अशफाक की कविता से छेड़छाड़
डॉ. महर उद्दीन खां
शहीदों की मजारों पर जुड़ेंगे हर बरस मेले।
वतन पर मरने वालों का यही बाकी निशां होगा।
शहीद अशफाक उल्लाह खां की एक कविता की ये पंक्तियां काफी प्रसिद्ध हैं। जब भी शहीदों की चर्चा होती है, ये पंक्तियां लोगों की जुबां पर बरबस ही आ जाती हैं। अफसोस कि इन पंक्तियों को दोहराते समय ‘मजारों’ की जगह ‘चिता’ कर दिया जाता है और ‘जुड़ेंगे’ की जगह ‘लगेंगे’ कर दिया जाता है। क्रांतिकारी अशफाक उल्लाह खां को 19 दिसंबर 1927 को फैजाबाद जेल में फांसी हुई थी। कम लोग जानते हैं कि अशफाक अपने अजीज मित्र रामप्रसाद ‘बिस्मिल’ की तरह ही बहुत अच्छे शायर भी थे। 16 दिसंबर 1927 को उन्होंने देशवासियों के नाम एक खत लिखा था, जिसमें उन्होंने अपने विचार व्यक्त किए थे। बाद में पता नहीं कब और किसने इस कविता में संशोधन कर दिया। पंडित बनारसी दास चतुर्वेदी द्वारा संपादित अशफाक उल्लाह खां की जीवनी में उन्होंने लिखा है-‘किसी मनचले हिन्दी प्रेमी ने ‘मजार’ की जगह ‘चिता’ बना दी। बिना यह ख्याल किए कि चिताओं पर मेले नहीं जुड़ा करते।’
एक सोची-समझी साजिश
जब ध्यान देते हैं, तो यह किसी मनचले हिन्दी पे्रमी की हरकत नहीं लगती, बल्कि एक सोची समझी योजना के चलते ‘मजार’ के स्थान पर ‘चिता’ किया गया है। अगर किसी एक की हरकत होती, तो इसका सरकारी एवं गैर सरकारी स्तर पर इतने व्यापक पैमाने पर प्रचार नहीं होता कि हर व्यक्ति की जबान पर ‘चिता’ शब्द चढ़ जाता। हद तो यह है कि कई सरकारी अभिलेखों में भी ‘चिता’ लिखा जा रहा है। इतना ही नहीं विभिन्न शहरों में लगी शहीदों की प्रतिमाओं पर भी ‘चिता’ ही लिखा जा रहा है। गाजियाबाद में घंटाघर पर शहीद भगत सिंह की प्रतिमा लगी है, उस पर भी ‘चिता’ शब्द ही लिखा है। यह सब देखकर कहा जा सकता है कि इस कविता में ‘मजार’ के स्थान पर ‘चिता’ शब्द का प्रयोग संगठित तरीके से किया गया है। हमारे देश में एक वर्ग ऐसा है, जो हर मामले को हिंदू-मुस्लिम के चश्मे से देखता है। ‘मजार‘ के स्थान पर ‘चिता’ करना भी इसी वर्ग की कारस्तानी लगती है। चूंकि, ‘मजार’ शब्द से शहीद के मुसलमान होने का आभास होता है और ‘चिता’ से हिंदू होने का, इसलिए इस वर्ग ने अपनी अलगाववादी मानसिकता के चलते शहीदों को हिंदू-मुसलमान बना दिया। चिता के बारे में हम सभी जानते हैं कि उस पर अंतिम संस्कार के बाद अस्थियां चुनने की एक क्रिया होती है। उस के बाद चिता स्थल पर कोई नहीं जाता।
‘चिता पर नहीं मजार पर मेले’
हिंदी में मजार के लिए समाधि का प्रयोग किया जा सकता है, स्मारक भी चल सकता है, मगर स्मारक और समाधि से हिंदू-मुसलमान दोनों शहीदों का आभास होता है। इसलिए ऐसा लगता है कि एक सोची-समझी योजनानुसार और जानबूझ कर अशफाक की शायरी में ‘मजार’ की जगह पर ‘चिता’ शब्द का प्रयोग किया। चिता का संबंध केवल हिंदू से है, हिंदू के अलावा अन्य किसी भी धर्म में चिता पर अंतिम संस्कार नहीं किया जाता। ऐसा भी होता है कि जहां चिता जलती है, उसी के आसपास समाधि भी बना दी जाती है। राजघाट, शांतिवन, किसान घाट आदि ऐसे ही स्थल हैं, लेकिन यह जरूरी नहीं। कई मामलों में ऐसा भी होता है कि चिता कहीं और जलती है और समाधि या स्मारक कहीं और बनाया जाता है। जगजीवन राम की चिता सासाराम, बिहार में जली, लेकिन उनका स्मारक दिल्ली में बनाया गया है। उनके चिता स्थल पर अंतिम संस्कार के बाद कोई नहीं गया होगा, लेकिन उनकी जन्म तिथि और पुण्य तिथि पर हर साल लोग उन्हें श्रद्धासुमन अर्पित करने समता स्थल पर जाते हैं। इस प्रकार ‘मेले’ ‘चिता’ पर नहीं समाधि पर ही लगते हंै।
शहीद अशफाक का अपमान
आज अनेक बुद्धिजीवी भी ‘मजार’ के स्थान पर बिना सोचे-समझे ‘चिता’ का ही प्रयाग करते हैं। क्या यह शहीद अशफाक उल्ला खां का अपमान नहीं है? ऐसे लोगों को एक शहीद की कविता में व्यक्त की गई भावनाओं में संशोधन का अधिकार किसने दिया? बहरहाल भले ही वे ‘मजार’ के स्थान पर ‘चिता’ लिखकर प्रसन्न होते रहें, मगर मेले तो मजारों पर ही जुटते रहे हैं और हमेशा जुटते भी रहेंगे। अब करना यह चाहिए कि हमें जहां भी किसी शहीद स्मारक पर ‘चिता’ लिखा हो, वहां स्थानीय प्रशासन से यह आग्रह किया जाए कि वे इस गलती को सुधारें। यही शहीद अशफाक उल्लाह खां को सच्ची श्रद्धांजलि होगी।
शहीद अशफाक उल्ला खां की पूरी कविता-
उरुजे कामयाबी पर कभी हिंदोस्तां होगा
रिहा सैयाद के हाथों अपना आशियां होगा।
चखाएंगे मजा बरबादी-ए-गुलशन का गुलचीं को,
बहार आएगी उस दिन जब अपना बागबां होगा।
जुदा मत हो मिरे पहलू से ये दर्दे वतन हरगिज,
न जाने बादे मुरदन मैं कहां और तू कहां होगा?
वतन की आबरू का पास देखें कौन करता है?
सुना है आज मकतल में हमारा इम्तेहां होगा।
ये आए दिन की छेड़ अच्छी नहीं ये खंजरे कातिल,
बता कब फैसला उनके हमारे दरमियां होगा।
शहीदों की मजारों पर जुड़ेंगे हर बरस मेले,
वतन पर मरने वालों का यही बाकी निशां होगा।
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं)
शहीदों की मजारों पर जुड़ेंगे हर बरस मेले।
वतन पर मरने वालों का यही बाकी निशां होगा।
शहीद अशफाक उल्लाह खां की एक कविता की ये पंक्तियां काफी प्रसिद्ध हैं। जब भी शहीदों की चर्चा होती है, ये पंक्तियां लोगों की जुबां पर बरबस ही आ जाती हैं। अफसोस कि इन पंक्तियों को दोहराते समय ‘मजारों’ की जगह ‘चिता’ कर दिया जाता है और ‘जुड़ेंगे’ की जगह ‘लगेंगे’ कर दिया जाता है। क्रांतिकारी अशफाक उल्लाह खां को 19 दिसंबर 1927 को फैजाबाद जेल में फांसी हुई थी। कम लोग जानते हैं कि अशफाक अपने अजीज मित्र रामप्रसाद ‘बिस्मिल’ की तरह ही बहुत अच्छे शायर भी थे। 16 दिसंबर 1927 को उन्होंने देशवासियों के नाम एक खत लिखा था, जिसमें उन्होंने अपने विचार व्यक्त किए थे। बाद में पता नहीं कब और किसने इस कविता में संशोधन कर दिया। पंडित बनारसी दास चतुर्वेदी द्वारा संपादित अशफाक उल्लाह खां की जीवनी में उन्होंने लिखा है-‘किसी मनचले हिन्दी प्रेमी ने ‘मजार’ की जगह ‘चिता’ बना दी। बिना यह ख्याल किए कि चिताओं पर मेले नहीं जुड़ा करते।’
एक सोची-समझी साजिश
जब ध्यान देते हैं, तो यह किसी मनचले हिन्दी पे्रमी की हरकत नहीं लगती, बल्कि एक सोची समझी योजना के चलते ‘मजार’ के स्थान पर ‘चिता’ किया गया है। अगर किसी एक की हरकत होती, तो इसका सरकारी एवं गैर सरकारी स्तर पर इतने व्यापक पैमाने पर प्रचार नहीं होता कि हर व्यक्ति की जबान पर ‘चिता’ शब्द चढ़ जाता। हद तो यह है कि कई सरकारी अभिलेखों में भी ‘चिता’ लिखा जा रहा है। इतना ही नहीं विभिन्न शहरों में लगी शहीदों की प्रतिमाओं पर भी ‘चिता’ ही लिखा जा रहा है। गाजियाबाद में घंटाघर पर शहीद भगत सिंह की प्रतिमा लगी है, उस पर भी ‘चिता’ शब्द ही लिखा है। यह सब देखकर कहा जा सकता है कि इस कविता में ‘मजार’ के स्थान पर ‘चिता’ शब्द का प्रयोग संगठित तरीके से किया गया है। हमारे देश में एक वर्ग ऐसा है, जो हर मामले को हिंदू-मुस्लिम के चश्मे से देखता है। ‘मजार‘ के स्थान पर ‘चिता’ करना भी इसी वर्ग की कारस्तानी लगती है। चूंकि, ‘मजार’ शब्द से शहीद के मुसलमान होने का आभास होता है और ‘चिता’ से हिंदू होने का, इसलिए इस वर्ग ने अपनी अलगाववादी मानसिकता के चलते शहीदों को हिंदू-मुसलमान बना दिया। चिता के बारे में हम सभी जानते हैं कि उस पर अंतिम संस्कार के बाद अस्थियां चुनने की एक क्रिया होती है। उस के बाद चिता स्थल पर कोई नहीं जाता।
‘चिता पर नहीं मजार पर मेले’
हिंदी में मजार के लिए समाधि का प्रयोग किया जा सकता है, स्मारक भी चल सकता है, मगर स्मारक और समाधि से हिंदू-मुसलमान दोनों शहीदों का आभास होता है। इसलिए ऐसा लगता है कि एक सोची-समझी योजनानुसार और जानबूझ कर अशफाक की शायरी में ‘मजार’ की जगह पर ‘चिता’ शब्द का प्रयोग किया। चिता का संबंध केवल हिंदू से है, हिंदू के अलावा अन्य किसी भी धर्म में चिता पर अंतिम संस्कार नहीं किया जाता। ऐसा भी होता है कि जहां चिता जलती है, उसी के आसपास समाधि भी बना दी जाती है। राजघाट, शांतिवन, किसान घाट आदि ऐसे ही स्थल हैं, लेकिन यह जरूरी नहीं। कई मामलों में ऐसा भी होता है कि चिता कहीं और जलती है और समाधि या स्मारक कहीं और बनाया जाता है। जगजीवन राम की चिता सासाराम, बिहार में जली, लेकिन उनका स्मारक दिल्ली में बनाया गया है। उनके चिता स्थल पर अंतिम संस्कार के बाद कोई नहीं गया होगा, लेकिन उनकी जन्म तिथि और पुण्य तिथि पर हर साल लोग उन्हें श्रद्धासुमन अर्पित करने समता स्थल पर जाते हैं। इस प्रकार ‘मेले’ ‘चिता’ पर नहीं समाधि पर ही लगते हंै।
शहीद अशफाक का अपमान
आज अनेक बुद्धिजीवी भी ‘मजार’ के स्थान पर बिना सोचे-समझे ‘चिता’ का ही प्रयाग करते हैं। क्या यह शहीद अशफाक उल्ला खां का अपमान नहीं है? ऐसे लोगों को एक शहीद की कविता में व्यक्त की गई भावनाओं में संशोधन का अधिकार किसने दिया? बहरहाल भले ही वे ‘मजार’ के स्थान पर ‘चिता’ लिखकर प्रसन्न होते रहें, मगर मेले तो मजारों पर ही जुटते रहे हैं और हमेशा जुटते भी रहेंगे। अब करना यह चाहिए कि हमें जहां भी किसी शहीद स्मारक पर ‘चिता’ लिखा हो, वहां स्थानीय प्रशासन से यह आग्रह किया जाए कि वे इस गलती को सुधारें। यही शहीद अशफाक उल्लाह खां को सच्ची श्रद्धांजलि होगी।
शहीद अशफाक उल्ला खां की पूरी कविता-
उरुजे कामयाबी पर कभी हिंदोस्तां होगा
रिहा सैयाद के हाथों अपना आशियां होगा।
चखाएंगे मजा बरबादी-ए-गुलशन का गुलचीं को,
बहार आएगी उस दिन जब अपना बागबां होगा।
जुदा मत हो मिरे पहलू से ये दर्दे वतन हरगिज,
न जाने बादे मुरदन मैं कहां और तू कहां होगा?
वतन की आबरू का पास देखें कौन करता है?
सुना है आज मकतल में हमारा इम्तेहां होगा।
ये आए दिन की छेड़ अच्छी नहीं ये खंजरे कातिल,
बता कब फैसला उनके हमारे दरमियां होगा।
शहीदों की मजारों पर जुड़ेंगे हर बरस मेले,
वतन पर मरने वालों का यही बाकी निशां होगा।
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं)
Yeh purohiton ka hazaron sal purana nuskha hai. isi tarah shabdon ko beizzat kar we baudh dharm ke ek bar dwast bhi ker chuke the. yehi nahi aj bhi char dham ke kai mandiron men ap ko unke baudh bhawan hoe ke saboot mil jayenge. Kintu darshanik aur sanskritik prashnon ke upar purohiti dharmik bhawanaon ko tarzeeh dene wali byawastha men iska pratikar dhodhna ek kathin karya awshya hai.
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