शनिवार, 12 नवंबर 2011

भारत के पॉल राब्सन 'भूपेन हजारिका'

प्रणय कृष्ण
वे असम की मोजैक जैसी एकता के अलम्बरदार थे. बीच-बीच में असम जातीय संघर्षों और अफरा-तफरी के दौरों से गुजरा पर भूपेन दा के गीतों में साझी असमी संस्कृति की गहरी एका हमेशा मौजूद रही आयी. यह अवाम के साझे दुःख-दर्द और संघर्षों से बनी एका थी...

सरकारों के दमन से लरजती दमन उत्तर-पूर्व की भीषण सुन्दर ऊँची-नीची सड़कों पर कभी आपको गुजरने का मौक़ा मिलेगा तो औचक ही भूपेन हजारिका के गाये गीत के बोल कानों में बज उठेंगें- ‘हे डोला, हे डोला, हे डोला...’. भूपेन दा ने वंचितों के श्रम को जिस तरह इस गीत की लय में आबद्ध किया था, वह अपने आपमें एक प्रतिरोध था. उन्होंने ऐसे गीतों की मार्फ़त संगीत की दुनिया को बताया कि संगीत का श्रम से कितना गहरा रिश्ता है कि संगीत की बेहतरी का कोई भी रास्ता अवाम के संगीत से ही होकर आगे जा सकता है.
असम में १९२६ में पैदा हुए भूपेन हजारिका को अध्ययन की ललक बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय, कोलंबिया विश्वविद्यालय और शिकागो विश्वविद्यालय तक खींच ले गयी, पर वे हिन्दुस्तान लौटे. १२ साल की छोटी उम्र में ही उन्होंने असमी लोकसंगीत गायक के रूप में ख्याति अर्जित कर ली थी. अपने इलाके की मुश्किलों और संघर्षों के बीच सीखते हुए उन्होंने अपने संगीत को अवाम की जिंदगी का आईना बना दिया.
चायबागान के मजदूर हों या मछुवारा समुदाय, इन जुझारू तबकों की जिंदगी को उकेरते उनके लिखे-गाये गीत हमेशा याद किये जाते रहेंगें. इन गीतों में करुणा की एक गहरी अंतर्धारा व्याप्त है जो श्रोता को संघर्ष की जिंदगी के पास खडा कर देती है. भूपेन दा की गहरी मद्धिम आवाज़ में गूंजते ये गीत श्रोता के साथ अद्भुत तादात्म्य बनाते हैं, एका स्थापित करते हैं.
संसद में भी असम का प्रतिनिधित्व करने वाले भूपेन दा का जन-आन्दोलनों से गहरा जुड़ाव रहा आया. असम जन सांस्कृतिक परिषद के वे संस्थापक अध्यक्ष थे. उल्फा के खिलाफ लड़ते हुए मारे गए शहीद का. अनिल बरुआ और आज के असमी के मशहूर जनगायक लोकनाथ गोस्वामी सहित असमिया आंदोलनधर्मी लोकगीतकारों कलाकारों से उनके गहरे रिश्ते थे. भूपेन दा का गायन एक तरह से प्रगतिशील आंदोलन के साथ ही बना-बढ़ा. प्रगतिशील आंदोलन के इन पिछले पचहत्तर सालों पर नज़र डालिए तो अनिल बिश्वास, हेमंग विश्वास, शैलेन्द्र आदि जन गीतकारों की धारा ही भूपेन दा के गीतों की ऊर्जा भरती थी. वे इस श्रृंखला की एक मज़बूत कड़ी थे. असमी लोक संगीत को उन्होंने जमीन में गहरे धंस कर हासिल किया था, और उसे उसी गहराई से जमीन और आन्दोलनों से जोड़े भी रखा. उनका लोक, परलोक नहीं है, यह रोजमर्रा की लड़ाईयां लड़ता, संघर्ष की तैयारी करता लोक है.
वे असम की मोजैक जैसी एकता के अलम्बरदार थे. बीच-बीच में असम जातीय संघर्षों और अफरा-तफरी के दौरों से गुजरा पर भूपेन दा के गीतों में साझी असमी संस्कृति की गहरी एका हमेशा मौजूद रही आयी. यह अवाम के साझे दुःख-दर्द और संघर्षों से बनी एका थी.
सुनते हैं भूपेन दा अपने अध्ययन के दिनों में महान अश्वेत नायक-गायक पाल राब्सन के संपर्क में आये थे और उनके मिसीसिपी पर लिखे गीत से प्रेरित हो ‘गंगा, तुमि बहिछो कैनो’ (गंगा, बहती हो क्यों) नाम का कालजयी गीत लिखा था. जॉन लेनन, पॉल रॉब्सन जैसे क्रांतिकारी कालजयी गीतकारों के गीतों के साथ इस गीत की जगह दुनिया के प्रतिरोधी गीतों पहली सफ में है.
गीतकार, कवि, कम्पोज़र अभिनेता भूपेन दा के व्यक्तित्व की बहुत सी छवियाँ थीं. बहुमुखी प्रतिभा के धनी भूपेन दा ने असमिया फिल्म और संगीत को दुनिया के पैमाने पर खडा करने में अपना योगदान तो दिया ही, हिन्दी और बांग्ला फिल्म उद्योग को भी उन्होंने कई अभूतपूर्व गीत दिए. रुदाली फिल्म का ‘दिल हूम हूम करे, घबराए’ जैसा गीत विरले ही संभव हो पाता है. उन्होंने फिल्म उद्योग में भी अपनी मूल असमी गायकी की ताकत को ही और विकसित किया था.
दादा साहेब फाल्के, संगीत नाटक एकेडमी और पद्मश्री जैसे पुरस्कारों से सम्मानित भूपेन दा कुछ वर्ष पूर्व सत्ता (भाजपा) के बहुत नजदीक पहुँच गये थे, पर जल्दी ही वे इस मोह से छूट गए. आम मजूरों-मेहनतकशों के गायक के रूप में किया गया काम आज भी आंदोलन के गीतों की तरह कानों में गूंजता है.

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