उस
दिन देर शाम
तक कुल 91 मजदूरों को
हिरासत में लिया
जा चुका था
जिसमें यूनियन के निकाय
के बहुत सारे
सदस्य भी शामिल
थे। इन पर
हत्या की कोशिश
और सम्पत्ति के नुकसान का आरोप लगाया
गया है। मारुति सुजुकी इण्डिया लिमिटेड की और
से 3,000 कामगारों के खिलाफ
प्रथम सूचना रिपोर्ट दर्ज की गयी
है जिसमें 55 लोगों को
नामजद किया गया
और उन सबके
खिलाफ भारतीय दण्ड संहिता की 307, 302, 147 और 149 धाराओं के
अन्तर्गत वारण्ट जारी किया
गया है। पुलिस
सभी 3,000 कामगारों की तालाश
कर रही है।
घटना
के तीसरे दिन
यानी आज शुक्रवार को नयी गिरफ्तारियाँ नहीं
हुईं और गिरफ्तार मजदूरों को 14 दिनों के
पुलिस हिरासत में भेज
दिया गया। हरियाणा के मुख्य सचिव
के आदेश से
एक पुलिस उपायुक्त के नेतृत्व में कल
एक विशेष जाँच
दल का गठन
किया गया था
जिसने आज घटना
की पुलिस जाँच
का कम शुरू
कर दिया है।
चूँकि
बुधवार की घटनाक्रम में मारुति सुजुकी इण्डिया लिमिटेड के एक
महा प्रबन्धक (मानव संसाधन) की दुर्भाग्यजनक मृत्यु हो गयी
है अतः पुलिस
इस पूरे घटनाक्रम को एक द्विपक्षीय विवाद न मान
कर सिर्फ एक
पक्ष द्वारा किये गए
एक आपराधिक कृत्य के
तौर पर ले
रही है। यह
बात हरियाणा के पुलिस
महानिदेशक आर एस
दलाल द्वारा कल घटना
स्थल पर दिए
गए इस बयान
से भी सपष्ट
है जिसमें उन्होंने दोषियों को न
बख्शे जाने और
उनके खिलाफ सख्त
से सख्त कार्रवाई करने की बात
कही है।
लेकिन
इस सरे हल्ले
गुल्ले और मृत
अधिकरी के प्रति
उमड़े स्वाभाविक सहानभूति की लहर
के बीच मजदूरों को ही सब
कुछ के लिए
दोषी तो ठहराया जा रहा है
लेकिन कोई यह
सवाल नहीं कर
रहा कर रहा
है कि बुधवार को संयंत्र परिसर में
जो हिंसा का
तांडव हुआ उसे
शुरू किसने किया?
यदि तनाव का
कारण सुबह ही
पैदा हो गया
था तो कम्पनी प्रशासन में उसे
तुरन्त ही क्यों
रफा दफा नहीं
किया और क्यों
शाम तक उसे
परवान चढ़ने दिया?
किस वजह या
किन वजहों से
मामला इस हद
तक पहुँच गया
कि उसका यह
भयंकर परिणाम सामने आया?
यदि यह मान
भी लिया जाय
कि सारा कसूर
मजदूरों का ही
है तब भी
यह सवाल बचा
रह जाता है
कि क्या कारण
है कि वे
मजदूर जो हाड़तोड़ मेहनत के बल
पर अपनी रोजी
रोटी कमाने के
लिए फैक्टरी में आते
है, अचानक इतने
निराशोंमत्त और उग्र
हो गए कि
उन्होंने अपने रोजी-रोटी, घर-परिवार और भविष्य कि चिंताओं को ताख
पर रख दिया
और मरने मारने
पर उतारू हो
गए?
यही
मारुति सुजुकी इण्डिया लिमिटेड के मानेसर संयंत्र में बुधवार के दुर्भाग्यजनक घटनाक्रम से पैदा
होने वाले ऐसे
सवाल हैं जिनके
जवाब ढूँड़ कर
ही हम ऐसी
घटनाओं की पुनरावृत्ति रोक सकते हैं।
अन्यथा इस घटनाक्रम को एक आद्योगिक विवाद कि चरम
परिणति न समझ
कर सिर्फ आपराधिक कृत्य समझने से
दूसरों के निहित
उद्देश्यों और कृत्यों के निमित्तमात्र बने कुछ
मजदूरों को सजा
तो दिलवाई जा सकती
है लेकिन कोई
वास्तविक लाभ नहीं
हो सकता है।
आखिर
ये वही मजदूर
हैं जिन्होंने एक निहायत ही बुनियादी किस्म के
संविधानसम्मत अधिकार की माँग
के लिए पिछले
वर्ष बहुत ही
शान्तिपूर्ण और निहायत ही अनुशासित ढंग तीन
चरणों में करीब
पाँच महीनों तक आन्दोलन चलाया। उस दौरान
उन्होंने बार बार
निलम्बन, बर्खास्तगी और प्रबन्धन का अनेकों प्रकार का उत्पीड़न झेला लेकिन अपना
धैर्य, एकता और
अनुशासन नहीं खोया।
क्या कारण है
की वे ही
मजदूर अब इतने
निराशोंमत्त और उग्र
हो कर आपा
खो बैठे?
जून 2011 के पहले
चरण में वे
13 दिनों तक भूखे
प्यासे फैक्टरी परिसर के
अन्दर बैठे रहे
और फैक्टरी प्रबन्धन ने पानी
और पेशाबघर तक बन्द
कर दिए थे
लेकिन वे बिना
किसी उत्तेजना के शान्तिपूर्ण धरना देते रहे।
29 अगस्त को कम्पनी प्रबन्धन द्वारा बेवजह और
एकतरफ़ा तौर पर
“गुड कण्डक्ट बाण्ड” थोपे
जाने के माध्यम से जो संकट
खड़ा किया गया,
उसके खिलाफ शुरू
हुए आन्दोलन के अगले
चरण में भी
उन्होंने वैसे ही
धैर्य और सहिष्णुता का परिचय दिया
और रोज अपनी
अपनी पाली के
हिसाब से धरनास्थल पर उपस्थित होते रहे।
लेकिन कम्पनी प्रबन्धन का रवैया
इसके ठीक विपरीत था। हड़ताली मजदूरों से सम्मानपूर्वक उनकी
समस्यायों पर बातचीत करने की जगह
वह उनकी एकता
को तोड़ने और
उन्हें धोखा देने
की कोशिश करता
रहा। हालाँकि वे संघर्षरत मजदूरों की एकता
को तो नहीं
तोड़ सके लेकिन
उन्हें थका जरूर
दिया। थक हार
कर आख़िरकार जब मजदूरों ने “गुड कण्डक्ट बाण्ड” पर हस्ताक्षर करने की बात
मान कर समझौता कर लिया तब
भी कम्पनी प्रबन्धन ने उनकी
समस्याओं को समझाने और उनसे सम्वाद कायम करने की
जगह उनसे बदला
लेने और उनकी
लौह एकता को
तोड़ने की कोशिश
में लगा रहा।
इसके
चलते न चाहते
हुए भी मारुति सुजुकी इण्डिया लिमिटेड के मानेसर संयंत्र के मजदूर
3 अक्टूबर से 21 अक्टूबर तक
संघर्ष के अन्तिम चरण में उतरे।
लेकिन तब तक
कम्पनी प्रबन्धन के कुटिल
हथकण्डे पूरी तरह
बेनकाब हो चुके
थे। हड़ताल के इस
अन्तिम चरण में
प्रदर्शित एकजुटता और जुझारूपन की भावना ने
केवल मानेसर में बल्कि
गुडग़ाँव, धारुहेड़ा, बावल और
रेवाड़ी के पूरे
औद्योगिक क्षेत्र में संघर्ष और एकजुटता की एक
नई चेतना का
निर्माण कर दिया।
इलाके की मजदूर
आबादी के समर्थन और सुजुकी के स्वामित्व वाली तीन अन्य
इकाइयों के मजदूरों के हड़ताल में
शामिल होने के
चलते जब मारुति सुजुकी में उत्पादन पूरी तरह ठप्प
हो गया तभी
जाकर कम्पनी प्रबन्धन हरियाणा सरकार की
मध्यस्तता में समझोते के मेज पर
पहुची।
इसके
पहले हुए दो
समझौतों की तरह
21 अक्तूबर को हुए
इस त्रिपक्षीय समझौते को भी
कभी मारुति सुजुकी के प्रबन्धन ने उसके शब्दों या भावना, किसी
भी रूप में,
लागू करने की
कोई कोशिश नहीं
की। उस समझौते के कुछ ही
दिनों बाद यह
पता चला की
इसके अन्तर्गत तत्कालीन यूनियन के नेतृत्व के जिन ३०
लोगों को जाँच
के लिए निलम्बित रखा गया था
उन्हें प्रबन्धन ने “फुल
एंड फाइनल सेटलमेंट” के नाम मोटी
धनराशियाँ देकर कम्पनी से इस्तीफ़ा देने को
मजबूर कर दिया
है।
इस
तरह मारुति सुजुकी इण्डिया लिमिटेड के मानव
संसाधन प्रबन्धन विशारदों ने यह
सोचा कि उन्होंने मानेसर संयंत्र में श्रम
विवाद के अन्तिम निपटारे का तुरुप
का पत्ता चल
दिया है। बुधवार के घटनाक्रम ने यह
साबित कर दिया
कि वे कितने
घातक रूप से
गलत थे। अपने
इस अनुचित और अनैतिक कृत्य से उन्होंने, एक ओर तो,
मजदूरों पास थोड़े
बहुत अनुभवों वाला जो
भी नेतृत्व था, उन्हें उससे वंचित कर
दिया, वहीँ दूसरी
ओर मजदूरों के साथ
विश्वास का सम्बन्ध कायम करने का
अन्तिम अवसर अपने
हाथ से गवाँ
दिया।
लेकिन
इस कृत्य से
पिछले आन्दोलन द्वारा अर्जित एकता को
तोड़ा नहीं जा
सका हालाँकि उसमें थोड़ी
अविश्वास की कालिमा जरूर घुल गयी।
मारुति सुजुकी, मानेसर के मजदूर
इस सदमें से
उबर गए और
उन्होंने ‘मारुति सुजुकी वर्कर्स यूनियन’ नाम से
एक नए यूनियन का पंजीकरण करा लिया।
पिछले आन्दोलन के मद्देनजर इस में अडंगा
लगाना अब नामुमकिन था। इसी यूनियन ने अप्रैल 2012 को अपना माँग पत्रक
कम्पनी प्रबन्धन
को सौपा
था और प्रबन्धन के साथ उस
पर सम्मानजनक रूप से
वार्ता करने को
उत्सुक थी। और
यही कम्पनी की ओर
से उत्पीडन को तेज
किये जाने का
कारण था क्योंकि इस सम्भावना से बचने
के लिए ही
उसने पिछले वर्ष
कड़ोड़ों रुपये (करीब
5,000 लाख डालर) का
घाटा बर्दाश्त किया था।
नवगठित
यूनियन यह चाहती
थी कि कम
से कम वह
एक बार ‘वेज
सेटलमेण्ट’ वार्ता को सफलता
पूर्वक अंजाम तक
पहुँचाए जिससे कि
कम्पनी के एक
पंजीकृत यूनियन के बतौर
प्रबन्धन के साथ
मोलभाव करने के
उसके क़ानूनी अधिकार पर मुहर
लग जाये और
निराश मजदूरों के दिमाग
से संशय और
अविश्वास की धुंध
थोड़ी छंट जाये।
इससे न केवल
नवगठित यूनियन की साख
में इजाफा होता
बल्कि कम्पनी का माहौल
सुधरता और कामकाज आसान होता। आखिर
इस यूनियन को उन्होंने अपना सब कुछ
दाँव पर लगा
कर हासिल किया
था।
लेकिन
जैसा कि विभिन्न सूत्रों से पता
चला है, कम्पनी एक इंच भी
झुकने को तैयार
नहीं थी और
अभी भी वह
नवगठित यूनियन को मजदूरों की नजर में
गिराने की अपनी
पुरानी यूनियन विरोधी योजना और
अड़ियल रवैये पर
ही कायम थी।
दुनिया भर से
अरबों डालर का
मुनाफा कमाने वाली
एक बहुराष्ट्रीय कम्पनी जिसका 30 प्रतिशत वह
इसी देश से
कमाती है, मजदूरों के वेतन में
कुछ सौ रुपये
वृद्धि करने पर
महीनों तक हीला
हवाली करती रही
और उसने मजदूरों और यूनियन नेताओं को आजिज
कर दिया। इस
घटना के तीन
चार दिन पहले
से ही आजिज
आकर मजदूरों ने सुबह
की बैठक का
बहिष्कार कर रखा
था।
ज्ञातव्य
है कि मारुति सुजूकी इण्डिया लि. को
अपने मानेसर संयंत्र में एक
साल से चले
आ रहे मजदूर
विवाद के बाद
अब मजदूरों के साथ
हुए समझौते का पालन
नहीं करने के
कारण हरियाणा सरकार के
श्रम विभाग की
तरफ से अभियोजन की कार्यवाही की नोटिस
मिल चुकी थी।
विगत २२ जून
को हरियाणा श्रम विभाग
के उप श्रमायुक्त जे पी मान
ने कहा था
कि, “औद्योगिक विवाद अधिनियम,
1947 के मुताबिक
20 मजदूरों से ज्यादा वाली प्रत्येक
कम्पनी में
एक शिकायत
निवारण प्रकोष्ठ
होना जरूरी
है। मारुति
सुजूकी के
प्रबन्धन ने
समझौते के
तहत अभी
तक वेलफेयर
कमेटी और
शिकायत निवारण
इकाई का
गठन नहीं
किया है।
इसलिए हमने
कम्पनी के
खिलाफ कार्रवाई
की पहल
की है।” इस मामले
में अगले महीने
के मध्य में
सुनवाई शुरू होने
का अनुमान था।
यही
है वह पृष्ठभूमि है जिसके मद्देनजर प्रबन्धन और मजदूरों के बीच अविश्वास और दूरी के
शत्रुता के हद
तक बढ़ जाने
के कारणों को समझा
जा सकता है।
पिछले आन्दोलन के तीन
चरणों का समाहार करते हुए
हमने कहा
था “मारुति सुजुकी के मजदूरों का शानदार संघर्ष पस्तहिम्मती के एक
अफसोसनाक वाकये से
ख़त्म हुआ है
जिसके लिए इस
विदेशी बहुराष्ट्रीय कम्पनी से कहीं
ज्यादा इस देश
और हरियाणा प्रदेश की सरकार
जिम्मेदार है। लेकिन,
... सिर्फ मारुति सुजुकी या सुजुकी की अन्य कम्पनियों में ही नहीं
बल्कि गुडगाँव, मानेसर, धारूहेड़ा, बावल और
रेवाड़ी के पूरे
आद्योगिक पट्टी में
वे मुद्दे उसी प्रकार बने हुए हैं
जिनके चलते यह
आन्दोलन पैदा हुआ
था। यूनियन न बनाने
देने की कारगुजारियाँ जारी
हैं, श्रम कानूनों का एकमुश्त उल्लंघन जारी है,
बड़े पैमाने पर ठेका
मजदूरों का इस्तेमाल जारी है, खुलेआम ओवरटाइम की चोरी
और अनिवार्य ओवरटाइम जारी है
और वह निहायत ही गैर-जनतान्त्रिक 'गुड कण्डक्ट बाण्ड’ भी
जारी है जिसके
चलते यह आन्दोलन दोबारा फूट पड़ा
था। जाहिरा तौर पर
पूरे औद्योगिक क्षेत्र में सतह
के नीचे अभी
भी वही आग
सुलग रही है
जो मारुति सुजुकी में फूट
पड़ी थी और
जिसने मानेसर के पूरे
सुजुकी रियासत को अपनी
चपेट में ले
लिया था। सुजुकी साम्राज्य अपने पैसे
की ताकत से
उस पर कुछ
समय के लिए
ही मिट्टी डाल सकता
है, सदा के
लिए नहीं।”
इन्ही
आम कारणों के साथ
सुजुकी प्रबन्धन के मजदूर
और यूनियन विरोधी रवैये और
रोज रोज के
अपमान और उत्पीड़न घटनाओं ने मजदूरों के क्रोध के
विस्फोट की जमीन
तैयार की। उस
दिन का विवाद
का आरम्भ भी
शॉप फ्लोर पर
ही घटी अपमान
की ऐसी घटना
से ही हुआ
था। कम्पनी के एक
स्थाई दलित मजदूर
को सुपरवाईजर के हाथों
अपमान का सामना
करना पड़ा था।
मजदूरों द्वारा इसका विरोध
करने पर उस
सुपरवाईजर पर कार्रवाई करने के जगह
उस मजदूर को
ही निलम्बित कर दिया
गया।
भारतीय
दण्ड विधान की
मामूली जानकारी रखने वाला
कोई व्यक्ति भी जानता
है भारत में
अनुसूचित जाति के
अपमान के खिलाफ
बेहद सख्त कानून
है और ऐसे
किसी अपराध के
आरोप मात्र से
ही गैर जमानती मामला बन जाता
है। लेकिन जैसा
कि विगत तेरह
महीनों के अनुभव
से स्पष्ट है कि
सुजुकी मोटोकॉर्प के अधिकारीयों को न तो
भारतीय कानूनों जानकारी है और
न उनके प्रति
इज्जत ही। मजदूरों को अधिक से
अधिक निचोड़ने और उन्हें हर प्रकार के अधिकारों से वंचित रख
कर बंधुआ गुलाम
की दशा में
धकेल देने की
अंधी हवस में
उस दिन भी
वे यह देखने
से चूक गए
कि पानी नाक
से ऊपर निकला
जा रहा है।
उन्होंने
प्रताड़ित मजदूर को
तत्काल निलम्बित न करके
मामले की जाँच
करने और उसे
पहले नियमानुसर “कारण बताओ”
देने के यूनियन नेताओं के अनुरोध को सिरे से
ख़ारिज कर दिया।
मामले को रफा
दफा करने की
जगह वे उस
पर दोपहर तक
अड़े रहे। इस
सरासर नाइंसाफी से खिलाफ
जब मजदूरों ने काम
रोक दिया और
हड़ताल पर जाने
की तैयारी करने लगे
तो उन्हें ऐसा करने
से रोकने के
लिए भाड़े के
बाउंसरों को बुला
लिया गया। अनेक
सूत्रों से इस
बात की पुष्टि हो चुकी है
कि इन्ही बाउंसरों ने मजदूरों को खदेड़ने के लिए मारपीट की शुरुआत की। इस
बीच अगली पाली
के मजदूर भी
संयंत्र में प्रवेश कर चुके थे
और तनाव चरम
पर पहुँच चूका
था। तब भी
यूनियन के पदाधिकारी अधिकारियों से बातचीत करने की कोशिश
करते रहे।
ऐसे
ही माहौल में
जब किसी मजदूर
ने बाउंसरों के मारपीट का जबाब दे
दिया होगा तो
यह एक खुला
खेल बन गया।
उसके बाद क्या
हुआ यह हम
सबको पता है।
लेकिन यह किस
क्रम से हुआ
और इसके पीछे
ठीक ठीक कौन
से कारण थे
इसका पता तो
एक निष्पक्ष जाँच से
ही चल सकता
है, किसी पुलिसिया ताफ्दीश से नहीं।
गुडगाँव के विभिन्न ट्रेड यूनियन के नेताओं ने ऐसे ही
निष्पक्ष जाँच की
माँग की है।
यह
भी जाँच का
विषय है कि
किस प्रकार फैक्टरी परिसर में
पाँच जगह आगजनी
होने के बावजूद प्रोडक्शन लाइन को
कोई क्षति नहीं
पहुँची। इससे कुछ
ट्रेड यूनियन संगठनों के इस
आरोप को बल
मिलता है कि
मजदूरों और यूनियन को बदनाम करने
के लिए यह
सारा बवाल कम्पनी प्रबन्धन द्वारा पूर्व नियोजित था, हालाँकि मजदूरों के बेकाबू हो जाने यह
उनके नियन्त्रण से बाहर
चला गया। अगर
ऐसा कुछ भी
है तो यह
बहुत ही गम्भीर बात है और
यह वहाँ के
प्रबन्धन के षड़न्त्रकारी तौर तरीकों और आम
मजदूर विरोधी रवैये से
जुड़ती है।
बहरहाल,
सच्चाई सिर्फ एक
विश्वसनीय और निष्पक्ष जाँच से ही
सामने आ सकती
है। हिंसा का
कत्तई समर्थन नहीं किया
जा सकता है।
लेकिन उन परिस्थितियों और
कारणों का भी
समर्थन नहीं किया
जा सकता है
जो कल तक
शान्तिपूर्ण आन्दोलनरत रहे एक
अनुशासित समूह को
हिंसक भीड़ में
तब्दील कर दे।
फ़िलहाल
जरूरी है कि
मारुति सुजुकी इण्डिया लिमिटेड, मानेसर के उत्पीड़ित मजदूरों की हर
सम्भव मदद की
जाये और उनपर
एकतरफा पुलिस कार्रवाई की पुरजोर मुखालफत की जाये।
मानेसर में हुई
बुधवार की हिंसा
की घटना को
एक द्विपक्षीय मामला मानने
और उस दिन
के घटनाक्रम और उसकी
पृष्ठभूमि की एक
विश्वसनीय और निष्पक्ष जाँच करवाने की माँग
को भी हर
सम्भव तरीके से
उठाए जाने की
भी जरूरत है।
इस घटना ने
नव उदारवाद के प्रवक्ताओं को संचार माध्यमों में निरन्तर मजदूर विरोधी प्रलाप करते जाने
का का मौका
दे दिया है।
अतः उन थोथे
तर्कों का खण्डन
और मारुति के उत्पीडित मजदूरों के पक्ष
में जनमत तैयार
करना भी जरूरी
है।
साभार
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