बुधवार, 28 सितंबर 2011

जन समर्थन से ही रुक सकता है स्वास्थ्य सेवाओं का व्यवसायीकरण :

 डॉक्‍टर अनूप सराया

विश्‍व बैंक लगातार तीसरी दुनिया के देशों की सरकारों को सामाजिक क्षेत्र में वित्तीय कटौती की सलाह देता रहा है और यहां की दलाल सरकारें इन नीतियों को लागू करने में जुटी हुई हैं। पिछले कुछ वर्षों से इस बात की लगातार कोशिश की जा रही है कि एम्स में अब तक जो सुविधाएं उपलब्ध हैं उनके बदले मरीजों से पैसे लिए जायं जो बाजार की दर पर हों। इसके लिए सरकार की ओर से तरह-तरह के सुझाव पेश किये जा रहे हैं। सारा प्रयास एम्स के बुनियादी चरित्र को बदलने का है। इसी क्रम में वेलियाथन कमेटी का गठन हुआ और प्रधानमंत्री कार्यालय इस कमेटी की सिफारिशों को लागू करने पर जोर दे रहा है। ‘प्रोग्रेसिव मेडिकोज ऐंड साइंटिस्ट फोरम’ के सक्रिय सदस्य और एम्स के गैस्ट्राइटिस विभाग में प्रोफेसर डॉ. अनूप सराया का कहना है कि एम्स ऐक्ट के मुताबिक एम्स के कामकाज में किसी भी तरह का हस्तक्षेप नहीं हो सकता- प्रधानमंत्री भी हस्तक्षेप नहीं कर सकता। इसके स्वरूप में कोई भी बुनियादी तब्दीली संसद में बहस के बिना नहीं की जा सकती है। डॉ. सराया का यह भी कहना है कि उन संस्थाओं के लिए जो जनता की सेवा के लिए हैं वित्तीय आधर पर स्वायत्‍तता की अवधरणा ही गलत है। इसके पीछे असली मकसद एम्स को आम जनता की पहुंच से दूर करना है… प्रस्तुत है आनंद स्वरुप वर्मा के साथ अनूप सराय की बातचीत के प्रमुख अंश-
आखिर सरकार एम्स के चरित्र में बदलाव क्यों चाहती है ?
दरअसल स्वास्थ्य संबंधी नीति में भूमंडलीकरण के बाद जो आमूल परिवर्तन आया है उसी का यह असर है। आज ये लोग रेवेन्यू पैदा करने के मॉडल की ओर जा रहे हैं। अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष और वर्ल्ड बैंक के स्ट्रक्चरल ऐडजस्टमेंट प्रोग्राम के तहत सामाजिक सुरक्षा में कटौती की नीति जब से बनी है तो स्वास्थ्य सेवाओं पर होने वाले खर्च में भी कटौती की योजना बनी। राजस्व पैदा करने के मॉडल पर ये लोग चलना चाहते हैं और कह रहे हैं कि हम उन लोगों को जिनके लिए बहुत जरूरी है और जो बीपीएल कार्ड होल्डर हैं उनको फ्री कर देंगे। अब सवाल ये है कि बीपीएल कार्ड कौन हासिल कर सकता है। अगर राज्य कहता है कि हमारे यहां गरीबी रेखा से नीचे के लोगों की संख्या ज्यादा है तो केंद्र इस पर सवाल खड़े करता है। बीपीएल के साथ दिक्कत यह भी है कि अगर यह दूसरे राज्य का है तो हो सकता है दिल्ली में इसे स्वीकार न किया जाय। मसलन इंस्टीट्यूट ऑफ बिलिअरी साइंसेज जैसी कुछ संस्थाएं ऐसी हैं जिसमें केवल दिल्ली का बीपीएल कार्ड होल्डर ही फायदा ले सकता है। अगर दूसरे राज्य से कोई इलाज कराने आ गया और बीपीएल कार्ड उसके पास नहीं है तो क्या आप उसका इलाज नहीं करेंगे?
जो लोग बीपीएल से ऊपर हैं उनमें से भी तो बहुत सारे लोग ऐसे हैं जिनको यहां इलाज कराने की जरूरत पड़ती है।
बिलकुल ठीक कह रहे हैं। जो लोग गरीबी रेखा से ऊपर हैं उनकी भी हैसियत ऐसी नहीं है कि वे अच्छी चिकित्सा के लिए पैसे खर्च कर सकें। अब ये लोग नयी नीति के तहत बहुत सारे लोगों को इलाज से वंचित कर रहे हैं। ज्यादा से ज्यादा लोगों को शामिल करने (इन्क्ल्यूजन) की बजाय अब ज्यादा से ज्यादा लोगों को इससे दूर करने (एक्सक्ल्यूजन) की नीति पर ये लोग चल रहे हैं। इसके अलावा लगातार व्यावसायीकरण की एक मुहिम चल रही है। अंतर्राष्ट्रीय मुद्राकोष और विश्‍व बैंक के नुस्खे के बाद आप देखेंगे कि स्वास्थ्य के बजट में बढ़ोत्तरी नहीं हुई। यूपीए ने अपने न्यूनतम साझा कार्यक्रम में कहा था कि इसे तीन प्रतिशत करेंगे जो आज भी डेढ़ प्रतिशत से नीचे ही है। भारत जैसे एक गरीब देश में जहां बड़ी तादाद में लोग गरीबी रेखा के नीचे हैं, जहां 77 प्रतिशत लोग 20 रुपये से कम की दैनिक आय पर गुजारा करते हैं वहां अगर आप चिकित्सा को महंगी कर देंगे तो लोगों की क्या हालत होगी। एन सी सक्सेना कमीशन की रिपोर्ट हो या योजना आयोग की ढेर सारी रपटों को अगर आप देखें तो साफ पता चलता है कि इस देश में कितनी बड़ी संख्या ऐसे लोगों की है जो चिकित्सा पर पैसा नहीं खर्च कर सकते। हालांकि उन रिपार्टों में भी जो उन्होंने प्रति व्यक्ति कैलोरी का मानदंड रखा है वह आईसीएमआर की गाइड लाइंस को अगर देखें या नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ न्यूट्रीशन की गाइड लाइन देखें तो वह कैलोरी इनटेक भी कम है। यानी अगर आप उसे भी उपयुक्त कैलोरी पर ले आयें तो यह संख्या और भी ज्यादा बढ़ जाएगी। तो ऐसी हालत में भारत जैसे देश में स्वास्थ्य सुविधाएं प्रदान करने की जिम्मेदारी सरकार की हो जाती है। लेकिन सरकार अपना पल्ला झाड़ रही है और कह रही है कि वह महज प्राथमिक स्वास्थ्य सुविधा प्रदान करेगी। यानी प्राथमिक से ऊपर की जरूरत है तो वह खरीदकर उसका लाभ उठायें। जहां पहले ‘सबके लिए स्वास्थ्य’ की बात होती थी अब एफोर्डेबुल हेल्थ पर बात होने लगी है। इतना ही नहीं सरकारी अस्पताल में भी बहुत सारी सेवाएं अब आउट सोर्स की जाने लगी हैं। धीरे-धीरे सरकार अब अपने हाथ खींचने लगी है। नियुक्तियों में भी अगर आप देखें तो मनमाने ढंग से काम हो रहा है। सरकार धीरे-धीरे अपनी संस्थाओं को तबाह करके प्राइवेट संस्थाओं को मदद करने में लगी है।
क्या पिछले 10 वर्षों में एम्स में इसकी कोई झलक मिली है ?
पिछले 10 वर्षों से लगातार इस दिशा में सरकार काम कर रही है। यहां एम्स में पहले 1992-93 में यूजर्स चार्जेज लगाने की कोशिश की गयी। उसके बाद 1996-97 में उसका विरोध कर हमने उसे रुकवाया। इसी वर्ष के आस पास इन्सेंटिव स्कीम लागू करने की कोशिश की गयी कि जो आय होगी उसका एक हिस्सा डॉक्टरों में बांटा जाएगा। उसको भी हम लोगों ने रुकवाया। हमने कहा कि हमारा सबसे बड़ा इन्सेंटिव यही है कि हमारा मरीज सही सलामत ठीक होकर यहां से चला जाय। हमने कहा कि आप जो भी इन्सेंटिव देंगे वह पैसा गरीब आदमी की जेब से ही निकलकर आयेगा इसलिए हमें उसकी जरूरत नहीं है। हां, आप अगर इन्सेंटिव देना ही चाहते हैं तो सरकार अपने किसी मद से इसकी व्यवस्था कर दे। आप किस तरह का इन्सेंटिव देना चाहते हैं। हमने कहा कि यह तो लूट में हिस्सेदारी होगी जो हमें नहीं चाहिए। फि‍र इन्होंने 2002 में कुछ यूजर्स चार्जेज लगाने की कोशिश की। फि‍र उसका विरोध हुआ। मेन इंस्टीट्यूट में तो नहीं लगा लेकिन जहां-जहां सेंटर बन गये हैं, जैसे कार्डियो-न्यूरो सेंटर में- वहां लगा दिया। मेन इंस्‍टीट्यूट में वही जांच निःशुल्क होती है लेकिन इस सेंटर में उसके पैसे देने पड़ते हैं, जबकि वह भी इंस्टीट्यूट का ही हिस्सा है। यह लगभग सन् 2000 से शुरू हुआ। फि‍र इन्होंने 2005 में बाकायदा ‘रेश्‍नलाइजेशन ऑफ चार्जेज’ के नाम पर (जिसे मैं कामर्शियलाइजेशन ऑपफ हेल्थ केयर कहता हूं) हर जांच के, हर ऑपरेशन के, हर चीज के पैसे लगा दिये। ये शुरू भी हो गया। सितंबर, 2005 से यह लागू हुआ जिसका फि‍र हम लोगों ने लगातार विरोध किया। इसके लिए हम लोगों ने लिखने से लेकर धरना-प्रदर्शन सब कुछ किया। लगातार सांसदों से मिलकर इस मुहिम को चलाया। अंततः आठ महीने बाद उस आदेश को वापस लिया गया। यह भूमंडलीकरण के दौर में हमारी एक बड़ी जीत थी। अब फि‍र से उसको किसी न किसी तरीके से लागू करना चाहते हैं। पहले फैकल्टी का कोई भी व्यक्ति छूट दे सकता था जिसे अब विभागाध्यक्ष तक सीमित कर दिया गया है। इनकी कोशिश है कि किसी तरह फि‍र से पैसा वसूला जाय लेकिन हम लोग लगातार इसका विरोध कर रहे हैं।
इसका मतलब यहां के डॉक्टरों में एक तरह की चेतना है?
हम लोग लगातार इन मुद्दों पर लड़ते रहे हैं इसलिए कुछ चीजों को रोक पाते हैं।
अच्छा ये बताइए कि वेलियाथन कमेटी का गठन किस मकसद से किया गया?
पहली चीज तो यह समझ लीजिए कि वेलियाथन साहब हैं कौन। वेलियाथन साहब जब श्री चित्रा इंस्टीट्यूट के डायरेक्टर थे तो वहां उन्होंने एक रेवेन्यू जेनरेशन मॉडल लागू किया था। उसके बाद उन्होंने अवकाश ग्रहण करने के बाद मनीपाल ग्रुप ऑफ हॉस्पिटल के लिए प्राइवेट मेडिकल कॉलेजों के खोलने का काम शुरू किया। तो इस प्रकार वेलियाथन साहब इंडस्ट्री के मददगार और रेवेन्यू जेनरेशन मॉडल की वकालत करने वाले डॉक्टर हैं। इसलिए मनमोहन सिंह और मंटेक सिंह अहलूवालिया की सोच के साथ उनका तालमेल पूरी तरह बैठ गया और उनकी अध्यक्षता में एक कमेटी बनायी गयी। पहली बार जब यहां रेवेन्यू जेनरेशन प्रोग्राम लागू करने की कोशिश की गयी थी उसमें मुंह की खानी पड़ी। दूसरी बार मई, 2006 में यह कोशिश हुई। वह एम्स में आरक्षण विरोधी आंदोलन का दौर था और आंदोलन के जोर पकड़ने के साथ एम्स में अराजकता का माहौल बन गया। यहां के डायरेक्टर पूरी तरह आरक्षण विरोधि‍यों को समर्थन दे रहे थे। और कांग्रेस में भी एक बड़ा सेक्शन था जो आरक्षण विरोधि‍यों के साथ खड़ा था। अब देखिए कि प्रधनमंत्री मनमोहन सिंह प्रोटोकोल तोड़ कर हड़ताली डॉक्टरों से दो बार मिले, जबकि कोई भी प्रधनमंत्री यही कहता कि पहले आप हड़ताल समाप्त करिए फि‍र बात करिए। वह हड़ताल अदालत के आदेश का उल्लंघन करके चल रही थी। उसमें न कोर्ट हस्तक्षेप कर रहा था और न स्थानीय प्रशासन। डॉक्टरों को हड़ताल के लिए टेंट लगवाये जा रहे थे, कूलर लगवाये जा रहे थे और सारी व्यवस्था की जा रही थी। तो पूरी तरह से अराजकता का माहौल था। उसमें यह कमेटी बनायी गयी थी जो इसकी कार्यक्षमता बढ़ाने के तरीकों का सुझाव दे सके। लेकिन उसने उन कारणों के बारे में कोई टिप्पणी नहीं की जिसकी वजह से अराजकता पैदा हुई थी। हां, उसने यह जरूर बताया कि एम्स को किस तरह बड़े उद्योगों के लिए उपलब्ध कराया जाय। यह रिपोर्ट तैयार हो गयी। इसमें भी एक बात ध्यान देने की है। कमेटी की रिपोर्ट को इंस्टीट्यूट के निकाय ने स्वीकृति नहीं दी। उस सूरत में इसकी कोई वैधता नहीं थी। तब भी पीएमओ यह बार बार लिख रहा है कि वेलियाथन की सि‍फारिशों को लागू करिए। कैबिनेट मीटिंग में प्रधनमंत्री ने इंस्टीट्यूट को तीन महीने का समय दिया था कि इसे लागू कर दिया जाय। इस प्रकार हम देखते हैं कि जो रिपोर्ट तैयार की गयी है वह इंस्टीट्यूट के कामकाज के लिए नहीं, बल्कि इसलिए कि इंस्टीट्यूट को इंडस्ट्री के लिए कैसे उपलब्ध कराया जाय। उसका इरादा ही कुछ और है।
तो अगर एम्स पर यह लागू हो जायेगा तो जितने पीजीआई हैं उन पर भी यह लागू होगा ?
देखिए, यह कमेटी इंस्टीट्यूट के लिए बनायी गयी थी। लेकिन सरकार अपनी नीयत साफ कर चुकी है। प्लानिंग कमीशन की मीटिंग के बाद मोंटेक सिंह अहलूवालिया ने साफ कहा है कि एम्स जैसी संस्थाओं को पीपीपी मोड पर डाल दिया जाय- प्राइवेट-पब्लिक पार्टीसिपेशन। लिहाजा जितनी और संस्थायें हैं या बनेंगी वे सभी प्राइवेट-पब्लिक पार्टीसिपेशन के तरीके पर ही चलेंगी। अभी तो तमाम कमियों के बावजूद गरीब से गरीब आदमी को भी यहां से राहत मिल जाती है, लेकिन अब यह जो आखिरी उम्मीद है वह भी खत्म हो जायेगी। इसका चरित्र ही बदल जायेगा। गौर करिये कि इस इंस्टीट्यूट को किस लिए बनाया गया था। जब नेहरू मंत्रिमंडल में तत्कालीन स्वास्थ्य मंत्री अमृतकौर ने संसद में इसका बिल पेश किया तो उसमें कहा गया था कि इसका मकसद गरीब से गरीब आदमी को उत्तम स्वास्थ्य सुविधा प्रदान करना, राष्ट्र के हित में शोध करना, चिकित्सा के लिए लोगों को प्रशिक्षित करना और अध्यापन के नये तरीके विकसित करना है। इसका मतलब अनुसंधान और मरीजों की देखभाल पर मुख्य जोर था।
अब जब आप इंडस्ट्री के साथ जुड़ेंगे तो इसका इस्तेमाल इंडस्ट्री करेगी, जो कंसल्टेंट हैं वे इंडस्ट्री के लिए काम करेंगे, पढ़ाई पर बुरा असर पड़ेगा, मरीजों की स्वास्थ्य सुविधा पर बुरा असर पड़ेगा और अगर आप इसका व्यावसायीकरण करेंगे तो गरीब से गरीब आदमी को आप इलाज नहीं दे सकेंगे। इसका जो मुख्य उद्देश्य है उससे आप दूर हो जायेंगे। इसलिए बुनियादी चरित्र में कोई भी परिवर्तन अगर आप लाना चाहते हैं तो उसके लिए संसद में बहस की जानी चाहिए।
अभी आपको इसका भविष्य कैसा दिखायी दे रहा है? क्या आप लोग इस बदलाव को रोक पायेंगे?
हम लोग तो इसको रोकने की लड़ाई लड़ रहे हैं। हमको जनता से जितना ही अधि‍क समर्थन मिलेगा और राजनीतिक क्षेत्रों से जो समर्थन मिलेगा उतना ही हम इसे रोक पायेंगे। लेकिन राजनीतिक दलों से कोई उम्मीद नहीं है क्योंकि अगर वे इसके प्रति गंभीर होते तो काफी पहले ही इसे रोकने की दिशा में कुछ करते। जहां तक मीडिया का सवाल है, जो मेनस्ट्रीम अखबार हैं और नयी आर्थिक नीति का समर्थन करते हैं, वे हर क्षेत्र की तरह स्वास्थ्य सेवाओं के भी निजीकरण और व्यावसायीकरण के ही समर्थन में आमतौर पर दिखायी देते हैं। इसलिए उन अखबारों में ये खबरें जगह नहीं पातीं।0
क्या स्वतंत्रा रूप से डॉक्टरों का ऐसा कोई समूह है जो आम जनता के स्वास्थ्य को लेकर चिंतित हो और उसकी तरफ से कोई सामूहिक प्रयास किया जा रहा हो?
जब तक हम लोग रेजिडेंट डॉक्टर थे, यह कोशिश हमारी लगातार चलती रही। ऑल इंडिया फेडरेशन ऑफ जूनियर डॉक्टर्स एसोसिएशन का अंतिम अधि‍वेशन 1987 में हुआ। उसमें इस तरह के तमाम मुद्दे हमने उठाये थे और इस पर प्रस्ताव पारित किये थे। इसमें स्वास्थ्य नीति से लेकर स्वास्थ्य सेवाओं के लिए बजट बढ़ाने तक की बातें शामिल थीं। हम लोगों ने मेडिकल संस्थाओं में कैपिटेशन फी का विरोध किया था। आज मानव संसाध्न मंत्रालय, यूजीसी और मेडिकल काउंसिल ये सभी डॉक्टरी की पढ़ाई के निजीकरण और व्यावसायीकरण के पक्ष में हैं। जितने कॉलेज सरकारी सेक्टर में खुले हैं उससे ज्यादा प्राइवेट सेक्टर में हैं। प्रतिभा के इन सारे पुजारियों को उस समय मेरिट की याद आ जाती है जब हम लोग जाति आधरित आरक्षण की बात करते हैं। उन मेडिकल कॉलेजों में जहां सिर्फ पैसे से एडमिशन दिया जाता है वहां इन्हें मेरिट की चिंता नहीं होती। दरअसल जो सुविधाप्राप्त वर्ग है उसने अपने लिए कुछ अपने संस्थान खोल लिए हैं और सरकार अब उन्हीं को मदद करना चाहती है। इसका अंदाजा आप इसी से लगा सकते हैं कि यूजीसी ने हाल में एक निर्णय लिया है कि वे लोग जो प्राइवेट विश्वविद्यालयों या प्राइवेट कालेजों में भी हैं वे भी रिसर्च ग्रांट के लिए हकदार हैं और आवेदन कर सकते हैं। अब अगर आपने इसकी अनुमति दे दी तो आप देखेंगे कि प्राइवेट संस्थानों के लोगों को ही सारी फेलोशिप जायेगी। इनके निहितार्थों पर गौर करिए। वे लोग जो अभी मेडिकल एजुकेशन की सीट्स के लिए एक एक करोड़ तक दे रहे हैं वो फि‍र धीरे-धीरे यूजीसी से टाईअप करके कुछ फेलोशिप्स भी अपने यहां रख लेंगे। वे कहेंगे आप इतना दे दीजिए हम आपको फेलोशिप दे देंगे। तो जो पैसा अभी रेजीडेंसी का देना पड़ता है वे भी ये संस्थान नहीं देंगे। रेजीडेंसी की जो तनख्वाह देनी पड़ती वे भी न देकर वे फेलोशिप दे देंगे। तो यह सब एक सुनियोजित ढंग से लूट की साजिश चल रही है। प्राइवेट कैपिटल के लिए सब कुछ है, आम जनता के लिए कुछ नहीं। यही निदेशक सिद्धांत बन गया है।
वेलियाथन कमेटी रिपोर्ट को पूरी तरह खारिज करने की जरूरत है या इसकी कुछ सिफारिशों को स्वीकार किया जा सकता है ?
यह जिस भावना से लिखी गयी है उसमें ही यह बात निहित है कि इसका पूरा मकसद बहुसंख्यक गरीब जनता के खिलाफ और सुविधासंपन्न वर्ग तथा उद्योगों के हित में है। इसलिए इसे तो पूरी तरह खारिज करने की जरूरत है। इसमें सब कुछ आउटसोर्सिंग पर आधरित है। अब इसकी अनुसंधान परिषद (रिसर्च काउंसिल) के ढांचे की परिकल्पना देखिए जिसमें कहा गया है कि उद्योग क्षेत्र से दो लोग होंगे और एक विख्यात वैज्ञानिक होगा। यह वैज्ञानिक भी किसी फर्मास्यूटिकल उद्योग का नामांकित व्यक्ति होगा। इसमें अनुसंधान और शोध को भी उद्योगों के हित के लिए बताया गया है। इसमें यह भी कहा गया है कि एम्स ऐक्ट में संशोध्न कर दिया जाय और इसके निकायों में जिन लोगों को रखा जाय उनमें उद्योग के लोग हों, सीआईआई और पिफक्की से लोग लिए जायं। इंस्टीट्यूट के काम काज के बारे में इन्होंने जिनसे राय मांगी वे सभी उद्योग क्षेत्र से आते हैं। इसमें रिसर्च इंसेंटिव देने की बात कही गयी है जिसके खिलाफ हम 150 लोगों ने हस्ताक्षर करके भेजा कि हमें यह नहीं चाहिए क्योंकि इससे हमारा पूरा ओरिएंटेशन गड़बड़ हो जायेगा, फर्जी रिसर्च किए जाएंगे और फि‍लहाल उसे रोक दिया गया है।
(तीसरी दुनि‍या जनवरी-2011 से साभार)

शुक्रवार, 16 सितंबर 2011

भ्रष्टाचार के खिलाफ टीम अन्ना का आन्दोलन : एक विश्लेषण


दूसरी और अंतिम किस्त 
दिगंबर

भ्रष्टाचार विरोधी आन्दोलन के अनुयायी कौन और क्यों?
अन्ना टीम की भ्रष्टाचार विरोधी मुहिम में शहरी मध्यम वर्ग ने बढ़-चढ़ कर हिस्सा लिया. इस आन्दोलन का समर्थक और जनाधार यही वर्ग था. समाज का मुखर तबका होने के कारण यह किसी मुद्दे पर राय बनाने में आम तौर पर सबसे प्रभावी भूमिका निभाता है. मीडियाकर्मी जब भी किसी विचार पर मत संग्रह करते हैं या पैनल डिसकशन आयोजित करते हैं तो वेसिविल सोसाइटीयानी मध्यम वर्ग की ही राय लेते हैं, जैसे- एनजीओ चलाने वाले, पत्रकार, खिलाड़ी, अभिनेता, विभिन्न पेशों से जुड़े लोग, प्रतिष्ठित संस्थानों के छात्र, बुद्धिजीवी, मानवाधिकार कार्यकर्ता और अन्य लोग. मध्यम वर्ग के अधिकांश लोग सक्रिय राजनीति से दूर रहना ही पसंद करते हैं. ‘नो पोलिटिक्स प्लीज’, ‘विचार और जूते दरवाजे पर उतार कर आयेंऔरपोलिटिक्स इज लास्ट रिफ्यूज ऑफ स्काउनड्रेल्सउनके प्रिय नारे हैं. इसीलिए अन्ना के मीडिया प्रेरित आन्दोलन में मध्यम वर्ग की भारी पैमाने पर हिस्सेदारी ने बहुतेरे लोगों को चकित, भ्रमित और भाव विह्वल किया. इसे अभूतपूर्व और ऐतिहासिक महत्व की घटना बताया गया जो काफी हद तक सही भी है. इस मुहिम में मध्यम वर्ग की अति सक्रियता को पिछले बीस वर्षों के दौरान उसके आकार, सामाजिक, आर्थिक स्थिति और चारित्रिक बदलाव से अलग करके नहीं समझा जा सकता है. 1991 में नवउदारवादी आर्थिक नीति लागू होने के बाद से ही आर्थिक विमर्श में मध्यम वर्ग को काफी महत्व दिया जाने लगा था. विदेशी निवेशकों को रिझाने के लिए सरकार और मीडिया ने मध्यम वर्ग की संख्या को बढ़ा-चढ़ा कर बताना शुरू किया था. सही संख्या का पता लगाने के लिए कई देशी-विदेशी संस्थाओं ने सर्वेक्षण किये और एक ही साथ 5 करोड़ से लेकर 30 करोड़ तक के आँकडे सामने आये. इन प्रयासों के पीछे क्रय-शक्ति और उपभोग-क्षमता का पता लगाना था ताकि बहुराष्ट्रीय कम्पनियाँ अपने माल और सेवाओं के उपभोक्ताओं का सही-सही अंदाजा लगा सकें. यह काफी कठिन काम था क्योंकि उस दौरान सीमित आमदनी के चलते मध्यम वर्ग के जीवन स्तर और उपभोग पैटर्न में काफी भिन्नता थी.I 25 साल पहले वास्तविक जीवन में और फिल्मों में भी ठेठ मध्यम वर्गीय चरित्र (अमोल पालेकर या संजीव कुमार) का जीवनस्तर आज की तुलना में भला क्या था? कितने मध्यम वर्गीय परिवार वाशिंग मशीन, माइक्रोवेव ओवन, कार और होली डे पैकेज का उपभोग करते थे? लेकिन आज स्थिति भिन्न है. मध्यम वर्ग की संख्या में वृद्धि और उनकी खुशहाली के लिए शासक वर्ग अपनी पीठ थपथपाते हैं और इसे अपनी नीतियों की सफलता का प्रमाण बताते हैं तो यह ठीक ही है. विजय सुपर स्कूटर से लेकर नए मॉडल की गाड़ियों तक, पलस्तर झड़ते किराये के मकान से आलीशान अपार्टमेंट के मालिकाने तक तथा सरकारी स्कूलों-अस्पतालों से संपन्न पांच सितारा स्कूलों-अस्पतालों तक की यात्रा जितनी तेजी से पूरी हुई, उसके बारे में 1990 से पहले किसी ने कल्पना भी नहीं की थी. बाजार अर्थव्यवस्था को गतिशील बनाने के लिए थोड़ी संख्या वाले पहले से मौजूद मध्यम वर्ग की तादाद और आमदनी बढ़ाना जरूरी था. साथ ही अगर शासकों ने अपनी नीतियों के समर्थक और सहयोगी तथा अपने जनाधार का विस्तार नहीं किया होता तो समाज का मुखर तबका होने के नाते मध्यम वर्ग इन नीतियों के खिलाफ निरंतर जारी जनांदोलनों को तेज करने में भूमिका निभाता रहता. मध्यम वर्ग के विभिन्न हिस्सों ने ‘90 के दशक के पूर्वार्ध में नयी आर्थिक नीतियों का प्रबल विरोध किया था, जिनमें सार्वजनिक क्षेत्र और सरकारी विभागों के कर्मचारी, व्यापारी, शिक्षक, छात्र तथा पत्रकारों, बुद्धिजीवियों और पेशेवरों का एक हिस्सा शामिल था. आज मध्यम वर्ग में विरोध का वह स्वर कहीं दूर-दूर तक सुनाई नहीं पड़ता है. उसकी जगह अब वहाँ से शाइनिंग इंडिया, अतुल्य भारत, मेरा भारत महान, ‘आई लव माई इंडिया, जय होकी अनुगूँज रही है. पिछले बीस वर्षों के दौरान देश कि कुल आय का बंटवारा इस तरह पुनर्गठित किया गया कि शारीरिक श्रम और मानसिक श्रम के बीच, वास्तविक उत्पादन और उस पर निर्भर सेवा क्षेत्र के बीच की तथा गाँव और शहर के बीच खाई लगातार चौड़ी होती गयी. पांचवें और छठे वेतन आयोग ने केंद्र, राज्य और सार्वजनिक क्षेत्र में कार्यरत लोगों के वेतन भत्तों में भारी वृद्धि की तथा न्यूनतम तथा अधिकतम वेतनमान में भारी अंतर पैदा किया. निजी क्षेत्र के प्रबंधकों और मानसिक श्रम करने वालों के वेतन में तो काफी तेजी से वृद्धि हुई, लेकिन वहाँ प्रत्यक्ष उत्पादन और शारीरिक श्रम करने वालों की न्यूनतम मजदूरी भी तय नहीं है. इन सभी उपायों से ऊँची आय और क्रय-शक्ति वाला माध्यम वर्ग का एक छोटा तबका पैदा हुआ जबकि बड़ी संख्या में लोगों को बाजार से बहिष्कृत कर दिया गया. यह यात्रा उतनी ही विकृतिपूर्ण और असंगत रही है जितनी वास्तविक उत्पादन वाले कृषि और उद्योग की कीमत पर सेवा क्षेत्र का असमान्य और गैर अनुपातिक विस्तार. निश्चय ही यह सहज स्वाभाविक प्रक्रिया में नहीं बल्कि सरकार के सचेत प्रयास और उदारीकरण-निजीकरण की उन्हीं नीतियों के चलते घटित हुआ है जिनके कारण देश की बहुसंख्य मेहनतकश जनता आज तबाही की चपेट में आकर कराह रही है. उदारीकरण-निजीकरण की नीतियों के चलते सेवा क्षेत्र- आईटी, कम्युनिकेशन, इलेक्ट्रोनिक मीडिया, रियल इस्टेट, फाइनांस, शेयर बाजार, बीपीओ, केपीओ तथा निजी अस्पतालों और शिक्षण संस्थानों में रोजगार के नए अवसर पैदा हुए जिससे आबादी के एक छोटे से हिस्से की आय में काफी वृद्धि हुई. देश की अर्थव्यवस्था में बहुराष्ट्रीय कंपनियों की घुसपैठ से भी शहरों में खास तरह के रोजगार और मध्यम वर्ग कि एक नयी जमात तैयार हुई. इस तरह निजीकरण, बाजारवादी अर्थव्यवस्था और नवउदारवादी नीतियों के परिणामस्वरूप मध्यम वर्ग की आमदनी और तादाद में इजाफा हुआ. इसका ऊपरी हिस्सा आम तौर पर इन नीतियों का प्रबल समर्थक है और आर्थिक नवउपनिवेशवादी मौजूदा ढांचे का सामाजिक अवलंब है. भारत में नवउदारवादी नीतियों के प्रस्तोता और प्रवर्तक पूंजीपति वर्ग और उसके राजनीतिक नुमाइंदे थे लेकिन उच्च मध्यम वर्ग भी शुरू से ही इसका प्रबल समर्थक था. इस वर्ग का सपना था कि वैश्वीकरण-उदारीकरण भारत को विकसित देशों कि क़तार में ला खड़ा करेगा, भारत को महाशक्ति बना देगा, यहाँ की हर चीज विश्वस्तरीय हो जायेगी और भारत स्वर्ग बन जायेगा. भारत को महाशक्ति बनाने में यह वर्ग कैसे अपना योगदान कर सकता है, इसकी झलक स्वदेश और रंग दे बसंती जैसी फिल्मों में दिखाई गयी है. लेकिन उच्च मध्यम वर्ग जब वर्तमान यथार्थ पर निगाह डालता है तो उसे नवउदारवादी सपना साकार होते नहीं दीखता. उन नीतियों का अन्धभक्त होने के कारण वह उनमें कोई कमी नहीं देखता. उसे लगता है कि सारी बुराई भ्रष्ट नेताओं और नौकरशाहों, यानी सरकार में है जो अपना काम ठीक से नहीं करती. मुस्लिम तुष्टिकरण’, आरक्षण, गरीबों के लिए सस्ता अनाज, रोजगार गारंटी जैसी नीतियों को वह नेताओं की वोट बैंक की राजनीति और नवउदारवादी/बाजारवादी नीतियों के रास्ते का रोड़ा मानकर आलोचना करता है. भ्रष्टाचार को भी वह ऐसी ही बाधा मानता है जो कुछ भ्रष्ट और स्वार्थी नेताओं द्वारा खड़ी की गयी है. उसका मानना है कि भ्रष्टाचार ही सारी समस्याओं की जड़ है जिसे दूर करना कोई मुश्किल काम नहीं है. इसका एक ही सरल उपाय है कि कठोर कानून बनाओ. उधर सरकार की मज़बूरी यह है कि उसे वोट लेने के लिए कुछ लोक-लुभावन कार्यक्रम बनाने पड़ते हैं व्यवस्था को चलाने और चुनाव जीतने के लिए भ्रष्टाचार को बनाए रखना होता है जबकि भद्रलोक के सामने ऐसी कोई मज़बूरी नहीं. अन्ना टीम के आन्दोलन का आधार यही उच्च मध्यम वर्ग है. ऊपर से देखने पर ऐसा लग सकता है कि सरकार के खिलाफ आवाज उठाकर यह उसी थाली में छेद कर रहा है जिसमें खाता है. लेकिन वास्तव में यह मुहिम शासक वर्गों के विरुद्ध नहीं बल्कि भ्रष्टाचार मिटा कर नवउदारवादी बाजार अर्थव्यवस्था को दीर्घायु बनाने के लिए है. अन्ना आन्दोलन ने यह साबित कर दिया है कि सरकार और भद्रलोक के बीच का टकराव मित्रवत है. यह आन्दोलन सरकार की नीतियों के खिलाफ नहीं, मूल ढांचे के खिलाफ नहीं. भद्रलोक इस भ्रष्टतंत्र को समाप्त करने की बातें नहीं करता, बल्कि भ्रष्टाचार मुक्त करके उसे और बेहतर बनाने में मदद करना चाहता है. वह इस सड़ते, बदबू फैलाते लोकतंत्र की सफाई करना चाहता है ताकि देशी-विदेशी पूंजीपति कारगर तरीके अपना कर लूटतंत्र जारी रखें और भद्रलोक के स्वर्ग का वैभव बढ़ाते रहें.
अन्ना आंदोलन और मुख्यधारा की मीडिया
अन्ना टीम के जनलोकपाल आन्दोलन में मीडिया की भूमिका को लेकर भी काफी सवाल उठे. इसमें संदेह नहीं कि दिन-रात सीधा प्रसारण के लिए अपने क्रेन और क्रू के साथ अगर टीवी चैनल सक्रिय नहीं होते, तो इस आन्दोलन में स्वतःस्फूर्त तरीके से इतने लोग शामिल नहीं होते. जन आंदोलनों के प्रति मीडिया के परंपरागत रवैये को देखते हुए यह सक्रियता भले ही अचम्भे में डालने वाली लगती हो लेकिन आन्दोलन के चरित्र और मीडिया की प्राथमिकता पर गौर करें तो उसकी भूमिका अस्वाभाविक नहीं लगेगी. अपने एक अध्ययन में पत्रकार विपुल मुदगल (सीएसडीएस) ने सर्वाधिक प्रसार वाले अंग्रेजी और हिंदी के तीन-तीन अख़बारों के 48 अंकों का विश्लेषण किया. इन अख़बारों ने अपने सम्पादकीय पन्ने का केवल 2 प्रतिशत ग्रामीण इलाकों में रहने वाली दो तिहाई जनता की समस्यों पर खर्च किया. इन अख़बारों में छपने वाली 100 से 200 सामग्री में से औसतन तीन सामग्री ग्रामीण मुद्दों पर थी. इनमें भी अधिकांश सामग्री अपराध, हिंसा और दुर्घटनाओं से सम्बंधित थी. समाचारों के चुनाव के मामलों में हिंदी और अंग्रेजी अख़बारों के चरित्र में कोई खास फर्क नहीं पाया था, जबकि हिंदी अख़बारों के अधिकांश पाठक ग्रामीण क्षेत्र के लोग होते हैं. इन अख़बारों का झुकाव उपभोक्ता केंद्रित होता है और उनकी निगाह ऊपर उठते पढ़े-लिखे शहरी उपभोक्ताओं पर होती है जिनकी दुनिया में गरीबी और पिछड़ेपन के लिए कोई जगह नहीं होती. इस मामले में टीवी चैनलों का रिकॉर्ड तो और भी खराब है. वहाँ तो सब कुछ नवधनाड्य उपभोक्ता वर्ग के लोगों के मनोरंजन के लिए है. मीडिया को लोकतंत्र का चौथा स्तंभ माना जाता है. नवउदारवादी दौर में लोकतंत्र के अन्य स्तंभों की तरह मीडिया भी बुरी तरह भ्रष्टाचार में लिप्त है. नीरा राडिया प्रकरण ने पूंजीपति, नेता और मीडिया के अपवित्र गठबंधन को उजागर किया. इसके पहले नोट के बदले समाचार लिखने का मामला देश भर में चर्चा का विषय बना था. पहले भी सरकार और पूंजीपतियों से प्राप्त होने वाले विज्ञापन और सुविधाओं से मीडिया का चरित्र प्रभावित होता था. लेकिन मौजूदा दौर में देशी-विदेशी पूंजीपतियों द्वारा भारी पूंजी निवेश ने मीडिया को विराट पूंजी प्रतिष्ठानों में बदल दिया. इसकी प्राथमिकता पूंजीवाद की हिफाजत करना और साथ ही अपनी पूंजी का विस्तार करना रह गया है. स्वतंत्रऔरनिष्पक्षहोने का मुखौटा भी अब नहीं रहा. उसने अपने आप को जनता से पूरी तरह काट लिया है. ख्यातिलब्ध पत्रकार पी. साईनाथ ने इग्नू में एक व्याख्यान देते हुए मीडिया के इस बदले चरित्र को सारगर्भित रूप में प्रस्तुत किया‘‘“आज अख़बारों में कोई श्रमिक संवाददाता नहीं है, आवास और प्राथमिक शिक्षा का कोई संवाददाता नहीं है. इस देश की 70 प्रतिशत आबादी से हम साफ़ कह रहे हैं कि हमें उनसे कोई लेना-देना नहीं है.’’ उनका कहना था कि ““ निजी सुलहनामों के खंडहर पर जरखरीद खबरें उठ खड़ी हुई हैं. निजी सुलहनामों ने मीडिया कंपनियों को अपनी कंपनियों में शेयर दिए थे जो 2008-09 के शेयर बाजार के डूबने के साथ ही रद्दी में बदल गए. जरखरीद ख़बरों ने इन भ्रष्ट कंपनियों और राजनेताओं को विधानसभा और आम चुनावों के दौरान इस लायक बनाया कि वे मीडिया के साथ बेनामी लेन-देन कर सकें.’’ मीडिया के चरित्र पर इस संक्षिप्त चर्चा की पृष्ठभूमि में यह समझना कठिन नहीं कि अन्ना के जन लोकपाल आन्दोलन के दौरान मीडिया ने इतनी सक्रियता क्यों दिखाई और क्यों सातों दिन चौबीस घंटे हर छोटी-छोटी बातों का भी ग्राफिक चित्रण करती रही. यह अकारण नहीं कि प्रधानमंत्री को जन लोकपाल बिल के दायरे में लाने के लिए बजिद टीम अन्ना मीडिया को उससे अछूता रखने का हामी है. मीडिया के मालिकों, पत्रकारों, विज्ञापन दाताओं और लक्षित दर्शकों-पाठकों तथा अन्ना आंदोलन के नेताओं-समर्थकों के बीच अद्भुत वैचारिक और वर्गीय एकरूपता है. दलित, पिछड़े, आदिवासी और मुस्लिम संगठनों का यह आरोप बिलकुल सही है कि भ्रष्टाचार विरोधी आन्दोलन के नेतृत्व पर सवर्ण हिंदू मानसिकता के लोग हावी हैं. मीडिया पर भी इसी तबके का वर्चस्व है जो काफी हद तक मीडिया की प्राथमिकता और पक्षधरता तय करता है. अन्ना आन्दोलन के समानांतर उसी समय दिल्ली में दलित, पिछडों, अल्पसंख्यकों की एक रैली हुई थी जिसे मीडिया ने तरजीह नहीं दी. इससे पहले आरक्षण विरोधी आन्दोलन के समर्थन में भी मीडिया ने बढ़-चढ़ कर हिस्सा लिया था. दिल्ली में मजदूरों-किसानों और अन्य मेहनतकश तबकों की रैलियों और प्रदर्शनों के प्रति मीडिया का रुख या तो अनदेखी करने का या उसे बदनाम करने का ही रहा है. इसी वर्ष फरवरी में देश की 9 प्रमुख ट्रेड यूनियनों की रैली के प्रति मीडिया ने ऐसा ही रवैया अपनाया. उसने आन्दोलन को अपेक्षित स्थान नहीं दिया और कहीं चर्चा भी की तो इस रूप में कि इसके चलते दिल्ली में यातायात को कितना व्यवधान पहुंचा और दिल्लीवासियों को कितनी परेशानी झेलनी पड़ी. मीडिया का मुख्य उद्देश्य अब भव्य आयोजनों की दिलचस्प और ब्योरेवार रिपोर्टिंग करके लोगों को रिझाना और अपनी टीआरपी बढ़ाना ही रह गया है. अन्ना आन्दोलन की रिपोर्टिंग के साथ भी ऐसा ही हुआ. मीडिया ने रोचक और चटपटे ब्योरे, उत्सुकता और सनसनी जगाने वाले तथ्यों तथा उत्सव, उमंग और छिछली भावुकता वाले दृश्यों को खूब बढ़-चढ़ कर प्रस्तुत किया. लेकिन भ्रष्टाचार के मुद्दे को गंभीरता से सामने लाने, उसके कारणों का विश्लेषण करने, लोकपाल बिल के अलग-अलग मसौदों की तुलनात्मक रूप से व्याख्या करने, लोकपाल के लाभ-हानि पर विभिन्न पक्षों की राय बताने, कुल मिलाकर दर्शकों-पाठकों को शिक्षित करने की जहमत मोल नहीं ली. इसके बजाय किसने अपने नवजात बच्चे का नाम अन्ना रखा, कौन नंगे पैर चलकर अन्ना के चरण छूने पहुंचा, किसने कितने आकर्षक गोदने-टैटू रचाए, लोगों में कितना उमंग था, जैसी बातों पर ही ध्यान केंद्रित किया, बीच-बीच में उच्च मध्यवर्गीय वस्तुओं और सेवाओं का विज्ञापन भी चलता रहा. आन्दोलन को तेज करने और उसका टेम्पो ऊँचा रखने और अन्ना को शोहरत दिलाने में मीडिया की भूमिका असंधिग्ध है. अप्रैल में आन्दोलन की घोषणा करने से पहले अन्ना के नाम के साथ गूगल सर्च में अन्ना कोर्निकोवा का सन्दर्भ आता था और अन्ना हजारे के नाम पर केवल चार या पांच परिणाम दिखते थे, जबकि प्रधानमंत्री द्वारा ड्राफ्टिंग कमिटी में उन्हें शामिल किये जाने के बाद उनके हजारों संदर्भ आने लगे. 28 अगस्त को एनडीटीवी ने घोषणा की कि यह संख्या 2 करोड़ 90 लाख से भी ज्यादा हो गयी है और भारत के वेब जगत में उनकी लोकप्रियता लेडी गागा से तो कम, लेकिन प्रधानमंत्री और राष्ट्रपति से अधिक है. अन्ना हजारे और उनकी लोकपाल मुहिम की छवि बनाने के अलावा मीडिया ने 13 दिनों के इस आन्दोलन के दौरान यह प्रयोग भी सफलतापूर्वक आजमाया कि शासक वर्गों द्वारा किस हद तक मीडिया का इस्तेमाल किया जा सकता है. नोम चोम्श्की ने तो मीडिया द्वारा सहमति गढ़े जाने का ही विश्लेषण किया था. आज मीडिया उससे आगे बढ़करअसहमति गढ़नेमें भी सफल रहा है. यानि वह मन चाहे मुद्दे गढ़ सकता है और उन्हें लोगों के मष्तिस्क में रोप कर उन्हें उद्वेलित कर सकता है तथा उस उद्वेलित समूह को मनचाहे तरीके से नियंत्रित और संचालित कर सकता है. इस घटना चक्र के दौरान इसे आजमाया जा चुका है. निश्चय ही यह अन्य सभी बातों से कहीं अधिक गम्भीर और विचारणीय मामला है.