यहां तो जीवन से मौत है सस्ती
शांतनु
शांतनु
राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र (दिल्ली) का इलाका भारत के नगरों पर एक सितारे की तरह चमकता रहता है। यहां अथाह पैसा है। रोजगार के साधन हैं। फैक्ट्रियों, कंपनियों की भीड़ है और काम करने वालों की जरूरत भी। इसलिए देश के पिछड़े इलाकों से लाखों-लाख गरीब आबादी अपनी मेहनत के बदले एक बेहतर जिंदगी की तलाश में यहां आती रहती है, लेकिन बेहतर जिंदगी तो शायद ही किसी को मिल पाती है, ज्यादातर को महानगर के किसी कोने में, गंदी बस्ती में सिर छुपाने की जगह नसीब होती है। फिर शुरू होता है सुबह से लेकर शाम तक पिसने का दौर, जिसमें वह तिल-तिल कर मरता रहता है। चमक-दमक के पीछे की सच्चाई से वह जल्दी ही रूबरू हो जाता है, लेकिन बदकिस्मती तो देखिए, जिंदगी की जरूरत उसे वहां से भागने नहीं देती। इन लोगों में से एक आबादी, जिनमें नौजवान लड़के-लड़कियां ज्यादा होते हैं, उन्हें पता ही नहीं होता कि वह जो काम कर रहे हैं, वह कितना खतरनाक है। इसी दुश्चक्र में ऐसे लोग कई बार मौत के मुंह तक पहुंच जाते हैं।
दिल्ली की तुगलकाबाद क्षेत्र की गारमेंट फैक्ट्री में काम करने वाले मजदूरों की मौत इसका एक उदाहरण है। अमेजिंग क्रिएशन नाम की इस फैक्ट्री में पिछले 25 जनवरी की शाम आगजनी में सरकारी आंकड़ों में 16 लोग जलकर मर गए और पांच घायल हो गए।
लालच की नींव पर खड़ी फैक्ट्रियां
हर फैक्ट्री मालिक का उद्देश्य यही होता है कि मजदूरों के श्रम को निचोड़ कर ज्यादा से ज्यादा मुनाफा कमाया जाए। पहले देश का श्रम कानून उनके इस लालच को बेलगाम होने से रोकता था, लेकिन उदारीकरण की नीतियां लागू होने के बाद से फैक्ट्री मालिकों को मजदूरों के श्रम को निचोड़ने के लिए बेलगाम कर दिया गया। इन नीतियों ने एक्सपोर्ट (निर्यात) उद्योगों को खूब बढ़ावा दिया, जिसके कारण पूरे देश में निर्यात उद्योगों का जाल सा बिछ गया। इन एक्सपोर्ट उद्योगों की बुनियाद ही सस्ते श्रम पर टिकी हुई है। इससे सरकार और एक्सपोर्ट फैक्ट्री मालिकों को डालर में जबरदस्त कमाई होती है। इन फैक्ट्रियों में तैयार मालो के खरीददार विदेशी कंपनियों को भी भारी मुनाफा होता है। वहीं दूसरी ओर मजदूरों को इसकी कीमत, अपनी सेहत या जान देकर चुकानी पड़ती है। कम समय में ज्यादा मुनाफे के लालच में नए-नए खिलाड़ी, इस मैदान में कूदते रहते हैं और जल्दी ही करोड़ों के मालिक बन जाते हैं। तुगलकाबाद के अमैजिंग क्रिएशन का मालिक मुन्ना मास्टर भी इस खेल में ऐसा ही एक नया खिलाड़ी था।
अस्सी के दशक में मुन्ना मास्टर एक अच्छे कारीगर के रूप में जाना जाता था। उस समय वह एक गार्मेंट फैक्ट्री में पैटर्न मास्टर के पद पर काम करता था। किसी गार्मेंट फैक्ट्री में यह पद महत्वपूर्ण होता है। विदेशी कंपनी के एजेंट, जिसे ‘बायर’ कहा जाता है, से पैटर्न मास्टर का सीधा संबंध होता है। बायर की जरूरत के मुताबिक, वह नमूना तैयार करता है और अपने कारीगरों को माल का डिजाइन देता है। इस संबंध का फायदा उठाकर मुन्ना मास्टर ने 1987-88 में खुद की एक फैक्ट्री शुरू की, हालांकि इसमें वह सफल नहीं हो सका। 1993-94 में उसने फिर से फैब्रिकेटर का काम शुरू कर दिया। अब तक उसने अपने लड़के को डिजाइनिंग में डिप्लोमा करा दिया था। इस दौरान देश का औद्योगिक माहौल भी काफी बदल चुका था। इस बदले माहौल ने एक तरफ जहां मजदूरों की जिंदगी को नर्क बनाना शुरू कर दिया, वहीं देश-विदेश के पूंजीपति इसकी बदौलत मालामाल होने लगे। स्थिति यह हो गई कि देश के श्रम कानूनों का फैक्ट्री मालिकों के लिए कोई मायने नहीं रह गया। मुन्ना मास्टर ने भी इस माहौल में खूब मुनाफा कमाया और जल्दी ही अमैजिंग क्रिएशन कंपनी बना ली। मुन्ना की कंपनी में तैयार माल निर्यात किया जाता था।
अमैजिंग क्रिएशन: जहां हर पल घात लगाए रहती है मौत
तुगलकाबाद स्कूल के पीछे पतली सी गली के शुरुआत में बने बमुश्किल 8-10 फिट चौड़े इस मकान बाहर से देखने पर पता ही नहीं चलेगा कि यह एक गार्मेंट फैक्ट्री है। रिहाइशी इलाके में महज 80 गज की जमीन पर बने इस चार मंजिला इमारत लगभग 150 मजदूर काम करते थे। मजदूरों की यह संख्या आर्डर के मुताबिक घटती-बढ़ती रहती थी।
चौथे मंजिल पर जहां यह हादसा हुआ, वहां शिफान व जॉर्जेट के कपड़ों पर अड्डा वर्क यानी हाथ की कसीदाकारी, तैयार कपड़ों की धुलाई और उनको सुखाया जाता था। हादसे के दिन, वहां लेडीज सूट का काम चल रहा था। कपड़ों की धुलाई का काम एक ऐसे सॉल्वेंट से किया जाता है, जिसे पेट्रोल में केमिकल मिलाकर तैयार किया जाता है। जानकार लोगों का कहना है कि यह सॉल्वेंट पेट्रोल से कई गुना ज्वलनशील होता है। इससे कपड़ों को धुलने के बाद, उन्हें खुले में सुखाया जाता है, लेकिन इस फैक्ट्री में कपड़ों को एक मशीन में डालकर इसका सॉल्वेंट निकाल लिया जाता है।
गार्मेंट उद्योग से लंबे समय से जुड़े रहे तस्कीमुद्दीन, जिनका बेटा आमिर, इस फैक्ट्री में हादसे का शिकार हुआ, का कहना है कि मशीन में कपड़ों को सुखाना गैर-कानूनी है, क्योंकि इससे आग पकड़ने का खतरा होता है। मालिक सॉल्वेंट बचाने के लालच में मशीन का इस्तेमाल करते हैं। फैक्ट्री में हादसे के वक्त एक जनरेटर, डीजल और सॉल्वेंट का स्टॉक भी मौजूद था।
हादसे के दिन काम का बहुत दबाव था। मालिक ने मजदूरों को ओवर टाइम के लिए रोक लिया था, यहां तक कि उसने अपने लड़के को भी धुलाई के काम में लगा दिया था। जल्दबाजी में काम होने के कारण, सॉल्वेंट मशीन से बाहर बिखरने लगा और वह अड्डा वर्क कर रहे मजदूरों तक पहुंच गया। मजदूरों को सॉल्वेंट की गंध का अंदाजा हो गया था, लेकिन मालिक के डर से किसी ने मुंह नहीं खोला। वैसे भी अड्डा वर्क ज्यादातर बच्चों से ही कराया जाता है। धुलाई मशीन में स्पार्किंग या किसी शॉर्ट सर्किट की वजह से आग लग गई और देखते ही देखते आग की लपटों ने चौथे माले को अपनी आगोश में लिया। सॉल्वेंट, डीजल, शिफॉन और जॉजेट के कपड़ों के अंबार में आग लगने के साथ ही विस्फोट हो गया, जिससे कोठरी की छत उड़ गई। आस-पास के लोगों ने इस विस्फोट को बॉयलर फटना समझा। उधर अंदर मजदूर बिजली के करंट और आग में जलने से तड़प-तड़प कर मर रहे थे। वहां काम कर रहे मजदूरों में, सिर्फ वही किसी तरह जान बचाने में सफल रहे, जो सीढ़ी के पास काम कर रहे थे।
कितने मरे?
ऐसी किसी फैक्ट्री में हादसा होने पर मरने वालों की सही संख्या का पता लगाना, बहुत कठिन होता है, क्योंकि इस तरह की फैक्ट्रियों में ठेका और कैजुअल मजदूरों की संख्या स्थाई मजदूरों के मुकाबले कहीं ज्यादा होती है। बाहर से आए गरीब मजदूरों की ओर से वैसे भी कोई नहीं बोलता। अमेजिंग क्रिएशन के मामले में सरकार ने अब तक 16 मजदूरों के मरने और पांच के घायल होने की ही बात को माना है। जबकि, हादसे के दूसरे दिन ही स्थानीय लोगों ने फैक्ट्री से लाशों को निकालते हुए देखा। आगजनी में मरने वाली, लालती देवी ने हादसे के दो दिन पहले अपने परिवार के लोगों को बताया था कि उस फैक्ट्री में बिहार की पांच महिलाओं को एक दिन पहले काम पर रखा गया था। उसने यह भी बताया था कि उनके पास पैसे नहीं थे और वे लालती से 500 रुपये उधार मांग रही थीं। लालती के पास भी पैसे कम ही थे, इसलिए वह उन्हें 50 रुपये ही दे सकी। वे पांचों महिलाएं कहां गर्इं, इसका कुछ पता नहीं चला। हादसे के बाद पुलिस की मिलीभगत से मुन्ना मास्टर ने गैर-कानूनी तौर पर फैक्ट्री की सफाई कराई थी। अब ऐसे में कौन जाने कि इस दौरान कितनी लाशों को ठिकाने लगाया गया।
मालिक और प्रशासन का रवैया
इस दिल दहला देने वाली वारदात के बाद मालिक और प्रशासन के रवैये से एक बार फिर यही साबित हुआ कि हुकमरान लोग मजदूरों को पूंजी पैदा करने वाले पुरजे के अलावा और कुछ नहीं समझते हैं। इस घटना के बाद, जहां मालिक अपनी गर्दन बचाने के लिए गोटी बिठाने लगा, वहीं प्रशासन ने सारा दोष फैक्ट्री मालिक पर डालकर छुट्टी पा ली। प्रशासन को डर था कि कहीं दिल्ली की चकाचौंध के पीछे मजदूरों की नारकीय जिंदगी की झलक, दुनिया वालों को न दिख जाए। इस लिए उसने मामले को जल्दी-जल्दी खत्म करवा दिया। मजदूरों का गुस्सा इस बात पर था कि फैक्ट्री मालिक ने मजदूरों के घरों में हादसे की खबर तक नहीं पहुंचने दी। मजदूरों के परिवार वाले दुखी थे, कि वे अपने कलेजे के टुकड़ों को बचाने की आखरी कोशिश तक नहीं कर पाए। मालिक की चिंता इससे अलग थी, वह इस बात की जल्दी में था कि उसके पास दो करोड़ का जो माल बचा है, उसे जल्दी से जल्दी विदेश भेजा जाए। हादसे के दूसरे दिन, उसने थाने में अपनी गोटी सेट कर ली, फैक्ट्री से माल निकलवाया, बची हुई लाशों को ठिकाने लगाया और फैक्ट्री की अच्छी तरह से धुलाई करवा दी। यह मालिक और प्रशासन के बीच साठगांठ का ही नतीजा था कि मजदूरों के दबाव के बावजूद, कहीं आठवें दिन फैक्ट्री को सील किया गया। इस दौरान फैक्ट्री की चाभी थानेदार के पास रहती थी। मृतक मजदूरों के परिवार वालों की मुसीबतों का सिलसिला इसके बाद भी जारी रहा। जिन लोगों की हादसे में मौत हुई, उनमें से अधिकांश अपने परिवार की आमदनी का मुख्य जरिया थे। उनके मरने के साथ ही, परिवार वालों के लिए रोजी-रोटी का संकट पैदा हो गया। इसके बावजूद फैक्ट्री के बचे मजदूरों और मृतकों के परिवार वालों ने थाना, श्रम विभाग, एसडीएम कार्यालय से लेकर नेताओं तक के चक्कर लगाए। नतीजतन इनके ऊपर कर्ज का भारी बोझ लद गया। घायल मजदूरों के परिवार की हालत तो और भी खराब हो गई। सरकारी अस्पताल ने घायलों का आधा-अधूरा इलाज कर, उन्हें भगा दिया गया। इसलिए उनके परिवार वालों को घायलों खुद के पैसे से इलाज करवाना पड़ा। पीलीभीत के रहने वाले वली अहमद और तुगलकाबाद गांव के कल्लू को अपने घायल बेटों को बचाने के लिए 50-50 हजार रुपये कर्ज लेकर खर्च किया। एक मजदूर के लिए 50 हजार का कर्ज, बड़ी रकम होती है। इतनी बड़ी रकम बच्चों के इलाज पर खर्च करने के बाद भी, वे उन्हें चलने फिरने-लायक नहीं बना पाए। वे विकलांग जैसी स्थिति में अभी भी बिस्तर पर पड़े हुए हैं।
इधर दिल्ली सरकार के श्रम विभाग ने हादसे के दसवें दिन आश्चर्यजनक मुस्तैदी दिखाते हुए फैक्ट्री मालिक के नाम पर पत्र जारी किया। इसमें 12 मृतक मजदूरों को पांच-पांच लाख और सात घायलों को 50-50 हजार का हर्जाना देने को कहा गया। एक स्थानीय दैनिक की खबर के अनुसार फरवरी माह में ही दिल्ली विधानसभा के बजट सत्र में एक स्थानीय विधायक द्वारा मांगी गई जानकारी के जवाब में दिल्ली सरकार ने कहा कि 14 मृतक और पांच घायल मजदूरों के परिवारों को मुआवजा देने के लिए कंपनी से 79 लाख 74 हजार 841 रुपये की रिकवरी से संबधित प्रमाण पत्र जारी कर दिया है। इसी सिलसिले में मार्च के महीने में मृतक मजदूर परिवारों को दिल्ली सरकार ने एक लाख रुपये की अंतरिम सहायता हेतु चेक जारी कर दिया। जून माह में मजदूरों को श्रम विभाग ने एक पत्र भेजा। जिसमें उन्हें सूचित किया गया कि मालिक से हर्जाना वसूलने के लिए श्रम विभाग ने केस को सिविल कोर्ट में भेज दिया है। इस तरह श्रम विभाग और सरकार ने इस भयानक कांड से अपना पल्लू झाड़ लिया।
दोषी कौन?
इस हादसे के शिकार ज्यादातर मजदूर युवा थे। इन्हीं के सहारे इनके पूरे परिवार को रोटी मिलती थी। अपनी जिंदगी को थोड़ा बेहतर बनाने की कोशिश में ये भोले-भाले लोग अपनी जान से हाथ धो बैठे। इनकी मौत के बाद इनके परिवार पर दुख और गरीबी का जैसे कहर ही टूट पड़ा। मुहम्मद इदरीश की हालत से इसे समझा जा सकता है। इदरीश इस हादसे में मारे गए 18 वर्षीय रहीस के अब्बू हैं। इदरीश का बड़ा लड़का कुछ समय पहले बीमारी की भेंट चढ़ गया। उसकी बीबी और दो छोटे बच्चों का भार इदरीश पर ही है। इदरीश अब बुजुर्ग हो चुके हैं और काम करने की हालत में नहीं हैं, इसलिए परिवार के गुजारे की जिम्मेदारी रहीस पर थी। रहीस के गुजरने के बाद अब उसके अब्बू के अलावा परिवार में सिर्फ औरतें और बच्चे ही बचे हैं। इदरीश की जिंदगी में अब अंधेरा ही अंधेरा है। उसे समझ में नहीं आ रहा कि वह परिवार की गाड़ी को कैसे खींचे। यही हालत किसी न किसी रूप में आज ज्यादातर मजदूरों की है। इन मजदूर परिवार को हुए नुकसान की भरपाई आज कोई नहीं कर सकता। सरकार फैक्ट्री मालिक को दोषी कहकर मजदूरों को कोर्ट कचहरी के चक्रव्यूह में डाल देना चाहती है। इसलिए उसने अपने को पाक-साफ दिखाने के लिए बहुत जल्द ही मृतकों के परिवारों के नाम एक-एक लाख का चेक जारी कर अपनी जिम्मेदारी से मुक्ति पा लेना चाहती है। हालांकि, मजदूरों को पता है कि कोर्ट कचहरी की अंतहीन लड़ाई में सामान्यत: मालिक ही जीतता है, इसलिए उन्होंने सरकार की इस कार्रवाई को मानने से इंकार कर दिया।
इसमें कोई संदेह नहीं कि इस हृदय विदारक कांड के लिए मुन्ना मास्टर दोषी है और उस पर मजदूरों की हत्या का मुकदमा चलाया जाना चाहिए (इस फैक्ट्री के कागजात के हिसाब से इसका मालिक मुन्ना मास्टर का लड़का शमीम खान है, जबकि वास्तविक कर्ताधर्ता मुन्ना मास्टर ही है)। गौर करने वाली पहली बात यह है कि वह फैक्ट्री गैर कानूनी तौर पर चल रही थी। दूसरी बात यह है कि इतनी तंग जगह में ज्वलनशील व विस्फोटक सामान और तेजी के साथ आग पकड़ने वाले कपड़ों के अंबार के बीच मजदूरों से जिस तरह काम करवाया जा रहा था, वह मौत को दावत देने वाली थी और पूरी तौर पर गैर कानूनी थी। वास्तव में इस हालात ने ही मजदूरों को मौत के मुह में धकेला है। इसलिए सरकार इस मामले में अपनी जिम्मेदारी से किसी भी तरह बच नहीं सकती है। इसलिए मजदूरों को हर तरह का मुआवजा देने या दिलवाने की जिम्मेदारी सरकार की ही बनती है।
वैसे तो भारत का संविधान मालिक वर्ग के हितों की ही रक्षा करता है। आजादी के आंदोलन के दौरान एक मजबूत मजदूर आंदोलन के कारण मजदूरों के हितों से संबंधित कुछ धाराएं भी संविधान में दर्ज की गर्इं। श्रम कानून इसी श्रेणी में आते हैं। अगर श्रम कानूनों को सही ढंग से लागू किया जाए, तो मजदूरों को कुछ राहत मिल सकती है। लेकिन 1991 में लागू उदारीकरण-निजीकरण की नीतियों ने इन श्रम कानूनों की धज्जियां उड़ाकर रख दीं। इसने मजदूरों व अन्य मेहनतकशों की जिंदगी को नरक बना डाला। कानून का रक्षक ही मालिक वर्ग के साथ खड़ा हो गया। प्रधानमंत्री उदारीकरण की नीतियों का गुणगान करने का कोई भी मौका हाथ से नहीं जाने देते। उन्हें तो यही अफसोस रहता है कि वे इन नीतियों को और तेजी से क्यों नहीं लागू कर पा रहे हैं। उदारीकरण की नीतियां आज तीन दशक बाद पूरी तरह बेनकाब हो चुकी हैं। अगर मजदूरों व मेहनतकशों को अपनी अस्तित्व की हिफाजत करना है, तो उसे इन नीतियों के खिलाफ एक सशक्त मजदूर आंदोलन खड़ा करना ही होगा।
जिन्हें जिन्दगी हारकर बैठने नहीं देती
युद्ध, नेताओं की गद्दारी, नरसंहार, भ्रष्टाचार, आतंकवाद, अमीरों की अय्यासी, जनता का दमन और उत्पीड़न जैसी रोज-रोज की घटनाएं, किसी संवेदनशील मन में भविष्य की एक निराशापूर्ण तस्वीर बना सकती हैं। लेकिन दुनिया के मजदूरों व मेहनतकशों के जीवन को अगर नजदीक से देखा जाए तो मन में यह भरोसा पैदा होता है कि पूरी मानवता एक बेहतर भविष्य की ओर ही आगे बढ़ेगी। अथाह दुख-तकलीफ और परेशानियों के बावजूद करोड़ों मजदूर जनता जिस तरह जिंदगी से बगैर हारे एक बेहतर भविष्य के लिए संघर्ष करते रहते हैं, यह बात और किसी तबके में देखने को नहीं मिलती। जिंदगी के प्रति यह बेमिसाल जज्बा ही मानवता के एक बेहतर भविष्य की गारंटी करता है। तुगलकाबाद की फैक्ट्री में हादसे के बाद मजदूर परिवारों से बात करने के बाद मेहनतकश टीम को यही अहसास हुआ। हमारे लिए संभव नहीं था कि मजदूरों के कभी पस्त न किए जा सकने वाले हौसलों और जीवन के प्रति उनके आशावादी नजरिए को बहुत विस्तार से यहां प्रस्तुत कर पाएं। फिर भी इस हादसे से प्रभावित कुछ मजदूरों व उनके परिवार से जुड़ी कुछ बातों को यहां प्रस्तुत कर रहे हैं।
हामिद-कमरुन्निसा
हामिद और कमरुन्निसा शब्बो के अब्बू और मम्मी हैं। 18 साल की शब्बो उन मजदूरों में से एक थी, जो मुन्ना मास्टर की फैक्ट्री में लगी आग की भेंट चढ़ गए। शब्बो का परिवार तुगलकाबाद गांव के छुरिया मोहल्ले में रहता है। इस गांव के एक हिस्से में खाते-पीते लोग रहते हैं, जबकि शेष बड़े हिस्से में लोग टूटे-फूटे हिस्से और झोपड़ियों में रहते हैं। यह हिस्सा उबड़-खाबड़ है और गंदगी के अंबार पर बसा हुआ है।
बाहर से गया कोई आदमी अगर यहां आ जाए तो वह विश्वास ही नहीं करेगा कि वह दिल्ली में है। हम जब शब्बो के घर गए, तो कमरे में कमरुन्निसा बच्चों के पास बैठी थी। उसे जब पता चला कि हम शब्बो के बारे में जानकारी लेने आए हैं, तो उसकी आंखों से आंसुओं की धारा फूट पड़ी। वह बोली, ‘हम लोगों के ऊपर इतनी बड़ी मुसीबत टूट पड़ी है, लेकिन आज तक कोई एक बार भी हाल-चाल पूछने तक नहीं आया।’ उसके रुंधे गले ने इसके आगे उसे नहीं बोलने दिया। हामिद ने हमें शब्बो के बारे में विस्तार से बताया।
हामिद का परिवार उत्तर प्रदेश के कुशीनगर जिले का रहने वाला है। हामिद आठवीं पास हैं। वे फिलहाल सिलाई का काम करके अपने घर के लिए रोटी का इंतजाम करते हैं। वर्ष 1988 में बेहतर काम की तलाश में वे दिल्ली आए थे। 1999 में वे कतर में नौकरी करने गए। 2002 मे वहां कंपनी बंद हो जाने के कारण गांव लौटना पड़ा। गांव में भी वे तीन साल से ज्यादा समय नहीं गुजार सके। गुजारे के लिए उन्हें फिर से दिल्ली आना पड़ा। दिल्ली में वे एक फैब्रिकेटर के यहां सिलाई का काम करते हैं। उनकी एक माह की औसत आमदनी 4000 रुपये है। रहने के लिए 8 गुणा 10 फीट का एक कमरा है। इसका किराया 700 रुपया है। पीने के पानी के लिए 500 रुपया हर माह अलग से खर्च करना पड़ता है। उनका कमरा इतना छोटा है कि बारिस के मौसम में पूरे परिवार के लिए रातभर सोना मुश्किल हो जाता है। हामिद और कमरुन्निसा के छह बच्चे हैं। 18 साल की सब्बो सबसे बड़ी थी। सब्बो ने अपनी पढ़ाई बीच में ही छोड़ दी। अपनी मां से एक बार उसने कहा था, ‘मम्मी अगर मैं भी कमाने लगूं, तो भाई लोग पढ़ सकेंगे।’
पहली जनवरी 2011 से सब्बो ने मुन्ना मास्टर के फैक्ट्री में 5278 रुपये महीने पर नौकरी शुरू कर दी। अभी उसको फैक्ट्री आए एक माह भी नहीं पूरा हुआ था कि 25 जनवरी को यह हादसा हो गया। जलने के बाद करीब पांच दिनों तक सब्बो सफदरजंग अस्पताल में एक बिस्तर पर तड़पती रही। भर्ती होने के बाद ऐसा लगा था कि वह बच जाएगी। बीच-बीच में वह बातचीत भी करने लगी थी। हामिद को लगा, चलो जल तो गई, लेकिन जान बच जाएगी। लेकिन पांचवे दिन वह चल बसी। हामिद को यही अफसोस सालता रहा कि वह सब्बो का सही ढंग से इलाज नहीं करवा पाए। अस्पताल में चौथे दिन सब्बो ने हामिद से कहा था, ‘अब्बू वे लोग हम मजदूरों को अस्पताल के पास भी नहीं पहुंचाए थे। हम लोग पैदल ही सड़क पार कर अस्पताल पहुंचे।’ हामिद कल्पना भी नहीं कर पा रहे थे कि इतनी बुरी तरह जलने के बाद कि कैसे उनके सब्बो और दूसरे मजदूर सड़क पार करके अस्पताल पहुंचे होंगे।
चलते समय हामिद ने हमसे बार-बार आग्रह करते हुए कहा, ‘भाई साहब मालिक लोग कितने जालिम हैं, इसे आप जरूर लिखिएगा।’ हमें यह भी पता चला कि सब्बो की शादी गांव में तय भी हो चुकी थी। लेकिन, इस आग ने उसके सारे सपनों को जलाकर राख कर दिया। इस भयंकर हादसे के बाद भी मजदूरों की जिंदगी ऐसी होती है कि वे हार मानकर नहीं बैठते।
यही वजह है कि अब हामिद फिर से अपने परिवार को पटरी पर लाने के लिए जी जान से जुट गए हैं। अब सब्बो की छोटी बहन हसीना ने अपनी बड़ी बहन की जगह ले ली है। उसने अपनी पढ़ाई छोड़ दी है और घर का खर्च उठाने में पिता का हाथ बंटा रही है। जिंदगी ने फिर से रास्ता ढूंढ़ ही लिया।
रामलखन
48 वर्षीय रामलखन लालती देवी के पति हैं। लालती देवी अमेजिंग क्रिएशन में काम करने वाले उन मजदूरों में से एक थी, जो फैक्ट्री में लगी आग की भेंट चढ़ गए। रामलखन और लालती देवी की 12-18 साल के उम्र के बीच की चार लड़कियां हैं। चूंकि परिवार की आजीविका का मुख्य स्रोत लालती देवी की मजदूरी ही थी, इसलिए उनकी मौत के बाद ने पूरे परिवार के लिए रोजी-रोटी का संकट पैदा हो गया है। रामलखन जो झोपड़ी लालती के रहते हमेशा चहचहाती रहती थी, आज वहां सन्नाटा पसरा रहता है। सन्नाटे और अकेलेपन में आज रामलखन अपनी झोपड़ी में कैद जिंदगी की उन सच्चाइयों को जज्ब करने की कोशिश में लगा रहता है, जिनसे उसका अभी हाल में ही सामना हुआ है।
रामलखन का उत्तर प्रदेश में मऊ जिले का रहने वाला है। वे जाति से चमार हैं। गांव में रहते हुए, उन्होंने उन सभी विडम्बनाओं को झेला, जो पूर्वी उत्तर प्रदेश के गांव में दलित और संपत्तिहीन लोगों को झेलना होता है। अपनी जीविका के लिए रामलखन ने कभी रिक्शा चलाया, तो कभी सिलाई का काम किया। गांव में मजदूरी बहुत कम मिलने के कारण वे 1991 में शादी के बाद दिल्ली आ गए और एक गार्मेंट फैक्ट्री के लिए सिलाई का काम करने लगे। लालती देवी ने भी भरपूर मेहनत मजदूरी से परिवार को सहारा दिया। पांच साल पहले रामलखन को ब्लड सुगर की बीमारी हो गई। ऐसे में उनका काम पर जाना कम होता गया। ऐसे में लालती की कमाई से ही रामलखन की दवा और परिवार का किसी तरह गुजर-बसर होता।
मुन्ना मास्टर की फैक्ट्री में लालती 28 दिसंबर 2010 से काम कर रही हैं। इस कंपनी में उसे अभी एक महीना भी नहीं गुजरा होगा कि वह 25 जनवरी को फैक्ट्री में लगी आग की भेंट चढ़ गई। इस दिन को रामलखन कभी नहीं भूल सकता। उस दिन जब दोनों अपने-अपने काम पर थोड़े-थोड़े समयांतराल पर निकले तो मोहल्ले के चौराहे पर वे टकरा गए। इस पर लालती ने रामलखन की चुटकी लेते हुए कहा, ‘आ गए पीछा करते हुए।’ पत्नी से उसकी वही आखिरी मुलाकात थी। आग लगने की खबर लगते ही रामलखन जयप्रकाश नारायण अस्पताल की ओर भागे। वहां उसे एक पूरी तरह जली हुई औरत को दिखाकर कहा गया कि यही लालती देवी है। रामलखन ने उसकी पायल देखते हुए कहा, ‘नहीं यह लालती नहीं है।’ बाद में पता चला कि वह लाश एक दूसरी मजदूर अनिता की थी। रात 12 बजे जब वह भागा-भागा सफदरजंग अस्पताल पहुंचा, तो उसे बताया गया कि लालती देवी का इलाज चल रहा है। उसने पुलिस वालों से लाख मिन्नत की उसे एक बार पत्नी से मिलने दिया जाए, लेकिन किसी ने उसकी एक न सुनी। दूसरे दिन अस्पताल से उसे लालती देवी की लाश मिली। लालती देवी के जाने से रामलखन पर मुसीबतों का पहाड़ टूट पड़ा। जिन समस्याओं पर पहले उसे सोचने की जरूरत नहीं होती थी, वह सब अब उसकी छाती पर सवार हो गर्इं। रामलखन ने लड़कियों को गांंव भेज दिया है। गांव में वैसे तो एक अदद कमरे के अलावा और कुछ भी नहीं है, लेकिन रामलखन सोचते हैं कि गांव में लड़कियां सुरक्षित रहेंगी। लड़कियों ने पिता पर बोझ बनने के बजाए, मददगार बनने का फैसला किया है। हालात ने जैसे चारों को जैसे चारों को अपनी उम्र से बड़ी और बेहद जिम्मेदार बना दिया। अब चारों बहनों ने दिल्ली में ही रामलखन के साथ रहते हुए अपनी पढ़ाई और रोजगार एक साथ करने के लिए फैसला किया है।
जमील और शकीरा
18 साल का किशोर निजामुद्दीन गार्मेंट फैक्ट्री में मरने वाला एक और मजदूर है। जमील और शकीरा निजामुद्दीन के अब्बू और मम्मी हैं। अपने लाडले को खोकर जमील महज 35 साल में ही बूढ़ा सा दिखने लगा है। शकीरा भी 31 साल की उम्र में ही जिंदगी की मुसीबतों से लड़ते-लड़ते कभी न थकने वाली एक योद्धा जैसी बन गई है। अपने मृत बेटे के बारे में बात हो या उसकी खुद की जिंदगी के बारे में-शकीरा की बात एक बार शुरू हो जाती है, फिर खत्म नहीं होती। जमील और शकीरा उत्तर प्रदेश के सीतापुर जिले के रहने वाले हैं। साल भर पहले वे अपने परिवार के साथ दिल्ली आए। निजामुद्दीन उनका बड़ा बेटा था। गरीबी और मुश्किल हालात से शकीरा का बचपन से ही वास्ता है। शादी के बाद वे लखनऊ आ गए, क्योंकि जमील के गांव में उनके रहने के लिए जगह नहीं बची थी। यहां वे 13 साल तक रहे। चूंकि लखनऊ चिकन के सिले-सिलाए कपड़ों का एक बड़ा केंद्र है, इसलिए यहां काम मिलना मुश्किल नहीं था। लेकिन, यहां मजदूरी बहुत कम थी। उस समय (1995-1996 के आसपास) एक लेडीज सूट सिलने का ढाई रुपये मिलता था। शकीरा के अब्बू ने उसकी शादी में एक सिलाई मशीन दी थी। लखनऊ में उन्होंने कर्ज लेकर दो और सिलाई मशीन खरीद ली। देर रात तक मेहनत करके वे बहुत मुश्किल से 100 रुपये रोज कमा पाते थे। इस बीच परिवार बढ़ता गया और खर्च भी। इस बीच शकीरा गंभीर रुप से बीमार पड़ गई। उसके इलाज में 40 हजार लग गए। इसके लिए जमील को एक महाजन से 10 प्रतिशत व्याज पर कर्ज लेना पड़ा। यह महाजन कुख्यात सूदखोर था। जिसने एक बार उससे कर्ज ले लिया, फिर उसे कोई नहीं बचा सकता था। जमील के परिवार ने दिन रात एक करके महाजन का कर्ज तो पूरा कर दिया, लेकिन इसकी लिए की गई मेहनत ने जमील और शकीरा के शरीर को बुरी तरह तोड़ दिया।
अब तक निजामुद्दीन 17 साल का हो चुका था। उसने दिल्ली में मजदूरी ज्यादा मिलने के कारण अपने अब्बू से दिल्ली चलने की जिद की। वहां वह बहुत लगन से काम करने लगा। वह सुबह से शाम तक गार्मेंट फैक्ट्री में काम करता था। यहां तक कि बीमार होने पर भी वह ड्यूटी जाता था।
कई बार वह धागा कटिंग जैसे छोटे मोटे काम को घर पर करने के लिए भी ले आता था। इस तरह वह महीने में सात-साढ़े हजार रुपये कमा लेता था। वह अपने ऊपर ही पूरे परिवार की जिम्मेदारी मानता था। लेकिन शकीरा के लिए यह सब बीते दिनों की बातें हो चुकी हैं। वह अपने होनहार बेटों में से एक को खो चुकी है। निजामुद्दी का छोटा भाई अब अपनी पढ़ाई छोड़कर काम पर जाने लगा है। शकीरा धागा काटते हुए हमसे बात किए जा रही थी। मेहनत के सिलसिले को वह टूटने नहीं देगी। उसके ऊपर अभी बहुत सारी जिम्मेदारियां हैं।
तसकीनुद्दीन
19 साल का नौजवान आमिर भी मुन्ना मास्टर की गार्मेंट फैक्ट्री में हुए विस्फोट में मारा गया था। तसकीनुद्दीन के चार बच्चों में आमिर भी सबसे बड़ा था। तसकीनुद्दीन का परिवार करीब 25 साल पहले उत्तर प्रदेश के अमरोहा जिले से आया था। अब वे अपने आप को दिल्ली का बासिंदा ही मानते हैं। इस समय वे हौजरानी में रहते हैं।
मुन्ना मास्टर और तसकीनुद्दीन बहुत पुराने मित्र हैं और एक ही मोहल्ले में रहते हैं। मुन्ना मास्टर जब करोड़ों कमाने लगा, तो उनके बीच फासला पैदा हो गया। फिर भी सामाजिक तौर पर अब भी उन्हें लोग दोस्त ही मानते हैं। तसकीनुद्दीन अपने पास छह सिलाई मशीन रखकर फैब्रिकेटर का काम करते थे, इसलिए उनके घर में खाने-पीने की कोई कमी नहीं थी। आमिर का मन पढ़ाई में नहीं लगने के कारण उसे काम करने के लिए मुन्ना मास्टर की फैक्ट्री में भेज दिया गया। आमिर ने वहां छह महीने तक काम सीखा। लेकिन मन न लगने के कारण उसने अमेजिंग क्रियेशन का काम छोड़ दिया। जाड़े में काम ज्यादा होने पर मुन्ना मास्टर ने आमिर को फिर से काम पर लगवा दिया।
25 जनवरी को सुबह फैक्ट्री जाते समय मुन्ना मास्टर तसकीनुद्दीन को कहता गया कि आज काम ज्यादा है, इसलिए आमिर आज घर नहीं आएगा। आमिर फिर घर नहीं लौटा। तसकीनुद्दीन को हैरानी इस बात पर थी, कि पड़ोसी और दोस्त होने के बावजूद मुन्ना मास्टर ने हादसे की खबर उसे नहीं दी। दूसरे दिन किसी ने अखबार पढ़कर तसकीनुद्दीन को फैक्ट्री में हादसे की सूचना दी। मुन्ना मास्टर को तसकीनुद्दीन की दोस्ती की चिंता नहीं थी। वह रात भर फैक्ट्री से सामान निकलवाने और थाने से गोटी सेट करने में लगाया। इसके बावजूद तसकीनुद्दीन हिम्मत नहीं हारे। आज वे इस हादसे के शिकार मजदूरों और उनके परिवार वालों को इंसाफ दिलवाने के लिए मैदान में उतर चुके हैं।
(शांतनु मेहनतकश पत्रिका के संपादक हैं. यह लेख मेहनतकश पत्रिका के नए अंक में प्रकाशित हुआ है. जो भी साथी शांतनु से संपर्क करना चाहते हैं वे उनसे इस नंबर (०९३१०८१८७५०) पर सम्पर्क कर सकते हैं. म्हणत काश पत्रिका की ई मेल : mehnatkash2010@gmail.com है. )
दिल्ली की तुगलकाबाद क्षेत्र की गारमेंट फैक्ट्री में काम करने वाले मजदूरों की मौत इसका एक उदाहरण है। अमेजिंग क्रिएशन नाम की इस फैक्ट्री में पिछले 25 जनवरी की शाम आगजनी में सरकारी आंकड़ों में 16 लोग जलकर मर गए और पांच घायल हो गए।
लालच की नींव पर खड़ी फैक्ट्रियां
हर फैक्ट्री मालिक का उद्देश्य यही होता है कि मजदूरों के श्रम को निचोड़ कर ज्यादा से ज्यादा मुनाफा कमाया जाए। पहले देश का श्रम कानून उनके इस लालच को बेलगाम होने से रोकता था, लेकिन उदारीकरण की नीतियां लागू होने के बाद से फैक्ट्री मालिकों को मजदूरों के श्रम को निचोड़ने के लिए बेलगाम कर दिया गया। इन नीतियों ने एक्सपोर्ट (निर्यात) उद्योगों को खूब बढ़ावा दिया, जिसके कारण पूरे देश में निर्यात उद्योगों का जाल सा बिछ गया। इन एक्सपोर्ट उद्योगों की बुनियाद ही सस्ते श्रम पर टिकी हुई है। इससे सरकार और एक्सपोर्ट फैक्ट्री मालिकों को डालर में जबरदस्त कमाई होती है। इन फैक्ट्रियों में तैयार मालो के खरीददार विदेशी कंपनियों को भी भारी मुनाफा होता है। वहीं दूसरी ओर मजदूरों को इसकी कीमत, अपनी सेहत या जान देकर चुकानी पड़ती है। कम समय में ज्यादा मुनाफे के लालच में नए-नए खिलाड़ी, इस मैदान में कूदते रहते हैं और जल्दी ही करोड़ों के मालिक बन जाते हैं। तुगलकाबाद के अमैजिंग क्रिएशन का मालिक मुन्ना मास्टर भी इस खेल में ऐसा ही एक नया खिलाड़ी था।
अस्सी के दशक में मुन्ना मास्टर एक अच्छे कारीगर के रूप में जाना जाता था। उस समय वह एक गार्मेंट फैक्ट्री में पैटर्न मास्टर के पद पर काम करता था। किसी गार्मेंट फैक्ट्री में यह पद महत्वपूर्ण होता है। विदेशी कंपनी के एजेंट, जिसे ‘बायर’ कहा जाता है, से पैटर्न मास्टर का सीधा संबंध होता है। बायर की जरूरत के मुताबिक, वह नमूना तैयार करता है और अपने कारीगरों को माल का डिजाइन देता है। इस संबंध का फायदा उठाकर मुन्ना मास्टर ने 1987-88 में खुद की एक फैक्ट्री शुरू की, हालांकि इसमें वह सफल नहीं हो सका। 1993-94 में उसने फिर से फैब्रिकेटर का काम शुरू कर दिया। अब तक उसने अपने लड़के को डिजाइनिंग में डिप्लोमा करा दिया था। इस दौरान देश का औद्योगिक माहौल भी काफी बदल चुका था। इस बदले माहौल ने एक तरफ जहां मजदूरों की जिंदगी को नर्क बनाना शुरू कर दिया, वहीं देश-विदेश के पूंजीपति इसकी बदौलत मालामाल होने लगे। स्थिति यह हो गई कि देश के श्रम कानूनों का फैक्ट्री मालिकों के लिए कोई मायने नहीं रह गया। मुन्ना मास्टर ने भी इस माहौल में खूब मुनाफा कमाया और जल्दी ही अमैजिंग क्रिएशन कंपनी बना ली। मुन्ना की कंपनी में तैयार माल निर्यात किया जाता था।
अमैजिंग क्रिएशन: जहां हर पल घात लगाए रहती है मौत
तुगलकाबाद स्कूल के पीछे पतली सी गली के शुरुआत में बने बमुश्किल 8-10 फिट चौड़े इस मकान बाहर से देखने पर पता ही नहीं चलेगा कि यह एक गार्मेंट फैक्ट्री है। रिहाइशी इलाके में महज 80 गज की जमीन पर बने इस चार मंजिला इमारत लगभग 150 मजदूर काम करते थे। मजदूरों की यह संख्या आर्डर के मुताबिक घटती-बढ़ती रहती थी।
चौथे मंजिल पर जहां यह हादसा हुआ, वहां शिफान व जॉर्जेट के कपड़ों पर अड्डा वर्क यानी हाथ की कसीदाकारी, तैयार कपड़ों की धुलाई और उनको सुखाया जाता था। हादसे के दिन, वहां लेडीज सूट का काम चल रहा था। कपड़ों की धुलाई का काम एक ऐसे सॉल्वेंट से किया जाता है, जिसे पेट्रोल में केमिकल मिलाकर तैयार किया जाता है। जानकार लोगों का कहना है कि यह सॉल्वेंट पेट्रोल से कई गुना ज्वलनशील होता है। इससे कपड़ों को धुलने के बाद, उन्हें खुले में सुखाया जाता है, लेकिन इस फैक्ट्री में कपड़ों को एक मशीन में डालकर इसका सॉल्वेंट निकाल लिया जाता है।
गार्मेंट उद्योग से लंबे समय से जुड़े रहे तस्कीमुद्दीन, जिनका बेटा आमिर, इस फैक्ट्री में हादसे का शिकार हुआ, का कहना है कि मशीन में कपड़ों को सुखाना गैर-कानूनी है, क्योंकि इससे आग पकड़ने का खतरा होता है। मालिक सॉल्वेंट बचाने के लालच में मशीन का इस्तेमाल करते हैं। फैक्ट्री में हादसे के वक्त एक जनरेटर, डीजल और सॉल्वेंट का स्टॉक भी मौजूद था।
हादसे के दिन काम का बहुत दबाव था। मालिक ने मजदूरों को ओवर टाइम के लिए रोक लिया था, यहां तक कि उसने अपने लड़के को भी धुलाई के काम में लगा दिया था। जल्दबाजी में काम होने के कारण, सॉल्वेंट मशीन से बाहर बिखरने लगा और वह अड्डा वर्क कर रहे मजदूरों तक पहुंच गया। मजदूरों को सॉल्वेंट की गंध का अंदाजा हो गया था, लेकिन मालिक के डर से किसी ने मुंह नहीं खोला। वैसे भी अड्डा वर्क ज्यादातर बच्चों से ही कराया जाता है। धुलाई मशीन में स्पार्किंग या किसी शॉर्ट सर्किट की वजह से आग लग गई और देखते ही देखते आग की लपटों ने चौथे माले को अपनी आगोश में लिया। सॉल्वेंट, डीजल, शिफॉन और जॉजेट के कपड़ों के अंबार में आग लगने के साथ ही विस्फोट हो गया, जिससे कोठरी की छत उड़ गई। आस-पास के लोगों ने इस विस्फोट को बॉयलर फटना समझा। उधर अंदर मजदूर बिजली के करंट और आग में जलने से तड़प-तड़प कर मर रहे थे। वहां काम कर रहे मजदूरों में, सिर्फ वही किसी तरह जान बचाने में सफल रहे, जो सीढ़ी के पास काम कर रहे थे।
कितने मरे?
ऐसी किसी फैक्ट्री में हादसा होने पर मरने वालों की सही संख्या का पता लगाना, बहुत कठिन होता है, क्योंकि इस तरह की फैक्ट्रियों में ठेका और कैजुअल मजदूरों की संख्या स्थाई मजदूरों के मुकाबले कहीं ज्यादा होती है। बाहर से आए गरीब मजदूरों की ओर से वैसे भी कोई नहीं बोलता। अमेजिंग क्रिएशन के मामले में सरकार ने अब तक 16 मजदूरों के मरने और पांच के घायल होने की ही बात को माना है। जबकि, हादसे के दूसरे दिन ही स्थानीय लोगों ने फैक्ट्री से लाशों को निकालते हुए देखा। आगजनी में मरने वाली, लालती देवी ने हादसे के दो दिन पहले अपने परिवार के लोगों को बताया था कि उस फैक्ट्री में बिहार की पांच महिलाओं को एक दिन पहले काम पर रखा गया था। उसने यह भी बताया था कि उनके पास पैसे नहीं थे और वे लालती से 500 रुपये उधार मांग रही थीं। लालती के पास भी पैसे कम ही थे, इसलिए वह उन्हें 50 रुपये ही दे सकी। वे पांचों महिलाएं कहां गर्इं, इसका कुछ पता नहीं चला। हादसे के बाद पुलिस की मिलीभगत से मुन्ना मास्टर ने गैर-कानूनी तौर पर फैक्ट्री की सफाई कराई थी। अब ऐसे में कौन जाने कि इस दौरान कितनी लाशों को ठिकाने लगाया गया।
मालिक और प्रशासन का रवैया
इस दिल दहला देने वाली वारदात के बाद मालिक और प्रशासन के रवैये से एक बार फिर यही साबित हुआ कि हुकमरान लोग मजदूरों को पूंजी पैदा करने वाले पुरजे के अलावा और कुछ नहीं समझते हैं। इस घटना के बाद, जहां मालिक अपनी गर्दन बचाने के लिए गोटी बिठाने लगा, वहीं प्रशासन ने सारा दोष फैक्ट्री मालिक पर डालकर छुट्टी पा ली। प्रशासन को डर था कि कहीं दिल्ली की चकाचौंध के पीछे मजदूरों की नारकीय जिंदगी की झलक, दुनिया वालों को न दिख जाए। इस लिए उसने मामले को जल्दी-जल्दी खत्म करवा दिया। मजदूरों का गुस्सा इस बात पर था कि फैक्ट्री मालिक ने मजदूरों के घरों में हादसे की खबर तक नहीं पहुंचने दी। मजदूरों के परिवार वाले दुखी थे, कि वे अपने कलेजे के टुकड़ों को बचाने की आखरी कोशिश तक नहीं कर पाए। मालिक की चिंता इससे अलग थी, वह इस बात की जल्दी में था कि उसके पास दो करोड़ का जो माल बचा है, उसे जल्दी से जल्दी विदेश भेजा जाए। हादसे के दूसरे दिन, उसने थाने में अपनी गोटी सेट कर ली, फैक्ट्री से माल निकलवाया, बची हुई लाशों को ठिकाने लगाया और फैक्ट्री की अच्छी तरह से धुलाई करवा दी। यह मालिक और प्रशासन के बीच साठगांठ का ही नतीजा था कि मजदूरों के दबाव के बावजूद, कहीं आठवें दिन फैक्ट्री को सील किया गया। इस दौरान फैक्ट्री की चाभी थानेदार के पास रहती थी। मृतक मजदूरों के परिवार वालों की मुसीबतों का सिलसिला इसके बाद भी जारी रहा। जिन लोगों की हादसे में मौत हुई, उनमें से अधिकांश अपने परिवार की आमदनी का मुख्य जरिया थे। उनके मरने के साथ ही, परिवार वालों के लिए रोजी-रोटी का संकट पैदा हो गया। इसके बावजूद फैक्ट्री के बचे मजदूरों और मृतकों के परिवार वालों ने थाना, श्रम विभाग, एसडीएम कार्यालय से लेकर नेताओं तक के चक्कर लगाए। नतीजतन इनके ऊपर कर्ज का भारी बोझ लद गया। घायल मजदूरों के परिवार की हालत तो और भी खराब हो गई। सरकारी अस्पताल ने घायलों का आधा-अधूरा इलाज कर, उन्हें भगा दिया गया। इसलिए उनके परिवार वालों को घायलों खुद के पैसे से इलाज करवाना पड़ा। पीलीभीत के रहने वाले वली अहमद और तुगलकाबाद गांव के कल्लू को अपने घायल बेटों को बचाने के लिए 50-50 हजार रुपये कर्ज लेकर खर्च किया। एक मजदूर के लिए 50 हजार का कर्ज, बड़ी रकम होती है। इतनी बड़ी रकम बच्चों के इलाज पर खर्च करने के बाद भी, वे उन्हें चलने फिरने-लायक नहीं बना पाए। वे विकलांग जैसी स्थिति में अभी भी बिस्तर पर पड़े हुए हैं।
इधर दिल्ली सरकार के श्रम विभाग ने हादसे के दसवें दिन आश्चर्यजनक मुस्तैदी दिखाते हुए फैक्ट्री मालिक के नाम पर पत्र जारी किया। इसमें 12 मृतक मजदूरों को पांच-पांच लाख और सात घायलों को 50-50 हजार का हर्जाना देने को कहा गया। एक स्थानीय दैनिक की खबर के अनुसार फरवरी माह में ही दिल्ली विधानसभा के बजट सत्र में एक स्थानीय विधायक द्वारा मांगी गई जानकारी के जवाब में दिल्ली सरकार ने कहा कि 14 मृतक और पांच घायल मजदूरों के परिवारों को मुआवजा देने के लिए कंपनी से 79 लाख 74 हजार 841 रुपये की रिकवरी से संबधित प्रमाण पत्र जारी कर दिया है। इसी सिलसिले में मार्च के महीने में मृतक मजदूर परिवारों को दिल्ली सरकार ने एक लाख रुपये की अंतरिम सहायता हेतु चेक जारी कर दिया। जून माह में मजदूरों को श्रम विभाग ने एक पत्र भेजा। जिसमें उन्हें सूचित किया गया कि मालिक से हर्जाना वसूलने के लिए श्रम विभाग ने केस को सिविल कोर्ट में भेज दिया है। इस तरह श्रम विभाग और सरकार ने इस भयानक कांड से अपना पल्लू झाड़ लिया।
दोषी कौन?
इस हादसे के शिकार ज्यादातर मजदूर युवा थे। इन्हीं के सहारे इनके पूरे परिवार को रोटी मिलती थी। अपनी जिंदगी को थोड़ा बेहतर बनाने की कोशिश में ये भोले-भाले लोग अपनी जान से हाथ धो बैठे। इनकी मौत के बाद इनके परिवार पर दुख और गरीबी का जैसे कहर ही टूट पड़ा। मुहम्मद इदरीश की हालत से इसे समझा जा सकता है। इदरीश इस हादसे में मारे गए 18 वर्षीय रहीस के अब्बू हैं। इदरीश का बड़ा लड़का कुछ समय पहले बीमारी की भेंट चढ़ गया। उसकी बीबी और दो छोटे बच्चों का भार इदरीश पर ही है। इदरीश अब बुजुर्ग हो चुके हैं और काम करने की हालत में नहीं हैं, इसलिए परिवार के गुजारे की जिम्मेदारी रहीस पर थी। रहीस के गुजरने के बाद अब उसके अब्बू के अलावा परिवार में सिर्फ औरतें और बच्चे ही बचे हैं। इदरीश की जिंदगी में अब अंधेरा ही अंधेरा है। उसे समझ में नहीं आ रहा कि वह परिवार की गाड़ी को कैसे खींचे। यही हालत किसी न किसी रूप में आज ज्यादातर मजदूरों की है। इन मजदूर परिवार को हुए नुकसान की भरपाई आज कोई नहीं कर सकता। सरकार फैक्ट्री मालिक को दोषी कहकर मजदूरों को कोर्ट कचहरी के चक्रव्यूह में डाल देना चाहती है। इसलिए उसने अपने को पाक-साफ दिखाने के लिए बहुत जल्द ही मृतकों के परिवारों के नाम एक-एक लाख का चेक जारी कर अपनी जिम्मेदारी से मुक्ति पा लेना चाहती है। हालांकि, मजदूरों को पता है कि कोर्ट कचहरी की अंतहीन लड़ाई में सामान्यत: मालिक ही जीतता है, इसलिए उन्होंने सरकार की इस कार्रवाई को मानने से इंकार कर दिया।
इसमें कोई संदेह नहीं कि इस हृदय विदारक कांड के लिए मुन्ना मास्टर दोषी है और उस पर मजदूरों की हत्या का मुकदमा चलाया जाना चाहिए (इस फैक्ट्री के कागजात के हिसाब से इसका मालिक मुन्ना मास्टर का लड़का शमीम खान है, जबकि वास्तविक कर्ताधर्ता मुन्ना मास्टर ही है)। गौर करने वाली पहली बात यह है कि वह फैक्ट्री गैर कानूनी तौर पर चल रही थी। दूसरी बात यह है कि इतनी तंग जगह में ज्वलनशील व विस्फोटक सामान और तेजी के साथ आग पकड़ने वाले कपड़ों के अंबार के बीच मजदूरों से जिस तरह काम करवाया जा रहा था, वह मौत को दावत देने वाली थी और पूरी तौर पर गैर कानूनी थी। वास्तव में इस हालात ने ही मजदूरों को मौत के मुह में धकेला है। इसलिए सरकार इस मामले में अपनी जिम्मेदारी से किसी भी तरह बच नहीं सकती है। इसलिए मजदूरों को हर तरह का मुआवजा देने या दिलवाने की जिम्मेदारी सरकार की ही बनती है।
वैसे तो भारत का संविधान मालिक वर्ग के हितों की ही रक्षा करता है। आजादी के आंदोलन के दौरान एक मजबूत मजदूर आंदोलन के कारण मजदूरों के हितों से संबंधित कुछ धाराएं भी संविधान में दर्ज की गर्इं। श्रम कानून इसी श्रेणी में आते हैं। अगर श्रम कानूनों को सही ढंग से लागू किया जाए, तो मजदूरों को कुछ राहत मिल सकती है। लेकिन 1991 में लागू उदारीकरण-निजीकरण की नीतियों ने इन श्रम कानूनों की धज्जियां उड़ाकर रख दीं। इसने मजदूरों व अन्य मेहनतकशों की जिंदगी को नरक बना डाला। कानून का रक्षक ही मालिक वर्ग के साथ खड़ा हो गया। प्रधानमंत्री उदारीकरण की नीतियों का गुणगान करने का कोई भी मौका हाथ से नहीं जाने देते। उन्हें तो यही अफसोस रहता है कि वे इन नीतियों को और तेजी से क्यों नहीं लागू कर पा रहे हैं। उदारीकरण की नीतियां आज तीन दशक बाद पूरी तरह बेनकाब हो चुकी हैं। अगर मजदूरों व मेहनतकशों को अपनी अस्तित्व की हिफाजत करना है, तो उसे इन नीतियों के खिलाफ एक सशक्त मजदूर आंदोलन खड़ा करना ही होगा।
जिन्हें जिन्दगी हारकर बैठने नहीं देती
युद्ध, नेताओं की गद्दारी, नरसंहार, भ्रष्टाचार, आतंकवाद, अमीरों की अय्यासी, जनता का दमन और उत्पीड़न जैसी रोज-रोज की घटनाएं, किसी संवेदनशील मन में भविष्य की एक निराशापूर्ण तस्वीर बना सकती हैं। लेकिन दुनिया के मजदूरों व मेहनतकशों के जीवन को अगर नजदीक से देखा जाए तो मन में यह भरोसा पैदा होता है कि पूरी मानवता एक बेहतर भविष्य की ओर ही आगे बढ़ेगी। अथाह दुख-तकलीफ और परेशानियों के बावजूद करोड़ों मजदूर जनता जिस तरह जिंदगी से बगैर हारे एक बेहतर भविष्य के लिए संघर्ष करते रहते हैं, यह बात और किसी तबके में देखने को नहीं मिलती। जिंदगी के प्रति यह बेमिसाल जज्बा ही मानवता के एक बेहतर भविष्य की गारंटी करता है। तुगलकाबाद की फैक्ट्री में हादसे के बाद मजदूर परिवारों से बात करने के बाद मेहनतकश टीम को यही अहसास हुआ। हमारे लिए संभव नहीं था कि मजदूरों के कभी पस्त न किए जा सकने वाले हौसलों और जीवन के प्रति उनके आशावादी नजरिए को बहुत विस्तार से यहां प्रस्तुत कर पाएं। फिर भी इस हादसे से प्रभावित कुछ मजदूरों व उनके परिवार से जुड़ी कुछ बातों को यहां प्रस्तुत कर रहे हैं।
हामिद-कमरुन्निसा
हामिद और कमरुन्निसा शब्बो के अब्बू और मम्मी हैं। 18 साल की शब्बो उन मजदूरों में से एक थी, जो मुन्ना मास्टर की फैक्ट्री में लगी आग की भेंट चढ़ गए। शब्बो का परिवार तुगलकाबाद गांव के छुरिया मोहल्ले में रहता है। इस गांव के एक हिस्से में खाते-पीते लोग रहते हैं, जबकि शेष बड़े हिस्से में लोग टूटे-फूटे हिस्से और झोपड़ियों में रहते हैं। यह हिस्सा उबड़-खाबड़ है और गंदगी के अंबार पर बसा हुआ है।
बाहर से गया कोई आदमी अगर यहां आ जाए तो वह विश्वास ही नहीं करेगा कि वह दिल्ली में है। हम जब शब्बो के घर गए, तो कमरे में कमरुन्निसा बच्चों के पास बैठी थी। उसे जब पता चला कि हम शब्बो के बारे में जानकारी लेने आए हैं, तो उसकी आंखों से आंसुओं की धारा फूट पड़ी। वह बोली, ‘हम लोगों के ऊपर इतनी बड़ी मुसीबत टूट पड़ी है, लेकिन आज तक कोई एक बार भी हाल-चाल पूछने तक नहीं आया।’ उसके रुंधे गले ने इसके आगे उसे नहीं बोलने दिया। हामिद ने हमें शब्बो के बारे में विस्तार से बताया।
हामिद का परिवार उत्तर प्रदेश के कुशीनगर जिले का रहने वाला है। हामिद आठवीं पास हैं। वे फिलहाल सिलाई का काम करके अपने घर के लिए रोटी का इंतजाम करते हैं। वर्ष 1988 में बेहतर काम की तलाश में वे दिल्ली आए थे। 1999 में वे कतर में नौकरी करने गए। 2002 मे वहां कंपनी बंद हो जाने के कारण गांव लौटना पड़ा। गांव में भी वे तीन साल से ज्यादा समय नहीं गुजार सके। गुजारे के लिए उन्हें फिर से दिल्ली आना पड़ा। दिल्ली में वे एक फैब्रिकेटर के यहां सिलाई का काम करते हैं। उनकी एक माह की औसत आमदनी 4000 रुपये है। रहने के लिए 8 गुणा 10 फीट का एक कमरा है। इसका किराया 700 रुपया है। पीने के पानी के लिए 500 रुपया हर माह अलग से खर्च करना पड़ता है। उनका कमरा इतना छोटा है कि बारिस के मौसम में पूरे परिवार के लिए रातभर सोना मुश्किल हो जाता है। हामिद और कमरुन्निसा के छह बच्चे हैं। 18 साल की सब्बो सबसे बड़ी थी। सब्बो ने अपनी पढ़ाई बीच में ही छोड़ दी। अपनी मां से एक बार उसने कहा था, ‘मम्मी अगर मैं भी कमाने लगूं, तो भाई लोग पढ़ सकेंगे।’
पहली जनवरी 2011 से सब्बो ने मुन्ना मास्टर के फैक्ट्री में 5278 रुपये महीने पर नौकरी शुरू कर दी। अभी उसको फैक्ट्री आए एक माह भी नहीं पूरा हुआ था कि 25 जनवरी को यह हादसा हो गया। जलने के बाद करीब पांच दिनों तक सब्बो सफदरजंग अस्पताल में एक बिस्तर पर तड़पती रही। भर्ती होने के बाद ऐसा लगा था कि वह बच जाएगी। बीच-बीच में वह बातचीत भी करने लगी थी। हामिद को लगा, चलो जल तो गई, लेकिन जान बच जाएगी। लेकिन पांचवे दिन वह चल बसी। हामिद को यही अफसोस सालता रहा कि वह सब्बो का सही ढंग से इलाज नहीं करवा पाए। अस्पताल में चौथे दिन सब्बो ने हामिद से कहा था, ‘अब्बू वे लोग हम मजदूरों को अस्पताल के पास भी नहीं पहुंचाए थे। हम लोग पैदल ही सड़क पार कर अस्पताल पहुंचे।’ हामिद कल्पना भी नहीं कर पा रहे थे कि इतनी बुरी तरह जलने के बाद कि कैसे उनके सब्बो और दूसरे मजदूर सड़क पार करके अस्पताल पहुंचे होंगे।
चलते समय हामिद ने हमसे बार-बार आग्रह करते हुए कहा, ‘भाई साहब मालिक लोग कितने जालिम हैं, इसे आप जरूर लिखिएगा।’ हमें यह भी पता चला कि सब्बो की शादी गांव में तय भी हो चुकी थी। लेकिन, इस आग ने उसके सारे सपनों को जलाकर राख कर दिया। इस भयंकर हादसे के बाद भी मजदूरों की जिंदगी ऐसी होती है कि वे हार मानकर नहीं बैठते।
यही वजह है कि अब हामिद फिर से अपने परिवार को पटरी पर लाने के लिए जी जान से जुट गए हैं। अब सब्बो की छोटी बहन हसीना ने अपनी बड़ी बहन की जगह ले ली है। उसने अपनी पढ़ाई छोड़ दी है और घर का खर्च उठाने में पिता का हाथ बंटा रही है। जिंदगी ने फिर से रास्ता ढूंढ़ ही लिया।
रामलखन
48 वर्षीय रामलखन लालती देवी के पति हैं। लालती देवी अमेजिंग क्रिएशन में काम करने वाले उन मजदूरों में से एक थी, जो फैक्ट्री में लगी आग की भेंट चढ़ गए। रामलखन और लालती देवी की 12-18 साल के उम्र के बीच की चार लड़कियां हैं। चूंकि परिवार की आजीविका का मुख्य स्रोत लालती देवी की मजदूरी ही थी, इसलिए उनकी मौत के बाद ने पूरे परिवार के लिए रोजी-रोटी का संकट पैदा हो गया है। रामलखन जो झोपड़ी लालती के रहते हमेशा चहचहाती रहती थी, आज वहां सन्नाटा पसरा रहता है। सन्नाटे और अकेलेपन में आज रामलखन अपनी झोपड़ी में कैद जिंदगी की उन सच्चाइयों को जज्ब करने की कोशिश में लगा रहता है, जिनसे उसका अभी हाल में ही सामना हुआ है।
रामलखन का उत्तर प्रदेश में मऊ जिले का रहने वाला है। वे जाति से चमार हैं। गांव में रहते हुए, उन्होंने उन सभी विडम्बनाओं को झेला, जो पूर्वी उत्तर प्रदेश के गांव में दलित और संपत्तिहीन लोगों को झेलना होता है। अपनी जीविका के लिए रामलखन ने कभी रिक्शा चलाया, तो कभी सिलाई का काम किया। गांव में मजदूरी बहुत कम मिलने के कारण वे 1991 में शादी के बाद दिल्ली आ गए और एक गार्मेंट फैक्ट्री के लिए सिलाई का काम करने लगे। लालती देवी ने भी भरपूर मेहनत मजदूरी से परिवार को सहारा दिया। पांच साल पहले रामलखन को ब्लड सुगर की बीमारी हो गई। ऐसे में उनका काम पर जाना कम होता गया। ऐसे में लालती की कमाई से ही रामलखन की दवा और परिवार का किसी तरह गुजर-बसर होता।
मुन्ना मास्टर की फैक्ट्री में लालती 28 दिसंबर 2010 से काम कर रही हैं। इस कंपनी में उसे अभी एक महीना भी नहीं गुजरा होगा कि वह 25 जनवरी को फैक्ट्री में लगी आग की भेंट चढ़ गई। इस दिन को रामलखन कभी नहीं भूल सकता। उस दिन जब दोनों अपने-अपने काम पर थोड़े-थोड़े समयांतराल पर निकले तो मोहल्ले के चौराहे पर वे टकरा गए। इस पर लालती ने रामलखन की चुटकी लेते हुए कहा, ‘आ गए पीछा करते हुए।’ पत्नी से उसकी वही आखिरी मुलाकात थी। आग लगने की खबर लगते ही रामलखन जयप्रकाश नारायण अस्पताल की ओर भागे। वहां उसे एक पूरी तरह जली हुई औरत को दिखाकर कहा गया कि यही लालती देवी है। रामलखन ने उसकी पायल देखते हुए कहा, ‘नहीं यह लालती नहीं है।’ बाद में पता चला कि वह लाश एक दूसरी मजदूर अनिता की थी। रात 12 बजे जब वह भागा-भागा सफदरजंग अस्पताल पहुंचा, तो उसे बताया गया कि लालती देवी का इलाज चल रहा है। उसने पुलिस वालों से लाख मिन्नत की उसे एक बार पत्नी से मिलने दिया जाए, लेकिन किसी ने उसकी एक न सुनी। दूसरे दिन अस्पताल से उसे लालती देवी की लाश मिली। लालती देवी के जाने से रामलखन पर मुसीबतों का पहाड़ टूट पड़ा। जिन समस्याओं पर पहले उसे सोचने की जरूरत नहीं होती थी, वह सब अब उसकी छाती पर सवार हो गर्इं। रामलखन ने लड़कियों को गांंव भेज दिया है। गांव में वैसे तो एक अदद कमरे के अलावा और कुछ भी नहीं है, लेकिन रामलखन सोचते हैं कि गांव में लड़कियां सुरक्षित रहेंगी। लड़कियों ने पिता पर बोझ बनने के बजाए, मददगार बनने का फैसला किया है। हालात ने जैसे चारों को जैसे चारों को अपनी उम्र से बड़ी और बेहद जिम्मेदार बना दिया। अब चारों बहनों ने दिल्ली में ही रामलखन के साथ रहते हुए अपनी पढ़ाई और रोजगार एक साथ करने के लिए फैसला किया है।
जमील और शकीरा
18 साल का किशोर निजामुद्दीन गार्मेंट फैक्ट्री में मरने वाला एक और मजदूर है। जमील और शकीरा निजामुद्दीन के अब्बू और मम्मी हैं। अपने लाडले को खोकर जमील महज 35 साल में ही बूढ़ा सा दिखने लगा है। शकीरा भी 31 साल की उम्र में ही जिंदगी की मुसीबतों से लड़ते-लड़ते कभी न थकने वाली एक योद्धा जैसी बन गई है। अपने मृत बेटे के बारे में बात हो या उसकी खुद की जिंदगी के बारे में-शकीरा की बात एक बार शुरू हो जाती है, फिर खत्म नहीं होती। जमील और शकीरा उत्तर प्रदेश के सीतापुर जिले के रहने वाले हैं। साल भर पहले वे अपने परिवार के साथ दिल्ली आए। निजामुद्दीन उनका बड़ा बेटा था। गरीबी और मुश्किल हालात से शकीरा का बचपन से ही वास्ता है। शादी के बाद वे लखनऊ आ गए, क्योंकि जमील के गांव में उनके रहने के लिए जगह नहीं बची थी। यहां वे 13 साल तक रहे। चूंकि लखनऊ चिकन के सिले-सिलाए कपड़ों का एक बड़ा केंद्र है, इसलिए यहां काम मिलना मुश्किल नहीं था। लेकिन, यहां मजदूरी बहुत कम थी। उस समय (1995-1996 के आसपास) एक लेडीज सूट सिलने का ढाई रुपये मिलता था। शकीरा के अब्बू ने उसकी शादी में एक सिलाई मशीन दी थी। लखनऊ में उन्होंने कर्ज लेकर दो और सिलाई मशीन खरीद ली। देर रात तक मेहनत करके वे बहुत मुश्किल से 100 रुपये रोज कमा पाते थे। इस बीच परिवार बढ़ता गया और खर्च भी। इस बीच शकीरा गंभीर रुप से बीमार पड़ गई। उसके इलाज में 40 हजार लग गए। इसके लिए जमील को एक महाजन से 10 प्रतिशत व्याज पर कर्ज लेना पड़ा। यह महाजन कुख्यात सूदखोर था। जिसने एक बार उससे कर्ज ले लिया, फिर उसे कोई नहीं बचा सकता था। जमील के परिवार ने दिन रात एक करके महाजन का कर्ज तो पूरा कर दिया, लेकिन इसकी लिए की गई मेहनत ने जमील और शकीरा के शरीर को बुरी तरह तोड़ दिया।
अब तक निजामुद्दीन 17 साल का हो चुका था। उसने दिल्ली में मजदूरी ज्यादा मिलने के कारण अपने अब्बू से दिल्ली चलने की जिद की। वहां वह बहुत लगन से काम करने लगा। वह सुबह से शाम तक गार्मेंट फैक्ट्री में काम करता था। यहां तक कि बीमार होने पर भी वह ड्यूटी जाता था।
कई बार वह धागा कटिंग जैसे छोटे मोटे काम को घर पर करने के लिए भी ले आता था। इस तरह वह महीने में सात-साढ़े हजार रुपये कमा लेता था। वह अपने ऊपर ही पूरे परिवार की जिम्मेदारी मानता था। लेकिन शकीरा के लिए यह सब बीते दिनों की बातें हो चुकी हैं। वह अपने होनहार बेटों में से एक को खो चुकी है। निजामुद्दी का छोटा भाई अब अपनी पढ़ाई छोड़कर काम पर जाने लगा है। शकीरा धागा काटते हुए हमसे बात किए जा रही थी। मेहनत के सिलसिले को वह टूटने नहीं देगी। उसके ऊपर अभी बहुत सारी जिम्मेदारियां हैं।
तसकीनुद्दीन
19 साल का नौजवान आमिर भी मुन्ना मास्टर की गार्मेंट फैक्ट्री में हुए विस्फोट में मारा गया था। तसकीनुद्दीन के चार बच्चों में आमिर भी सबसे बड़ा था। तसकीनुद्दीन का परिवार करीब 25 साल पहले उत्तर प्रदेश के अमरोहा जिले से आया था। अब वे अपने आप को दिल्ली का बासिंदा ही मानते हैं। इस समय वे हौजरानी में रहते हैं।
मुन्ना मास्टर और तसकीनुद्दीन बहुत पुराने मित्र हैं और एक ही मोहल्ले में रहते हैं। मुन्ना मास्टर जब करोड़ों कमाने लगा, तो उनके बीच फासला पैदा हो गया। फिर भी सामाजिक तौर पर अब भी उन्हें लोग दोस्त ही मानते हैं। तसकीनुद्दीन अपने पास छह सिलाई मशीन रखकर फैब्रिकेटर का काम करते थे, इसलिए उनके घर में खाने-पीने की कोई कमी नहीं थी। आमिर का मन पढ़ाई में नहीं लगने के कारण उसे काम करने के लिए मुन्ना मास्टर की फैक्ट्री में भेज दिया गया। आमिर ने वहां छह महीने तक काम सीखा। लेकिन मन न लगने के कारण उसने अमेजिंग क्रियेशन का काम छोड़ दिया। जाड़े में काम ज्यादा होने पर मुन्ना मास्टर ने आमिर को फिर से काम पर लगवा दिया।
25 जनवरी को सुबह फैक्ट्री जाते समय मुन्ना मास्टर तसकीनुद्दीन को कहता गया कि आज काम ज्यादा है, इसलिए आमिर आज घर नहीं आएगा। आमिर फिर घर नहीं लौटा। तसकीनुद्दीन को हैरानी इस बात पर थी, कि पड़ोसी और दोस्त होने के बावजूद मुन्ना मास्टर ने हादसे की खबर उसे नहीं दी। दूसरे दिन किसी ने अखबार पढ़कर तसकीनुद्दीन को फैक्ट्री में हादसे की सूचना दी। मुन्ना मास्टर को तसकीनुद्दीन की दोस्ती की चिंता नहीं थी। वह रात भर फैक्ट्री से सामान निकलवाने और थाने से गोटी सेट करने में लगाया। इसके बावजूद तसकीनुद्दीन हिम्मत नहीं हारे। आज वे इस हादसे के शिकार मजदूरों और उनके परिवार वालों को इंसाफ दिलवाने के लिए मैदान में उतर चुके हैं।
(शांतनु मेहनतकश पत्रिका के संपादक हैं. यह लेख मेहनतकश पत्रिका के नए अंक में प्रकाशित हुआ है. जो भी साथी शांतनु से संपर्क करना चाहते हैं वे उनसे इस नंबर (०९३१०८१८७५०) पर सम्पर्क कर सकते हैं. म्हणत काश पत्रिका की ई मेल : mehnatkash2010@gmail.com है. )
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें