डॉ. देवेन्द्र चौधरी
(दूसरी क़िस्त)
हमारे समकालीन साहित्य में, जो चिंता और सामाजिक सरोकार, जो वेदना और विक्षोभ, जो प्रतिरोध और विरोध, जो मूल्यबोध व आदर्श और निष्ठा अभिव्यक्त हो भी रही है, उसके पीछे वह ऊर्जा, आवेग, जोश, रागात्मकता और गंभीरता नहीं है, जो कि पाठक और समाज को आंदोलित, उद्वेलित करने वाले एक शक्तिशाली और महान रचना के लिए अपेक्षित होते हैं। जाहिर है, ऐसी दशा में हमारा साहित्य-आज मूल्यों, विचारों, संवेदना, सौंदर्यबोध और सांस्कृतिक चेतना के विघटन और क्षय तथा उसकी कारक शक्तियों के विरुद्ध उस लडाÞई को लड़ सकने में समर्थ नहीं हो सकता, जो कि आज के समय में, इस कठिन चुनौती के बरअक्स साहित्य की भूमिका उसकी क्रिया-क्षमता, प्रहारकता, चोट और प्रभाव निस्तेज, निष्प्राण और कोई असर डालने में कारगर नहीं रही है। शासक वर्ग, न केवल राजनीति, अर्थव्यवस्था, सामाजिक जीवन आदि क्षेत्रों में, अपितु साहित्य, कला, रंगमंच, संचार माध्यमों आदि संस्कृति के क्षेत्रों में भी, लगभग अबोध रूप से अपनी योजनाएं, चालें और मंसूबे कार्यान्वित करने में कामयाब होता गया है। पिछले पचास सालों में भारतीय समाज के चिंतन, रीति-नीति, मूल्यों, आचार-व्यवहार आदि में भारी परिवर्तन आया है और वह सब शासक वर्गों के अपने हितों, चिंताओं, उद्ेश्यों और आकांक्षाओं के अनुरूप आया है। इन स्थितियों पर दृष्टिपात करने के बाद यह समझने में कोई कठिनाई नहीं हो सकती कि वर्तमान समय में, समाज के अन्य क्षेत्रों के लोगों के साथ ही साहित्यकार का भी, अपने स्तर पर कितना बड़ा दायित्व है। अत: सवाल यह है कि आज साहित्यकार अपने इस दायित्व का निर्वाह किस प्रकार करें। इस संबंध में, हम जो अरसे में महसूस करते रहे हैं और सोचते-समझते रहे हैं उसे आपके सामने विनम्रतापूर्वक, बहस और संवाद की पूरी गुंजाइश के साथ, अत: किया के उद्देश्य से रख रखे हैं।
सबसे बुनियादी काम है मध्यवर्गीय मानसिकता से संघर्ष
हमारे विचार से, वर्तमान समय में साहित्यकारों का सबसे बड़ा व सबसे बुनियादी महत्व का कार्य है मध्यवर्गीय मानसिकता, चिंतन प्रणाली और उसके संस्कारों से पूरी सजगता और शक्ति के साथ संघर्ष करने का कार्य। आप सभी इस बात से अच्छी तरह से अवगत होंगे कि यह कोई नया सवाल नहीं है। इसे भारत में प्रगतिशील आंदोलन के उदय के साथ ही काफी जोर-शोर के साथ उठाया गया था। यह कभी तीव्र, कभी मद्धिम पड़ते हुए किसी न किसी रूप में आज तक चला आ रहा है, लेकिन दुर्भाग्यवश आज यह साहित्य की मुख्यधारा से कट कर लगभग विलीन-सा हो चला है। इसका परिणाम यह हुआ कि 1930-1936 से शुरू होकर आज तक रचे गए साहित्य का बड़ा भाग मध्यवर्गीय दृष्टिकोण, उसकी जिंदगी के सुख-दुख व अंतर्वस्तु में उसी की समस्याओं व अनुभव की चौहद्दी के भीतर रहकर ही रचा जाता रहा है। साहित्यकारों के एक व्यापक हिस्से का आज भी जनता और जन-आंदोलनों से कोई जुड़ाव नहीं है। वे जनता-जनार्दन के साथ आज तक प्रगाढ़ संबंध बनाने में नाकाम रहे हैं। साहित्यकारों के दृष्टिकोण में, देश की बहुसंख्यक शोषित पीड़ित जनता का दृष्टिकोण शामिल नहीं है।
व्यक्तिवाद से मुक्ति का सवाल अहम
मध्यवर्गीय मानसिकता से मुक्ति का मतलब है व्यक्तिवादी चिंतन से मुक्ति। निजी सुख-दुख, हित-अहित के अनुभवों के कोण से देखने के बजाय, शोषित-पीड़ित जनता के विशाल समाज के सुख-दुख और उनके हित के कोण देखना। अपने व्यक्तिगत, वर्गगत स्वार्थी-सुविधाओं को हल करने के सीमित दायरे को तोड़कर समष्टिगत स्वार्थ के दृष्टिकोण से प्रत्येक वस्तु या घटना के उचित-अनुचित, नैतिक, अनैतिक, न्याय-अन्याय, सुंदर-असुंदर, ग्राहृा-त्याज्य का विवेचन करना। अर्थात् हम एक ऐसे जीवनबोध और मूल्यबोध को अर्जित करें, जो अपनी नीति-नैतिकता, आचरण विधि और सांस्कृतिक चेतना में शोषित-पीड़ित मानवता की विस्तृत दुनिया के हितों पर आधारित हो।
भूल-गलती
वास्तव में, यह एक सच्चाई है कि मध्यवर्गीय दृष्टिकोण और चिंतन-धारा के प्रवाह से मुक्त हुए बिना शासक-वर्गो के स्वार्थों, चिंतन, उसकी रीतियों-नीतियों, नारों और कार्यों की असलियत को उसके पूरे खतरे, धोखाधड़ी, साजिशों और उसके उद्देश्यों को समझना और समझाना संभव नहीं है। इसलिए अपने समय के व्यापक सामाजिक यथार्थ सामाजिक यथार्थ को भी जैसा कि वह वास्तव में है-उसकी पूरी गंभीरता और असीम अविराम त्रासदी के साथ समझ और महसूस कर सकना संभव नहीं है। तब यह भी तय है कि हमारे जीवन-क्रम, चिंतन और सृजन में विभ्रम, गंभीर त्रुटियां करने के खतरे और भटकाव भी हर कदम पर होंगे, जैसा कि भारतीय कम्युनिस्ट आंदोलन और हिंदी साहित्य के पिछले 60-65 वर्षों के इतिहास में अनेक बार होता रहा है। सन् 1942 में, प्रगतिशील साहित्यकारों के द्वारा साम्राज्यवाद विरोध की लाइन बनाकर चलना और जनांदोलन के उभार से कट जाना, सन् 1947 में भारत की सत्ता-हस्तांतरण के चरित्र के बारे में विभ्रम, अनिश्चय के बाद नेहरू के पूंजीवादी नेतृत्व को समर्थन देना, सन् 1947 में संपूर्ण क्र ांति के जन-आंदोलन से सीपीएम का हाथ खींचना तथा आपातकाल के दौरान सीपीआई के द्वारा कांग्रेस (ई) को समर्थन देने की हद तक जाना-कुछ एक ऐसे ही दृष्टांत हैं। इन भटकावों का साहित्य-सृजन की दिशा पर कितना घातक प्रभाव पड़ा, अभी भी एक अनुशीलन व मूल्यांकन का विषय है। मंदिर-मस्जिद के विवाद के प्रसंग में ‘सहमत’संस्था के राज्य सत्ता के सहयोग से किए गए सांस्कृतिक कर्म इसकी ताजा मिशाल थे।
जानें कि जोर-जुल्म, बेकारी क्यों है?
आज जब हम अपने समय के साहित्य को देखते हैं, तो यह बात शिद्दत के साथ महसूस होती है कि हमारे स्वाधीनता आंदोलन के समय के तमाम साहित्यकारों-विशेष रूप से प्रेमचंद, निराला, शरतचंद्र चट्टोध्याय, नजरुल इस्लाम आदि ने अपने समय के समाज और उसकी नियामक शक्तियों को जिस पैनेपन, मर्मज्ञता और महारत के साथ समझा था, वह उसके बाद के साहित्यकारों मेें दूर-दूर तक नहीं नजर आता। इसलिए वर्तमान समय में साहित्यकारों का एक दूसरा सबसे बड़ा काम है राजनीतिक, आर्थिक और सामाजिक-सांस्कृतिक स्तरों पर अपने समय के समाज की सही और विभ्रममुक्त समझदारी अर्जित करना। इस संबंध में, आज हमारे समय का मुख्य द्वंद्व क्या है? हमारे देश की जनता का मुख्य शत्रु कौन है? विभिन्न वामपंथी और गैर वामपंथी दलों की वास्तविकता भूमिका क्या है? उनका चरित्र क्या है? देश में आज विभिन्न क्षेत्रों में जनांदोलनों की बुरी दशा क्यों है? विभिन्न क्षेत्रों में एक के बाद एक शासक वर्गों की जनविरोधी नीतियां क्यों सफलतापूर्र्वक लागू होती जा रही हैं? देश की शोषित पीड़ित जनता का जीवन अपने संघर्षों से अर्जित अधिकारों, सुविधाओं से लगातार वंचित होता हुआ अधिकाधिक बदहाली की ओर क्यों जा रहा है? खाद्य, शिक्षा, बिजली-पानी, स्वास्थ्य, रोजगार आदि जीवन की मूलभूत आवश्यकताओं के सभी क्षेत्रों में संकट और अभाव क्यों गहराता जा रहा है? हर क्षेत्र में रुकावट या गतिरोध क्यों है? जनता के जीवन में क्षेत्रवाद, सांप्रदायिकता और जातिवाद का जहर क्यों और कैसे फैलता जा रहा है? अपने समय की इस परिस्थिति और इसके मुख्य कारण की अच्छी तरह से और गहरी समझदारी हासिल किए बिना आज के समय की चुनौती से टकराने वाले साहित्य की रचना हो ही नहीं सकती। निश्चय ही यह कार्य बहुत कठिन, भारी और श्रमसाध्य है, लेकिन इसके बिना कुछ किया भी नही जा सकता। पाश की कविता याद आ रही है, ‘बीच का कोई रास्ता नहीं होता।’ इसलिए जैसे भी हो, इसे करना ही होगा।
(अंतिम किस्त आगामी पोस्ट में )

हमारे समकालीन साहित्य में, जो चिंता और सामाजिक सरोकार, जो वेदना और विक्षोभ, जो प्रतिरोध और विरोध, जो मूल्यबोध व आदर्श और निष्ठा अभिव्यक्त हो भी रही है, उसके पीछे वह ऊर्जा, आवेग, जोश, रागात्मकता और गंभीरता नहीं है, जो कि पाठक और समाज को आंदोलित, उद्वेलित करने वाले एक शक्तिशाली और महान रचना के लिए अपेक्षित होते हैं। जाहिर है, ऐसी दशा में हमारा साहित्य-आज मूल्यों, विचारों, संवेदना, सौंदर्यबोध और सांस्कृतिक चेतना के विघटन और क्षय तथा उसकी कारक शक्तियों के विरुद्ध उस लडाÞई को लड़ सकने में समर्थ नहीं हो सकता, जो कि आज के समय में, इस कठिन चुनौती के बरअक्स साहित्य की भूमिका उसकी क्रिया-क्षमता, प्रहारकता, चोट और प्रभाव निस्तेज, निष्प्राण और कोई असर डालने में कारगर नहीं रही है। शासक वर्ग, न केवल राजनीति, अर्थव्यवस्था, सामाजिक जीवन आदि क्षेत्रों में, अपितु साहित्य, कला, रंगमंच, संचार माध्यमों आदि संस्कृति के क्षेत्रों में भी, लगभग अबोध रूप से अपनी योजनाएं, चालें और मंसूबे कार्यान्वित करने में कामयाब होता गया है। पिछले पचास सालों में भारतीय समाज के चिंतन, रीति-नीति, मूल्यों, आचार-व्यवहार आदि में भारी परिवर्तन आया है और वह सब शासक वर्गों के अपने हितों, चिंताओं, उद्ेश्यों और आकांक्षाओं के अनुरूप आया है। इन स्थितियों पर दृष्टिपात करने के बाद यह समझने में कोई कठिनाई नहीं हो सकती कि वर्तमान समय में, समाज के अन्य क्षेत्रों के लोगों के साथ ही साहित्यकार का भी, अपने स्तर पर कितना बड़ा दायित्व है। अत: सवाल यह है कि आज साहित्यकार अपने इस दायित्व का निर्वाह किस प्रकार करें। इस संबंध में, हम जो अरसे में महसूस करते रहे हैं और सोचते-समझते रहे हैं उसे आपके सामने विनम्रतापूर्वक, बहस और संवाद की पूरी गुंजाइश के साथ, अत: किया के उद्देश्य से रख रखे हैं।
सबसे बुनियादी काम है मध्यवर्गीय मानसिकता से संघर्ष
हमारे विचार से, वर्तमान समय में साहित्यकारों का सबसे बड़ा व सबसे बुनियादी महत्व का कार्य है मध्यवर्गीय मानसिकता, चिंतन प्रणाली और उसके संस्कारों से पूरी सजगता और शक्ति के साथ संघर्ष करने का कार्य। आप सभी इस बात से अच्छी तरह से अवगत होंगे कि यह कोई नया सवाल नहीं है। इसे भारत में प्रगतिशील आंदोलन के उदय के साथ ही काफी जोर-शोर के साथ उठाया गया था। यह कभी तीव्र, कभी मद्धिम पड़ते हुए किसी न किसी रूप में आज तक चला आ रहा है, लेकिन दुर्भाग्यवश आज यह साहित्य की मुख्यधारा से कट कर लगभग विलीन-सा हो चला है। इसका परिणाम यह हुआ कि 1930-1936 से शुरू होकर आज तक रचे गए साहित्य का बड़ा भाग मध्यवर्गीय दृष्टिकोण, उसकी जिंदगी के सुख-दुख व अंतर्वस्तु में उसी की समस्याओं व अनुभव की चौहद्दी के भीतर रहकर ही रचा जाता रहा है। साहित्यकारों के एक व्यापक हिस्से का आज भी जनता और जन-आंदोलनों से कोई जुड़ाव नहीं है। वे जनता-जनार्दन के साथ आज तक प्रगाढ़ संबंध बनाने में नाकाम रहे हैं। साहित्यकारों के दृष्टिकोण में, देश की बहुसंख्यक शोषित पीड़ित जनता का दृष्टिकोण शामिल नहीं है।
व्यक्तिवाद से मुक्ति का सवाल अहम
मध्यवर्गीय मानसिकता से मुक्ति का मतलब है व्यक्तिवादी चिंतन से मुक्ति। निजी सुख-दुख, हित-अहित के अनुभवों के कोण से देखने के बजाय, शोषित-पीड़ित जनता के विशाल समाज के सुख-दुख और उनके हित के कोण देखना। अपने व्यक्तिगत, वर्गगत स्वार्थी-सुविधाओं को हल करने के सीमित दायरे को तोड़कर समष्टिगत स्वार्थ के दृष्टिकोण से प्रत्येक वस्तु या घटना के उचित-अनुचित, नैतिक, अनैतिक, न्याय-अन्याय, सुंदर-असुंदर, ग्राहृा-त्याज्य का विवेचन करना। अर्थात् हम एक ऐसे जीवनबोध और मूल्यबोध को अर्जित करें, जो अपनी नीति-नैतिकता, आचरण विधि और सांस्कृतिक चेतना में शोषित-पीड़ित मानवता की विस्तृत दुनिया के हितों पर आधारित हो।
भूल-गलती
वास्तव में, यह एक सच्चाई है कि मध्यवर्गीय दृष्टिकोण और चिंतन-धारा के प्रवाह से मुक्त हुए बिना शासक-वर्गो के स्वार्थों, चिंतन, उसकी रीतियों-नीतियों, नारों और कार्यों की असलियत को उसके पूरे खतरे, धोखाधड़ी, साजिशों और उसके उद्देश्यों को समझना और समझाना संभव नहीं है। इसलिए अपने समय के व्यापक सामाजिक यथार्थ सामाजिक यथार्थ को भी जैसा कि वह वास्तव में है-उसकी पूरी गंभीरता और असीम अविराम त्रासदी के साथ समझ और महसूस कर सकना संभव नहीं है। तब यह भी तय है कि हमारे जीवन-क्रम, चिंतन और सृजन में विभ्रम, गंभीर त्रुटियां करने के खतरे और भटकाव भी हर कदम पर होंगे, जैसा कि भारतीय कम्युनिस्ट आंदोलन और हिंदी साहित्य के पिछले 60-65 वर्षों के इतिहास में अनेक बार होता रहा है। सन् 1942 में, प्रगतिशील साहित्यकारों के द्वारा साम्राज्यवाद विरोध की लाइन बनाकर चलना और जनांदोलन के उभार से कट जाना, सन् 1947 में भारत की सत्ता-हस्तांतरण के चरित्र के बारे में विभ्रम, अनिश्चय के बाद नेहरू के पूंजीवादी नेतृत्व को समर्थन देना, सन् 1947 में संपूर्ण क्र ांति के जन-आंदोलन से सीपीएम का हाथ खींचना तथा आपातकाल के दौरान सीपीआई के द्वारा कांग्रेस (ई) को समर्थन देने की हद तक जाना-कुछ एक ऐसे ही दृष्टांत हैं। इन भटकावों का साहित्य-सृजन की दिशा पर कितना घातक प्रभाव पड़ा, अभी भी एक अनुशीलन व मूल्यांकन का विषय है। मंदिर-मस्जिद के विवाद के प्रसंग में ‘सहमत’संस्था के राज्य सत्ता के सहयोग से किए गए सांस्कृतिक कर्म इसकी ताजा मिशाल थे।
जानें कि जोर-जुल्म, बेकारी क्यों है?
आज जब हम अपने समय के साहित्य को देखते हैं, तो यह बात शिद्दत के साथ महसूस होती है कि हमारे स्वाधीनता आंदोलन के समय के तमाम साहित्यकारों-विशेष रूप से प्रेमचंद, निराला, शरतचंद्र चट्टोध्याय, नजरुल इस्लाम आदि ने अपने समय के समाज और उसकी नियामक शक्तियों को जिस पैनेपन, मर्मज्ञता और महारत के साथ समझा था, वह उसके बाद के साहित्यकारों मेें दूर-दूर तक नहीं नजर आता। इसलिए वर्तमान समय में साहित्यकारों का एक दूसरा सबसे बड़ा काम है राजनीतिक, आर्थिक और सामाजिक-सांस्कृतिक स्तरों पर अपने समय के समाज की सही और विभ्रममुक्त समझदारी अर्जित करना। इस संबंध में, आज हमारे समय का मुख्य द्वंद्व क्या है? हमारे देश की जनता का मुख्य शत्रु कौन है? विभिन्न वामपंथी और गैर वामपंथी दलों की वास्तविकता भूमिका क्या है? उनका चरित्र क्या है? देश में आज विभिन्न क्षेत्रों में जनांदोलनों की बुरी दशा क्यों है? विभिन्न क्षेत्रों में एक के बाद एक शासक वर्गों की जनविरोधी नीतियां क्यों सफलतापूर्र्वक लागू होती जा रही हैं? देश की शोषित पीड़ित जनता का जीवन अपने संघर्षों से अर्जित अधिकारों, सुविधाओं से लगातार वंचित होता हुआ अधिकाधिक बदहाली की ओर क्यों जा रहा है? खाद्य, शिक्षा, बिजली-पानी, स्वास्थ्य, रोजगार आदि जीवन की मूलभूत आवश्यकताओं के सभी क्षेत्रों में संकट और अभाव क्यों गहराता जा रहा है? हर क्षेत्र में रुकावट या गतिरोध क्यों है? जनता के जीवन में क्षेत्रवाद, सांप्रदायिकता और जातिवाद का जहर क्यों और कैसे फैलता जा रहा है? अपने समय की इस परिस्थिति और इसके मुख्य कारण की अच्छी तरह से और गहरी समझदारी हासिल किए बिना आज के समय की चुनौती से टकराने वाले साहित्य की रचना हो ही नहीं सकती। निश्चय ही यह कार्य बहुत कठिन, भारी और श्रमसाध्य है, लेकिन इसके बिना कुछ किया भी नही जा सकता। पाश की कविता याद आ रही है, ‘बीच का कोई रास्ता नहीं होता।’ इसलिए जैसे भी हो, इसे करना ही होगा।
(अंतिम किस्त आगामी पोस्ट में )
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