देवेन्द्र प्रताप
जिस समय देश आजाद हुआ, उस समय सत्ता के साथ माफिया, भ्रटाचारियों और दूसरे जनविरोधी तत्वों की एक दूरी थी। यह बात हमारे देश के ऊपर ही नहीं लागू होती, वरन हर उस देश के ऊपर भी लागू होती है, जहां जनता को आजादी के लिए बहुत बड़ी कीमत चुकानी पड़ी थी। 1990 वह मुकाम है, जिसके बाद से यह माहौल तेजी से बदला, भारत ही नहीं दुनिया के पैमाने पर भी। नई आर्थिक नीतियों के श्रीगणेश के साथ ही हमारे देश में निजीकरण और उदारीकरण का बढ़ावा मिला, जिसने समाज में पहले से मौजूद जनतांत्रिक मूल्यों को खत्म करने का काम किया। पत्रकारिता के पेशे में भी यह बदलाव आया। सत्ता के साथ माफिया और भ्रष्टाचारियों का गठजोढ़ बढ़ा और धीरे-धीरे इसने पूरी व्यवस्था को अपने शिकंजे में ले लिया। सत्ता, माफिया और भ्रष्टाचारियों के इस गठजोड़ ने लोकतंत्र के पहरेदार पत्रकारों से जब-जब खतरा महसूस हुआ, उसने उनके ऊपर हमला किया। कई पत्रकारों को इसकी कीमत अपनी जान देकर चुकानी पड़ी। आगे भी यह सिलसिला तक तक जारी रह सकता है, जब तक कि इस माहौल में कोई आमूलचूल तब्दीली नहीं होती। पत्रकारों की हत्याओं के विविध पहलुओं की पड़ताल करती पेश है देवेन्द्र प्रताप की रिपोर्ट
सलीम शहजाद बनाम पाक लोकतंत्र
पाकिस्तान में पत्रकारों के काम की परिस्थितियां बहुत कठिन हैं। सलीम शहजाद को भी इस बारे में बहुत अच्छी तरह पता था। इसके बावजूद उन्होंने कभी भी अपने पेशागत वसूलों के साथ समझौता नहीं किया, जिसकी कीमत उन्हें अपने जान से चुकानी पड़ी। शहजाद से पहले भी पाकिस्तान में पत्रकारों की हत्याएं होती रही हैं, लेकिन उनके बारे में दुनिया को पता नहीं चल पाया। शहजाद की हत्या की इतनी चर्चा होने का एक बड़ा कारण एबटाबाद अभियान से भी जुड़ता है। अमेरिका द्वारा ओसामा के खिलाफ चलाए गए इस अभियान के बाद कुछ ऐसी परिस्थियां बनीं, जिसके बाद पाकिस्तान की बहुत ज्यादा फजीहत हुई। जाहिर सी बात है मीडिया पर भी इसका प्रभाव पड़ा। यही वजह रही कि इस दौरान जब शहजाद की हत्या हुई, तो वह तुरंत ही पूरी दुनिया की नजर में आ गया। नसरुल्लाह अफरीदी का मामला भी अब सामने आ चुका है। कुल मिलाकर देखा जाए, तो जनवरी 2000 से अभी तक पाकिस्तान में कुल 74 पत्रकार मारे जा चुके हैं। पाकिस्तान में 2002 के बाद जिस तेजी से मीडिया का विस्तार हुई पत्रकारों की हत्याओं, उन पर हमलों और उनको दी जाने वाली धमकियों में भी इजाफा हुआ है। 2002 से 2011 के बीच नौ सालों में पाकिस्तान में 90 पत्रकारों का अपहरण किया जा चुका है, 270 से ज्यादा पत्रकारों को जान से मारने की धमकियां मिलीं, जबकि 19 पत्रकारों को अपनी जान से हाथ धोना पड़ा। जिस तरीके से पाकिस्तान अमेरिका का पिठ्ठू बना रहा है, जिस तरह से वहां धार्मिक कठमुल्लापन को बढ़ावा मिलता रहा है, ऐसे में प्रगतिशील और लोकतांत्रिक मूल्यों की हत्या तो होना ही है।
और कितने ज्योतीन्द्र
पाकिस्तान में सलीम शहजाद और भारत में ज्योतीन्द्र की हत्या के बाद, यूनेस्को की दुनिया भर में पिछले चार सालों में हुई पत्रकारों की हत्याओं पर रिपोर्ट ने इस मुद्दे को गरमाहट दी है। यही वजह है कि इस समय न सिर्फ पाकिस्तान, वरन भारत में भी पत्रकार संघों ने इसके खिलाफ नए सिरे से मोर्चा खोल दिया है। यूनेस्को ने अपनी रिपोर्ट में यह दावा किया है कि पूरी दुनिया में वर्ष 2006 से 2009 तक 247 पत्रकार मारे गए हैं। पत्रकारों की हत्याएं पहले भी होती रही हैं, लेकिन आमतौर पर भारत ही नहीं दुनियाभर में सरकारें इस पर चुप्पी ही धारण करती रही हैं। जिस समय वीपी सिंह मुख्यमंत्री थे उस समय की बात अगर छोड़ दें, तो आमतौर पर पत्रकारों की हत्याएं तो लगभग हर साल होती रहीं, लेकिन चाहे राज्य सरकार हो या फिर केंद्र सरकार, सबने चुप्पी ही साधी है। यही वजह रही कि उपरोक्त समयावधि में यानी तीन सालों में भारत में छह पत्रकार मारे जाते हैं, लेकिन कहीं से चूं तक नहीं होती। आखिर लोकतंत्र की रक्षा में सबसे अहम भूमिका निभाने वालों की हत्याओं पर यह चुप्पी लोकतंत्र की सेहत के लिए कितनी सही कही जा सकती है।
यूनेस्को की पत्रकारों की हत्याओं से संबधित रिपोर्ट से अलग-अलग देशों के पत्रकार अगर सिर्फ अपने लिए नतीजे निकालते हैं, तो भी यह गलत होगा, क्योंकि पत्रकार चाहे जिस देश का हो, अगर उसकी हत्या होती है, तो इससे लोकतांत्रिक मूल्यों की भी हत्या होती है। इसलिए आज यह सोचना बेहद जरूरी है कि अगर दुनिया भर में आग लगी हुई है, तो उस आग में हमारा घर भी नहीं बचने वाला। वैसे भी वैश्वीकरण के बाद से श्रम और पूंजी का ही वैश्वीकरण नहीं हुआ है, अपराध का भी वैश्वीकरण हुआ है। हालांकि ऐसा लगता है कि फिलहाल अभी इस रूप में सोचने और फिर उस आधार पर व्यवहार में उतरने में काफी वक्त लगेगा। यूनेस्को की इस रिपोर्ट के अनुसार वर्ष 2006 में एक साल में ही दुनिया भर में 69 पत्रकार मारे जाते हैं। इनमें सबसे ज्यादा संख्या इराक की है। वहां इस समयावधि में 29 पत्रकार मारे गए। इस समयावधि में फिलीपीन में छ, पाकिस्तान में दो, अफगानिस्तान में तीन, रूस में तीन और श्रीलंका में चार पत्रकार मारे गए। वर्ष 2008 में भी इराक में सबसे ज्यादा पत्रकार मारे गए। इस वर्ष दुनिया भर में कुल 49 पत्रकार मारे गए, जिसमें से अकेले इराक में 11 पत्रकारों की हत्या हुई। इस समयावधि में जार्जिया में पांच, मैक्सिको और रूस में चार-चार, भारत में चार और फिलीपीन में तीन पत्रकारों की हत्या हुई। यूनेस्को की रिपोर्ट के अनुसार 2009 में दुनिया भर में सबसे ज्यादा कुल 77 पत्रकारों की हत्या हुई। इस साल सबसे ज्यादा, कुल 34 पत्रकार फिलीपीन में मारे गए। इराक, रूस और अफगानिस्तान में इस वर्ष चार-चार पत्रकारों की हत्या हुई, जबकि सोमालिया और मैक्सिको में सात-सात पत्रकार मारे गए। कमेटी टू प्रोटेक्ट जर्नलिस्ट के मुताबिक पत्रकारों के लिए दुनिया के सबसे खतरनाक देशों में फिलीपीन का तीसरा स्थान है। इराक पहले स्थान पर, जबकि सोमालिया दूसरे स्थान पर हैं। फिलीपीन के राष्ट्रीय पत्रकार संघ की रिपोर्ट के अनुसार वहां वर्ष 1986 से 2011 के बीच 145 पत्रकार मारे गए, जबकि सिर्फ 10 लोगों को सजा हुई। 2009 में साउथ फिलपीन में राजनीतिक संघर्ष के दौरान 31 पत्रकार मारे गए। किसी को भी ताज्जुब हो सकता है कि इस संघर्ष कुल 57 लोग मारे गए थे। यानी पत्रकारों को निशाना बनाकर मारा गया।
क्यों जरूरी है पत्रकार सुरक्षा बिल
पत्रकारिता को लोकतंत्र का एक मजबूत स्तंभ माना जाता है। ऐसे में पत्रकारों की हत्या पर सरकार की चुप्पी किसी भी मायने में सही नहीं है। भारत में मिड के वरिष्ठ पत्रकार जेडे की हत्या के बाद से देश के पत्रकार सरकार से अपनी सुरक्षा की मांग कर रहे हैं। सामान्यतया पत्रकारों की हत्याएं उनके पेशागत कारणों की वजह से ही होती हैं। यह भी एक बड़ा कारण होता है रिपोर्टर जब फील्ड में होता है, उसी समय उसके ऊपर सबसे ज्यादा हमले की आशंका रहती है। उनका तर्क है कि आखिर बॉलीवुड हस्तियों को, नेताओं और बाबाओं की अगर सरकार सुरक्षा की जिम्मेदारी ले सकती है, तो पत्रकारों की सुरक्षा की जिम्मेदारी भी उसे लेनी चाहिए। वैसे भी संविधान में हर व्यक्ति की सुरक्षा की गारंटी की बात कही गई है। इसके लिए पत्रकारों ने सरकार से पत्रकार सुरक्षा बिल लाने की मांग की है। सरकार इस बिल के प्रति अन्मयस्कता प्रदर्शित कर रही है। इसकी कुछ खास वजह है। वह जिन अपराधियों और माफिया तत्वों या भ्रष्ट नेताओं के खिलाफ अपनी कलम चलाता है, वे आज पहले से कहीं ज्यादा शक्तिशाली हैं। हालत यह है कि ये तत्व देश की व्यवस्था में इस तरह घुलमिल गए हैं कि सरकार उनके खिलाफ कोई भी फैसला लेने में हिचकिचाती है। माफिया तत्वों के साथ सांठगांठ कर चुनाव जीतने वाली पार्टियों से आखिर इससे ज्यादा उम्मीद ही क्या की जा सकती है। इस समय ज्यादातर पार्टियां खुद इस तरह के आरोपों का सामना कर रही हैं, जिनके खिलाफ पत्रकार लड़ता है। जाहिर है ऐसे में राजनीतिक पार्टियों अपने पांव में कुल्हाड़ी मानने का काम नहीं करेंगी।
महाराष्ट्र का मामला थोड़ा अलग होने के बावजूद ऐसा लगता है कि महाराष्ट्र सरकार भी इस मामले में खानापूर्ति करने में ही लगी है। महाराष्ट्र में जहां कांगेस अध्यक्ष माणिकराव ठाकरे ने पत्रकार सुरक्षा विधेयक की मांग का समर्थन किया है, वहीं मुख्यमंत्री पृथ्वीराज चव्हाण ने इस विधेयक के बारे में पत्रकारों को आश्वस्त किया है कि वे कैबिनेट की बैठक में इस विधेयक के प्रारुप को जरूर रखेंगे। चव्हाण भले ही पत्रकारों को आश्वासन दे रहे हों, लेकिन हकीकत यह है कि वे इस विधेयक को वे पिछले तीन सालों में नहीं पारित करवा पाए हैं। महाराष्ट्र में शिवसेना जैसी कुछ ऐसी पार्टियां भी हैं, जो इस विधेयक का विरोध करती है। ऐसे में चव्हाण साहब के आश्वासन पर कितना भरोसा किया जाए। पिछले साल चव्हाण साहब ने इस विधेयक पर आपसी सहमति के लिए सर्वदलीय बैठक बुलाई थी, लेकिन उन्हें सभी दलों का इस बारे में समर्थन नहीं मिल सका। राजनीतिक पार्टियों इस विधेयक से इसलिए डर रही हैं क्योंकि यह विधेयक पत्रकारों पर हमले को गैरजमानती अपराध की श्रेणी में रखता है। इसलिए विधेयक के विरोधियों को आशंका है कि इसके लागू हो जाने से पत्रकारिता के नाम पर धंधा चमकाने वाले लोगों को शह मिलेगी। देश के राजनेताओं का यह बयान उनके इरादों को स्पष्ट करने के लिए काफी है। इस देश की बदकिस्मती ही है कि ऐसे ही लोग आज लोकतंत्र के नाम पर अपना धंधा चमकाने में लगे हैं। इस विधेयक का मामला पत्रकारों की जिंदगी से जुड़ा हुआ है, ऐसे में इस तरह का बयान देश की राजनीति में पतित तत्वों के प्रवेश को ही दर्शाता है।