पृथ्वी पर सात अरब की आबादी लाँघ गया वर्ष 2011 खलबली वाला रहा …
विश्व रंगमंच पर ओसामा बिन लादेन का मारा जाना शायद साल की सबसे बड़ी घटना थी। एबटाबाद में आतंक के इस सरगना को जिस तरह अमेरिकी कमांडो ने मारा, उसके घाव पाकिस्तान अभी भी सहला रहा है। यहाँ तक कि मजहब के नाम पर एक पृथक राष्ट्र बने हमारे ही देश के इस पुराने हिस्से के अस्तित्व पर खतरे के बादल मँडराने लगे हैं। कोई ताज्जुब नहीं कि एक बार फिर वहाँ लोकतंत्र के स्थान पर तानाशाही आ जाये। हालाँकि यह मानना बेवकूफी है कि ओसामा के मरने से आतंकवाद समूल नष्ट हो जायेगा। आतंकवाद का उत्स तो अमेरिका में है और वहाँ बदलाव आये बगैर कुछ नहीं हो सकता। पिछले चार महीनों से ‘हम 99 प्रतिशत हैं’ के नारे के साथ अमेरिका में चल रहे ‘ऑक्युपाइ वॉल स्ट्रीट’ आन्दोलनने यह दिखलाया है कि उस समाज में भी बेचैनी बढ़ रही है। सामान्य अमरीकी महसूस करने लगा है कि पूँजीवाद का मौजूदा स्वरूप उसकी बदहाली बढ़ा रहा है। लेकिन अभी तक इस अराजक आन्दोलन में खिलंदड़ापन ही ज्यादा दिखाई दे रहा है। बसन्त में ट्यूनीशिया और मिस्र में हुए सत्तापलट, जिससे प्रेरित होकर यह आन्दोलन शुरू हुआ है, जैसा संकल्प इसके पीछे नहीं दिखाई दे रहा है। हालाँकि ट्यूनीशिया और मिस्र की जन क्रांतियों ने भी नेपाल की तरह निराश ही किया। नेपाल में ‘जैसे थे’ वाले हालात लौटने लगे हैं और ट्यूनीशिया तथा मिस्र में कट्टरपंथी पकड़ बनाते दिखाई दे रहे हैं। लीबिया में भी मुअम्मर गद्दाफी, जो अपनी जनता के लिये कम, मगर दुनिया भर के आततायी तानाशाहों के सरपरस्त अमेरिका के लिये ज्यादा खतरनाक थे, के बाद कट्टरपंथी ही आते दिखाई दे रहे हैं। क्रांतियाँ तो हों, लेकिन उसके बाद जनता की वह ऊर्जा निरुद्देश्य बह जाये, इससे ज्यादा हताशापूर्ण और कुछ नहीं हो सकता। अपने देश में अण्णा हजारे के आन्दोलन में भी कुछ-कुछ वैसी ही स्थिति आने लगी है। मगर अण्णा हजारे पर चर्चा करें, इससे पूर्व इस वर्ष जापान में आये भूकम्प के बाद फुकुशिमा परमाणु बिजलीघर में हुई तबाही का जिक्र करना जरूरी है।
इस दुर्घटना के बाद जापान ने अपना परमाणु कार्यक्रम समेटने का इरादा बनाया है। अनेक देश पहले ही लाखों वर्ष तक खत्म न होने वाले परमाणु कचरे के खतरे देख कर इस तकनीकी से किनारा कर चुके हैं। मगर बहुराष्ट्रीय कम्पनियों की गुलाम भारत की सरकार इतनी बेहयायी पर उतर आई है कि फुकुशिमा के बाद भी उसने चेरिनोबिल दुर्घटना के ठीक 25 वर्ष पूरे होने के दिन महाराष्ट्र में लग रहे जैतापुर परमाणु बिजलीघर को हरी झंडी दी। इससे भी ज्यादा ताज्जुब तो तब हुआ जब तमिलनाडु के कुडनकुलम में निर्माणाधीन परमाणु बिजलीघर के जबर्दस्त जन विरोध को मटियामेट करने के अपने प्रयास में केन्द्र सरकार पूर्व राष्ट्रपति ए.पी.जे. अब्दुल कलाम को अपने पक्ष में ले आयी। भारतीय मध्य वर्ग के एक बड़े हिस्से में नायक का दर्जा रखने वाले कलाम साहब ने ‘नदी जोड़’ प्रस्ताव के बाद इस प्रकरण में दूसरी बार अपना दिमागी दिवालियापन उजागर किया।
अपने देश में इस साल संसदीय लोकतंत्र की चूलें हिला देने वाले अण्णा हजारे के लोकपाल आन्दोलन को इसी आलोक में देखा जाना चाहिये। कॉमनवेल्थ घोटाले और नीरा राडिया टेपों के बाद जब 4,000 करोड़ रुपये का टू जी स्पेक्ट्रम घोटाला सामने आया तो पढ़े-लिखे हिन्दुस्तानी आदमी का गुस्सा सातवें आसमान पर पहुँच गया। ऐसे में अवतरित हुए किशन बापट बाबूराव हजारे उर्फ अण्णा साहब। अब तक मूलतः महाराष्ट्र के एक छोटे से गाँव रालेगण सिद्धि में ही सक्रिय रहे इस 74 वर्षीय समाजसेवी ने एनजीओ के एक बेहद कुशल समूह की मदद से देश की जनता को यह विश्वास दिला दिया कि यदि उनके द्वारा सुझाया गया लोकपाल बिल पारित हो गया तो देश में भ्रष्टाचार समाप्त हो जायेगा। उधर बाबा रामदेव भी कह रहे थे कि विदेशी बैंकों में जमा काला धन वापस ले आया जाये तो देश की समस्याओं का समाधान हो जायेगा। लेकिन महज दस वर्षों में रहस्यपूर्ण ढंग से सामान्य संन्यासी से कॉरपोरेट बन गये योगगुरु रामदेव बेहद ईमानदार और हठी अण्णा हजारे जितनी लोकप्रियता हासिल नहीं कर सके और दिल्ली के रामलीला मैदान में सरकारी दमन के बीच औरतों के कपड़े पहन कर भागने से अपनी विश्वसनीयता गँवा बैठे।
बहरहाल गले-गले तक काले धन में डूबे भ्रष्ट मीडिया ने भी अत्यन्त आश्चर्यजनक रूप से अण्णा हजारे के अभियान को जन-जन तक पहुँचाने के लिये एड़ी-चोटी का जोर लगा दिया। तिरंगा लहराना और वंदे मातरम् के नारे लगाना तथा मैं ‘अण्णा हजारे हूँ’ लिखी टोपी पहनना रोजमर्रा की जिन्दगी में घूस खाने वाले व्यक्ति के लिये भी देशभक्ति का प्रमाण बन गया। अप्रेल, अगस्त और अभी दिसम्बर प्रथम सप्ताह में किये गये अण्णा के उपवासों ने संसद को तक हिला दिया। दिसम्बर में तो उन्होंने सड़क पर ही संसद लगा कर साबित कर दिया कि संविधान में ‘हम भारत के लोग’ का उद्घोष करने वाली जनता ही लोकतंत्र में सर्वोच्च है। लेकिन कुटिल राजनीतिज्ञों ने साल खत्म होते-होते अण्णा के आन्दोलन की धार कुन्द करने में कुछ हद तक सफलता पा ली। यह डर लगने लगा है कि अण्णा के आगामी उपवासों में पहली जितनी जन भागीदारी नहीं होगी।
मगर अण्णा के पास भी इस बात का जवाब नहीं है कि महज लोकपाल बन जाने से भ्रष्टाचार कैसे खत्म हो जायेगा। क्या एक खराब गाड़ी को खींच कर उठवा लेने से वह ठीक हो जाती है ? क्या एक जर्जर होते हुए मकान के बगल में नया मकान बना कर उससे पुराने मकान को कस देने से वह मजबूत हो जाता है ? भ्रष्टाचार जहाँ सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीशों के लिये भी प्राणवायु बनता दिखाई दे रहा हो, उस देश में हम ईमानदार लोकपाल क्या स्वर्गलोक से उतार कर लायेंगे ? हमारी क्षुद्र बुद्धि में तो यही आता है कि चुनावों में काले धन की दिनोंदिन बढ़ती ताकत से योग्य व्यक्ति का लोकतांत्रिक प्रक्रिया से बाहर हो जाने और विधायिकाओं में विभिन्न राजनैतिक दलों के माध्यम से आये बहुराष्ट्रीय कम्पनियों के दलालों और ठेकेदारों का बोलबाला हो जाने के बाद इस तरह भ्रष्टाचार का रुक पाना संभव नहीं है। लोकपाल, यदि वह अण्णा की अपेक्षाओं के अनुरूप काम करना शुरू भी कर दे, तो भी कुछ वर्षों में ही अन्य लोकतांत्रिक संस्थाओं की तरह निष्क्रिय हो जायेगा। भ्रष्टाचार खत्म नहीं हो सकता। मगर उसे न्यूनतम स्तर तक लाया जा सकता है। उसके लिये तरीका एक ही हो सकता है कि पिछले साठ सालों में हमने केन्द्र को लगातार मजबूत करते हुए निरंकुश बना दिया है, अब महात्मा गांधी के सपनों के अनुरूप ग्राम गणराज्य बनाने के लिये विकेन्द्रीकरण की दिशा में मुड़ें। सौभाग्य से हमारे पास 73वें तथा 74वें संविधान संशोधनों के रूप में दो मजबूत कानून हैं, जिन्हें अनेक कारणों से ईमानदारी से लागू ही नहीं किया गया। अब हम अपनी ताकत इन कानूनों को समग्रता में लागू करने में लगायें तो तमाम समस्याओं का समाधान निकल सकता है। फिलहाल खतरा यह है कि मीडिया अण्णा से ऊबने लगा है, अखबार और चैनलों में अण्णा के अभियान के लिये जगह कम हो रही है, उसी अनुपात में अण्णा के साथ लग रही भीड़ भी घट रही है। कुछ महीनों बाद यह हो सकता है कि जिस वर्ग के लिये वर्ष 2011 में क्रिकेट का विश्व कप जीतना भारत की सबसे बड़ी उपलब्धि थी, वह अण्णा का साथ पूरी तरह छोड़ दे। मगर तब भी हजारों ईमानदार लोग होंगे जो अपने कैरियर दाँव पर लगा कर, अपना सब कुछ छोड़छाड़ कर अण्णा के साथ आये हैं। जब उन्हें भी लगेगा कि लोकपाल से कुछ नहीं होगा तो वे हताशा की उस खाई में जा गिरेंगे, जहाँ से ऊपर आना मुश्किल होगा।
यहाँ उत्तराखंड में हम एक विधानसभा चुनाव में प्रविष्ट हो रहे हैं। यह तो निश्चित है कि जो चुन कर आयेंगे, वे पहले वालों से कम दुष्ट, अज्ञानी और बेईमान नहीं होंगे। लेकिन वे कौन होगे, यह जानने की उत्सुकता तो है ही।
….तो चलिये इन्तजार करें विधानसभा चुनाव के नतीजों का और वर्ष 2012 में होने वाली महत्वपूर्ण हलचलों का…
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