सभी की चाहत होती
है कि उसका एक अपना घर हो। लोग रोजगार की तलाश मंे महानगरों और बड़े शहरों की ओर
भाग रहे हैं जिससे कुछ शहरों की आबादी में बेतहासा वृद्धि हो रही है। यही कारण है
कि महानगरों में ज्यादा लोग किराये के मकान में रहते हैं। इस का सबसे ज्यादा फायदा
रीयल एस्टेट को हो रहा है। इसी कारण दिल्ली, मुम्बई,
बंगलोर जैसे शहरों में एक फ्लैट की कीमत इतनी ज्यादा है कि जनता की पूरी
जीवन की कमाई रहने के लिए एक घरौंदा बनाने में चली जाती है। रीयल एस्टेट में बहुत
से कारपारेट घराने, राजनीतिज्ञ और अफसरशाह अपनी काली कमाई
(ब्लैक मनी) को लगा कर कई गुना मुनाफे कमाते हैं। दिल्ली एन.सी.आर. में काफी बड़ी
संख्या में अपार्टमेंट का निर्माण किया जा रहा है जिसमंे करीब 150 से अधिक बिल्डर लगे हुये हैं।
मुनाफा मजदूरों के खून पर
बिल्डर काम जल्दी
पूरा करने के लिए छोट-छोटे ठेकदारों को अलग-अलग काम दिये रहते हैं। मजदूरों से
दिन-रात काम करवाये जाते हैं। मजूदरों की सुरक्षा पर किसी तरह का ध्यान नहीं दिया
जाता है। किसी भी साईट पर मजदूरों की संख्या के हिसाब से हेलमेट, सेफ्टी बेल्ट, जूते, ग्लव्स
नहीं होते हैं। दिखाने के लिए कुछ हेलमेट, जूते, बेल्ट तो दिखते हैं लेकिन यह संख्या मजदूरों की संख्या से कम होती है।
कोई भी दुर्घटना होने पर उसके बचाव की कोई व्यवस्था नहीं होती या ऐसी व्यवस्था
होती है जो दुर्घटना को और बढ़ावा देती है। लेकिन बिल्डरों के पास ऐसी टीम जरूर होती
है जो मजदूरों को डरा-धमका सके, दुर्घटना होने पर
लाश गायब करे और फर्जी मजदूर बनकर मीडिया के सामने बिल्डर के पक्ष में बयान दे
सके। मजदूरों के खून-पसीने का पैसे ये बिल्डर डकार जाते हैं और उसी के कुछ हिस्से
देकर शासन-प्रशासन को खरीद लेते हैं। बदले में यह शासन-प्रशासन दुर्घटना और
पर्यावरण के नुकसान होने पर बिल्डर को बचाने का काम करते हैं। बिल्डर मजदूरों को
ही नहीं, घर का सपना संजोये लोगों को भी धोखा देते हैं।
उसको समय से घर मुहैय्या नहीं कराते हैं या लागत बढ़ने के नाम पर पैसे बढ़ा दते
हैं। ऐसी ही कुछ घटनाएं सामने आई हैं।
साथी मर गया, पुलिस ने दौड़ा-दौड़ा कर पीटा
साथी मर गया, पुलिस ने दौड़ा-दौड़ा कर पीटा
नोएडा सेक्टर 75 में तीन-चार साल से कंस्ट्रकशन का काम चल रहा है। इस कंस्ट्रकशन साइट पर
कई बिल्डर हैं जिनका काम बिल्डिंग बनाने से लेकर सीवर डालना, टायल लगाना, शीशे लगना इत्यादि है। इस साइट पर कितने
मजदूर काम कर रहे हैं इसका अनुमान लगाना किसी के लिए भी कठिन काम है। बहुत सारे
मजदूर साइट पर ही बने दरबेनुमा अस्थायी झोपड़ में रहते हैं। इस झोपड़ की उंचाई 6 फीट और उसके ऊपर टीन की छत होती है। इसी छत के नीचे उनको मई-जून के 45 डिग्री तापमान में भी परिवार के साथ रहना पड़ता है। इन झोपड़ों में इनके
पास कुछ बर्तन और एक पुराने पंखे के अलावा कुछ नहीं होता। सोने के लिए टाट,
तो बैठने के लिए ईंट का इस्तेमाल करते हैं। कुछ मजदूर साइट के बाहर
किराये के रूम में 4-5 के ग्रुप में रहते हैं।
ये सभी मजदूर रोज
की तरह 4 अक्टूबर, 2015
को भी नियत समय से काम पर लगे हुए थे। मुरादाबाद के याकूब और अन्य मजदूर एम्स
मैक्स गारडेनिया डेवलपर्स प्रा. लि. के अन्तर्गत काम कर रहे थे, जिनका काम था सीवर लाईन को बिछाना। याकूब दो मजदूर के साथ बीस फीट गहरे
में उतरकर पाईप डालने के लिए मिट्टी समतल करने का काम कर रहे थे। सेफ्टी के लिए
किसी तरह का जाल या मिट्टी रोकने के लिए कोई चादर नहीं लगाया गया था। मिट्टी भी
बलुठ (दोमट मिट्टी) थी, जिससे वह अचानक काम कर रहे याकूब और उसके
साथी पर गिर पडी। दूसरे छोर पर काम कर रहा एक मजदूर तो बच गया लेकिन याकूब और उसके
एक साथी मिट्टी में दब गये। मजदूरों ने इकट्ठे होकर शोर मचाया और बचाने का प्रयास
किया। वहीं पर गड्ढे खोदने के लिए जे.सी.बी मशीन से याकूब को निकाला गया। लेकिन
बचाव के लिये आई इस मशीन से याकूब के सिर और शरीर पर जख्म हो गये। याकूब को
अस्पताल ले जाया गया जहां डाक्टरों ने उसे मृत घोषित कर दिया। मजूदरों ने हंगामा
किया तो पुलिस ने उनको खदेड़-खदेड़ कर पीटा। एम्स मैक्स गारडेनिया डेवलपर्स प्रा.
लि. के कारिन्दे मजदूरों और सुपरवाईजरों को गाड़ी में बैठा कर कहीं छोड़ आये।
घटना-स्थल पर एक बुर्जुग मजदूर डटा रहा और लगातार मांग करता रहा कि इसमें एक और
मजदूर दबा है उसे भी निकाला जाये। वह लगातार पुलिस अफसर से भी अनुरोध करता रहा कि
दूसरे मजदूर को भी निकाला जाये। एक घंटे तक इस बुर्जुग मजदूर के शोर मचाने पर
प्रशासन ने उसके बातों पर ध्यान नहीं दिया और गड्ढे में और मिट्टी गिरा दी। अचानक
वह बुजुर्ग कहीं चला गया या उसे गायब कर दिया गया। उसकी जगह पर एक नौजवान आया
जिसके शरीर पर न तो कहीं मिट्टी लगी थी और न ही उसके कपड़े गंदे थे। वह कहने लगा
कि मैं भी उसी के साथ काम कर रहा था और दोनों भागने में सफल रहे और केवल एक मजदूर
ही दबा था। इस तरह एक मजदूर की मौत रहस्य बन कर रह गया। इस साईट की न तो यह पहली
घटना है न ही अंतिम। इससे पहले भी अनेक घटनाएं घट चुकी हैं। कुछ समय पहले बिजली के
करंट से एक मजदूर की मौत हो चुकी है और न जाने कितने मौत रहस्य बन कर ही रह गये
होंगे।
यह केवल सेक्टर 75 की ही घटना नहीं है, इससे पहले कितनी
मौतें दिल्ली और एनसीआर में हो चुकी है। तीन-चार माह पहले मिट्टी धंसने से ही
समयपुर बादली में दो मजदूरों की मौत हो चुकी है। कंस्ट्रकशन साइट पर इस तरह की
घटनाएं आम हो चुकी हैं। दिल्ली एनसीआर में ही नहीं देश के विभिन्न हिस्सों में रोज
व रोज मजदूरों की मौत होती है। साइट पर मजदूरों की सुरक्षा का ध्यान नहीं रखा जाता
है और उनके बचाव के उपकरण से उनको और जोखिम होता है, जैसा
कि याकूब को निकालते समय जे.सी.बी. ने जख्मी कर दिया। वो जिन्दा भी रहे हांे लेकिन सिर पर चोट लगने
से तो मौत लाजमी है। इसी तरह की घटना 23 फरवरी,
2015 को बंगलोर के एलिमेंट्स माल के
सामने हुई। एलिमेंट्स माल के समाने सीवर
बिछाने का काम किया जा रहा था जिसमें मनोज दास और हुसैन मिट्टी में दब गये। उनको
जे.सी.बी मशीन से निकाला गया जिसके कारण एक के हाथ और दूसरे के पैर में फ्रैक्चर
हो गया। अस्पताल में मनोज का दायां हाथ काटना पड़ा।
150
बिल्डरों पर करोड़ों रूपये का लेबर सेस बाकी है। इस टेबल में कुछ बिल्डरों के ऊपर
बकाया लेबर सेस दर्शाया गया है -
बिल्डर का नाम बकाया राशि रुपये में
सुपर टेक ग्रुप 182065983
अम्रपाली ग्रुप 123710638
यूनिटेक ग्रुप 48060370
अंजरा ग्रुप 6934059
लीजिकस ग्रुप 478198925
जेपी ग्रुप 66063139
सैम इंडिया 8745314
एम्स मैक्स गारडेनिया डेवलपर्स 89681365
गायत्री इन्फ्रा प्लानर
2294658
गुलशन होम्ज 3459786
जीपेक्स ड्रीम होम्ज
4088037
टाइमस शापी 12151623
एटीएस टाउन शिप 5349510
गौक सन्स 60635703
सिक्का ग्रीन्स 10959951
स्रोत: बिल्डर रियलटी
लेबर डिर्पाटमेंट का कहना है कि बिल्डर
लॉबी ऊंची रसूख के होते हैं जिसके कारण उन पर कार्रवाई नहीं हो पाती है। जो भी
अधिकारी कार्रवाई की कोशिश करता है उसका ट्रांसफर करवा दिया जाता है। मजदूरों की
मौत केवल कंस्ट्रकशन के समय ही नहीं होती, उसके बाद भी मजदूर
बिल्डिंग को चमकाने में मरते हैं। हर वर्ष हजारों मजदूर घर की डेंटिंग-पेटिंग करते
समय मर जाते हैं। 15 सितम्बर, 2015
को पेंट करते समय लालू सिंह व एक अन्य मजदूर रोहणी सेक्टर 16
में गिरकर काल का ग्रास बन गये।
हर साल हजारों मजदूरों की मौत से न तो
शासन-प्रशासन की नींद खुलती है और न ही नागरिक समाज, न्यायपालिका,
मानवाधिकार संगठन सक्रिय होते हैं। न तो लालू सिंह की मौत पहली है और न
ही याकूब की मौत अंतिम। हमें आयरन हील का पात्र अर्नेस्ट याद आता है जो बताता है
कि हम जिस छत के नीचे बैठे हैं उससे खून टपक रहा है।
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