गुरुवार, 16 फ़रवरी 2012

साम्राज्यवादी साजिशों के बीच सीरिया


सीरिया आज चारों ओर से साम्राज्यवादी देशों की साजिशों से घिर चुका है और उस देश के जनता आज एक ऐसे दोराहे पर खड़ी है जिसके एक ओर खाई है तो दूसरी ओर खंदक है। सीरिया के बारे में साम्राज्यवादियों द्वारा बोले जा रहे झूठों के खिलाफ ढेरों सबूत सामने आ चुके हैं। फिर भी वह निहायत ही बेहयाई से सीरिया में भी उसी खेल को दुहराने की साजिश रच रहा है जिसे उसने कुछ ही दिनों पहले लीबिया में खेला था। और अरब लीग के झण्डे तले इकठ्ठा इलाके कें तमाम प्रतिक्रियावादी शासक उसे इस काम में मदद कर रहे हैं और उसके 'अग्रिम चौकी' का काम कर रहे है। रूस और चीन के वीटो से इन साजिशों में एक आंशिक विराम ही आया है। इन साम्राज्यवादी चालबाजियों को समझ कर, ऐसा लगता है, सीरियाई जनता भी उस बशर अल-असद के शासन के पीछे लामबन्द हो गयी है, जिसका कुछ दिन पहले तक वह विरोध कर रही थी। और इस तरह से, ऐसा लगता है कि विद्रोहियों की ताकत कमजोर हुई है।
   साम्राज्यवादी एक और देश को तबाह करने की जी-तोड़ कोशिश में लगे हुए हैं। इसमें भारत के शासक भी अपना भरपूर योगदान कर रहे हैं। बेशक वे ऐसा किसी दुर्भावना के कारण नहीं बल्कि अपने क्षुद्र हितों की पूर्ति के लिए कर रहे हैं। यह देश है सीरिया। अरब दुनिया के अन्य देशों की ही तरह इस देश में भी 2011 की शुरुआत में विद्रोह-विरोध प्रदर्शन की लहर उठी थी। लेकिन अन्य देशों की तरह यहाँ भी विद्रोह का इस्तेमाल कर अपने रणनीतिक हितों को आगे बढ़ाने के लिए साम्राज्यवादी तुरन्त सक्रिय हो गये। नतीजतन, आज जहाँ एक ओर, सीरिया मजदूर-मेहनतकश जनता के विद्रोह और तानाशाह राष्ट्रपति बशीर असद द्वारा इसके कठोर दमन के दरपेश है, वहीं दूसरी ओर, एक उससे भी बड़े खतरे, साम्राज्यवादी दखलन्दाजी की सम्भावना के रूबरू है क्योकि दुनिया की तमाम साम्राज्यवादी शक्तियाँ और उनके तमाम स्थानीय प्रतिक्रियावादी गुर्गे जनविद्रोह की आग में अपनी अपनी रोटियाँ सेंकने के लिए सक्रिय हो गए हैं और  भाँति-भाँति के षड्यन्त्रों में मशगूल हैं।
   सीरिया में आज साम्राज्यवादियों का बहुत कुछ दाँव पर लगा है। सीरिया लम्बे समय से सोवियत (और बाद में रूसी) साम्राज्यवादियों के करीब रहा है। यहाँ रूसी नौसेना का एक बेड़ा तथा सैनिक अड्डा भी है। सीरिया में असद के पतन और किसी पश्चिमी साम्राज्यवाद परस्त सरकार के गठन से यह सब खतरे में पड़ जायेगा।
दूसरी ओर पश्चिमी साम्राज्यवादियों, खासकर अमेरिकी-ब्रिटिश साम्राज्यवादियों के लिए असद के पतन से सम्भावनाओं के अनेक द्वार खुल जायेंगे। पहला तो यही कि इससे यहाँ रूसी प्रभाव का खात्मा हो जायेगा। दूसरे इससे पूरे पश्चिम एशिया में नये समीकरण बनाने में बहुत मदद मिलेगी। सीरिया का वर्तमान शासन लेबनान के हिजबुल्ला और फिलीस्तीन के हमास का समर्थन करता है। यहाँ भारी मात्रा मे फिलीस्तीनी शरण लिए हुए हैं। असद के पतन से इनकी स्थिति कमजोर होगी और क्षेत्रीय सन्तुलन में  इजराइल का  पलड़ा और भारी हो जायेगा। इससे राजनीतिक, आर्थिक और सामरिक तौर पर महत्वपूर्ण इस इलाके में अमेरिकी-ब्रिटिश साम्राज्यवादियों के लिए परिस्थितियाँ और अधिक अनुकूल हो जाएँगी। यही नहीं, आज सीरिया का ईरान के साथ गठबंधन है और सद्दाम हुसैन के पतन के बाद  ईरान इस क्षेत्र में और अधिक मजबूत ताकत बन कर उभरा है। इराक के आन्तरिक घटनाक्रमों को प्रभावित करने में उसका हाथ जगजाहिर है तथा वहाँ की हालात को पश्चिमी साम्राज्यवादियों के मन-माफिक न बनने देने का पूरा प्रयास कर रहा है। असद के सत्ताच्युत होने के बाद अमेरिका के लिए ईरान को काबू करना ज्यादा आसान हो जायेगा, अपनी तमाम कोशिशों के बावजूद जिसमें अभी तक वह सफल नहीं हो पाया है।
   इन सब कारणों से सीरिया में विद्रोह की शुरुआत होते ही साम्राज्यवादी सक्रिय हो गये। उन्होंने खाड़ी देशों के अपने पिट्ठुओं के माध्यम से वहाँ हथियार और लड़ाके भेजने शुरु कर दिये। इसमें सऊदी अरब व कतर के धुर प्रतिक्रियावादी शेखों ने प्रमुख भूमिका निभायी। इसमें उन्होंने मुस्मिल ब्रदरहुड को अपने एजेण्ट की तरह इस्तेमाल किया। इसी के साथ उन्होंने सीरिया में सम्प्रदायगत बँटवारे का इस्तेमाल कर वैमनस्य को भड़काने का प्रयास किया। उन्होंने खुले तौर पर एक धर्मनिरपेक्ष देश में धार्मिक साम्प्रदायिक उन्माद फैलाया।
   अभी तक सीरिया के सहयोगी रहे तुर्की के शासकों ने भी कुछ समय बाद पैंतरा बदल लिया और बाकियों से बढ़-चढ़कर सीरिया में बलात सत्ता परिवर्तन करवाने की इस मुहिम में हिस्सा लेना शुरू कर दिया। तुर्की के शासकों केा अब पूरे क्षेत्र में अपना प्रभाव फैलाने की सम्भावना नजर आने लगी थी। सीरिया से लगा तुर्की का इलाका तथाकथित 'फ्री सीरियन आर्मी' तथा अन्य हथियारबन्द लड़ाकों का आधार क्षेत्र बन गया और यहाँ  न केवल तुर्की बल्कि पश्चिम साम्राज्यवादी भी लड़ाकों को प्रशिक्षित करने लगे।
इसके बाद पश्चिमी साम्राज्यवादी और इनके ये पिट्ठू सीरिया के भीतर अपने गुर्गों से कहने लगे कि वे असद के दमन के खिलाफ 'अन्तरराष्ट्रीय समुदाय’ (यानी साम्राज्यवादियों) द्वारा ‘नो फ्लाई जोन’ की माँग करें, बावजूद इसके कि अभी तक असद ने दमन के लिए हवाई जहाजों का इस्तेमाल नहीं किया था। लीबिया के उदाहरण के बाद, पहले तो इन गुर्गों की हिम्मत नहीं पड़ी, पर बाद में वे दबी जुबान से सीरिया में बाहरी हस्तक्षेप की माँग करने लगे। साम्राज्यवादी और उनके पिट्ठू अब इन्हीं गुर्गों की बातों का हवाला देकर वहाँ हस्तक्षेप करने की हरसम्भव कोशिश कर रहे हैं।
   सीरिया में इस समय तीन तरह की ताकतें सक्रिय हैं। एक तरफ असद शासन और दूसरी तरफ उनके विरोधी है। साम्राज्यवादी दखलन्दाजी ने, दरअसल, असद शासन के वास्तविक विरोध को कमजोर किया है और विरोधियों को दो हिस्सों में बाँट दिया है। एक ओर वास्तविक विद्रोही हैं, जो देश में किसी भी विदेशी हस्तक्षेप के खिलाफ हैं जबकि  दूसरी ओर हैं साम्राज्यवादियों द्वारा ख़रीदे या भ्रष्ट बनाये गए उनके गुर्गे या उनसे तालमेल बैठाने वाले लोग हैं। मुस्लिम ब्रदरहुड इसी दूसरी श्रेणी में हैं। पश्चिमी साम्राज्यवादी इन्हीं दूसरी तरह के लोगों का इस्तेमाल कर न केवल असद शासन को उखाड़ फेंकना चाहते हैं बल्कि असली विद्रोहियों को भी कुचल कर अपने गुर्गों का शासन स्थापित करना चाहते हैं। लीबिया में वे पहले ही ऐसा कर चुके हैं। लेकिन लीबिया के उदाहरण के चलते ही उनके लिए ऐसा करना आसान नहीं हो रहा है। लीबिया मे इन्होंने झूठ और बेहयाई का सहारा लेते हुए गद्दाफी शासन को उखाड़ फेंका और गद्दाफी की हत्या कर वहाँ अपने गुर्गों को शासन में बैठा दिया। रूसी साम्राज्यवादी और चीनी शासक देखते रह गये और सौदेबाजी में तय अपना हिस्सा न पाकर उन्होंने छला हुआ महसूस किया।
   अब ये दोनों दोबारा उसी स्थिति में पड़ने को तैयार नहीं हैं। वे ज्यादा कड़ी सौदेबाजी कर रहे हैं। सीरिया पर सुरक्षा परिषद के जिस प्रस्ताव के खिलाफ उन्होंने वीटो किया वह, दरअसल, असद शासन की समाप्ति और किसी पश्चिमी साम्राज्यवाद परस्त शासन के गठन का प्रस्ताव था। ऐसा कोई भी बदलाव रूस और चीन के हितों के खिलाफ है। उन्होंने अबकी बार अधिक सक्रिय हसक्षेप करने की ठान ली है। ऐसा नहीं है कि रूसी साम्राज्यवादी और चीनी शासक हमेशा ऐसे ही पश्चिमी साम्राज्यवादियों का विरोध करते रहेंगे। वे पर्दे के पीछे लगातार सौदेबाजी में लगे हुए हैं। सौदा पट जाने पर वे पलटी भी खा सकते हैं।
भारत के पतित पूँजीवादी शासकों ने तो इस प्रस्ताव में मतदान के समय यह पलटी मार भी दी। भारत का सीरिया के असद शासन से चार दशक का सम्बन्ध है, जिसके मद्देनजर अभी हाल तक भारतीय शासक वहाँ बाहरी हस्तक्षेप के द्वारा सत्ता परिवर्तन का विरोध करते रहे हैं। लेकिन अब उन्होंने अपने इस रवैये को त्याग कर, न केवल, सीरिया में सत्ता परिवर्तन वाले प्रस्ताव के पक्ष में मतदान कर दिया, बल्कि रुस और चीन द्वारा प्रस्ताव को वीटो किये जाने की निन्दा भी की।
  भारत के पतित शासकों का यह व्यवहार अन्य चीजों के साथ-साथ, उनके अमेरिकी साम्राज्यवादियों के साथ तथाकथित रणनीतिक संश्रय का नतीजा भी है। इसी के चलते, उन्होंने लीबिया पर हमले वाले प्रस्ताव पर मतदान न देकर उनका साथ दिया था और अब सीरिया में सत्ता परिवर्तन के मामले में खुलकर उनके साथ हो गये हैं। ये पतित शासक यह भूल जाते हैं कि विदेशी हस्तक्षेप के इस तर्क को यदि स्वीकार कर लिया जाय तो इनके द्वारा कश्मीर, उत्तर पूर्व भारत तथा मध्य भारत में किये जाने वाले दमन के कारण भारत में बाहरी हस्तक्षेप करने को उतना ही जायज ठहराया जा है। सीरिया की विद्रोही जनता के लिए यह विकट समय है। उसे अपने तानाशाह असद से भी निपटना और दूसरी ओर साम्राज्यवादियों और पिट्ठुओं और गुर्गों से भी। लीबिया का कटु उदाहरण उनके सामने है। यह उदाहरण उन्हें हमेशा इस बात के लिए दृढ़ प्रतिज्ञ बनाता रहेगा कि बाहरी हस्तक्षेप के किसी भी रूप को दृढता से ठुकरा दें।
(nagrik.com पर प्रकाशित लेख में किंचित परिवर्तनों के साथ रेड ट्यूलिप पर प्रकाशित)

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