मंगलवार, 29 अगस्त 2017

गरीबों की झुग्गी पर चलता है बुलडोजर, हमें फर्क क्यों नहीं पड़ता

(सुनील कुमार)। दिल्ली का पूर्वी इलाका शहादरा एक समय में सबसे लम्बे फ्लाईओवर के लिए जाना जाता था। फ्लाईओवर के ऊपर सरपट दौड़ती हुई गाड़ियां दिल्ली से यूपी और यूपी से दिल्ली में -जाती हैं। दिल्ली के लोगों ने सबसे पहला मेट्रो का सफर शहादरा से कश्मीरी गेट और कश्मीरी गेट से शहादरा तक किया था। दिल्ली के इस पूर्वी इलाके की गिनती रईस इलाके में नहीं होती है। इस इलाके को दिल्ली की मेहनतकश आबादी के रिहाइशी इलाके के रूप में जाना जाता है। लेकिन अब यहां मध्य वर्ग का कुछ इलाका भी विकसित हो चुका है।
शहादरा फ्लाईओवर और शहादरा से वेलकम मेट्रो लाईन के नीचे एक बस्ती हैजिसे जे.जे. कलस्टरश्रीराम नगरलाल बाग कहा जाता है। लेकिन इस बस्ती को दिल्ली की बहुत कम जनता ही जानती है। इस बस्ती से चंद दूरी पर ही एक मध्य वर्गीय इलाका दिलशाद गार्डन हैजहां के लोगों को इस बस्ती के बारे में जानकारी नहीं है। लोगों को पता भी कैसे होक्योंकि वे तो गाड़ियों और मेट्रो से इस बस्ती के ऊपर से गुजर जाते हैं।
श्रीराम नगरलाल बाग की बस्ती दो भागों में बटी है। एक भाग मेट्रो लाईन के नीचे हैजहां ज्यादा तौर पर बिहार और यूपी के लोग रहते हैं। इस बस्ती का कुछ हिस्सा दिलशाद गार्डन मेट्रो के विस्तार के लिए तोड़ा गया तो उन लोगों को सवादा घेरा में पुर्नवास दिया गया। इसी बस्ती का दूसरा हिस्सा शहादरा फ्लाईओवर के नीचे हैजहां राजस्थान के चित्तौरगढ़ से आये लोग रहते हैं। वे अपने को महाराणा प्रताप के वंशज मानते हैं। ये लोग पूरे परिवार के साथ लोहे का काम करते हैं। इनके समुदाय के लोग दिल्ली की सड़कों के किनारे छोटी-छोटी झोपड़ियों में दिख जाते हैंजो लोहे को गरम कर हथौड़े की चोट से लोहे को अलग-अलग आकार देते हैं और हमारे लिए सस्ते में तावाहथौड़ा सरसी जैसी सामग्री उपलब्ध कराते हैं। इन्हीं की बस्ती के 65 घरों को 22 अगस्त, 2017को दिल्ली प्रशासन द्वारा बिना किसी पूर्व सूचना या नोटिस दिये बुलडोजर चला कर तोड़ दिया गया।
अब ये लोग अपनी टूटी-फूटी झोपड़ी के सामने चरपाई डाल कर बैठे हुए हैं। 22 अगस्त के बाद से इनके काम-काज भी बंद हैं। इन्हें अपने रहने की जगह के अलावा अपनी जीविका के लिए भी सोचना पड़ रहा है। इनके पास न रहने का जगह बची हैन काम करने की। ये खुले में अपने बच्चों के साथ खाना-पीनारहना-सोना कर रहे हैं। खुले में शौच करने पर हर्जाना लगाने वाली सरकार को खुले में महिलाओंबच्चोंबुजुर्गोंं को रहनासोनाखाना-पीना कोई समस्या नहीं दिख रही है। क्यों नहीं उन आधिकारियों पर कार्रवाई की जा रही हैजिन्होंने इनके पुनर्वास किये बिना इनकी बस्ती को तोड़ दिया?
इस समुदाय के लोगों का मानना है कि उन्हें अपने लिए स्थायी घर नहीं बनाना है। लेकिन उनकी जो नई पीढ़ी  है वह इस मान्यता को नहीं मान रही है। इस पीढ़ी के लोग पढ़ना चाहते हैंअपने लिए स्थायी ठिकाना चाहते हैं और   घुमंतू जीवन-यापन नहीं करना चाहते हैं। यही कारण है कि इस बस्ती का हरेक बच्चा (या बच्ची) अब स्कूल जाता है। अभी इस बस्ती से तीन छात्राएं और एक छात्र कॉलेज में पढाई कर रहे हैं। नेहा (19 वर्ष) ने बगल के सर्वोदय कन्या विद्यालय से इण्टरमीडिएट की परीक्षा 72 प्रतिशत अंकों के साथ पास की। वह दिल्ली विश्वविद्यालय के पत्राचार कोर्स से बीए द्वितीय वर्ष में पढ़ाई कर रही है। नेहा बताती है कि वह घर के कामों में हाथ बंटाती थीछोटे बच्चों को पढ़ाती थी और साथ में ही तीन घंटे स्वयं पढ़ती थी। लेकिन जिस दिन से उनकी बस्ती टूटी है वह पढ़ नहीं पा रही हैक्योंकि घर तोड़ दिये गये और लाईट का कनेक्शन काट दिया गया। क्या बेटी बचाओ,बेटी पढ़ाओ’ का नारा लगाने वाली सरकार को नेहा जैसी लड़कियों के लिए चिंता नहीं हैनेहा आगे बताती है कि उसके साथ कॉलेजों में भी भेदभाव होता हैजिसके कारण उसके एक भी दोस्त कॉलेज में नहीं है। नेहा का सपना है कि वह अध्यापक बने और बच्चों को पढ़ाये। अभी तक उसका समुदाय शिक्षा के स्तर में काफी पीछे है।
राजकुमार (पुत्र नौरंगउम्र 42 साल) बताते हैं कि उनका जन्म मॉडल टाउन का है लेकिन वे बचपन से ही शहादरा में रहते हैं। इंदिरा गांधी हत्याकांड के समय उनकी उम्र करीब 9 वर्ष की थीउससे पहले से वे इस जगह पर रहते आ रहे हैं। वे जब यहां आये थे तो फ्लाईओवर नहीं था। वे लोग सड़क के किनारे रहते थे। फ्लाईओवर बनने के बाद वे फ्लाइओवर के नीचे रहने लगे। राजकुमार बताते हैं कि उनके पास वी पी सिंह के समय का सिल्वर वाला टोकन नहीं है। लेकिन जब वी पी सिहं प्रधानमंत्री के पद से हटने के बाद आये थे तो काले रंग के टोकन बांटे थेवह टोकन उनके पास है। उनके पास 1996 से मतदाता पहचान पत्र है जो यहीं के निवास पते से बना हुआ है। लेकिन अब उन्हें यहां से भी तोड़ कर भगाया जा रहा है। राजकुमार महाराणा प्रताप का जिक्र करते हुए कहते हैं कि हमने ‘‘पहले भी अपना राज हारा और अब भी हार रहे हैं।’’ वे कहते हैं कि हम तो हिन्दुस्तानी हैंकोई विदेशी तो नहीं हैं जो हमें भगाया जा रहा है। राजकुमार की पत्नी सुमन बताती हैं कि हमने अपनी जिन्दगी को बदलने के लिए अपने चूल्हे को बंद कर अपने बच्चों को पढ़ाया है। सुमन के चार बच्चे हैंजिसमें से एक बेटा और एक बेटी कॉलेज की पढ़ाई कर रहे हैं और दो बच्चे स्कूलों में हैं। सुमन बताती हैं कि हम जो भी बनाते थे उसे बाजारों में ले जाकर बेचा करते थे। लेकिन अब घर टूट जाने से हम कुछ भी बना नहीं पा रहे हैंजिसके कारण बाजार में भी नहीं जा पा रहे हैं। सुमन बताती हैं कि बाजारों में भी हमको बैठने नहींं दिया जाता है-कहा जाता है कि यह तुम्हारा ठेहा (बाजार में एक निश्चित बैठने की जगह) नहीं हैतुम यहां से जाओ। सुमन कहती हैं - ‘‘बच्चे हमसे कहते हैं कि हमें भी स्थायी रहने की जगह चाहिएलेकिन हमारे पास कहां पैसा है कि हम घर बना पायेंहम इनको पढ़ा दे रहे हैं वही बहुत है।’’ सुमन की मांग है - ‘‘सरकार हमें यहां रहने दे या हमको स्थायी जगह दे।’’
कालीचरण (66 साल)  बताते हैं कि हम यहां पर अपनी जवानी के दिनों में करीब 40 साल पहले आये थेउस समय फ्लाईओवर नहीं बना था। हमारे बच्चों का जन्म यहीं का हैलेकिन सरकार हमें यहां से भगा रही है। हमारे बच्चों की शादी हो चुकी हैउनके भी बच्चे हो गये हैं। उनका सवाल है कि हम कहां जायेंहमारे पास तो चित्तौरगढ़ में भी कुछ नहीं है। कालीचरण के बेटे कर्मवीर ने बताया कि यहां पर वे दो भाई और मां-पिता रहते हैं। उनकी दो झुग्गियों को तोड़ दिया गयाजिसके कारण उनको60 हजार रू. का नुकसान हुआ है। कर्मवीर ने अपने आटे के टूटे हुए कनस्तर को दिखाते हुए बताया कि इसमें रखा बीस किलो आटा भी खराब हो गया। उनके बेड और बर्तन भी टूटे हुए पड़े थे। कालीचरण जन प्रतिनिधियों से बहुत निराश हैं। उनका कहना है कि कोई भी सांसदविधायकनिगम पार्षद ने उनकी सहायता नहीं की। यहां तक कि वे लोग दिल्ली के मुख्यमंत्री से मिले। मुख्यमंत्री ने कहा कि तुम लोगों के साथ गलत हुआ हैतुम लोग जाआ,े दो घंटें में टेन्ट और पानी के टैंकर पहुंच जायेंगे। लेकिन तीन दिन बाद भी उनके पास किसी तरह की सुविधा नहीं पहुंच पाई है।
इसी तरह अपने घर के आगे सफाई कर रहे राहुल ने बताया कि उनके घर को बिना किसी सूचना के तोड़ दिया गयाजिसके कारण समानों का बहुत नुकसान हुआ है। वे अपनी पुरानी बैलगाड़ी को दिखाते हुए कहते हैं कि यह मेरे बाबा-दादा की निशानी थी जिसको वर्षों से मैंने सम्भाल कर रखा थाउसको भी तोड़ दिया गया।
दिल्ली शहरी आश्रय सुधार बोर्ड द्वारा यहां चलायमान दो टॉयलेट की गाड़ियां रखी गई हैंजिसमें दोनों बस्ती के लोग जाते हैं और एक रू. प्रति व्यक्ति इसका प्रयोग करने के लिए देना पड़ता है। इस टॉयलेट के रख-रखाव करने वाले मिथलेस बताते हैं कि लोगों की संख्या के हिसाब से पर्याप्त टायलेट नहीं हैजिसके कारण यहां सुबह के समय काफी भीड़ लगती है और टॉयलेट भी गंदे होते हैं। मिथलेस ने बताया कि पहले लोग बाहर रेलवे पटरियों पर पखाना के लिए चले जाते थेजिसके कारण भीड़ कम होती थी। लेकिन अब बाहर पखाना करने पर जुर्माना लगाते हैंजिससे  लोग बाहर नहीं जा पा रहे हैं और सुबह के समय यहां स्थिति काफी खराब हो जाती है। मिथलेस का कहना था कि पहले पर्याप्त संख्या में लोगों के लिए टायलेट उपलब्ध होफिर कोई बाहर जाता है तो आप जुर्माना लगाईये। लेकिन सरकार उनकी इस बात को नहीं सुनती है।
लोगों ने बताया कि उनकी बस्ती पार्किंग बनाने के लिए उजाड़ी जा रही है। कुछ लोग बता रहे थे कि बस्ती तोड़ने में एमसीडी और पीडब्ल्यूडी दोनों के कर्मचारी थे और साथ में एसडीएम और दौ सौ की संख्या में पुलिस बल भी थी।
बस्ती के लोग एक एनजीओ की मद्द से कोर्ट में केस डालाने की तैयारी में लगे हैं। सवाल है कि जनप्रतिनिधि उनकी समस्याओं का समाधान क्यों नहीं कर रहे हैंसरकार द्वारा क्या बेटी बचाओबेटी पढ़ाओ’, ‘जहां झुग्गी वहां मकान’ जैसे नारे केवल लोगों को बरगलाने के लिए उछाले गए हैं। सरकार की सीटू पुनर्वास योजना का क्या यह मतलब है कि लोगों को उनकी बस्तियों को तोड़ कर भागाया जाय? क्या बिना पूर्व सूचना के झुग्गी बस्ती तोड़ना अपराध नहीं। लोगों की जीविका के साधन पर हमले करनाउनके बिजली और पानी के कनेक्शन को काट देना किस इंसानियत का परिचायक है।

शनिवार, 12 अगस्त 2017

63 मासूमों की मौत का जिम्मेदार है यूपी का नीरो

                   (देवेंद्र प्रताप)।
गोरखपुर बीआरडी मेडिकल कालेज में एक हफ्ते में 63 बच्चों की मौत हो गयी है। जिस दिन मोदी और योगी देश-प्रदेश की जनता को गांधी जी के भारत छोडो आंदोलन के बारे में बताकर उसका लाभ लेने के लिए उनको बेवकूफ बनाने में मशगूल थे, उसी 9 अगस्त की आधी रात से 10 अगस्त की आधी रात तक 30बच्चों ने आक्सीजन नहीं मिलने से एक एक सांस के लिए घुट-घुट कर दम तोडा। बच्चे तडप तडप कर दम तोडते रहे पर योगी सरकार मदरसों में वंदेमातरम की वीडियोग्राफी करवाकर मुस्लिमों की देशभक्ति जुटाने में एडी चोटी का जोर लगाए हुए थी।  कुछ समय पहले इसी अस्पताल में योगी ने अपने प्रमुख सचिव समेत अपनी पसंद के उच्च अधिकारियों के साथ करीब पांच घंटे तक बैठक की थी। उस समय अस्पताल में आक्सीजन की कमी की बात सामने आ गयी थी। फिर भी योगी को पता नहीं चला। आखिर गेरुआ वस्त्र कितने पाखंड ढंकेगा। पाठकों के सामने उन तथ्यों को रखना जरुरी है जिससे यह पता चल जाएगा कि यह योगी नहीं बल्कि एक ढोंगी है। यह रांग नंबर है।
‌1 अगस्त को अस्पताल में आक्सीजन की सप्लाई करने वाली कंपनी के प्रमुख ने अस्पताल प्रशासन के साथ ही डीएम को भी यह बता दिया था कि उसका बीआरडी मेडिकल कालेज पर 63 लाख का बकाया है। इसलिए वह अब आक्सीजन की आपूर्ति जारी नहीं रख सकता है। इसके बाद भी उसे भुगतान नहीं किया गया। नतीजतन  उसकी तरफ से सप्लाई बंद र दिए जाने से आक्सीजन की कमी से मरने का सिलसिला शुरू हो गया। ऐसे में यह संभव ही नहीं है कि रोज ही एक अस्पताल में 5-6 बच्चे आक्सीजन की कमी से मरते रहे और सरकार को पता ही न चले। वह भी तब जबकि योगी ने सौ प्रतिशत अपनी पसंद के अधिकारियों को विभागों की महत्वपूर्ण जिम्मेदारियां दी हैं। कुल मिलाकर यह 63 बच्चों की हत्या है।
 अंध भक्तों की शायद आज भी आंख नहीं खुले। लेकिन उन्हें भी यह समझना चाहिए कि इन बच्चों में यदि उनका भी कोई रिश्तेदार होता तो क्या वे इसी तरह अपने आका के पक्ष में खडे रह पाते?  क्या वे सबसे पहले एक इंसान नहीं हैं, पार्टी और विचारधारा तो बाद की बात है। गोदी में आक्सीजन की कमी से मरते बच्चों को देखकर क्या उनकी भी जीते जी मौत नहीं हो जाती। जरा कल्पना कीजिए अपने मर चुके बच्चे का शव लेकर अस्पताल में इधर उधर भागती मां के कलेजे पर उस समय क्या बीती होगी जब उसके मृत बच्चे के साथ उसे अस्पताल से भगा दिया जाए।
 सरकार इस मामले में कितना झूठ बोल रही है इसे समझना मुश्कल नहीं। जब सरकार से बच्चों की मौत के बारे में पूछा गया तो ट्वटर पर अपने पहले जवाब में योगी सरकार ने साफ मना कर दिया कि बच्चों की मौत आक्सीजन की कमी से हुई है। ट्विटर पर अपने दूसरे ट्वीट में सरकार ने मीडिया पर इस मुद्दे पर दुष्प्रचार करने का आरोप लगा दिया। आखिर यह कौन सी ईमानदारी की बात हुई। जब सरकार किसी कीमत पर अपनी गलती नहीं मानने पर अडी रही तो कुछ मीडिया कर्मियों ने पूरे अस्पताल में आक्सीजन को नियंत्रित करने वाने इंचार्ज कर्मी का वह पत्र सार्वजनिक कर दिया जो उसने करीब दो हफ्ते पहले लिखा था।  इस पत्र में उसने बताया था कि आक्सीजन की आपूर्ति जल्दी ही खत्म हो जाएगी इसलिए तुरंत इंतजाम किया जाए। फिर भी जब हफ्ता भर में कुछ नहीं किया गया तो कर्मचारी ने रिमाइंडर पर रमाइंडर लिखा। इसमें उसने यह भी जोड दिया कि अब रिजर्व आक्सीजन से ही काम चलेगा। जब इस पर भी सरकार के अधिकारी नहीं चेते तो वह सब शुरू हो गया जिसके चलते शनिवार की दोपहर तक 63 बच्चों की मौत हो गयी। इनमें 14 नवजातों की मौत भी शामिल है जिन्हें ढोंगी योगी की सरकार ने दुनिया में आने ही नहीं दिया। अब तो गैस सप्लायर का पत्र भी सार्वजनिक कर दिया गया है। इस पत्र में आक्सीजन गैस के सप्लायर ने काफी पहले साफ कर दिया था कि 60 लाख बकाया का भुगतान नहीं होने की स्थिति में उसके लिए सप्लाई जारी रख पाना मुश्किल होगा। फिर भी योगी सरकार नहीं जगी।
सरकार से यह भी पूछा जाना चाहिए कि यदि निको वार्ड में एडमिट 14 नवजातों  और अन्य बच्चों की मौत आक्सीजन की कमी से नहीं हुई तो योगी सरकार क्यों आक्सीजन की सप्लाई करने वाले व्यक्ति को गिरफ्तार करने के लिए पुलिस से दबिश डलवा रही है। अब आक्सीजन गैस का सप्लायर पुलिस से बचने के लिए मारा मारा फिर रहा है। अपने अपराध को योगी सरकार दूसरों के गले बांध रही है।
फिर भी योगी सरकार यदि इस मामले में अपना अपराध नहीं स्वीकारती है तो वह बताए कि आखिर क्यों आनन फानन में बच्चों के शवों का बिना पोस्टमार्टम करवाए उनके परिजनों के हवाले कर उन्हें अस्पताल से जाने को कह दिया गया। अब वक्त आ गया है कि जनता समझे कि उन्होंने जिसे वोट देकर जिताया वह रांग नंबर है।

सोमवार, 7 अगस्त 2017

पूंजीपति वर्ग का पुराना चाकर क्यों बार-बार खा रहा शिकस्त

                     (देवेंद्र प्रताप)
आज हमारे देश में पूंजीवाद  है। सत्ता पूंजीपति वर्ग के हाथ में है। वर्तमान संसदीय ढांचे में हर पार्टी मूलतः इसी वर्ग की नुमाइंदगी करती है, इसलिए जनता की नुमाइंदगी की बात सिर्फ धोखा है। चूंकि पूंजीपति वर्ग आम जनता के शोषण के दम पर ही अपनी अट्टालिकाएं खडी करता है, इसलिए उसकी पूरी कोशिश होती है कि आम जनता बंटी रहे। इसके लिए सत्ता पर काबिज शासक वर्ग जाति धर्म का इस्तेमाल जनता को बांटने के लिए करता है। जाति धर्म के नाम पर दंगे करवाए जाते हैं। वैसे तो सत्ता में रहने वाली हर पार्टी पूंजीपति वर्ग की चाकरी करती है, लेकिन जो पार्टी जनता को बांटने का काम जितना बेहतर करेगी, उतनी ही वह पूंजीपति वर्ग की वफादार होगी। जाति- धर्म के नाम पर दंगे, झगडे, अंधविश्वास पैदा कर फूट डालने का सीधा फायदा पूंजीपति वर्ग को होता है। आज जब समाज में गैरबराबरी पहले से काफी ज्यादा बढ गई है तो पूंजीपति वर्ग ने भी अपने पुराने चाकर को बदल दिया है। भगवा रंग वाला चाकर लंबे समय से जूठन पर जिंदा था, लेकिन जूठन खाते खाते उसने पूंजीपति वर्ग के तलवे चाटने के सारे गुण सीख लिए हैं। सच कहा जाए तो उसने इस मामले में पुराने वफादार को भी काफी पीछे छोड दिया है। अब उसने बाकायदा पुराना चाकर मुक्त देश का नारा दिया है। इसमें वह सफल भी हो रहा है। नई चाकर पार्टी के मुखिया ने एक बात बहुत सही कही। वह यह कि पुराने चाकर को अपनी गलतियों से सबक लेना चाहिए। लेकिन पुराना चाकर लंबे समय से चाकरी करते करते घमंडी हो गया है इसलिए नए चाकर से बार बार शिकस्त खाने के बाद भी वह नहीं सबक ले रहा है। ऐसे में यदि नए चाकर की भविष्यवाणी सच हो गई तो इससे कोई आश्चर्य नहीं होगा। वैसे भी नए भगवा चाकर के पास हिंदू मुसलमान, मंदिर मसजिद, वेद पुराण, मनु-चाणक्य जैसे अनगिनत हथियार हैं जिनके सामने पुराने चाकर की तरह उसके अस्त्र शस्त्र भी पुराने पड गए हैं।

रविवार, 6 अगस्त 2017

उल्काओं की बारिश को भी बना दिया सनसनीखेज

                     (देवेंद्र प्रताप)
12 अगस्त को होने वाली खगोलीय घटना को इलेक्ट्रानिक मीडिया के एंकर और प्रिंट मीडिया के ज्ञानी अंधविश्वास और विज्ञान की मिली जुली चासनी में लपेटकर दर्शकों के दिमाग में ठूंसने में जुटे हुए हैं। कुछ बानगी देखिए- क्या नास छुपा रहा 2017 के सबसे बड़े विनाश का सच, 12 अगस्त को नहीं होगी रात, एंड ऑफ द वर्ल्ड जैसी डरावनी प्रस्तुतियों से उन्होंने लोगों के मन में जबरदस्त डर पैदा किया है।
 टेलीविजन पर यह सिलसिला जब शुरू हुआ तो काफी समय तक तक नाशा या किसी खगोलविद् का कोई वर्जन तक नहीं दिखाया गया। बाद में जब नाशा और खगोलविदों के बयानों को दिखाया भी गया तो उसे भी अपनी डरावनी प्रस्तुतियों के बीच में ऐसे पेश किया गया जिसमें वैज्ञानिकों के दावे भी संशय पैदा करने लगे। प्रसिद्ध खगोलविद गौहर रजा ने इलेक्ट्रॉनिक और प्रिंट मीडिया व सोशल साइटों पर लगातार प्रसारित की जा रही ऐसी अंधविश्वासपूर्ण खबरों को बकवास करार दिया है। उनका कहना है कि उल्काओं का टूटना एक खगोलीय घटना है, इसे किसी भी तरह अंधविश्वास से जोड़ना ठीक नहीं है।
नाशा के वैज्ञानिकों ने लोगों से अपील की है कि वे इस तरह की झूठी अफवाहों पर ध्यान नहीं दें, लेकिन दिल है कि मानता नहीं। वैसे भी आजकल अंधविश्वास का बाजार खूब गर्म है। इसलिए भला इसे भुनाने में मीडिया क्यों पीछे रहेगा। सोशल मीडिया तो इस मामले में सबका चाचा है। इस समय यू ट्यूब पर 12 अगस्त की घटना से संबंधित दर्जनों वीडियो यू ट्यूब पर जारी कर दिए गए हैं, जो लोगों में इसके पीछे की वैज्ञानिक सच्चाई कम, डर ज्यादा पैदा कर रहे हैं। वैसे हमारे देश में टूटते तारे को देखना न सिर्फ शुभ माना जाता रहा है, बल्कि ऐसा लोगों में अंधविश्वास है कि तारे के टूटकर गिरते समय जो कुछ मांगा जाता है, वह जरूर पूरा होता है। फिर डर किस बात का भाई। इस बार तो उल्काओं की बारिश होगी। यानि लाभ ही लाभ। फिर डरने की क्या बात है? बहरहाल, नाशा ने सिर्फ इतना ही कहा है कि 12 अगस्त की रात में जब उल्कापात होगा तो कुछ उजाला होगा। हालांकि इससे पहले भी इतिहास में उल्कापात से इससे ज्यादा उजाले को देखा जा चुका है। इसलिए 12 अगस्त की रात को दिन जैसे उजाले और 24 घंटे के दिन की बात बकवास से ज्यादा कुछ नहीं है। उल्कापात तो हर साल होते हैं। एक बार नहीं तीन बार। जनवरी, अगस्त और दिसंबर में। इस बार का उल्कापात इस मायने में अलग है कि इसमें उल्काओं की संख्या ज्यादा होगी, जिससे जब वे धरती के वातावरण से टकराएंगी तो कुछ उजाला लगेगा। हालांकि चांद भी निकला होगा, इसलिए क्या पता उजाले का पता भी न चल पाए। 
जहां तक खगोल विज्ञान में दिलचस्पी लेने वालों की बात है तो उनके लिए 12 अगस्त की रात अद्भुत होगी। उल्काओं की बारिश का नजारा जबरदस्त होगा। इसलिए इसे देखने के लिए पहले से तैयारी कर लें, क्योंकि ऐसी घटना अब 92 साल बाद होगी। तब तक हम लोग मिट्टी में मिल गए होंगे। अपने कैमरे तैयार रखिए 12 अगस्त की रात को यादगार रात बनाने के लिए। 
आसमान में वैसे तो रोज ही आपने उल्का टूटकर गिरते देखे होंगे, लेकिन ये इतनी दूर होते हैं कि एक क्षण में गायब हो जाते हैं। इस बार जब 100-200 उल्काएं धरती के वातावरण से टकराएंगी तो बहुत ही सुंदर नजारा होगा। इससे डरने जैसी कोई बात नहीं है। ये उल्काएं जैसे ही धरती के वातावरण से टकराएंगीं, जलकर राख हो जाएंगी। 

शुक्रवार, 4 अगस्त 2017

यूरोप-अमेरिका दलदल में

संघर्षरत मेहनतकश के मई-अगस्त 2011 के अंक में साथी जितेंद्र का साम्राज्यवाद पर एक लेख प्रकाशित किया गया था। छह साल पहले लिखे इस लेख की प्रासंगिकता आज पहले से भी ज्यादा है। इसलिए 100 flowers इसे साभार अपने पाठकों के लिए प्रकाशित कर रहा है।

  • (जितेंद्र)
भारत के पुराणों में एक कहानी है। एक था राजा ययाति। जीवन में भरपूर सुख और ऐश भोगने के बाद जब उसका बुढ़ापा आया तो उसने वृद्ध होना नहीं चाहा। उसे लगातार सुख भोगते जाने की लालसा थी। लेकिन बुढ़ापा उसकी लालसा में बाधक बन रहा था। उसने अपनी तीनों लड़कों को बुलाया और पूछा कि कौन अपने यौवन के बदले उसका बुढ़ापा ले सकता है। दो लड़कों ने तो इंकार कर दिया लेकिन तीसरा लड़का जो संवेदनशील था, अपना यौवन ययाति को देकर खुद बूढ़ा होकर जंगल चला गया। ययाति एक बार फिर युवा बनकर हजारों साल तक जीवन का सुख लेता रहा। धन की ऐसी महिमा है कि उसकी हवस कभी खत्‍म नहीं होती है।
आज की विश्‍व पूंजीवादी व्‍यवस्‍था धनी व्‍यक्तियों का ही तंत्र है जिसका यौवन खत्‍म हुए सौ साल से ज्‍़यादा का समय बीत चुका है। अब तक तो उसे इस धरती से विदा हो जाना चाहिए था। लेकिन वो दुनिया के मेहनतकश वर्ग के यौवन की कीमत पर न सिर्फ अभी तक कायम है बल्कि बहुत मजबूती के साथ कायम है। युद्ध, आतंकवाद और भुखमरी जैसी समस्‍याएं आज अगर पूरी मानवता को अभी भी रौंद रही है तो सिर्फ इसलिए कि यह धरती एक अस्‍वस्‍थ और अप्राकृतिक व्‍यवस्‍था की गिरफ्त में है। यूरोप, अमेरिका और दुनिया के अन्‍य देशों का ताजातरीन आर्थिक संकट इसी का एक लक्षण है।

यूरोप:
यूरोप की अर्थव्‍यवस्‍थाएं पिछले छह-सात साल से लगातार आर्थिक संकट को झेल रही है। ग्रीस, पुर्तगाल, स्‍पेन, इटली और फ्रांस की जनता ने भारी तादाद में सड़कों पर उतरकर आर्थिक नीतियों का विरोध किया। यूरोप के ये देश 2008-09 की आर्थिक मंदी से अभी उबर भी नहीं पाए थे कि वे एक बार फिर मंदी के दलदल में फंस गए। मौजूदा संकट भी इतना व्‍यापक और गहरा कि यूरो मुद्रा के अस्तित्‍व पर ही सवाल खड़ा हो गया और यूरोपीय संघ की सारी चमक फीकी पड़ गई। ग्रीस लगभग दिवालिया हो चुका था, स्‍पेन और इटली भी दिवालिया होने की कगार पर है हालांकि यूरोप के केंद्रीय बैंक ने धन उपलब्‍ध कराकर समस्‍या को फिलहाल टाल तो दिया लेकिन इसके एवज में इन देशों की जनता से इसकी भारी कीमत वसूली गई थी। अब इन देशों की सरकारों को खर्च में कटौती के नाम पर उन नीतियों को लागू करना पड़ेगा जो आम जनता के जीवन को और ज्‍यादा दूभर बनाती हैं। इन नीतियों के विरोध में स्‍पेन और ग्रीस में लाखों की तादाद में जनता सड़कों पर उतर आई। ग्रीस की जनता ने अपनी संसद के सामने हजारों की संख्‍या में इकट्ठा होकर चोर-चोर के नारे भी लगाए। जनता की राय बहुत स्‍पष्‍ट है कि जिस संकट के लिए पूंजीपति और राजनेता जिम्‍मेदार हैं उसकी कीमत आम जनता से क्‍यों वसूली जाए। इस बीच ग्रीस को दिवालिया होने से बचाने के लिए कर्ज दिया जाए या नहीं यह तय करने के लिए जर्मन अधिकारी ग्रीस आए और जांच-पड़ताल की। उन्‍होंने वहां के कर्मचारियों से भी सवालात किए। ग्रीस की जनता को यह बेहद अपमानजनक और नागवार गुजरा। अतीत में ग्रीस सभ्‍यता और संस्‍कृति का केंद्र रहा है। उसने साम्राज्‍य के उत्‍थान और पतन को भी देखा है। उन्‍हें ये बर्दाश्‍त करना कठिन होता है कि यूरोप के बड़े देश और थैलीशाह पहले तो उन्‍हें भिखमंगा साबित करें, फिर उन पर कर्ज और शर्तें थोपें।
बहरहाल, इस संकट ने एकबार फिर यह साबित कर दिया कि यूरोपीय संघ का बनना और यूरो मुद्रा की जरूरत यूरोप के पूंजीपति वर्ग और खासतौर जर्मनी और फ्रांस जैसे धनी देशों की आवश्‍यकता को पूरा करने के लिए थी। जबकि यूरोप की आम जनता खासतौर छोटे और कम धनी देशों को इसकी कीमत चुकानी थी।

अमेरिका:
अमेरिका भी ऐतिहासिक आर्थिक संकट के दलदल में फंस चुका है। दरअसल वह 2008-09 की भीषण आर्थिक मंदी के दौर से कभी उबर नहीं पाया। मंदी से उबरने की झूठी घोषणाएं होती रहीं जबकि उसकी आर्थिक विकास दर एक से डेढ़ प्रतिशत से अधिक कभी नहीं हो पाया। लेकिन कर्ज के संकट को हल करने के लिए 1 अगस्‍त के दिन सरकार और विपक्ष ने मिलकर जो समझौता किया उससे अमेरिकी समाज का संकट अधिक तीखा हो जाएगा इसमें और कोई संदेह नहीं रह गया है। इस समझौते की वजह से अमेरिकी सरकार को अगले दस साल के दौरान अपने खर्चों में 2.4 खरब डॉलर की कटौती करनी पड़ेगी। जाहिरा तौर पर ये कटौतियां आम जनता के लिए होने वाले सामाजिक सुरक्षा और मेडिकल खर्चों में ही की जाएगी। हालांकि कर्ज के संकट का समाधान अमीरों पर टैक्‍स लगाकर भी किया जा सकता था क्‍योंकि अमेरिका की कुल आमदनी का 83 प्रतिशत हिस्‍सा मात्र 20 प्रतिशत लोगों की जेब में जाता है। लेकिन सरकार और विपक्ष ने उस विकल्‍प को नहीं चुना। ऐसी आर्थिक नीतियों का मतलब बहुत साफ है कि मेहनतकश जनता की गाढ़ी कमाई को 1) टैक्‍स छूट के रास्‍ते अमीरजादों तक पहुंचाना तथा 2)  तीसरी दुनिया के देशों पर कब्‍जा जमाने और दुनिया में चौधराहट कायम रखने के लिए सैन्‍य खर्च की भरपाई करना। पिछले तीस सालों के दौरान अमेरिका में इस नीति को बार-बार अपनाया गया है लेकिन वर्ष 2000 से तो लगातार यही नीति लागू हो रही है। अभी चार साल पहले अमेरिकी जनता ने देखा कि किस तरह वहां की सरकार ने उन्‍हीं वित्तीय संस्‍थानों और बैंकों को सैकड़ों-अरबों डॉलर की मदद की जिनकी बेइंतहा मुनाफाखोरी ने आर्थिक मंदी को जन्‍म दिया था। जबकि पूरी दुनिया में उन पर नकेल कसने की आवाज उठी थी। जनता ने यह भी देखा बल्कि आज भी देख रही है कि किस तरह अमेरिका पूरी दुनिया पर अपना सैन्‍य प्रभुत्‍व कायम रखने के लिए इराक, अफगानिस्‍तान, पाकिस्‍तान, मिस्र और लीबिया में खरबों डॉलर लुटा रहा है। यह सारा का सारा धन अमेरिका के ही नहीं बल्कि पूरी दुनिया के मेहनतकशों के श्रम और उनकी प्राकृतिक संपदाओं की लूट से हासिल किया गया है। इन नीतियों ने अमेरिकी समाज में अमीर-गरीब की खाई को बहुत अधिक बढ़ा दिया है। अमेरिका में आज काम करने वाली कुल आबादी का 42 प्रतिशत हिस्‍सा बेरोजगार हो चुका है। ये आंकड़ा और भी बढ़ने वाला है। स्थितियां इतनी निराशाजनक हैं कि अमेरिका के भविष्‍य को लेकर कोई भी अच्‍छी उम्‍मीद नहीं बांध पा रहा है। वैश्‍वीकरण के झंडाबरदारों के मुंह से आज सिर्फ विलाप के शब्‍द ही फूट रहे हैं। न्‍यूयार्क टाइम्‍स का थॉमस फ्रीडमैन विलाप करते हुए कहता है ''हमने शीतयुद्ध की समाप्ति को एक ऐसी विजय मान लिया था जो हमारे लिए नई समृद्धि का रास्‍ता खोल देगी। लेकिन हम गलत थे। उसने वास्‍तव में हमारे सामने अब तक की सबसे भीषण चुनौतियां पेश कर दी हैं।'' इसी तरह लंदन का मशहूर अखबार टेलीग्राफ कहता है ''इस बार हम जल्‍दी ही दोबारा मंदी के खतरों से घिर गए हैं। लेकिन इस बार हमारा सहारा बनने वाला कोई नहीं है। चीन अपने सफल घरेलू उत्‍पाद का 200 प्रतिशत कर्ज के रूप में पहले ही झोंक चुका है।''

संकट के कारण:
यूं तो आर्थिक संकट का पूंजीवाद से नाता उसके जन्‍मकाल से ही है। पूंजीवादी अर्थव्‍यवस्‍था की मूल प्रेरक शक्ति मुनाफा होता है। इसलिए मुनाफे के लिए तीव्र होड़ करना, कुछ लोगों के हाथों पूंजी या संपति का इकट्ठा होते जाना व शेष आबादी का संपतिहीन होते जाना और इस कारण बीच-बीच में आर्थिक मंदी पैदा होते रहना पूंजीवादी अर्थव्‍यवस्‍था के लिए बड़ी आम सी बात है। लेकिन मौजूदा संकट कोई आम संकट नहीं है। पूंजीवाद का संकट और मुनाफे के लिए होड़ अब एक नई मंजिल तक पहुंच गई है। आज कुछ लोगों के हाथों में पूंजी या संपति इतनी इकट्ठा हो गई है कि उसकी कल्‍पना भी आम आदमी नहीं कर सकता है। इस पूंजी में वित्तीय और सट्टेबाजी की पूंजी की मात्रा सबसे ज्‍यादा है इसलिए मुनाफे के लिए होड़ भी उतनी ही तीखी हो चुकी है। इस होड़ में जो सबसे आगे और सबसे ताकतवर व प्रभावशाली होगा वही सबसे ज्‍यादा मुनाफे का भागीदार होगा। इसी कारण पूंजी को पैदा करने वाले मजदूर और मेहनतकश तबके का शोषण और उसकी तबाही भी उतनी ही तेज हो गई है। इसलिए आज का शासनतंत्र पूरी तरह एक परजीवी तंत्र में तब्‍दील हो चुका है। गरीब देशों की तीव्र लूट के बिना अमेरिकी-यूरोपीय तंत्र आज कायम नहीं रह सकता। ठीक इसी तरह मजदूरों और मेहनतकशों की तीव्र लूट के बिना आज पूंजीपति भी अपनी हैसियत नहीं बनाए रख सकता। भारत में भी इस परिघटना को देखा जा सकता है। उदारीकरण के जिस दौर में यहां पूंजीपतियों की संपतियों में तीन गुना की बढ़ोतरी हुई, उसी दौर में मजदूरों और मेहनतकशों का शोषण भी उसी मात्रा में बढ़ा। यह परजीवी तंत्र ही दुनिया के तमाम संकटों का मूल कारण है और इसका खात्‍मा इसका एकमात्र समाधान है।