शुक्रवार, 3 अगस्त 2018

मार्क्सवादी मानववाद के वर्तमान संदर्भ (पहली किस्त)

             (भगवान स्वरूप कटियार)
   यह मार्क्स की दो सौवीं जयंती का वर्ष है। विगत डेढ़ सौ वर्षों में मार्क्स की स्थापनाओं को लेकर घनघोर बहसें हुईं हैं। मार्क्स से पूर्व दार्शनिक इस पहेली में उलझे हुए थे कि सिद्धांत व्यवहार में कौन अधिक महत्वपूर्ण है। कांट ने अपनी पुस्तक “क्रिटीक ऑफ़ प्योर रीजन “में एक हद तक इसका निराकरण प्रस्तुत किया। हीगेल ने द्वंद्वात्मकता की अवधारणा प्रस्तुत करते हुए इस बात पर बल दिया कि जो कुछ भी विवेक से परे है वह अतार्किक है। यही वह बिंदु है जहाँ मार्क्स, कांट की तार्किकता और हीगेल की द्वन्द्वात्मकता को जोड़ते हुए इस निष्कर्ष पर पहुँचते हैं कि दर्शन का उद्देश्य महज दुनियां की व्याख्या भर नहीं है बल्कि उसका असली मकसद है दुनिया को बदलना है। मार्क्स जहाँ एक ओर इस दुनिया को यथास्थिति की भंवर से निकालने के लिए संघर्ष करते हैं, वहीं दूसरी ओर अमानवीयता की ओर भागी जा रही दुनियां की दिशा को भी बदलने की मुहिम चलाते हैं। मार्क्स व्याख्याओं का विरोध नहीं करते बल्कि व्याख्याओं के उद्देश्य को जनपक्षीय बदलाव की ओर मोड़ना चाहते हैं।
5 मई 1818 में जर्मनी के राइन इलाके में जन्मे कार्ल मार्क्स का सम्पूर्ण जीवन संघर्ष ,झंझावातों और घोर कठिनाइयों से भरा रहा। अपनी पी एच डी जमा करने के बाद मार्क्स समझ गये थे कि जर्मनी में शिक्षा जगत के लिए दरवाजे उनके लिए बन्द कर दिये जाएंगे।शासक वर्ग हमेशा से वैज्ञानिक विचारों से आक्रांत होता रहा है और विचारकों का क़त्ल, उनको दर- बदर और कैद करते रहा है। सुकरात से शुरू होकर ब्रूनो ,गैलीलिओ , दिदरो , रूसो ,ब्लांकी , मार्क्स ,ग्राम्सी ,भगतसिंह , चेग्वेरा की मिसालों की एक ऐतिहासिक निरन्तरता है। मार्क्स ने 1841 में प्राचीन यूनानी प्रकृतिवादी दर्शनों डेमोक्रेट्स तथा इपिक्युरियस के तुलनात्मक अध्ययन पर पी एच डी की। 1843 में मार्क्स अपनी प्रेमिका जैनी से विवाह कर जर्मन शासकों के दमन चक्र से बचने के लिए पेरिस चले आये और एक जर्मन फ़्रांसिसी पत्रिका के सम्पादन से जुड़ गये | यहाँ उनकी मुलाकात तमाम फ्रांसीसी समाजवादियों से हुई | उनकी सबसे महत्वपूर्ण मुलाकात अपने देश यानी जर्मनी के समाजवादी बुध्दिजीवी विचारक फ्रेडरिक एंगेल्स से हुई और दोनों गहरे दोस्त बन गये | उनकी यह मित्रता जीवन भर कायम रही | मार्क्स और एंगेल्स एक दूसरे के पूरक थे और सुख –दुःख के सच्चे साथी | इसकी खुबसूरत झलक उनके पारस्परिक पत्राचार में मिलती हैं |
1841 में प्रकाशित लुडविग फायरबाख की किताब “एसेंस ऑफ़ क्रिश्चिनिटी” का हीगेल और मार्क्स पर गहरा असर पड़ा और मार्क्स नास्तिकता की ओर बढ़ गये और तभी वे लिखते हैं कि “ धर्म ह्रदयहीन परिस्थितियों का ह्रदय है और आत्माविहीन दुनियां की आत्मा तथा की पीड़ितों की राहत , धर्म लोगों की अफीम है” | इसमें मार्क्स ने दर्शन की अवधारणाओं को आत्मसात करने के लिए सर्वहारा का आह्वान किया | अगर ध्यान से देखें तो भगतसिंह भी “मैं नास्तिक क्यों हूँ” नामक अपनी पुस्तक में लगभग ऐसा ही लिखते हैं | 1844 में प्रकाशित मार्क्स की दार्शनिक मैन्यूस्क्रिप्ट को उनकी सम्पूर्ण चिंतनधारा की बुनियाद माना जाता है | 1848 में मार्क्स और एंगेल्स ने कम्युनिस्ट घोषणापत्र लिखा | उन्होंने प्रथम इंटरनेशनल में सक्रिय भागीदारी भी की उनका संबोधन एक एतिहासिक दस्तावेज बना | उन्होंने कहा कि जो भी वास्तविक है वह विवेक सम्मत है और जो भी विवेक सम्मत है वह वास्तविक है | जो लोग भी बराबरी और भाई चारे के पक्ष में खड़े होंगे वे सदैव मार्क्स से प्रेरणा लेंगे और बराबरी और न्याय के दुश्मन मार्क्स और मार्क्सवाद से सदैव भयभीत रहेंगे।
      मार्क्सवादी मानववाद पर जब सोचता हूँ तो यह शब्द ही मुझे कुछ उलटबांसी सा लगता है | क्योंकि मार्क्स तो खुद ही सच्चे मानववाद के पर्याय थे | उनका सारा संघर्ष और उनका समग्र दार्शनिक चिन्तन इंसानी समाज के निर्माण का है अर्थात मार्क्सवाद में तो मानववाद स्वत: ही निहित (इनबिल्ड) है | पर प्रचलित आदर्शवादी मानवतावाद और मार्क्सवादी मानववाद में मूल फर्क होना स्वाभाविक है | कार्ल मार्क्स का इस दुनिया को देखने–समझने और उसकी गहन विवेचना और उसकी चीड़-फाड़ करने का एक मात्र मकसद है इन्सान और इन्सानी समाज की बेहतरी, हर तरह के शोषण और हर तरह के अन्याय से मुक्ति अर्थात वर्ग विहीन समाजवादी समाज की संकल्पना एवं उसकी रचना | इसके लिए पहले तो वे हजारों साल की विसंगतियों और विद्रूपताओ से भरी दुनियां की ऐतिहासिक और दार्शनिक पड़ताल करते हैं | अपने पूर्व के विचारकों और कांट, हीगल, फायरबाख जैसे बड़े दार्शनिकों को पढ़ते हैं और इस निष्कर्ष पर पहुँचते हैं कि अभी तक दार्शनिकों और विचारकों ने आदर्शवादी तरीके से दुनिया की व्याख्या की है जबकि जरुरत इसे बदलने की है और एक ऐसा बदलाव जिसमें नये समाज का निर्माण हो सके जिसके लिए सदियों से काम करने वाले सामजिक–आर्थिक और व्यवस्थागत ढाँचे को भी बदलना होगा। पुराने ढाँचे से नया समाज बनाना सम्भव नही है जबकि अभी तक यही होता रहा है और इसीलिए अभी तक कोई अमूल-चूल बदलाव नहीं हो सका | मार्क्स के नजरिये को इस तरह समझा जा सकता है जैसे रूसो कहते हैं कि मनुष्य मूलत: असभ्य और जंगली होता है | समाज उसे बनाता-तराशता है | जबकि मार्क्स ठीक इसके विपरीत अपना मत देते हैं कि मनुष्य मूलत: नेक और भला होता है जैसे बच्चा निश्छल,निष्कलंक और द्वेष रहित होता है | बड़ा होकर समाज से वह नफ़रत,प्रेम ,लालच और तमाम अच्छी और बुरी प्रव्रत्तियां ग्रहण करता है |
           मार्क्स की मशहूर रचना पूँजी सबसे ज्यादा मानववादी और द्वंदात्मक है | पूँजी में मार्क्स यह व्याख्यायित करते हैं कि पूँजी के वर्चस्व वाले समाजों में मानवीय सम्बन्ध किस तरह वस्तुओं के बीच सम्बन्धों का रूप लेते हैं | सच्चा समाजवाद नये मानवीय सम्बन्धों को रचते हुए मनुष्य के वस्तु बनने की परिस्थिति का निषेध करता है | पूँजीवाद के खात्मे के बाद नये मानवीय सम्बन्ध उत्पादन केन्द्रों से शुरू होकर सबसे ज्यादा अन्तरंग रिश्तों में फ़ैले जाते हैं जहाँ व्यक्ति महज वस्तु,मूल्य या मुनाफ़ा बढ़ाने के मात्र उपकरण के रूप में नहीं रह जाता है | इस तरह मार्क्सवाद मानव मुक्ति का दर्शन है जहाँ सारे रिश्ते पूर्ण मानववादी रिश्तों में बदल जाते हैं | आज अपने आपको क्रन्तिकारी मार्क्सवादी बनाये रखना मार्क्सवादी मानावादी बनाये रखने पर टिका है | पहले–पहल मार्क्सवादी मानववाद को साठ साल पहले रूस की दार्शनिक दुनायेव्ह्स्काया ने अपनी किताब मार्क्सवाद और स्वतंत्रता (1958) में विकसित किया था | इस किताब में मार्क्स की 1844 की मैन्यूस्क्रिप्ट के कुछ हिस्सा का अनुवाद भी शामिल था | इस पाण्डुलिपि में मार्क्स ने अपने सोच व नजरिये को प्रकृतिवाद या मानववाद कहा था | इसके बाद दुनायेव्ह्स्काया की कई किताबें आयीं जिनमें फिलोसोफी एंड रिवोलूशन फ्रॉम हेगल तो सार्त्र एंड फ्रॉम मार्क्स टू माओ (1973), रोजालक्स्जमबर्ग, विमेन्स लिबरेशन एंड मार्क्सिस्ट फिलोसोफी ऑफ़ रेवोलुशन (1981),वीमेंस लिबरेशन एंड दि डालेटिक्स ऑफ़ रेवोलूशन (1985) |

गौतम बुद्ध

   मार्क्स से बहुत पहले बुध्द ने भी कुछ इसी तरह इस दुःख भरी दुनियां के दुखों के कारणों की पड़ताल के लिए कठोर श्रम किया था | राजपाट छोड़ वे बीसों साल भटकते रहे और उन्होंने समाज की विद्रूपताओं की गहन मीमांसा की | उनकी भी स्थापना थी कि जरुरत से अधिक संचय दुःख का एक बड़ा कारण | उनका मानना है कि प्रकृति इतनी सम्रध्द है कि स्रष्टि के सभी प्राणी सुख–चैन से जी सकते है | उन्होंने कहा कि “ दुनियां में दुःख है ,उसके कारण हैं और उसके निवारण हमे मिल-जुल कर खोजने होंगे | उनके सोच में भी वैज्ञानिकता और तार्किकता थी कि दुनियां में अकारण कुछ भी नहीं होता और न ही कुछ शाश्वत होता है | हर कुछ समय सापेक्ष है और परिवर्तनीय है बुध्द का समय कार्ल मार्क्स की तरह औद्योगिक क्रांति का आर्थिक युग नहीं था और इसीलिए उन्होंने आर्थिक और राजनीतिक पक्षों पर उस तरह की विवेचनाएं भले न दी हों पर धर्म के पाखन्ड और तर्कहीनता पर गहरी चोट की | उन्होंने कहा कि किसी बात को इसलिए मत स्वीकार कर लो कि वह सदियों से कही जा रही है और न किसी विचार को इसलिए स्वीकार कर लो कि किसी महान व्यक्ति ने कहा है या शास्त्रों , पुराणों या अन्य धार्मिक या गैर धार्मिक किताबों में लिखा है | उसे तर्क और व्यवहार की कसौटी पर कसो तब स्वीकार करो | “आप्य दीपो भव” आर्थात खुद अपने मार्ग दर्शक बनो | उन्होंने यह भी कहा कि जीवन रूपी वीणा के तारों को इतना मत खींचो की टूट जायें उसमें कोई सुर ही न निकले और न ही उन्हें इतना ढीला रखो कि कोई सुर न निकले | यही है उनका मध्यम मार्गीय मार्ग | वे अहिंसा के सिध्दांत के प्रवर्तक भी थे | वे अमानवीय नजरिये के सोच को भी हिंसा कहते थे | बुध्द अपने इस तर्कसंगत मानवीय सोच के लिए पूरी दुनियां में स्वीकारे गये जबकि हिन्दू धर्म के अनुयायी, बौध्द अनुयायियों के साथ हिंसात्मक तरीके से पेश आये | बौध्दों की हत्याएं तक करवाई गयीं और बैध्द दर्शन जिसे बाद में धर्म कहा गया की घोर भर्त्सना और आलोचना की | फिर भी बौध्द धर्म ईसाई,और इस्लाम धर्म के बाद दुनियां का तीसरा बड़ा धर्म बन गया |
             


महात्मा गांधी
   गाँधी के दर्शन को अगर हम उनके उस महा वाक्य के आलोक में आंके जिसमें वे कहते हैं “कि व्यक्तिगत या सामूहिक निर्णय लेते वक्त यह ध्यान में जरूर रहे कि पंक्ति के आखिरी व्यक्ति पर उसका क्या असर पड़ेगा तो शायद हम अमानवीय कृत्य से बच जायेंगे और समाज भी विद्रूप नहीं होगा” | पर यह तभी सम्भव है समाज नैतिकता के शिखर पर हो |


डा0 अम्बेडकर
डा0 अम्बेडकर आर्थिक और सामजिक लोकतंत्र को वास्तविक लोकतंत्र मानते थे जिसमें किसी तरह गैर बराबरी ,अन्याय और शोषण न हो | वे हजारों साल के आंतरिक उपनिवेशवाद जो वर्णव्यवस्था के रूप में देश में व्याप्त था उससे मुक्ति के पैरोकार थे | वे धार्मिक पाखंड से मुक्त जातिविहीन समाज के निर्माण के पक्षधर थे और इसी से वे वास्तविक मानववाद की निर्मित चाहते थे |

भगत सिंह
कमोबेश यही सोच भगतसिंह और उनके साथियों का भी था | शोषणविहीन, अन्यायमुक्त हर तरह की बराबरी का समाज जहाँ हर कोई सर उठा कर जी सके | नेहरू जी के मस्तिष्क में भी वैज्ञानिक और तर्क संगत नजरिये वाले इसी तरह के समाज की परिकल्पना थी जिसके अनुरूप उन्होंने जीवन भर काम किया |


मार्क्सवाद
 मार्क्सवाद मनुष्य की मुक्ति का दर्शन और इससे परे कुछ नहीं। उनका समग्र चिन्तन उत्पादन और उत्पादन सम्बन्धों की गहन विवेचना पर आधारित है। मार्क्सवादी समझ के मुताबिक मूल्य का सिद्धांत आधारित श्रम या शोषित श्रम के इस्तेमाल से और परिणामस्वरूप अतिरिक्त मूल्य की अवधारणा से जुड़ा है। अतिरक्त मूल्य अलगाव आधारित श्रम और मूल्य का नतीजा है। यह मार्क्सवादी यथार्थ है कि श्रम ही मूल्य का रूप धारण करता है। मूल्य वह सम्पदा है जो मौद्रिक रूप में मापी जाती है। पूंजीवाद का मकसद भौतिक सम्पदा पैदा करना नहीं है बल्कि मूल्य के संचय को बढ़ाना है। श्रम मूल्य का स्रोत है। द्वंदात्मक भौतिकवाद के अनुसार यथार्थ ( सत्य ) वस्तु और विचार का द्वंदात्मक युग्म है जिसमें प्राथमिकता वस्तु की है | वस्तु और विचार की द्वंद्वात्मक एकता की प्रक्रिया या दोनों की एक दूसरे पर क्रिया–प्रतिक्रिया की निरन्तरता ही पाषणयुग से साइबरयुग तक मानव इतिहास की यात्रा की संचालन शक्ति रही है | प्रकृति की द्वंद्वात्मकता की प्रकृति परिवर्तन की निरन्तरता जिसकी गतिविज्ञान के अपने नियम हैं | सतत क्रमिक मात्रात्मक परिवर्तन समयांतर में परिपक्व होकर गुणात्मक क्रन्तिकारी परिवर्तन बन जाता है| भारत के सन्दर्भ मे विगत 40 वर्षों में दलित विमर्श तथा स्त्री विमर्श के विस्तार और उसके सतत संघर्ष को क्रमिक मात्रात्मक परिवर्तन के उदहारण के रूप में देखा जा सकता है | वैसे तो कोई परिवर्तन विशुध्द मात्रात्मक नहीं होता है पर यह स्त्रीवाद तथा जातिवाद विरोध की सैध्दांतिक विजय है | इसलिए यह मात्रात्मक परिवर्तन है जो क्रन्तिकारी गुणात्मक परिवर्तन विचारधारा के रूप में क्रमश: मर्दवाद और ब्राह्मणवाद के विनाश के खण्डहरों पर उगेंगे | द्वंद्वात्मक समग्रता के दोनों परस्पर विपरीत के पारस्परिक निषेध से तीसरे उच्चतर तत्व की उत्पत्ति होती है जो दोनों से गुणात्मक तौर पर भिन्न होती है | इस नियम को वाद –प्रतिवाद और संवाद  (थीसिस ,एन्टीथीसिस और सेंथेसिस) कहते हैं |1917 की क्रन्तिकारी परिस्थियों ने क्रन्तिकारी चेतना पैदा की | क्रन्तिकारी परिस्थितियों और क्रन्तिकारी चेतना से लैस मनुष्य की द्वंद्वात्मक एकता के परिणामस्वरूप नवम्बर क्रान्ति हुई | द्वंद्वात्मक भौतिकवाद का एक और नियम है जिसका अस्तित्व है उसका अन्त निश्चित है | इसे प्रकृति की ऐतिहासिक प्रव्रत्ति कहना ज्यादा उचित होगा | एंगेल्स ने उल्लेख किया है कि मार्क्स और उनकी रचनाओं को कोट करने से कोई मार्क्सवादी नहीं हो जाता है बल्कि सच्चा मार्क्सवादी वह है जो खास परिस्थिति में वैसी ही प्रतिक्रिया दे जैसी मार्क्स देते | मार्क्स के अनुसार सत्य वही है जिसे तथ्य और तर्कों के आधार पर प्रमाणित किया जा सके | ऐतिहासिक भौतिकवाद का मूलमंत्र है कि अर्थ ही मूल है | यह एक ऐतहासिक द्रष्टिकोण है जो समाज के आर्थिक विकास को इतिहास के गतिविज्ञान की कुंजी मानता है | इतिहास के सभी कारक,कारण की उत्पत्ति है “ उत्पादन पध्दति में परिवर्तनों और विनिमय तथा परिणामस्वरूप समाज का विभिन्न वर्गों में विभाजन और वर्ग संघर्ष में निरूपित होना | ऐतिहासिक भौतिकवाद एक व्यावहारिक विज्ञान है | उत्पादन प्रणाली में परिवर्तन के आधार पर यह मानव इतिहास का युग निरूपण करता है | व्यवस्था बदलने के लिए गतिविज्ञान के नियमों की वैज्ञानिक समझ जरुरी थी | इसके लिए मार्क्स ने द्वंद्वात्मक भौतिकवाद के आधार पर ऐतिहासिक भौतिकवाद के विज्ञान का अन्वेषण किया | द्वन्द्वात्मक भौतिकवाद मार्क्सवादी दर्शन और ऐतिहासिक भौतिकवाद उसका विज्ञान है |

संदर्भ:

  1. लुडविग फायरबाख- एसेंस ऑफ़ क्रिश्च्नीटी
  2. कार्ल मार्क्स –अ कॉन्ट्रिब्यूशन टू दि क्रिटिक ऑफ़ हेगेल
  3.  बी आर अम्बेडकर-प्रतिक्रांति की दार्शनिक पुष्टि
  4. एंटोनिओ ग्राम्सी-सेलेक्सन फ्रॉम प्रिजन नोट्स
  5.  कार्ल मार्क्स-वेज लेबर एंड कैपिटल
  6.  एंगेल्स-सोशलिज्म यूटोपियन एंड साइन्टिफिक
  7. कार्ल मार्क्स-इकानामिक एंड फिलोसोफिकल मैन्यूस्क्रिप्ट
  8.  रूसो-डिस्कोर्स अपोन ओरिजिन एंड फाउंडेशन ऑफ़ इनेक्विलिटी
  9.  फ्रांसिस फुकुयामा-दि एन्ड ऑफ़ हिस्ट्री एंड दि लास्ट मैन

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