गुरुवार, 15 सितंबर 2011

भ्रष्टाचार के खिलाफ टीम अन्ना का आन्दोलन : एक विश्लेषण

दिगंबर
टीम अन्ना के नेतृत्व में भ्रष्टाचार पर अंकुश लगाने के लिए एक सशक्त लोकपाल पद का सृजन करने और जन लोकपाल कानून बनाने को लेकर चल रहा आंदोलन 28 अगस्त की सुबह 10 बजे अन्ना हजारे द्वारा ‘आमरण अनशन’ तोड़ने के साथ समाप्त हो गया. आंदोलन के नेतृत्व ने यह घोषणा की थी कि प्रधानमंत्री और न्यायपालिका को लोकपाल के दायरे में लाने सहित अपनी किसी भी मांग से वे पीछे नहीं हटेंगे और जन लोकपाल बिल संसद में पारित होने तक अन्ना का अनशन जारी रहेगा. इसके लिए सरकार को 1 सितम्बर तक का समय दिया गया था. लेकिन सुलह-समझौते और नाटकीय घटनाक्रम के बाद आखिरकार कम महत्व वाली तीन मांगो पर सहमति को आधार बनाकर एक भव्य आयोजन के साथ अनशन समाप्त हो गया. अपने जन लोकपाल बिल के समर्थन में अन्ना हजारे ने 16 अगस्त से दिल्ली में आमरण अनशन करने कि घोषणा की थी. सरकार ने इसकी इजाजत नहीं दी और 16 अगस्त की सुबह अनशन शुरू करने से पहले ही अन्ना हजारे और उनके समर्थकों को गिरफ्तार कर लिया. इस घटना ने आग में घी का काम किया. अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का गला घोटने की इस कुकृत्य ने सरकार के प्रति लोगों में व्याप्त आक्रोश को और अधिक तीव्र कर दिया. टीवी चैनलों ने इस पूरे प्रकरण का सीधा प्रसारण किया. छोटी से छोटी घटना को लगातार दिखाने और आन्दोलन का बढ़-चढकर प्रचार-प्रसार करने से शहरी मध्यम वर्ग प्रभावित हुआ. लोग उद्वेलित होकर खुद-ब-खुद सड़कों पर उतरने लगे. इस घटना में जल्दी ही एक नाटकीय मोड़ आया जब कुछ ही घंटो के भीतर अन्ना टीम और उनके समर्थकों को सरकार ने रिहा कर दिया. लेकिन तिहाड़ जेल से बाहर आने के बजाय अन्ना ने जेल के अंदर ही अनशन शुरू कर दिया. 16 अगस्त कि रात और 17 अगस्त को दिनभर दिल्ली पुलिस के अधिकारियों के साथ अन्ना टीम की समझौता वार्ता चलती रही. आखिरकार सरकार ने 21 दिन के लिए रामलीला मैदान में अनशन और प्रदर्शन की इजाजत भी दे दी. दिल्ली नगर निगम ने दिन-रात एक करके रामलीला मैदान की सफाई और अस्थायी शौचालय की व्यवस्था की और वहाँ सुरक्षा का भी विशेष इंतजाम किया. (याद रहे कि इसी रामलीला मैदान में अपने खर्चे पर भ्रष्टाचार के खिलाफ प्रदर्शन कर रहे स्वामी रामदेव और उनके समर्थकों पर पुलिस ने आधी रात को अचानक हमला किया था.) बाद की हर एक घटना से अधिकांश परिचित हैं क्योंकि अन्ना की गिरफ़्तारी के बाद से ही सारे के सारे समाचार चैनल पूरे देश की बाकी ख़बरों को किनारे लगते हुए अन्ना आन्दोलन की हर छोटी-बड़ी घटना का 24*7 घन्टे सीधा प्रसारण करते रहे. इस आन्दोलन को ‘आजादी की दूसरी लड़ाई’, ‘व्यवस्था परिवर्तन की लड़ाई’, और ऐसे ही प्रचंड और पाखंडपूर्ण उद्घोष करने के लिए टीवी चैंनलों और अखबारों में होड़ लग गयी. रामलीला मैदान के मंच पर नामी-गिरामी लोगों, फ़िल्मी सितारों, खिलाड़ियों, गायकों, कवियों, धर्मगुरुओं और समाज सेवियों का जमावड़ा तथा उत्तेजनापरक, अतिशयोक्तिपूर्ण और लोकलुभावन भाषण का क्रम अविरल जारी था. उधर सरकार और अन्ना टीम के बीच समझौता वार्ता और कई स्तर पर मंत्रणाएं चलती रहीं. कई मध्यस्थ आये और गए जिनमें धर्मगुरु, पार्टियों के नेता, एनजीओ मठाधीश और यहाँ तक कि आदर्श घोटाले के आरोपी विलास राव देशमुख जैसे लोग प्रमुख भूमिका में रहे. और जैसा कि पहले ही तय था कि आन्दोलन का पटाक्षेप भ्रष्टाचार विरोधी कानून और एक पद सृजन के लिए आपसी समझौते में होगा, अंततः हुआ भी वही. इस बीच आन्दोलन के नेतृत्व की संरचना और उसके समर्थकों की सामाजिक-आर्थिक पृष्ठभूमि, भ्रष्टाचार के प्रति नेतृत्वकारी लोगों का दृष्टिकोण, आन्दोलन का तौर-तरीका और यहाँ तक कि उनके आर्थिक स्रोत, राजनीतिक पार्टियों के साथ उनके सम्बन्ध और प्रतिक्रियावादी ताकतों के साथ संश्रय को लेकर भी बहुत सारे प्रश्न उठे. लेकिन जनता के एक खास तबके की स्वतःस्फूर्त पहलकदमी देखकर कई संगठन और व्यक्ति इतने अभिभूत और भाव विह्वल हो गए कि उन्होंने उपरोक्त सवालों को जनता से कटे निष्क्रिय बुद्धिजीवियों का प्रलाप कहकर ख़ारिज कर दिया. कारपोरेट मीडिया के अहर्निश प्रचार-प्रसार से जो बवंडर उठा, उसने कई विवेकशील, विचारवान और जनपक्षधर बुद्धिजीवियों, संगठनों को भी असमंजस में डाल दिया. अब, जबकि यह तूफ़ान थम गया है और अन्ना आन्दोलन ‘आधी जीत’ की अपनी चरम परिणति तक पहुँच गया है, इस पूरी परिघटना पर विचार करना जरूरी है ताकि भविष्य के लिए जरूरी सबक और कार्यभार निकाले जा सकें. अन्ना टीम की मुहिम यदि केवल एक कानून बनवाने और एक लोकपाल पद के सृजन तक ही सीमित होती तो इसे गंभीरता से लेने की जरुरत नहीं थी. पूंजीवादी लोकतंत्र में ऐसे दबाव समूह और पैरोकार (लौबिस्ट) होते हैं जो किसी खास मामले में सरकार पर दबाव बनाते रहते हैं. उनके उद्देश्य बहुत सीमित होते हैं. लेकिन रामलीला मैदान के मंच से जिस तरह ‘व्यवस्था परिवर्तन’, ’संपूर्ण क्रांति’, ’लोकतंत्र की पुनर्बहाली’ और ‘दूसरी आजादी’ का शब्द-जाल फैलाया गया, उसने कई सारे लोगों के मन में फर्जी उम्मीद जगायी और भ्रम फैलाया है. लोग इस व्यवस्था से त्रस्त हैं और अपनी रोज-बरोज की समस्याओं से मुक्ति चाहते हैं. अपनी इन्हीं आकांक्षाओं और भावनाओं के साथ लोग अन्ना की ओर आकर्षित हुए. और अब अन्ना आन्दोलन को महिमामंडित करके उसे जनांदोलनों के एक आदर्श नमूने के रूप में स्थापित करने का प्रयास चल रहा है. ऐसी स्थिति में यह जरूरी है कि इस पूरे प्रकरण का तथ्यपरक विश्लेषण किया जाय और देखा जाय कि यह समूह अपने बड़े-बड़े दावों को पूरा करने लायक है भी या नहीं. इसके लिए हम मुख्यतः छ: मानदंडों पर अन्ना टीम और उसके लोकपाल आन्दोलन को जांचने कि कोशिश करेंगे. (1- विचारधारा और राजनीति (2- उद्देश्य, कार्यक्रम और मांग (3- सांगठनिक उसूल और कार्य प्रणाली (4- नेतृत्व की संरचना (5- समर्थक और जनाधार (6- मीडिया की भूमिका और (7- आर्थिक स्रोत. शब्दाडम्बरों से नहीं बल्कि इन्हीं मानदंडों से हम किसी भी संगठन या आन्दोलन को परख सकते हैं कि वह वास्तव में किन वर्गों या तबकों की नुमाइंदगी करता है.
विचारधारा और राजनीति
अन्ना टीम कि कोई सुसंगत, सुनिश्चित और समान विचारधारा नहीं है. इसमें परम्परावादी और आधुनिकतावादी, धार्मिक और धर्मनिरपेक्ष, तरह-तरह के विचारों वाले लोग शामिल हैं. एक बात सबमें साझा है कि इनमें से कोई भी बुनियादी बदलाव (रेडिकल चेंज) का समर्थक नहीं है. अधिक से अधिक इन्हें सुधारवादी माना जा सकता है. इसमें परस्पर विरोधी आस्थाओं वाले धार्मिक समूह हैं, सीमित उद्देश्य के लिए काम करने वाले गैर-सरकारी संगठन (एनजीओ) हैं और कुछ महत्वाकांक्षी लोग हैं जिनकी कोई सुसंगत सोच नहीं है. मुस्लिम समाज के प्रति विष-वमन करने वाले वरुण गाँधी और सुब्रमण्यम स्वामी जैसे लोगों से इस टीम को कोई गुरेज नहीं है. आरक्षण विरोधी ‘यूथ फॉर इक्वेलिटी’ से भी इन्हें कोई परहेज नहीं है. खुद अन्ना हजारे गुजरात नरसंहार के आरोपी नरेन्द्र मोदी और गैरमराठी ‘बाहरी लोगों’ के विरुद्ध नफरत फ़ैलाने वाले राज ठाकरे के प्रसंशक हैं. वे ‘नोट के बदले वोट’ के आरोपियों को फांसी देने कि मांग करते हैं, लेकिन यह साजिश किसने और क्यों की, इस पर वह मौन रहते हैं . अन्ना हजारे ने अपने गाँव रालेगण सिद्धि में जो आदर्श गाँव का मॉडल बनाया है, वह प्रतिगामी विचारों पर आधारित है. वहाँ जातिगत पेशे में लगे लोगों को अपना-अपना काम निष्ठापूर्वक करना जरुरी है. उनका मानना है कि हर आदर्श गाँव में एक लोहार, एक सुनार, एक कुम्हार और एक चमार परिवार का होना जरूरी है, ताकि गाँव आत्मनिर्भर बने. वहाँ पंचायत और कॉपरेटिव का चुनाव नहीं होता. दारू पीने और अन्य सामाजिक बुराइयां करने वालों की सार्वजनिक रूप से पिटाई की जाती है. जहिर है कि इन सब के पीछे अलोकतांत्रिक, वर्णाश्रम आधारित, ब्राह्मणवादी, सामंती सोच है. जन लोकपाल आन्दोलन की व्यावहारिक कार्यवाहियों के दौरान भी विभिन्न रूपों में इसका इजहार हुआ.. नवउदारवादी आर्थिक ‘सुधार’ हमारे देश का सबसे बुनियादी मसला है. इसने भारतीय समाज में पहले से मौजूद समस्याओं को तीखा किया है और नयी-नयी समस्याओं को जन्म दिया है (विराट और बेलगाम भ्रष्टाचार भी इनमें से एक है). उदारीकरण-निजीकरण की इन नीतियों के परिणामस्वरूप लाखों मजदूरों-किसानों ने आत्महत्या की है और अधिकांश जनता की जिंदगी नरक से भी बदतर हो गयी है. लेकिन अन्ना टीम का इन नीतियों से कोई विरोध नहीं है. कोई भी विचार या नीति यदि बहुसंख्य मेहनतकश जनता के हित में नहीं है, उनके जीवन में खुशहाली लाने वाली नहीं है तो वह ‘व्यवस्था परिवर्तन’ का वाहक नहीं हो सकती. अन्ना टीम मेहनतकश जनता के प्रति पक्षधर और प्रतिबद्ध नहीं है. जिन राजनीतिक पार्टियों ने जनविरोधी, नवउदारवादी नीतियों को बढ़-चढ़ कर लागू किया, उनके सहयोग और समर्थन से ही वे जन लोकपाल कि मुहिम को आगे बढ़ा रहे हैं. अनशन की समाप्ति और ‘आधी जीत’ के लिए उन्होंने उन सबका आभार भी व्यक्त किया. विचारों की इस पंचमेल खिचड़ी के भरोसे सरकारी सहयोग से कोई कानून तो बनवाया जा सकता है, लेकिन क्या इसके दम पर ‘व्यवस्था परिवर्तन’ और ‘आजादी की दूसरी लड़ाई’ लड़ना संभव है?
सांगठनिक उसूल और कार्य-प्रणाली
अन्ना टीम के जनलोकपाल आन्दोलन का संचालन कई ढीले-ढाले संगठनों और व्यक्तियों के तदर्थ गठबंधन द्वारा किया गया जिसमें शुरू से आखिर तक मतभेद और कलह मौजूद रहे हैं. इसके नेतृत्व का करिश्माई और मसीहाई अंदाज ही इसकी सामर्थ्य और सीमा थी, जिसके केंद्र में अन्ना हजारे थे. इसमें कर्ता अन्ना और उनकी टीम थी, आन्दोलन में शामिल भीड़ का काम उनकी हौसला अफजाई करना, उनकी ताकत बढ़ाना था ताकि सरकार उनके साथ समझौता करने पर राजी हो जाये. मध्यम वर्ग को हमेशा ही किसी महानायक या मसीहा का इन्तजार रहता है जो अपने चमत्कारी प्रभाव से बड़ा से बड़ा बदलाव लाने में समर्थ हो. अपनी पहल पर अनुशासित और योजनाबद्ध सांगठनिक कार्रवाई से उसे एलर्जी होती है. जन लोकपाल ने इस मध्यम वर्गीय प्रवृत्ति का भरपूर लाभ उठाया. आज का दौर सचेत रूप से इतिहास निर्माण का दौर है जहाँ समाज की हर गतिविधि संगठित शक्तियां संचालित करती हैं. राज्य खुद ही ऊपर से नीचे तक पूरी तरह सुसंगठित और वर्गीय शासन को चलाने वाले हर तरह के अश्त्र-शस्त्र से सुसज्जित है. इसका सामना करने के लिए एक केंद्रीकृत, अनुशासित और मजबूत संगठन का होना अनिवार्य है. यह किसी की व्यक्तिगत इच्छा से स्वतंत्र, एक ऐतिहासिक तथ्य है. भीड़ के सामने इस हवाई घोषणा का कोई मतलब नहीं कि ‘हम लोग’ संप्रभु हैं और सरकार जनता की नौकर है. ‘हम लोग’ अपनी संप्रभुता का इजहार और उसकी दावेदारी संगठन और अनुशासन के माध्यम से ही करते हैं. अगर ऐसा न हो तो ‘हम लोग’ किन्हीं खास लोगों को सत्ता के गलियारे तक पहुंचाने का जरिया हो सकते हैं, चाहे मतदान से या किसी अभियान से. ‘जनतंत्र के आदर्शों का आनंदोत्सव’ और लोकतंत्र के क्रियान्वयन में जमीन-आसमान का फर्क है. विभिन्न तबकों और वर्गों के जन संगठनों में रोज-बरोज के व्यावहारिक कामों के दौरान उससे जुड़े लोगों का जनवादीकरण और लोकतंत्र का क्रियान्वयन होता है. ऐसे संगठनों में समूह की इच्छा और बहुमत की राय सर्वोपरि होती है और व्यक्ति समूह के अधीन होता है, चाहे वह कितने भी अलौकिक गुणों और विलक्षण प्रतिभा से संपन्न क्यों न हो. नेता का कर्त्तव्य आन्दोलन और संगठन के उद्देश्य और कार्यक्रम से अपनी कतारों को परिचित कराना, उनकी चेतना बढ़ाना, उनके माध्यम से जनगण को गोलबंद और संगठित करना तथा आन्दोलन को सही दिशा में संचालित करना होता है. लेकिन जनता ही वास्तविक कर्ता होती है. अन्ना कि मुहिम जिन एनजीओ के हाथों में थी उनमें इस प्रकार का कोई संगठन नहीं है. वहाँ कार्यकारी टीम और वेतनभोगी कर्मचारी होते हैं जो निश्चित अवधि और इलाके के लिए निर्धारित और वित्तपोषित, सुधारात्मक परियोजनाओं का संचालन करते हैं. ऐसे संगठन अपने दानकर्ताओं की मदद से जनता के कल्याण और भलाई के लिए काम करते हैं, उन्हें गोलबंद और संगठित नहीं करते. इतिहास का निर्माण कोटि-कोटि जनता के सचेत प्रयासों से होता है, किसी मसीहा या महानायक के चमत्कार से नहीं. लेकिन हमारे समाज में लोकतान्त्रिक चेतना के आभाव तथा अतीत से चली आ रही नायक-पूजा और अंधश्रद्धा के गहरे प्रभाव के कारण अक्सर किसी उद्धारक के पीछे भीड़ उमड़ पड़ती है. अन्ना कि मुहिम के दौरान भी ऐसा ही हुआ. रामलीला मैदान में उपस्थित जनसमूह की चेतना बढ़ाने के बजाय उनकी भावनाओं को उकसाने और अंधभक्ति को बढ़ावा देने के लिए आपातकाल के दौरान दिए गए ‘इंदिरा इज इंडिया, इंडिया इज इंदिरा’ की पैरोडी बनाकर ‘अन्ना इज इंडिया, इंडिया इज अन्ना’ का नारा दिया गया. अन्ना टीम कि मुहिम में शामिल नाना प्रकार के सुधारवादियों का ढीला-ढाला मोर्चा जन लोकपाल कानून बनवाले, वही बहुत है. इतिहास का सबक है कि बुनियादी बदलाव के लिए वर्गों और तबकों के संगठित, सचेतन और धैर्यपूर्व संघर्ष कि जरूरत होती है.
अन्ना टीम का उद्देश्य और उनकी मांग
लोकपाल बिल के लिए आंदोलन चलाने वाली टीम अन्ना का उद्देश्य भ्रष्टाचार के खिलाफ एक मजबूत और स्वतंत्र कानून बनवाना, विदेशों से काले धन की वापसी तथा चुनाव प्रणाली और न्याय व्यवस्था में सुधार लाना है. अन्ना टीम भ्रष्टाचार को देश कि सबसे बड़ी समस्या मानती है. और इस समस्या के समाधान के लिए वह एक कठोर कानून और शक्तिशाली लोकपाल के गठन को अनिवार्य मानती है. अप्रैल 2011 में अन्ना हजारे के पहले अनशन के बाद सरकार ने अन्ना टीम के 5 प्रतिनिधियों को मिला कर लोकपाल कानून की ड्राफ्टिंग कमेटी बनायी, भ्रष्टाचार के खिलाफ मुहिम चलाने वाले कई दूसरे एनजीओ और रामदेव जैसे लोगों को उससे अलग ही रखा गया. बाद में सरकार ने अन्ना टीम के कई सुझावों को उसमें शामिल नहीं किया. उसने एक बेहद कमजोर लोकपाल का मसौदा तैयार किया जिसमे भ्रष्टाचारी के लिए न्यूनतम 6 माह और अधिकतम 10 वर्ष कि सजा तथा भ्रष्टाचार का आरोप गलत साबित होने पर शिकायतकर्ता को दो साल की सजा का प्रावधान है. अन्ना टीम की मांग थी कि प्रधानमंत्री, न्यायपालिका और नौकरशाही को लोकपाल के दायरे में लाया जाय. साथ ही लोकपाल कानून को क्रियान्वित करने के लिए 10 लोगों की ऐसी टीम बनायी जाय जो पुलिस, जांच एजेंसी और न्यायाधीश तीनों की भूमिका निभाने के लिए अधिकृत हो और सर्वशक्तिमान हो. अन्ना टीम का मानना है कि अगर उनके मसौदे के आधार पर लोकपाल बिल बन गया तो देश में 60 प्रतिशत भ्रष्टाचार कम हो जाएगा. दरअसल भ्रष्टाचार के प्रति अन्ना टीम का नजरिया सतही और भ्रामक है. उनकी निगाह में देश कि सारी समस्याओं के मूल में भ्रष्टाचार है जिसके खत्म होते ही सभी मुसीबतें दूर हों जाएँगी. इस तरह वे लक्षण को रोग बताते हैं और उसे जड़ से मिटाने के बजाय निमहकीमी इलाज तजबीज करते हैं तथा महंगाई, बेरोजगारी, शोषण और लूट-खसोट से लोगों का ध्यान हटाने का प्रयास करते हैं. दूसरे, वे केवल कानून का उलंघन करके कला धन कमाने को ही भ्रष्टाचार मानते हैं. पिछले 20 वर्षों से सरकार कानून में फेर-बदल कर के श्रम और सार्वजनिक संपत्ति की लूट को बेलगाम करती जा रही है, 1991 के पहले जो जो भ्रष्टाचार था उन सब को शिष्टाचार में बदलती जा रही है, उससे उन्हें कोई उज्र नहीं. जो लोग बेलगाम लूट-खसोट से निजात पाने के लिए अन्ना टीम के समर्थन में बड़ी संख्या में सड़कों पर उतरे, उनकी चाहत जायज है, लेकिन सवाल यह है कि क्या इस सामाजिक-आर्थिक-राजनीतिक व्यवस्था के बने रहते हुए एक कानून, एक संस्था और एक सर्वसत्ता सम्पन्न लोकपाल पद का सृजन कर देने से भ्रष्टाचार पर रोक लग जायेगा? आजादी के बाद से अब तक भ्रष्टाचार पर रोक लगाने के लिए पांच दर्जन से ज्यादा कानून बने और कई जांच समितियों का गठन किया गया जिनमें से एक है केन्द्रीय सतर्कता आयोग जिसे 1998 और 2004 में कानून बनाकर पहले से ज्यादा अधिकार दे दिये गये. लेकिन कहावत है कि कानून बनते ही तोड़ने के लिए हैं. हर नये कानून के साथ भ्रष्टाचार पहले से कहीं अधिक विकराल रूप धारण करता गया. यही हाल दूसरे कानूनों का भी है. क्या कठोर कानून के बावजूद दहेज उत्पीडन आज भी जारी नहीं है? क्या भ्रूण हत्या के विरुद्ध कानून बना दिए जाने से भ्रूण हत्या बंद हो गयी? क्या बाल श्रम कानून बनने से बच्चों से काम लेने पर लगाम लगी? क्या दलित उत्पीडन के खिलाफ कानून बन जाने से दलितों का उत्पीडन समाप्त हुआ? सच तो यह है कि जब भी किसी समस्या के प्रति लोगों का आक्रोश और असंतोष बढ़ता है तो सरकार खुद ही उसके लिए कानून बना कर अपने कर्तव्यों की इतिश्री कर लेती है. भ्रष्टाचार के मामले में भी वह यही कर रही है. क्या अन्ना टीम अपने इस कानूनवादी, सुधारवादी मांग के जरिये सरकार के इसी पुराने, आजमाए हुए पैंतरे में सहयोगी भूमिका नहीं निभा रही है? कहावत है ‘प्रभुता पाई काहि मद नाहीं.’ अंग्रेजी कहावत है कि ‘पावर करप्ट्स एंड एब्सलूट पावर करप्ट्स एब्सलूटली’. सर्वाधिकार संपन्न लोकपाल भी भ्रष्ट नहीं होगा इसकी क्या गारंटी है? मजेदार बात यह है कि अन्ना टीम ने पूंजीपतियों, व्यापारियों, सटोरियों, काला बाजारियों, एनजीओ चलाने वालों, धार्मिक संस्थाओं और मीडिया को अपने लोकपाल की गिरफ्त से बाहर रखा है. ए. राजा आज बिना लोकपाल के भी जेल में हैं, जबकि 1,75,000 करोड़ डकार जाने वाले मोबाइल कंपनियों के मालिक देशी-विदेशी पूंजीपतियों का लोकपाल कानून भी कुछ नहीं बिगाड़ पायेगा. पिछले दिनों नीरा राडिया कांड ने पूंजीपति और मीडिया के अपवित्र गठबंधन को सामने ला दिया था. लेकिन प्रधानमंत्री से लेकर राज्य के छोटे कर्मचारियों तक को लोकपाल के दायरे में लाने पर बजिद अन्ना टीम ने अपने जन लोकपाल से उन्हें बेलाग रखा. क्या अन्ना टीम की मांग पूरी हो गयी! अनशन समाप्ति के बाद के विजयोल्लास और मीडिया के अन्धाधुंध प्रचार से तो ऐसा ही जान पड़ता है, लेकिन हकीकत कुछ और है. रामलीला मैदान के मंच से अन्ना ने घोषणा की थी कि सरकार लोकपाल का अपना मसौदा वापस ले और उसकी जगह जन लोकपाल बिल संसद में पेश करे. कानून बनाने के लिए अन्ना टीम ने सरकार को 30 अगस्त तक का समय दिया था और उदघोष किया था कि कानून बनने तक अन्ना का अनशन और आंदोलन जारी रहेगा. लगातार वार्तालापों का जोर चला और अंततः अन्ना टीम ने प्रधानमंत्री और न्यायपालिका को जन लोकपाल के दायरे में लाने सहित कई मांगों को छोड़ते हुए केवल कम महत्व वाले तीन मुद्दों पर संसद में प्रस्ताव पेश करने की शर्त रखी – 1. राज्यों में लोकायुक्त की नियुक्ति, 2. सिटिजन चार्टर के जरिये सरकारी दफ्तरों में हर काम के लिए निश्चित समय का निर्धारण और 3. राज्य के सभी कर्मचारियों को लोकपाल के अधीन लाना. सरकार ने न तो संसद में कोई प्रस्ताव पास किया और न ही कानून बनाने के लिए कोई समय सीमा तय की. केवल संसद की भावना व्यक्त करते हुए कांग्रेस और भाजपा के नेताओं ने एक संयुक्त वक्तव्य दिया. अन्ना टीम ने सम्मानपूर्वक पीछे हटने के लिए उसी वक्तव्य को आधार बना कर आंदोलन वापस ले लिया और इसे ‘आधी जीत’ बताते हुए अपनी पीठ थपथपा ली. जन लोकपाल आंदोलन ने एक बार फिर यह दिखा दिया कि वैचारिक उहापोह और सांगठनिक अफरातफरी के बल पर मामूली सुधारवादी और सतही मांगों को पूरा करवाना भी सम्भव नहीं.
आंदोलन के नेतृत्व की संरचना
अन्ना टीम की भ्रष्टाचार मुहिम के साथ ही सिविल सोसाइटी (भद्रलोक समाज) एक बहुचर्चित शब्द हो गया है, जिसका शाब्दिक अर्थ है- भद्र, शिष्ट, सुसभ्य, परिष्कृत, नगरवासी. जाहिर है कि 70 प्रतिशत ग्रामीण आबादी और शहरों की आधी गरीब आबादी इस श्रेणी में नहीं आती. जन लोकपाल आन्दोलन का नेतृत्व और उनके समर्थक इसी ‘सिविल सोसायटी’ के लोग हैं. सिविल सोसाइटी या भद्रलोक की अवधारणा कोई नयी नहीं है. प्राचीन रोमन साम्राज्य में गुलामों को मनुष्य की श्रेणी में नहीं माना जाता था. गुलामों के मालिक अभिजात वर्ग के अलावा स्वतंत्र नागरिकों का समूह इसी श्रेणी में आता था जो अपनी सामाजिक हैसियत और पक्षधरता में कुलीन वर्ग के करीब था. आधुनिक युग में यह सभ्य, सुसंस्कृत और खुशहाल भद्रलोक पूंजीपति वर्ग और पूंजीवादी व्यवस्था का परम हितैषी है. विश्व बैंक की परिभाषा के अनुसार ‘‘सिविल सोसाइटी पद का सम्बन्ध गैर-सरकारी संगठन और बिना मुनाफे वाले संगठनों के व्यापक विन्यास से है जो अपने सदस्यों तथा दूसरों के हितों एवं मूल्यों को नैतिक, सांस्कृतिक, राजनीतिक, वैज्ञानिक, धार्मिक या लोकोपकारी विचारों के आधार पर अभिव्यक्त करने वाले के रूप में सार्वजानिक जीवन में अपनी उपस्थिती दर्ज करा चुके हैं. इस तरह सिविल सोसाइटी संगठन, संगठनों के एक व्यापक विन्यास को दिखाते हैं- सामुदायिक समूह, गैर-सरकारी संगठन (एनजीओ), श्रमिक संघ, मूल निवासी समूह, दानकर्ता संगठन, धार्मिक संगठन, पेशेवर लोगों के ट्रस्ट.’’ विश्व बैंक सिविल सोसाइटी शब्द का प्रयोग एनजीओ के स्थान पर करता है जिन्हें अपनी योजनाओं में शामिल करने के लिए वह 70 के दशक से ही प्रयासरत रहा है और 1990 के बाद उसने इस प्रयास को तेज किया है. उसका मानना है कि वैश्वीकरण की प्रक्रिया तथा लोकतान्त्रिक शासन, संचार माध्यम और आर्थिक एकीकरण के विस्तृत होने की सहायता से पिछले दशक में विश्व स्तर पर सिविल सोसाइटी के आकार, कार्य क्षेत्र और क्षमता में नाटकीय विस्तार हुआ है. अंतर्राष्ट्रीय संगठनों की वार्षिकी के अनुसार अंतर्राष्ट्रीय एनजीओ की संख्या 1990 में 6000 से बढ़कर 2006 में 50,000 हो गयी. सिविल सोसाइटी संगठन आज वैश्विक विकास सहायता कार्यक्रमों में महत्त्वपूर्ण खिलाड़ी हो चुके हैं. ओईसीडी का अनुमान है कि 2006 में इन संगठनों ने 15 अरब डॉलर की सहायता उपलब्ध करने में सहयोग किया. विश्व बैंक के मुताबिक इन संगठनों ने दुनिया भर में अपने विभिन्न हिमायती अभियानों (एडवोकेसी कैम्पेन) के दौरान हजारों समर्थकों को गोलबंद किया. ‘वैश्विक सिविल सोसाइटी की अनुगूँज’ की ताजा अभिव्यक्ति विश्व सामाजिक मंच (डब्लूएसएफ) है जिसका वार्षिक आयोजन 2001 से विभिन्न महाद्वीपों में किया जा रहा है और जिसने वैश्विक विकास के मुद्दों पर विचार विमर्श के लिए अपने हजारों कार्यकर्ताओं को एक साथ ला खड़ा किया. दूसरा उदाहरण ‘गरीबी के खिलाफ कार्रवाई का वैश्विक आह्वान’ (जीसीएपी) के तहत गरीब देशों की कर्ज माफ़ी और ज्यादा बड़ी सहायता की हिमायत करने के लिए चलाया गया अभियान है I 2008 में दुनिया भर के शहरों में आयोजित कार्यक्रमों में 1.6 करोड़ नागरिकों ने भाग लिया.’’ भ्रष्टाचार के खिलाफ विश्वव्यापी अभियान भी विश्व बैंक की कार्यसूची में शामिल है. 1990 में बर्लिन की दीवार गिराए जाने और रूसी खेमे के विघटन के साथ विश्व शक्ति संतुलन में भरी बदलाव आया. अमेरिका के नेतृत्व में ‘वाशिंगटन आम सहमति’ के आधार पर पूरी दुनिया में नवउदारवादी, नग्न पूंजीवादी विश्व साम्राज्यवादी अर्थव्यवस्था को सुदृढ बनाने का अभियान शुरू हुआ. पूरी दुनिया में पूंजीवादी शोषण के सम्बन्ध कायम किये गए. पूंजी की निर्मम लूट और मुनाफाखोरी के रास्ते से सारे अवरोध हटा दिए गए. पूंजीवाद के इस नए बर्बर दौर को एक मात्र विकल्प बताने और न्यायसंगत ठहराने के लिए विचारों की आंधी चलाई गयी, मीडिया द्वारा लोगों के मन-मस्तिष्क को पूंजीवाद के अनुरूप ढालने का चौतरफा और अधाधुंध प्रयास शुरू हुआ. इस अंधी लूट-खसोट का विनाशकारी प्रभाव होना तय था. इन चौतरफा दुष्परिणामों पर पर्दा डालने के लिए साम्राज्यवादी समूह ने तरह-तरह के उपाय किये. साथ ही, सिविल सोसाइटी’ और एनजीओ को भरपूर भौतिक मदद देकर खड़ा किया. नवउदारवादी पूंजीवाद अपने अन्तर्निहित कारणों से जो नयी-नयी सामाजिक बीमारियां उत्पन्न करता है. उनके खिलाफ आन्दोलन चलाकर उनमें कुछ हद तक सुधार लाने का काम इन संगठनों को सौंपा गया. गरीबी, पर्यावरण विनाश, कर्ज संकट, तानाशाही और भुखमरी से लेकर वैश्वीकरण के घातक परिणामों तक, तरह-तरह के मुद्दों पर एनजीओ ने दुनिया भर में हिमायत अभियान (एड्वोकेसी कम्पेन) चलाये, जिनका उपरोक्त उद्धरण में विश्व बैंक ने जिक्र किया है. इस पूरी परिघटना का सार है-- राजनीतिक आन्दोलन की जगह सामाजिक आन्दोलन, वर्गों और तबकों के संगठनों की जगह एनजीओ के सामाजिक अभियान और सुधारवादी-कानूनवादी-वर्गेतर संगठन, आम तौर पर हर तरह की राजनीति का विरोध, पूंजीवाद का विकल्प प्रस्तुत करने की जगह उससे पल-प्रतिपल पैदा होने वाली समस्याओं को लेकर मुद्देवार, स्थानीय और तात्कालिक आन्दोलन. जुझारू संघर्ष की जगह जनहित याचिका, मोमबत्ती जुलूस, मानव श्रृंखला, भूख हड़ताल और गांधीगिरी जैसे नये ढंग के आन्दोलन, लोगों की व्यापक गोलबंदी और दीर्घकालिक निर्णायक लड़ाई की जगह भद्रजनों, मीडिया, एनजीओ कर्मियों द्वारा प्रतीकात्मक आन्दोलन, यानी रोग को मिटाने की जगह लक्षण को दबाना. साम्राज्यवादी समूह ने रूस और पूर्वी यूरोप में राजकीय पूंजीवाद की जगह नग्न पूंजीवादी व्यवस्था की स्थापना के लिए गुलाबी, बैंगनी, नारंगी और चमेली क्रांतियों में सहयोग करने के लिए ‘नागरिक समाज और एनजीओ को एक रणनीति के रूप में सफलतापूर्वक इस्तेमाल किया था. इसके लिए अंतरराष्ट्रीय संस्थाओं और फंडिंग एजेंसियों के जरिये उन्हें भरपूर धन मुहैया कराया गया था. अब तो यह नवउदारवाद का आजमाया हुआ राजनीतिक उपकरण बन गया है. 1990 के बाद दुनिया भर में एनजीओ परिघटना और उनकी संख्या में तेजी से विकास हुआ है. साम्राज्यवादी देशों में तो इसे अर्थव्यवस्था के तीसरे क्षेत्र के रूप में स्थापित किया गया है. सरकार द्वारा सामाजिक सेवाओं का निजीकरण करके उनसे हाँथ खीचने के बाद, जब निजी पूंजीपतियों ने शिक्षा-चिकित्सा जैसी सरकारी सेवाओं को मुनाफे का धंधा बनाकर गरीब जनता को उनसे वंचित किया तो अभावग्रस्त लोगों के लिए एनजीओ को मानवतावादी चेहरे के साथ मैदान में उतारा गया. इस परिघटना को आगे बढ़ाने के लिए संयुक्त राष्ट्र संघ ने नागरिक समाज के लिए एक पैनल का गठन किया. विश्व बैंक ने भी इस दिशा में कई परियोजनाएं शुरू की और हर देश में एनजीओ और नागरिक समाज का भरपूर सहयोग लिया. भारत में 1991 में नवउदारवादी नीतियां लागू होने के बाद एनजीओ का तेजी से विस्तार हुआ है. मजदूर आन्दोलन की कमजोरी और बिखराव ने एनजीओ के लिए अनुकूल अवसर प्रदान किया. वामपंथ के खिलाफ पूंजीवादी मीडिया के विश्वव्यापी अधाधुंध प्रचार से उन्हें वैचारिक आधार मिला जिसने हर तरह के प्रतिगामी मूल्यों का महिमामंडन किया और मुक्त बाजारवाद को एक मात्र विकल्प के रूप में स्थापित किया. आज भारत में 15 लाख नागरिक समाज संगठन या एनजीओ हैं जिनमें 1.9 करोड़ स्वयंसेवकों को रोजगार मिला हुआ है. ये संगठन पूंजीवादी व्यवस्था के पैरोकार और सहयोगी हैं और उसी के दायरे में काम करते हैं. इनका काम पूंजीवाद को दीर्घायु बनाने के लिए उसकी बुराइयों से लड़ना है. भ्रष्टाचार भी पूंजीवाद की ऐसी ही एक अन्तर्निहित बुराई है जिसके खिलाफ टीम अन्ना ने मुहिम छेड़ी है. पूंजीवादी लोकतंत्र के मौजूदा दौर में जब संसद और विधान सभाओं में नीतिगत मुद्दों पर पक्ष-विपक्ष जैसा कोई बंटवारा रह नहीं गया है और नवउदारवादी नीतियों के चलते जनता का आक्रोश सभी हदें पर करता जा रहा है, तब नागरिक समाज संगठनों को सुरक्षा कवच के रूप में सामने लाया जा रहा है. जन भागीदारी, समावेशी विकास, जनता की जागरूकता, सरकार की जवाबदेही, विकास में सहभागिता, प्रशासनिक सुधार जैसे मनभावन नारों का निहितार्थ यही है. पूंजीवादी लोकतंत्र को कारगार बनाने और जनाक्रोश को नियंत्रित रखने के लिए नागरिक समाज के आन्दोलन और प्रतिपक्ष की छद्म रचना जरुरी है. नागरिक समाज के कुछ अभिजात लोग किसी मुद्दे पर इकठ्ठा होते हैं और किसी लोकतांतिक प्रक्रिया के बिना ही वे राजनीतिक शक्ति सम्पन्न, स्वयंभू जन प्रतिनिधि और जनता की आवाज बन जाते हैं. साम्राज्यवादी संस्थाएं उन्हें पुरुस्कृत करके जल पुरुष, थल पुरुष या नभ पुरुष बनाती हैं, अंतर्राष्ट्रीय फंडिंग एजेंसियां उनका खर्चा उठाती हैं, मीडिया उनके लिए सहमति गढ़ता है, उन्हें स्थापित करता है और सरकार उन्हें स्वीकार कर लेती है. यह जन आंदोलनों के भावी तूफानों से बचने की तमाम तैयारियों में से एक है. विश्व बैंक के एक अधिकारी ने पिछले दिनों अपने एक साक्षात्कार में नागरिक संगठनों के महत्व को रेखांकित करते हुए कहा था कि मंदी का सामना कर रही वर्त्तमान विश्व अर्थव्यवस्था और अरब देशों में उथल-पुथल को देखते हुए विभिन्न देशों में ऐसे सगठनों को अपनी ओर आकर्षित करना जरुरी है. विश्व बैंक ने इसके लिए एक मुक्कमिल योजना तैयार की है जिसमें विभिन्न स्तरों पर संपर्क, सम्मलेन, शिक्षण-प्रशिक्षण और वित्तपोषण सब शामिल है. भ्रष्टाचार के खिलाफ अभियान भी विश्व बैंक की एक परियोजना है जिसमें हेरिटेज फाउन्डेशन, फोर्ड फाउन्डेशन, ट्रांसपिरेन्सी इंटरनेशनल सहित कई अंतर्राष्ट्रीय संस्थाएं और फंडिंग एजेंसियां सहयोगी भूमिका निभा रही हैं. कैसी विडंबना है कि तीसरी दुनिया के शासकों के साथ मिली-भगत करके उन्हें भ्रष्ट बनाने के लिए जिम्मेदार अंतर्राष्ट्रीय साम्राज्यवादी संस्थाएं ही भद्रलोक को साथ लेकर भ्रष्टाचार के खिलाफ मुहिम छेड़ रही हैं. कुछ साल पहले विश्व बैंक से इस्तीफा देने वाले उसके एक उच्च अधिकारी डेविसन एल. बुधु ने एक किताब लिखी थी- एनफ इज एनफ जिसमें उसने विश्व बैंक द्वारा दुनिया भर में भ्रष्टाचार फ़ैलाने वाले अभियानों का कच्चा चिट्ठा खोला था. उसका कहना था कि हमारे हाथ से इतने अपराध हुए हैं कि उनके खून के धब्बे सात समुन्दर के पानी से भी नहीं धुल पाएंगे. अन्ना टीम में शामिल सभी भद्रलोक किसी न किसी एनजीओ का संचालन करते हैं. वे इस नवउदारवादी पूँजीवादी व्यवस्था के समर्थक हैं तथा उसे कारगर और बेहतर बनाने के लिए उसकी बुराइयों को दूर करना चाहते हैं. जनता से पूरी तरह कटा हुआ यह भद्रलोक यदि चाहे भी तो किसी सही जनान्दोलन का नेतृत्व करने, राज्य का दमन झेलने और कष्ट सहने में असमर्थ है. कानून-व्यवस्था के दायरे में रहकर यह प्रतीकात्मक, प्रायोजित आन्दोलन या जनहित याचिका दायर कर सकता है. इससे आगे जाना इस समूह के लिए सम्भव नहीं है।
(अगली पोस्ट में जारी......)

3 टिप्‍पणियां:

  1. क्या जरूरी था कि इस जरूरी लेकिन लंबे विश्लेषण को ब्लाग पर एक ही बार में प्रकाशित किया जाता? क्या इसे कुछ भागों में प्रकाशित नहीं किया जा सकता था?
    ब्लाग पाठक इतने समंय ब्लाग पर नहीं गुजारता जितने समय में इस आलेख को पढ़ा जा सके।

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  2. जी दिनेश जी आपका सुझाव बिलकुल सही है. मैंने इस गलती को सुधार लिया है.

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