अगर अंग्रेजों का राज होता तो खबर कुछ ऐसे लिखी जाती, ”अंग्रेज सरकार ने भारत के 6 किसानों की गोली मरवाकर हत्या कर दी।“ फिर देशभक्त अखबारों का आह्नान होता, ”ऐसी लुटेरी और अत्याचारी सरकार के खिलाफ भारतवासी एकजुट हो!“ दरअसल ऐसी कोई भी खबर अखबारों में नहीं है। खबर यह आयी कि गोली लगने से मध्य प्रदेश के 6 किसान मारे गये। मंदसौर या मध्य प्रदेश के किसान ही नहीं देशभर में अलग-अलग जगहों
के किसान आज आन्दोलन कर रहे हैं। वे शौक के चलते आन्दोलन नहीं कर रहे हैं और न ही किसी उन्माद के चलते पुलिस की गोली खा रहे हैं। उनकी जिन्दगी नारकीय बन गयी है। एक महीना गाँव के किसी मध्यम या गरीब किसान के घर रुककर
देख लीजिए। आपको पता चल जाएगा कि किसानों की जिन्दगी कैसे गुजर रही है। खेती की लागत आसमान छू रही है और फसल का दाम धराशाही हो गया है। मंदसौर के किसान फसल के वाजिब
दाम और कर्ज माफी के लिए आन्दोलन कर रहे थे। इस सिलसिले में किसानों ने सरकार के सामने 32 सूत्राीय माँग रखी थी। इसमें प्रमुख माँगें इस तरह हैं-- 1. मध्य प्रदेश की सरकार ने एक कानून
बनाकर किसानों की जमीन हथियाने का नायाब तरीका निकाला है, इस कानून में जमीन लेने के बदले मुआवजा देने की धारा 34 को हटा दिया गया है और भूमि अधिग्रहण के विरोध में किसानों के
अदालत जाने का अधिकार छीन लिया गया है। इस कानून को रद्द कराना किसानों की पहली मागँ है। 2. किसान स्वामीनाथन आयोग की सिफारिशों को भी लागू कराना चाह रहे हैं जो भाजपा के चुनावी
वादों में से एक रहा है। इनमें एक बिन्दु यह भी है कि सरकार किसानों को उनकी फसल की लागत का डेढ़ गुना दाम दिलाएँगी।
3. आन्दालन में जिन किसानों के खिलाफ कसे दर्ज है उन्हे वापस लिया जाए। 4. किसानों को कर्ज के मकडज़ाल से म्क्ुक्त किया जाए। यानी सरकार किसान का कर्ज माफ करे। 5. सरकार डये री के
माध्यम से जो दूध खरीदती है, उसके दाम बढ़ाये जाएँ। कोई भी न्यायप्रिय इनसान किसानों की इन माँगों के साथ खड़ा होगा। ये माँग किसानों की तात्कालिक समस्याओं से सम्बन्धित हैं लेकिन खेती-किसानी का संकट इससे कहीं गहरा है और देश के आर्थिक ढाँचे के संकट से जुड़ा है। यह उन नीतियों का नतीजा है जिन्हें सरकार अन्धाधुन्ध लागू करती जा रही है। लेकिन यह कैसी सरकार है जो मुसीबत के मारे किसानों को तात्कालिक राहत देने के बजाय उनके खून से अपनी सत्ता की कुर्सी चमका रही है।
जिस समय अपनी माँगों को लेकर किसान आन्दोलन कर रहे थे उस दौरान सरकार की ओर से कार्रवाई के नाम पर किसानसंगठनों के नेताओं को बरगलाने और आन्दोलन को तोड़ने का काम जारी था। लाख कोशिशों के बावजूद सरकार आन्दोलन को तोड़ने में कामयाब न हो सकी। 5 जून को मंदसौर-नीमच रोड पर हजारों किसानों ने चक्का जाम कर दिया। अराजक तत्त्वों ने कई गाडि़यों को आग के हवाले कर दिया और पत्थरबाजी की। अपनी नाकामी छिपाने के लिए खुद को किसान-हितैषी कहने वाली सरकार ने निहत्थे आन्दोलनकारियों पर गोलियाँ बरसायी और 6 किसानों की हत्या कर दी। सरकार गोलियों के सहारे किसानों की समस्या का समाधान कर रही है। दूसरी ओर मुख्यमंत्राी कहते हैं कि ”चर्चा के माध्यम से हर समस्या के हल के लिए हमेशा तैयार हूँ... हमारी सरकार किसानों के साथ हमेशा खड़ी है।“ और किस तरह खड़ी है, यह सबके सामने आ चुका है। अब मध्य प्रदेश के गृहमंत्राी और मंदसौर के डीएम प्रशासन के इस कुकृत्य से अपना पल्ला झाड़ लेना चाहते हैं। वे कह रहे हैं कि सरकार ने गोली
चलाने का आदेश नहीं दिया था। फिर क्या पुलिस के सिपाहियों की किसानों से कोई व्यक्तिगत दुश्मनी थी, जो उन्होंने बिना उकसावे के निहत्थे किसानों पर गोली चलायी। गोलीकांड के बाद देशभर में हो रही बदनामी के डर से आनन-फानन में मुख्यमंत्राी शिवराज सिंह पंडाल सजाकर अनशन पर भी बैठ गये। भाजपा हमेशा गाँधीवादी रास्ते के खिलाफ रही है। फिर ऐसा क्या हो गया जो एक भाजपाई मुख्यमंत्राी को गाँधीवाद का ढोंग और दिखावा करने पर मजबूर होना पड़ा? एक तरफ उनकी सरकार
किसानों पर गोलियाँ बरसा रही है और तमाम भाड़े के कलमघसीट पत्रकार मृतकों के बारे में, यह कहकर उनके किसान होने पर सवाल खड़ा कर रहे हैं कि उन्होंने जींस पहनी हुई थी। मुख्वायमंत्री का ढोंग करने को तो तैयार है लेकिन यह सोचने को तैयार नहीं कि किसानों की इतनी दुर्दशा क्यों हो रही
है? अमन-चैन से खेती करके जीवन-यापन करने वाला किसान क्यों आन्दोलन के रास्ते पर आगे बढ़ रहा है? अगर मुख्यमंत्री उपवास करने के बजाय इन सवालों के जवाब ढूँढ़ते और अपने
चुनावी घोषणापत्रा पर अमल करके किसानों का कुछ भला कर पाते तो बेहतर होता। लेकिन वे बखूबी जानते हैं कि उनकी सरकार जिन नीतियों को लागू करके किसानों को तबाह कर रही है, उसे
पलटना उनके बूते के बाहर की चीज है। ये नीतियाँ विश्व व्यापार संगठन, विश्व बैंक और अन्तरराष्ट्रीय मुद्राकोष के आगे सरकार के 2 देश-विदेश जुलाई 2017 उस निर्लज्ज समर्पण का नतीजा है जो इन अन्तरराष्ट्रीय संस्थाओं ने दशकों पहले देश के शासकों के साथ दुरभिसन्धि करके शुरू
करवायी थी। भाजपा उन्हीं नीतियों को आगे बढ़ा रही है। अन्तरराष्ट्रीय संस्थाओं के दबाव के चलते ही किसानों की सब्सिडी को धीरे-धीरे खत्म कर दिया गया। खेती को दैत्याकार देशी-विदेशी पूँजीपतियों के हवाले कर दिया गया। अब किसान अपने परम्परागत बीज से खेती नहीं कर सकते। उन्हें मजबूरन ड्यूपोंट, मोनसेंटो और करगिल जैसी कम्पनियों के महँगे बीज बोनेपड़ रहे हैं क्योंकि बीज बाजार पर इन कम्पनियों का दबदबा है। इसी तरह बाएर क्रॉप साइंस, मोनसेंटो, एक्सेल क्रॉप केयर और
भारत रसायन जैसी 20 कम्पनियाँ कीटनाशकों के बाजार पर काबिज हैं जो मनमानी कीमत पर अपने उत्पाद किसानों कोबेचती हैं। दूसरी और अपनी उपज का दाम उन्हें नहीं मिलता इस तरह खेती की लागत और कृषि जिंस के दाम दोनों मामलों में
किसानों को लूटा जा रहा है। जिसके चलते खेती लगातार घाटे का सौदा बनती जा रही है।
मध्यम और गरीब किसान घाटे के चलते खेती छोड़ने को मजबूर हैं। पिछले 25 सालों से औसतन हर रोज 2052 किसानखेती छोड़ देते हैं और शहरों में रिक्शा चलाने या मजदूरी करने जाते
हैं। किसानों की तबाही के पीछे मुख्य तौर पर सरकार की वे नीतियाँ जिम्मेदार हैं जो कृषि क्षेत्रा की कम्पनियों को सीधे लाभ पहुँचाती हैं।
न्यूनतम समर्थन मूल्य के लगातार गिरते जाने से भी
किसानों को अपनी फसल का वाजिब दाम नहीं मिल पा रहा है। देश के सबसे बड़े प्याज उत्पादक क्षेत्रा नासिक और मंदसौर के किसान 2-3 रुपये किलो प्याज बेच रहे हैं जबकि विभिन्न शहरों
में उपभोक्ता को 15-20 रुपये किलो प्याज मिल रहा है। इतना भारी अन्तर क्यों है? भाजपा ने 2014 के चुनाव में 50 प्रतिशत न्यूनतम समर्थन मूल्य बढ़ाने का वादा किया था। लेकिन 21 फरवरी 2015 को सरकार ने न्यायालय में शपथपत्रा दे कर बताया
कि 50 प्रतिशत न्यूनतम समर्थन मूल्य बढ़ाना सम्भव नहीं है। किसानों का आलू जब खेत से बाजार में पहुँचता है तो उसे मुश्किल से 1-2 रुपये किलो का दाम मिलता है, जबकि आलू से
चिप्स बनाकर बेचने वाली ‘लहर’ ब्रांड की पेप्सिको कम्पनी चिप्स को 200 रुपये किलो से भी ऊँचे दाम पर बेचती है। बात साफ है सरकार और इन कम्पनियों की साँठ-गाँठ के चलते न्यूनतम
समर्थन मूल्य मजाक बनकर रह गया है। इसी के चलते किसान सीधे-सीधे बिचौलिया कम्पनियों के शिकंजे में फँस गये हैं। इन कम्पनियों का खरीद बाजार पर पूरा कब्जा हो गया है। उत्पादन
के समय ये फसलों के दाम गिरा देती हैं और किसानों से फसल औने-पौने दाम में खरीद लेती हैं।
कृषि एक दुश्चक्र में फँस चुकी है। कृषि और उससे जुड़े क्षेत्र का देश के सकल घरेलू उत्पाद में योगदान घटकर 12 फीसदी से कम रह गया है। तबाह किसान खेती को जारी रखने और अगली फसल के
लिए कर्ज लेता है। बैंकों की व्यवस्था ऐसी है कि धनी किसान को अधिक कर्ज मिल जाता है, जबकि उनकी जिन्दगी पहले से ही खुशहाल है। वहीं मध्यम और गरीब किसान को कम कर्ज मिल
पाता है। इसके चलते मध्यम और गरीब किसान गाँव के ही साहूकारों से ऊँची ब्याजदर पर कर्ज लेता है। किसी सूदखोर द्वारा वसूले जाने वाली ब्याज की दर 3 से 5 प्रतिशत मासिक होती है, यानी 2-3 साल में उधार की रकम दुगुनी हो जाती है। यहीं से
मध्यम और गरीब किसानों की बर्बादी शुरू हो जाती है। वे कर्ज के मकड़जाल में बुरी तरह उलझ जाते हैं। अगर सरकार इन किसानों का बैंक कर्ज माफ कर दे तो उन्हें कुछ हद तक राहत मिल सकती है। हालाँकि किसानों के ऊपर बैंक से कई गुना
अधिक कर्ज साहूकारों का है। इसके चलते किसान तेजी से कंगाल हो रहे हैं। हर घंटे दो किसान आत्महत्या करते हैं और पिछले 15
सालों में 2.30 लाख से अधिक किसान आत्महत्या कर चुके हैं। अपने हालातों से आजिज आकर किसान छोटे-बड़े सैकड़ों आन्दोलन में शिरकत कर रहे हैं और कुछ जगहों पर उनका आन्दोलन उग्र होता जा रहा है। आन्दोलन को दबाने के लिए
पुलिस किसानों पर बर्बर कार्रवाई कर रही है। कृषि क्षेत्र की ऐसी दयनीय दशा खेती को हाशिये पर डालने का नतीजा है। यह चीज किसान-विरोधी उन नीतियों की परिचायक है, जिन्हें हमारे देश के
शासकों ने आजादी के बाद लागू किया और आर्थिक सुधारों के बाद जिन्हें और परवान चढ़ाया। इन्हीं नीतियों के चलते वे खाद, बीज और कीटनाशक की उन कम्पनियों के पाले में खड़े हैं, जो रात-दिन किसानों को लूटकर कंगाल बना रही हैं। इन्हीं नीतियों के चलते वे चीनी मिल, आटा मिल और अन्य कृषि माल उत्पादक और वितरक कम्पनियों के पाले में खड़े हैं जो आपस में साँठ-गाँठ करके किसानों की फसलों को औने-पौने दामों में खरीद लेती हैं। किसान इन दोनों तरह की कम्पनियों की लूट के पाटों में पिस रहा है और उसकी जिन्दगी तबाह हो रही है। हमारे देश के इन शासकों ने अंग्रेजों को भी मात दे दी है। ऐसा नहीं है कि किसान इन बातों को समझता नहीं। वह समझता है और बहुत अच्छी तरह से समझता है। इसी के चलते न केवल
मध्य प्रदेश बल्कि महाराष्ट्र सहित देश के कई अन्य जगहों के किसान आन्दोलन कर रहे हैं। महाराष्ट्र के किसान सम्पूर्ण कर्ज माफी की माँग और सरकार की किसान-विरोधी नीतियों के खिलाफ माल रोको आन्दोलन चला रहे हैं। किसानों ने सड़कों पर
सब्जियाँ और दूध बिखेरकर प्रदर्शन किया। मुख्यमंत्राी से बातचीत का भी कोई नतीजा नहीं निकला। वहाँ भी आन्दोलन उग्र होता जा रहा है। इसके चलते नासिक में धारा 144 लगा दी गयी। वहीं उत्तर प्रदेश में सरकार ने कर्जमाफी का शिगूफा छोड़ा था, वह जमीन पर कहीं नजर नहीं आ रहा है। किसान खुद को ठगा महसूस कर रहे हैं। समय रहते अगर सरकार नहीं चेतती तो किसानों का
आन्दोलन आग की तरह फैलते देर नहीं लगेगी।
इंदौर में जनता के बीच तनाव किस कदर बढ़ गया है, इसका अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि हिंसा के दूसरे दिन इंदौर पुलिस ने हाइवे पर 1100 पुलिसकर्मियों को तैनात कर दिया। इसी बीच किसानों को समझाने गये एसपी और कलेक्टर
को पीट दिया गया। यह एक ऐसी चीज है जो न केवल सरकार को सोचने पर मजबूर कर रही है बल्कि उन स्वयं-भू बुद्धिजीवियों के माथे पर भी बल डाल रही जो यह कहते नहीं थकते कि हमारे
देश के किसान एकजुट होने और संघर्ष करके अपनी स्थिति बदलने में असमर्थ हैं। किसान आज जिस विकट स्थिति का सामना कर रहे हैं उसमें उनके आगे आत्महत्या करने या जुझारू संघर्ष करने के अलावा कोई रास्ता नहीं है। देशभर में किसानों का आन्दोलन जारी है और यह बढ़ता ही जाएगा तथा इससे व्यवस्था पर जरूर फर्क पड़ेगा। लेकिन ऐसे संघर्ष परिवर्तनकामी संगठन और पार्टी के अभाव में क्या इतने कारगर हो पाएँगे कि इस
अन्यायपूर्ण व्यवस्था का कोई विकल्प प्रस्तुत करें, कहना कठिन है। जनता के सैकड़ों आन्दोलन और उसकी हजारों कुरबानियाँ तात्कालिक रूप से थोड़ी राहत तो दिला सकती हैं लेकिन इससे कोई आमूल-चूल परिवर्तन सम्भव नहीं। खेती का अलाभकारी हो जाना और किसानों का कर्ज के जाल में फँसकर आत्महत्या करने को विवश होना खेती की उन
समस्याओं का ही अनिवार्य परिणाम है जिनसे यह आजादी के बाद से आज तक ग्रस्त रही है। पहले हरित क्रान्ति और बाद में नवउदारवादी सुधारों ने इन समस्याओं को बेहद तीखा बनाया है। कर्जमाफी किसानों को कुछ फौरी राहत तो दे सकती है लेकिन
खेती की बुनियादी समस्याओं पर कोई चोट नहीं कर सकती। भारतीय कृषि की समस्याओं पर स्वामीनाथन आयोग ने अपनी रिपोर्ट में मुख्य जोर भूमि सुधार पर दिया था। क्या आज कोई भी राजनीतिक पार्टी या किसान नेता भूमि सुधार की माँग करने को तैयार है? भारत में खेती की समस्या के समाधान का रास्ता नवउदारवादी नीतियों को पूर्णतः खारिज करने से शुरू होकर क्रान्तिकारी भूमि
सुधार तक जाता है। इन समस्याओं के चरणबद्ध समाधान और किसान आन्दोलन को निर्णायक जीत तक ले जाने की शुरूआत किसानों को देशी-विदेशी कम्पनियों की लूट, राजनीतिक पार्टियों की धूर्तता, सरकार की किसान विरोधी नीतियों और खेती-किसानी की राजनीतिक-आर्थिक बारीकियों के बारे में चेतना सम्पन्न करके तथा उन्हें सच्चे जनसंगठनों में गोलबन्द करके ही होगी।
(देश-विदेश पत्रिका के जुलाई 2017 अंक का संपादकीय)
के किसान आज आन्दोलन कर रहे हैं। वे शौक के चलते आन्दोलन नहीं कर रहे हैं और न ही किसी उन्माद के चलते पुलिस की गोली खा रहे हैं। उनकी जिन्दगी नारकीय बन गयी है। एक महीना गाँव के किसी मध्यम या गरीब किसान के घर रुककर
देख लीजिए। आपको पता चल जाएगा कि किसानों की जिन्दगी कैसे गुजर रही है। खेती की लागत आसमान छू रही है और फसल का दाम धराशाही हो गया है। मंदसौर के किसान फसल के वाजिब
दाम और कर्ज माफी के लिए आन्दोलन कर रहे थे। इस सिलसिले में किसानों ने सरकार के सामने 32 सूत्राीय माँग रखी थी। इसमें प्रमुख माँगें इस तरह हैं-- 1. मध्य प्रदेश की सरकार ने एक कानून
बनाकर किसानों की जमीन हथियाने का नायाब तरीका निकाला है, इस कानून में जमीन लेने के बदले मुआवजा देने की धारा 34 को हटा दिया गया है और भूमि अधिग्रहण के विरोध में किसानों के
अदालत जाने का अधिकार छीन लिया गया है। इस कानून को रद्द कराना किसानों की पहली मागँ है। 2. किसान स्वामीनाथन आयोग की सिफारिशों को भी लागू कराना चाह रहे हैं जो भाजपा के चुनावी
वादों में से एक रहा है। इनमें एक बिन्दु यह भी है कि सरकार किसानों को उनकी फसल की लागत का डेढ़ गुना दाम दिलाएँगी।
3. आन्दालन में जिन किसानों के खिलाफ कसे दर्ज है उन्हे वापस लिया जाए। 4. किसानों को कर्ज के मकडज़ाल से म्क्ुक्त किया जाए। यानी सरकार किसान का कर्ज माफ करे। 5. सरकार डये री के
माध्यम से जो दूध खरीदती है, उसके दाम बढ़ाये जाएँ। कोई भी न्यायप्रिय इनसान किसानों की इन माँगों के साथ खड़ा होगा। ये माँग किसानों की तात्कालिक समस्याओं से सम्बन्धित हैं लेकिन खेती-किसानी का संकट इससे कहीं गहरा है और देश के आर्थिक ढाँचे के संकट से जुड़ा है। यह उन नीतियों का नतीजा है जिन्हें सरकार अन्धाधुन्ध लागू करती जा रही है। लेकिन यह कैसी सरकार है जो मुसीबत के मारे किसानों को तात्कालिक राहत देने के बजाय उनके खून से अपनी सत्ता की कुर्सी चमका रही है।
जिस समय अपनी माँगों को लेकर किसान आन्दोलन कर रहे थे उस दौरान सरकार की ओर से कार्रवाई के नाम पर किसानसंगठनों के नेताओं को बरगलाने और आन्दोलन को तोड़ने का काम जारी था। लाख कोशिशों के बावजूद सरकार आन्दोलन को तोड़ने में कामयाब न हो सकी। 5 जून को मंदसौर-नीमच रोड पर हजारों किसानों ने चक्का जाम कर दिया। अराजक तत्त्वों ने कई गाडि़यों को आग के हवाले कर दिया और पत्थरबाजी की। अपनी नाकामी छिपाने के लिए खुद को किसान-हितैषी कहने वाली सरकार ने निहत्थे आन्दोलनकारियों पर गोलियाँ बरसायी और 6 किसानों की हत्या कर दी। सरकार गोलियों के सहारे किसानों की समस्या का समाधान कर रही है। दूसरी ओर मुख्यमंत्राी कहते हैं कि ”चर्चा के माध्यम से हर समस्या के हल के लिए हमेशा तैयार हूँ... हमारी सरकार किसानों के साथ हमेशा खड़ी है।“ और किस तरह खड़ी है, यह सबके सामने आ चुका है। अब मध्य प्रदेश के गृहमंत्राी और मंदसौर के डीएम प्रशासन के इस कुकृत्य से अपना पल्ला झाड़ लेना चाहते हैं। वे कह रहे हैं कि सरकार ने गोली
चलाने का आदेश नहीं दिया था। फिर क्या पुलिस के सिपाहियों की किसानों से कोई व्यक्तिगत दुश्मनी थी, जो उन्होंने बिना उकसावे के निहत्थे किसानों पर गोली चलायी। गोलीकांड के बाद देशभर में हो रही बदनामी के डर से आनन-फानन में मुख्यमंत्राी शिवराज सिंह पंडाल सजाकर अनशन पर भी बैठ गये। भाजपा हमेशा गाँधीवादी रास्ते के खिलाफ रही है। फिर ऐसा क्या हो गया जो एक भाजपाई मुख्यमंत्राी को गाँधीवाद का ढोंग और दिखावा करने पर मजबूर होना पड़ा? एक तरफ उनकी सरकार
किसानों पर गोलियाँ बरसा रही है और तमाम भाड़े के कलमघसीट पत्रकार मृतकों के बारे में, यह कहकर उनके किसान होने पर सवाल खड़ा कर रहे हैं कि उन्होंने जींस पहनी हुई थी। मुख्वायमंत्री का ढोंग करने को तो तैयार है लेकिन यह सोचने को तैयार नहीं कि किसानों की इतनी दुर्दशा क्यों हो रही
है? अमन-चैन से खेती करके जीवन-यापन करने वाला किसान क्यों आन्दोलन के रास्ते पर आगे बढ़ रहा है? अगर मुख्यमंत्री उपवास करने के बजाय इन सवालों के जवाब ढूँढ़ते और अपने
चुनावी घोषणापत्रा पर अमल करके किसानों का कुछ भला कर पाते तो बेहतर होता। लेकिन वे बखूबी जानते हैं कि उनकी सरकार जिन नीतियों को लागू करके किसानों को तबाह कर रही है, उसे
पलटना उनके बूते के बाहर की चीज है। ये नीतियाँ विश्व व्यापार संगठन, विश्व बैंक और अन्तरराष्ट्रीय मुद्राकोष के आगे सरकार के 2 देश-विदेश जुलाई 2017 उस निर्लज्ज समर्पण का नतीजा है जो इन अन्तरराष्ट्रीय संस्थाओं ने दशकों पहले देश के शासकों के साथ दुरभिसन्धि करके शुरू
करवायी थी। भाजपा उन्हीं नीतियों को आगे बढ़ा रही है। अन्तरराष्ट्रीय संस्थाओं के दबाव के चलते ही किसानों की सब्सिडी को धीरे-धीरे खत्म कर दिया गया। खेती को दैत्याकार देशी-विदेशी पूँजीपतियों के हवाले कर दिया गया। अब किसान अपने परम्परागत बीज से खेती नहीं कर सकते। उन्हें मजबूरन ड्यूपोंट, मोनसेंटो और करगिल जैसी कम्पनियों के महँगे बीज बोनेपड़ रहे हैं क्योंकि बीज बाजार पर इन कम्पनियों का दबदबा है। इसी तरह बाएर क्रॉप साइंस, मोनसेंटो, एक्सेल क्रॉप केयर और
भारत रसायन जैसी 20 कम्पनियाँ कीटनाशकों के बाजार पर काबिज हैं जो मनमानी कीमत पर अपने उत्पाद किसानों कोबेचती हैं। दूसरी और अपनी उपज का दाम उन्हें नहीं मिलता इस तरह खेती की लागत और कृषि जिंस के दाम दोनों मामलों में
किसानों को लूटा जा रहा है। जिसके चलते खेती लगातार घाटे का सौदा बनती जा रही है।
मध्यम और गरीब किसान घाटे के चलते खेती छोड़ने को मजबूर हैं। पिछले 25 सालों से औसतन हर रोज 2052 किसानखेती छोड़ देते हैं और शहरों में रिक्शा चलाने या मजदूरी करने जाते
हैं। किसानों की तबाही के पीछे मुख्य तौर पर सरकार की वे नीतियाँ जिम्मेदार हैं जो कृषि क्षेत्रा की कम्पनियों को सीधे लाभ पहुँचाती हैं।
न्यूनतम समर्थन मूल्य के लगातार गिरते जाने से भी
किसानों को अपनी फसल का वाजिब दाम नहीं मिल पा रहा है। देश के सबसे बड़े प्याज उत्पादक क्षेत्रा नासिक और मंदसौर के किसान 2-3 रुपये किलो प्याज बेच रहे हैं जबकि विभिन्न शहरों
में उपभोक्ता को 15-20 रुपये किलो प्याज मिल रहा है। इतना भारी अन्तर क्यों है? भाजपा ने 2014 के चुनाव में 50 प्रतिशत न्यूनतम समर्थन मूल्य बढ़ाने का वादा किया था। लेकिन 21 फरवरी 2015 को सरकार ने न्यायालय में शपथपत्रा दे कर बताया
कि 50 प्रतिशत न्यूनतम समर्थन मूल्य बढ़ाना सम्भव नहीं है। किसानों का आलू जब खेत से बाजार में पहुँचता है तो उसे मुश्किल से 1-2 रुपये किलो का दाम मिलता है, जबकि आलू से
चिप्स बनाकर बेचने वाली ‘लहर’ ब्रांड की पेप्सिको कम्पनी चिप्स को 200 रुपये किलो से भी ऊँचे दाम पर बेचती है। बात साफ है सरकार और इन कम्पनियों की साँठ-गाँठ के चलते न्यूनतम
समर्थन मूल्य मजाक बनकर रह गया है। इसी के चलते किसान सीधे-सीधे बिचौलिया कम्पनियों के शिकंजे में फँस गये हैं। इन कम्पनियों का खरीद बाजार पर पूरा कब्जा हो गया है। उत्पादन
के समय ये फसलों के दाम गिरा देती हैं और किसानों से फसल औने-पौने दाम में खरीद लेती हैं।
कृषि एक दुश्चक्र में फँस चुकी है। कृषि और उससे जुड़े क्षेत्र का देश के सकल घरेलू उत्पाद में योगदान घटकर 12 फीसदी से कम रह गया है। तबाह किसान खेती को जारी रखने और अगली फसल के
लिए कर्ज लेता है। बैंकों की व्यवस्था ऐसी है कि धनी किसान को अधिक कर्ज मिल जाता है, जबकि उनकी जिन्दगी पहले से ही खुशहाल है। वहीं मध्यम और गरीब किसान को कम कर्ज मिल
पाता है। इसके चलते मध्यम और गरीब किसान गाँव के ही साहूकारों से ऊँची ब्याजदर पर कर्ज लेता है। किसी सूदखोर द्वारा वसूले जाने वाली ब्याज की दर 3 से 5 प्रतिशत मासिक होती है, यानी 2-3 साल में उधार की रकम दुगुनी हो जाती है। यहीं से
मध्यम और गरीब किसानों की बर्बादी शुरू हो जाती है। वे कर्ज के मकड़जाल में बुरी तरह उलझ जाते हैं। अगर सरकार इन किसानों का बैंक कर्ज माफ कर दे तो उन्हें कुछ हद तक राहत मिल सकती है। हालाँकि किसानों के ऊपर बैंक से कई गुना
अधिक कर्ज साहूकारों का है। इसके चलते किसान तेजी से कंगाल हो रहे हैं। हर घंटे दो किसान आत्महत्या करते हैं और पिछले 15
सालों में 2.30 लाख से अधिक किसान आत्महत्या कर चुके हैं। अपने हालातों से आजिज आकर किसान छोटे-बड़े सैकड़ों आन्दोलन में शिरकत कर रहे हैं और कुछ जगहों पर उनका आन्दोलन उग्र होता जा रहा है। आन्दोलन को दबाने के लिए
पुलिस किसानों पर बर्बर कार्रवाई कर रही है। कृषि क्षेत्र की ऐसी दयनीय दशा खेती को हाशिये पर डालने का नतीजा है। यह चीज किसान-विरोधी उन नीतियों की परिचायक है, जिन्हें हमारे देश के
शासकों ने आजादी के बाद लागू किया और आर्थिक सुधारों के बाद जिन्हें और परवान चढ़ाया। इन्हीं नीतियों के चलते वे खाद, बीज और कीटनाशक की उन कम्पनियों के पाले में खड़े हैं, जो रात-दिन किसानों को लूटकर कंगाल बना रही हैं। इन्हीं नीतियों के चलते वे चीनी मिल, आटा मिल और अन्य कृषि माल उत्पादक और वितरक कम्पनियों के पाले में खड़े हैं जो आपस में साँठ-गाँठ करके किसानों की फसलों को औने-पौने दामों में खरीद लेती हैं। किसान इन दोनों तरह की कम्पनियों की लूट के पाटों में पिस रहा है और उसकी जिन्दगी तबाह हो रही है। हमारे देश के इन शासकों ने अंग्रेजों को भी मात दे दी है। ऐसा नहीं है कि किसान इन बातों को समझता नहीं। वह समझता है और बहुत अच्छी तरह से समझता है। इसी के चलते न केवल
मध्य प्रदेश बल्कि महाराष्ट्र सहित देश के कई अन्य जगहों के किसान आन्दोलन कर रहे हैं। महाराष्ट्र के किसान सम्पूर्ण कर्ज माफी की माँग और सरकार की किसान-विरोधी नीतियों के खिलाफ माल रोको आन्दोलन चला रहे हैं। किसानों ने सड़कों पर
सब्जियाँ और दूध बिखेरकर प्रदर्शन किया। मुख्यमंत्राी से बातचीत का भी कोई नतीजा नहीं निकला। वहाँ भी आन्दोलन उग्र होता जा रहा है। इसके चलते नासिक में धारा 144 लगा दी गयी। वहीं उत्तर प्रदेश में सरकार ने कर्जमाफी का शिगूफा छोड़ा था, वह जमीन पर कहीं नजर नहीं आ रहा है। किसान खुद को ठगा महसूस कर रहे हैं। समय रहते अगर सरकार नहीं चेतती तो किसानों का
आन्दोलन आग की तरह फैलते देर नहीं लगेगी।
इंदौर में जनता के बीच तनाव किस कदर बढ़ गया है, इसका अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि हिंसा के दूसरे दिन इंदौर पुलिस ने हाइवे पर 1100 पुलिसकर्मियों को तैनात कर दिया। इसी बीच किसानों को समझाने गये एसपी और कलेक्टर
को पीट दिया गया। यह एक ऐसी चीज है जो न केवल सरकार को सोचने पर मजबूर कर रही है बल्कि उन स्वयं-भू बुद्धिजीवियों के माथे पर भी बल डाल रही जो यह कहते नहीं थकते कि हमारे
देश के किसान एकजुट होने और संघर्ष करके अपनी स्थिति बदलने में असमर्थ हैं। किसान आज जिस विकट स्थिति का सामना कर रहे हैं उसमें उनके आगे आत्महत्या करने या जुझारू संघर्ष करने के अलावा कोई रास्ता नहीं है। देशभर में किसानों का आन्दोलन जारी है और यह बढ़ता ही जाएगा तथा इससे व्यवस्था पर जरूर फर्क पड़ेगा। लेकिन ऐसे संघर्ष परिवर्तनकामी संगठन और पार्टी के अभाव में क्या इतने कारगर हो पाएँगे कि इस
अन्यायपूर्ण व्यवस्था का कोई विकल्प प्रस्तुत करें, कहना कठिन है। जनता के सैकड़ों आन्दोलन और उसकी हजारों कुरबानियाँ तात्कालिक रूप से थोड़ी राहत तो दिला सकती हैं लेकिन इससे कोई आमूल-चूल परिवर्तन सम्भव नहीं। खेती का अलाभकारी हो जाना और किसानों का कर्ज के जाल में फँसकर आत्महत्या करने को विवश होना खेती की उन
समस्याओं का ही अनिवार्य परिणाम है जिनसे यह आजादी के बाद से आज तक ग्रस्त रही है। पहले हरित क्रान्ति और बाद में नवउदारवादी सुधारों ने इन समस्याओं को बेहद तीखा बनाया है। कर्जमाफी किसानों को कुछ फौरी राहत तो दे सकती है लेकिन
खेती की बुनियादी समस्याओं पर कोई चोट नहीं कर सकती। भारतीय कृषि की समस्याओं पर स्वामीनाथन आयोग ने अपनी रिपोर्ट में मुख्य जोर भूमि सुधार पर दिया था। क्या आज कोई भी राजनीतिक पार्टी या किसान नेता भूमि सुधार की माँग करने को तैयार है? भारत में खेती की समस्या के समाधान का रास्ता नवउदारवादी नीतियों को पूर्णतः खारिज करने से शुरू होकर क्रान्तिकारी भूमि
सुधार तक जाता है। इन समस्याओं के चरणबद्ध समाधान और किसान आन्दोलन को निर्णायक जीत तक ले जाने की शुरूआत किसानों को देशी-विदेशी कम्पनियों की लूट, राजनीतिक पार्टियों की धूर्तता, सरकार की किसान विरोधी नीतियों और खेती-किसानी की राजनीतिक-आर्थिक बारीकियों के बारे में चेतना सम्पन्न करके तथा उन्हें सच्चे जनसंगठनों में गोलबन्द करके ही होगी।
(देश-विदेश पत्रिका के जुलाई 2017 अंक का संपादकीय)
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