अनुवाद महज व्यापार नहीं होता है।वह किसी भी समाज के लिए राजनौतिक हथियार होता है।
जब शिकायत करने वाला कोई नहीं है तो मैट्रों के प्रबंधन को डिब्बों पर चिपके इन अनुवादों को अपने स्थापना के दिन से ज्यों का त्यों बनाए रखने में क्या परेशानी हो सकती है।इस स्टीकर को तैयार करवाने में उसे खासा विनियोग करना पड़ा है।मैट्रो अपने खर्च को महज इसलिए नहीं बढाएगा कि वे यात्रियों के लिए अर्थपूर्ण नहीं है।उसे इस अनुवाद की वजह से रत्ती भर का आर्थिक नुकसान तो हो नहीं रहा।बाजार में भाषा के साथ बलात्कार करने वाले सर्वाधिक ताकतवर होते है। उनका कानून कुछ नहीं बिगाड़ सकता है।लेकिन हम अपने स्तर से यह शिनाख्त तो करें कि इस समय हिन्दी का अनुवादक कौन है?किसी वैसे समाज में अनुवाद बड़े सांस्कृतिक बदलाव का औजार होती है जहां किसी भाषा में ज्ञान कोश उपलब्ध ही नहीं हो। अपने समाज में ज्ञानकोश जिन भी भाषाओं में होने का दावा किया जाता है उस भाषा से ही बहुसंख्यक हिस्से को दूर रखा गया है। दूर रखने के कई तरीके रहे रहे हैं। कभी जाति कारण बनता है तो कभी आर्थिक सामर्थ बन जाता है।लेकिन यहां एक नया पहलू और जुड़ता है।भारतीय समाज में सत्ता वर्ग अपनी भाषा ही बदल देता है।वह नई भाषा के लिए नए आधार तैयार करता है और उसकी जरूरत को स्थापित करता है।यह उसका विशुद्ध राजनैतिक हथियार हैं। जो संस्कृत में आगे था।वहीं अंग्रेजी में आगे रहा।वहीं हिन्दी को राष्ट्रवाद से जोड़ा। वहीं हिन्दी से दूर निकलता रहा। वहीं हिंग्लिश को गढ़ता रहा।वहीं विकास में पीछे छूटने के बहाने अंग्रेजी के घोडे पर सवार हो गया।यह एक लंबी बहस की पूरी कड़ी है।लेकिन हमारा जोर यहां अनुवादक की भूमिका पर है और उसकी शिनाख्त करने की कोशिश करना चाहते है।
जिस समाज के बहुसंख्यक हिस्से की भाषा में ज्ञान कोश नहीं हो वहां अनुवाद स्वंय में एक भाषा का नाम हो जाता है।लेकिन यहां जिस तरह से सत्तावर्ग ने भाषा ही बदल ली उसने अनुवाद के अविष्कार को भी नहीं बख्शा।उसने दो स्तरों पर यह काम किया। पहले स्तर को देहली कॉलेज के उदाहरण से समझ सकते हैं।1830 के आसपास देलही कॉलेज में वार्नाकुलर ट्रांसलेशन सोसयटी बनी थी जिसने अपने बीस वर्ष के कार्यकाल में ग्रीक और फारसी भाषा से करीब 125 महत्पूर्ण ग्रंथों का उर्दू में अनुवाद किया,जिनमें से कई ग्रंथ वैज्ञानिक विषयों के थे।सोसयाटी के इन प्रयासों से शेरो शायरी की भाषा मानी जाने वाली उर्दू जल्द ही ज्ञान विज्ञान की भाषा में बदलने लगी। (यह तथ्य वीर भारत तलवार के एक लेख से उद्दृत किया गया है)लेकिन इसके बाद के वर्षो में खासतौर से 1857 के बाद ये स्थितियां लगभग समाप्त होती चली गई और इतने वर्षों में उर्दू कहां खड़ी है इसे बताने की जरूरत नहीं है।उसका दूसरा स्तर यह था कि उसने खुद ही अनुवाद की भाषा भी गढ़ी।यह उस तरह से गढ़ी गई जो बहुसंख्यक की भाषा के रूप में ठीक उसी तरह दिखती रही है जैसे मैट्रों में चिपका वाक्य हैं।यह एक अध्धयन किया जाए कि वास्तव में अनुवाद ने भारतीय समाज के उन हिस्सों में ज्ञान के रुाोत में रूप में कितनी कारगर भूमिका अदा की है जिस हिस्से को इसकी जरूरत थी?निवदेन है कि केवल स्कूली किताबों तक ही इसे सीमित नहीं रखा जाए। ज्ञान का रुाोत राजनैतिक विचारों , अर्थशास्त्र, इतिहास,विज्ञान आदि क्षेत्रों तक जाता है।वामपंथी पार्टियों पर यह आरोप लगता है कि उन्होने जाति प्रथा की स्थितियों को ठीक से संबोधित नहीं किया लगभग यही आरोप इस संदर्भ में भी लागू होता है।उन्होने राजनैतिक विचारों के सबसे ज्यादा अनुवाद प्रसारित किए।लेकिन वास्तव में विचार प्रसारित नहीं हो सकें।वामपंथी पार्टियों की यही विडम्मबना रही है। यदि उन्होने वर्ण व्यवस्था की गहरी जड़ों के यथार्थ को समझा होता तो वे अनुवाद के अविष्कार का भी कारगर इस्तेमाल कर पाते और उसमें सत्ता वर्ग की सांस्कृतिक घुसपैठ को भी समझ पाते।आखिर हथियार कब चूक जाते हैं?इस पूरे जंग के विस्तार को इस जानकारी के साथ समझने की कोशिश की जा सकती है कि समाज का बहुत बड़ा हिस्सा आज विश्वविद्यालयों और स्कूलों में हिन्दी की किताबों की मांग कर रहा है और उसे उपलब्ध नहीं हैं।साक्षारता के कथित विकास के बाद साक्षर होने की भाषा में किताबें ही नहीं है।
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें