रविवार, 22 मई 2022

महराज यह तो गजब का देश है...


नीचे नजर आती
ब्रम्हपुत्र (सियांग) नदी
महराज यह तो गजब का देश है! यहां महिलाएं करघे पर बुनी चमकीली लुंगी पहनती हैं और अपने पतियों से उम्र में बड़ी हैं। अधिकांश पुरूष घर से निकलते समय कोई न कोई हथियार लेकर चलता है और दूसरे राज्य से यहां आने पर परमिट लेना पड़ता है। यह यात्रा संस्मरण सियोम घाटी के पूर्वोत्तरीय सीमांत इलाके मेचुखा का है। इस यात्रा के साथी धीरज थे, जो परम हनुमान भक्त तथा टाइट जनेऊधारी पंडित होने के कारण ब्रम्हचारी बने हुए हैं, लेकिन दिल मचलता रहता है। चलते समय हम लोगों के मित्रों ने इनसे कहा कि वहां शादी की संभावना बन सकती है, तो साहब अरुणाचल प्रदेश के आलो कस्बे में रात को एक सैलून में बाल और मूंछ रंगा के नौजवान बन गए।

                         सुरेंद्र विश्‍वकर्मा

1. 
पूर्वी असम के आखिरी रेलवे स्टेशन मुरकंगसेलेक से यात्रा का आगाज
26 अप्रैल, 2022 की रात गुवाहाटी से पूर्वी असम के आखिरी रेलवे स्टेशन मुरकंगसेलेक की यात्रा से इस यात्रा का आगाज होता है। असम राज्य पांच हिस्सों में बंटा है, जिसमें ऊपरी असम के इलाकों की खूबसूरती अभी बची है और आबादी का घनत्व भी बहुत कम है। बाकी के हिस्सों के जंगल को पूंजी के प्रकोप ने काट कर प्लाई बोर्ड बना दिया है और अब जमीन के नीचे दबे कोयले की बारी है।

नौगांव के आगे ऊपरी असम का इलाका 

आकाश से चूता ही रहता है पानी
नौगांव के आगे ऊपरी असम का इलाका शुरू होता है, जो काफी विरल आबादी वाला हिस्सा है। गांव के घर कंक्रीट की जगह बांस के बने होते हैं और उन्हें ताड़ के पत्तों से छाया जाता है। इस तरह के घरों में खाना बनाने से लेकर पखाना करने तक की सभी सुविधाएं होती हैं। एक छोटे परिवार के लिए इस तरह की झोपड़ी बनाने में 50-60 हजार रुपये की लागत आती है। घर के साथ ही लगा हुआ खेत होता है, जिसे बांस की ठठरियों से घेर दिया जाता है। जहां पानी जमा हो जाए वहीं गढ़ई या पोखरी बन जाती है, क्योंकि इस भूभाग में तो आकाश से पानी चूता ही रहता है और बांस इतना है कि पोखरी को घेरने में देर नहीं करते हैं, फिर मछली रानी पोखरी से रसोई में और फिर सुबह खाद बनने खेत में, फिर धान की फसल ऐसी लहलहाती है कि पूछिये मत!

रोजाना सुबह 20-25 मिनट में कट कर बिक जाते हैं तीन-चार सुअर
अधिकतर लोग घर के पीछे सुअरबाड़े में सुअर भी खूब पालते हैं, लेकिन साफ-सफाई का बहुत ध्यान रखा जाता है। एक छोटे से कस्बे में रोज सुबह 20-25 मिनट में तीन-चार सुअर कट के बिक जाना आम बात है। यहां 50 किलो के वयस्क सुअर की कीमत 13000 रुपये तथा मछली 200 रुपये किलो के भाव से बिकती है।

रेलगाड़ियों के आने-जाने के लिये एक ही रेलपटरी पर चलाने का रिवाज
असम में रेलगाड़ियों के आने-जाने के लिये एक ही रेलपटरी पर चलाने का रिवाज है, जिसके कारण महज 500 किलोमीटर की दूरी को 11 घंटे में तय करना निर्धारित किया गया है। फलस्वरूप एक्सप्रेस गाड़ी को हर स्टेशन पर आराम करने का पर्याप्त समय मिल जाता है और यात्री भी प्लेटफार्म पर तफरीह कर लेते हैं और हमारे जैसे लोग उपरोक्त वर्णन के लिये कस्बे का चक्कर भी लगा आते हैं, क्योंकि जब तक दूसरी गाड़ी नहीं आयेगी तो हमारी वाली के जाने का सवाल ही नहीं उठता है। कहा जा रहा है कि दूसरी पटरी बिछाने के लिये सरकार के पास पैसा नहीं है, लेकिन जिस तरह मोदी जी खाने के पैकेट से लेकर देश के गली-मुहल्ले में अपनी मुस्कान बिखेर रहे हैं तो यहां के मुख्यमंत्री उनसे एक कदम आगे गुवाहाटी रेलवे स्टेशन को अपने बड़े-बड़े होर्डिंगों से पटवा दिया है। न जाने इस तरह के प्रचार में कितना रुपया फूंका जाता है। इस तरह की भड़ैती करने की जगह 56 इंच के सीना वाले हमारे कद्दावर प्रधानमंत्री जी थोड़ी हिम्मत करें तो केवल सरकारी बैंकों के एनपीए की वसूली से सात लाख करोड़ रुपये से अधिक की रकम मात्र कुछ दिनों में इकट्ठा कर सकते हैं, जिससे देश की सभी परियोजनाओं के लिये धन की कोई कमी नहीं होगी और यदि आम आदमी के बराबर कारपोरेट घरानों से भी टैक्स वसूलें तो वल्ड बैंक, वर्ल्ड ट्रेड आर्गनाइजेशन जैसे फंदे बाजों से हमेशा के लिये गला छूट जाएं। असम के हर चुनाव में रेलपटरी का मुद्दा भी होता है और चुनाव से पहले हर पार्टी वादा भी करती है, देखें इस बार के वादे का क्या होता है।

2. 
इसी से पता चलता है कि देश में बेरोजगारी का क्या आलम है
मुरकंगसेलेक में मौसम बहुत सुहावना था और सुबह के आठ बज रहे थे। सूरज निकले लगभग साढ़े चार घंटे हो गये थे फिर भी हल्की-हल्की ठंड लग रही थी। मुरकंगसेलेक इस दिशा का आखिरी रेलवे स्टेशन है। जहां रेल की पटरी खत्म होती है उससे थोड़ा आगे रुकसिन नामक कस्बा है, वहां से पासीघाट की गाड़ी आसानी से मिल जाती है। स्टेशन के बाहर रेलगाड़ी से उतरने वालों की संख्या के लगभग बराबर इलेक्ट्रिक रिक्शे वाले आपका इंतजार कर रहे होते हैं, फलस्वरुप यात्रियों की खींचातानी भगदड़ का स्वरूप ले लेती है और दोनों पक्ष कुत्ते की तरह जीभ निकाल कर हांफने लगते हैं। इसी से पता चलता है कि देश में बेरोजगारी का क्या आलम है।
रुकसिन के आगे आबादी लगभग रुक सी जाती है, कहीं-कहीं इक्का-दुक्का घर और धान के खेत दिखाई देते हैं। इस बार मार्च से ही पानी बरसाने लगा था। इसलिये कुछ लोगों ने धान की रोपाई कर दी थी। इसके अलावा सुपाड़ी के बाग थे तो वहीं ताड़ महाशय अनायास ही दाएं-बाएं सिर उठाये खड़े थे। आजकल ताड़ के सुपाड़ी की मांग ज्यादा है। कुछ लोगों ने पाम के बाग भी लगाएं हैं और राज्य सरकार इसके बीज को खरीद भी लेती है, लेकिन तेल नहीं निकालती है। साथ बैठे ग्रामीणों को तेल न निकालने के बारे में कुछ खास नहीं पता था।

अरुणाचल में प्रवेश के लिये इनर लाइन परमिट
पोबा संरक्षित वन क्षेत्र के शुरू होते ही असम की सीमा का आखिरी पड़ाव आ गया। अरुणाचल प्रदेश में दूसरे राज्यों के लोगों को प्रवेश करने के लिये इनर लाइन परमिट दिखाना पड़ता है, जो कि अब आनलाइन भी बन जाता है। पोबा के जंगल में बांस और बेंत की झाड़ियां थीं यहां एक इंच से लेकर 10 इंच तक के बांस के पेड़ थे। एक घंटे की यात्रा के बाद पासीघाट आ गया, यह बड़ी जगह है। आगे जाने वाली गाड़ी ग्यारह बजे की थी, लिहाजा खाना खाने और घूमने निकल पड़े। ब्रम्हपुत्र नदी को अरुणाचल प्रदेश में सियांग नाम से पुकारा जाता है। सियांग नदी के किनारे बसा पासीघाट पूर्वोत्तर की ओर के पहाड़ों की तरफ जाने का प्रवेश द्वार है। सब कुछ इसी रास्ते ऊपर की ओर जाता है। दुकानें उत्तर भारत जैसी ही हैं, लेकिन अधिकांश छोटी दुकानों में बेचने और खरीदने के कामों में महिलाएं ही नजर आ रही थीं। सब्जी, ताम्बूल (छिलका सहित सुपाड़ी), पान का पत्ता, गन्ने के गुड़ का ईंट, लाई साग (सरसों जैसा), कोउ पत्ता (चावल के आटे के घोल को कोउ पत्ता पर फैला कर पत्ते को मोड़ दिया जाता है और फिर इसे खौलते पानी में उबालते हैं। तैयार पीठे नुमा रोटी को सुबह नास्ते में खाया जाता है), लिंगड का साग और कई तरह के पहाड़ी साग, केले का दिल (फूल), सूखी मछलियां, कीनू, संतरा आदि स्थानीय उत्पाद यहां की हर सब्जी बेचने वाली महिला अपने दुकान पर रखती है। अरुणाचल प्रदेश के तराई और ऊंचाई के लोग कीनू और सन्तरे के बाग लगाते हैं तो वहीं केले के जंगल अपने आप उग आते हैं। आजकल यहां के ऊंचाई वाले इलाकों में कीवी और सेब के बाग लगाने की कोशिश भी हो रही है।

ब्रम्हपुत्र (सियांग) नदी का मनमोहक नजारा
नीचे घाटी में सियांग नदी

पासीघाट से पहाड़ शुरू होता है। नदी के साथ थोड़ा ऊपर जाने पर सियांग नदी की मुख्य धारा के अलावा सैकड़ों अन्य जल धाराएं जाल की शक्ल में 30 से 35 किलोमीटर के फैलाव में फैली नजर आती हैं। यह दृश्य इतना मनमोहक होता है कि यहां से हिलने की इच्छा नहीं होती है। दो घंटे की यात्रा के बाद एक बांस और ताड़ के पत्तों से बनी झोपड़ी में दोपहर का खाना हुआ। इस झोपड़ी नुमा घर के नीचे घाटी में तिब्बत से आने वाली सियांग नदी बहुत फैलाव के साथ शोर मचाते हुए बह रही थी। कोमसिंग गांव के पास सियांग की सहायक नदी सियोम हमारी पथप्रदर्शक बन गई। कोमसिंग से आलो तक रोड की चौड़ाई को बढ़ाने के लिये पहाड़ की कटाई की जा रही थी और ऊपर से बादलों की मेहरबानी, फलस्वरूप लगभग 25 किलोमीटर का रास्ता कीचड़ से लबालब भर गया था। इसी में काम करते मजदूर, जिनमें से अधिकांश असम के चाय बागानों में काम करने वाले परिवारों से आते हैं। इनकी जिंदगी में एक बार बहार (चारु मजूमदार की अगुवाई में चले नक्सलबाड़ी आन्दोलन से उपजी चेतना) आती दिख रही थी, लेकिन ऊपरवाले (यदि हो!) से वो भी देखा न गया, अब तो वह आंदोलन समाज में एक गाली बन गया है। आलो या अलोंग तक पहुंचते-पहुंचते घाटी बहुत फैल गई है, इसलिये इसे पश्चिमी सियांग जिले का जिला मुख्यालय बनाया गया है। शाम के चार बज गये थे, लिहाजा यात्रा को विराम दे दिया गया। शहर की ऊंचाई 700 मीटर से अधिक नहीं है, फिर भी हल्की ठंड जैसा मौसम था। मेचुखा अभी मोटरगाड़ी से 7 घंटे की दूरी पर था, इसलिये अगले दिन सुबह साढ़े पांच बजे की चारपहिया वाहन में आगे की दो सीट बुक करवा लिया गया।

3. 
गालो और आदि जनजाति का धर्म
'आलो', गालो और आदि जनजाति का एक बहुत बड़ा कस्बा है। बहुसंख्यक आबादी की मान्यताओं में डोनीपोलो (सूर्य-चंद्रमा) धर्म है, जिसे लगभग 50 वर्ष पूर्व एक बार फिर से संसोधित करके जीवित किया गया है। इनके मतावलंबी दहकते लाल रंग का सूर्य (डोनी) और बैकग्राउंड में सफेद रंग मतलब चंद्रमा (पोलो) का एक बड़ा सा झंडा अपने घर के दरवाजों पर लगा कर इस धर्म का अनुयायी होने की घोषणा करने से गुरेज नहीं करते हैं। इनकी तुलना में बौद्ध वाले एक पतली सी लंबी झंडी फुरफुराते हैं तो वहीं ईसाई समुदाय अभी झंडे की खोज में लगी हुई है। आलो कस्बा बहुत फैली हुई घाटी में है, इसलिये जिला मुख्यालय है। यहां के बहुत सारे लोगों को सरकारी नौकरी मिली हुई है। जो व्यक्ति सरकारी नौकरी में होता है उसके निश्चित आय से उसका परिवार तो खाता ही है साथ में तीन-चार अन्य परिवारों का गुजारा कपड़ा, सौंदर्य प्रसाधन, सब्जी, राशन इत्यादि बेचकर चल जाता है। वहीं प्राइवेट सेक्टर की नौकरी से खुद के परिवार का ठीक-ठाक गुजारा हो जाए वही बड़ी बात है।

जनजातियों में सेना की स्वीकार्यता के लिए कैंटीन
कस्बे में थल और वायु सेना वाले भी बड़ी संख्या में दखल रखते हैं। वायु सेना की एक हवाई पट्टी भी है, जिसमें रंगरूट लोग सुबह-शाम दौड़ने, चलने के साथ-साथ वर्जिश भी करते हैं। इनमें कुछ बुजुर्गवार भी अपनी चर्बी गला रहे थे, शायद अफसरान होंगे। फौज की एक कैंटीन भी है जहां आम नागरिक सुबह, दोपहर और शाम को बहुत कम दाम पर अपना पेट भर सकते हैं। खाना बनाने के लिए एक फौजी को लगाया गया है, जिसका वेतन 60,000 रुपये प्रति माह है। संभवतः यह पहल जनजातियों में सेना की स्वीकार्यता के लिए किया गया होगा। सवारी गाड़ी चलाने को छोड़कर अन्य कामों में महिलाओं का दखल कुछ ज्यादा ही है। असम के दुकानदार भी हैं तो इक्का-दुक्का बिहार के निवासी फल, सब्जी, बहुत तेज बसाती सूखी मछली और रोजमर्रा के समान के साथ दुकान लगाए बैठे हैं।

हर पुरूष के पास एक फुट लंबा चाकू और हिंदी के गाने बेहद पसंद
स्थानीय पुरूष जब भी घर से निकलते हैं तो कंधे पर लगभग एक फुट लंबा चाकू लटकाते हैं, जिसका फल बेंत के म्यान में होता है, वहीं महिलाएं चमकदार लुंगी में लकदक करती फिरती हैं। सभी हिंदी भाषा अच्छी तरह बोल और समझ सकते हैं, गाड़ियों में हिंदी के गाने बजते हैं। दो स्थानीय और एक हिंदी भाषी हो तो बातचीत हिंदी भाषा में होगी न कि बंगालियों की तरह कि दोनों बंगाली अपनी भाषा में बात करने लगें और उनका तीसरा मित्र केवल उनका मुंह देखता रहे।

4. 
नजारा कुछ ऐसा कि देखने वाला उसमें खो जाए
28 अप्रैल, 2022 को सुबह गाड़ी चली तो पांच मिनट में ही आलो कस्बा पार हो गया और दूर तक फैले खेतों के दर्शन हुए, अभी धान की रोपाई नहीं हुई थी, लेकिन महिला और पुरूष पांव में रबर का लांग बूट चढ़ाए और सिर पर हैट बांधे खेतों को रोपने के लिए तैयार करते नजर आ रहे थे। खेतों के साथ लगे पहाड़ों के निचले हिस्से में अनायास उगे केले के जंगल, उसके ऊपर अत्यधिक वर्षा वाले घनघोर वन और कुछ पहाड़ों के उन्नतांश पर बर्फ की छींटाकशी। यही हाल बहुत फैल कर बह रही सियोम नदी के दूसरी ओर का भी था। नजारा कुछ ऐसा था कि देखने वाला बस उसमें खो जाए, लेकिन इन सबसे अलग गायों के बड़े-बड़े झुंड सड़क पर बैठ कर निर्लिप्त भाव से पगुरी कर रहे थे। मानो कह रहे हों कि ज्यादा हार्न-फार्न न बजाओ, रोड क्या हमसे पूछ कर बनाई गई थी, सूखी जमीन है इसलिये सबसे पहले हमारा अधिकार है और ज्यादा चूं-चपड़ न करो। यदि हमें कहीं खरोंच भी लग गई तो मेरी मालकिन मेरे होने वाले बच्चे के बच्चे का हर्जाना निकलवा लेगी, इसलिये चुपचाप गाड़ी सड़क के नीचे उतार कर ले जाओ।

कायिंग गांवः 100 रुपये में इतना केला कि पांच दिन तक खाते रहे
इन्हीं नजारों में दो घंटे चलने के बाद कायिंग गांव आ गया, यहां सुबह के नास्ते से फारिग होने के बाद 100 रुपये में बहुत ही मीठा ढेर सारा केला खरीद लिया, जिसे हम पांच दिन तक खाते रहे। केला खरीदते समय कस्बे के एक सरकारी स्कूल में पिछले 25 साल से हिंदी पढ़ा रहे पटना के एक मास्टर जी से मुलाकात हो गई। ज्यादा बातचीत का वक्त नहीं था, लेकिन अरुणाचलियों के हिंदी बोलने और समझने का राज समझ में आ गया। यहां से आगे सड़क कटाई के कामों में स्थानीय महिला और पुरूष दोनों लगे हुये थे। वहीं मशीन चलाने की जिम्मेदारी बीआरओ तथा झारखंड के मजदूर निभा रहे थे। जो सरकारी मुलाजिम हैं उनका जिक्र ही क्या, लेकिन झारखंड के मजूर 18,000 रुपये में तो स्थानीय 15,000 रुपये में अपना श्रम एक महीने के लिए बेंच रहे थे। 12 बजने से पहले ही शि-योमी जिले का मुख्यालय टाटो आ गया। यहां से एक रास्ता नदी किनारे-किनारे मेचुखा को तो दूसरा रास्ता नदी पार एक दूसरी घाटी मोनीगोंग को जाता है। दोपहर के भोजन के बाद पहाड़ की चढ़ाई शुरू हो गई। अरुणाचल प्रदेश के पश्चिमोत्तर भाग के वनों की अपेक्षा पूर्वोत्तर के जंगल अत्यधिक घने हैं। चौड़ी सड़क के बनते ही इसका व्यावसायिक दोहन शुरू हो जाएगा।

मेचुखा कस्बे का चौराहा
मेचुखा: विशाल घाटी नुमा एक कस्बा
दो-ढाई घंटे की यात्रा के बाद हमारी मंजिल मेचुखा आ गई। विशाल घाटी नुमा एक कस्बाई शहर, बीच से इठलाती हुई बहती एक नदी, दाएं-बाएं की बर्फिली चोटियां बदलों से खेलती हुईं, नजारे देखें कि पांच दिन के प्रवास के लिए अपने मेजबान को ढूंढें, दिल की इच्छाओं को दबाकर पूछते-पाछते आखिरकार मैडमात के आलीशान बंगले में पहुंच गए। निजता के मद्देनजर मेजबान का परिचय नहीं दे रहा हूं। मेल-मिलाप और कुछ पेट पूजा को तुरंत निपटा, हम दोनों मित्र सियोम नदी की ओर चल पड़े। बर्फीली चोटियों और पहाड़ी जंगलों से बहुत सारे बड़े-बड़े नाले निकले हैं, जिनका आखिरी पड़ाव नदी है। ऐसे ही दो नालों के ऊपर बने पुल को पार करने के बाद सेना की छावनी आ गई। छावनी के बाद एक पगडंडी नदी की ओर जाती है, जहां स्टेडियम जैसा कुछ बन रहा था। यहां काम करने वाली लड़कियां और महिलाएं नदी के दूसरी ओर मेम्बा जनजाति के सबसे पुराने मूल मेचुखा गांव से आती हैं, जिन्हें 350 रुपये मजदूरी मिलती है। सूरज डूबने वाला था, लिहाजा काम बंद हो गया और सभी झूले के पुल से नदी पार अपने गांव को चल पड़ीं। इनके गुजरने के बाद हम भी पुल पर आ गए। नदी चौड़ी होने के साथ गहरी भी थी और बहाव बहुत तेज था। पानी इतना साफ कि बीस फुट की ऊंचाई से तलहटी में बैठे पत्थरों के टुकड़े तक साफ दिखाई दे रहे थे।

5. 
सवाल भी ऐसे कि सामने वाले का संदेह गहराने लगे
मेचुखा जैसे दुर्गम कस्बे मेंय वो भी बरसात में दिल्ली से केवल घूमने के लिये आना अड़ोसी- पड़ोसी तो दूर मेजबान के रिश्तेदारों को भी हजम नहीं हो रहा था। जैसे ही हम लोग घूम फिर के वापस पहुंचे एक-एक करके लोगों का जिरह के लिए आना शुरू हो गया। इसमें मुझे मजा भी आता है और इस परिस्थिति का इतना आदि हो गया हूं कि सामने वाला कुछ पूछे उससे पहले अपने सवाल दागते रहो। सवाल भी ऐसे कि सामने वाले का संदेह गहराने लगे। मसलन, क्या करते हैं, शिक्षा कितनी है, कितने बच्चे हैं, बच्चों के शिक्षा की स्थिति क्या है, आपके पिताजी के कितने बच्चे थे, यहां के मूल निवासी हैं, यदि नहीं तो कहां से और कब आए, खेती में क्या-क्या उगता है, सरकारी अस्पताल और स्कूल-कालेज की क्या दशा है, नदी कहां से निकलती है, आखरी गांव कितना दूर है, सीमा किन-किन दिशाओं में और कितनी दूर है, कस्बे की आबादी तथा धार्मिक स्थिति क्या है, इत्यादि। सामने वाला इन सवालों में ही बौड़ियाने लगता है, इसके बाद बताऊं कि मैं प्रिंटिंग प्रेस में प्लेट, केमिकल और इंक बेचता हूं, तो उसे मेरे इस सीधे-साधे जवाब पर कतई भरोसा नहीं होता है, वह प्रवास के आखिरी दिन तक अपने नए-नए प्रश्नों के साथ मुझे टटोलने में लगा रहता है। ऊपर से मेरा चेहरा और पहनावा सैलानी की जगह कोई सरकारी मुलाजिम होने की चुगली करता है।

1995 तक सामूहिक नरसंहार का दौर चला था
मेचुखा में मेब्बा और आदि दो जनजातियों के लोग निवास करते हैं। सियोम नदी के उस पार मेब्बा लोगों की बस्तियां हैं तो इस पार आदि लोग निवास करते हैं। आदि, मेब्बाओं की अपेक्षा अधिक समृद्ध हैं। परंतु, आदि यहां के मूल निवासी नहीं हैं, संभवतः चार-पांच पीढ़ी पहले मोनीगोंग से यहां आकर बसना शुरू हुए हैं, जिसके कारण 1995 तक सामूहिक काटाकूटी (नरसंहार) का दौर भी चला था। रात के अंधेरे में एक व्यक्ति दूसरे कबीले के छोटे बच्चे से लेकर बुजुर्ग और महिला सभी को काट डालता था, इस व्यक्ति को अपने कबीले में योद्धाओं जैसा सम्मान दिया जाता था। पूर्वोत्तर भारत की लोकगाथाओं में इस तरह के सैकड़ों लोगों का जिक्र आता है, जो यहां के जनमानस में बहुत ही सम्मानित हैं। खैर काटाकूटी के दौर गुजरे तीनदशक होने को आए हैं, लेकिन जमीन को लेकर असंतोष अभी भी बरकरार है। जब इस तरह की कोई बात उठती है तो संख्या में थोड़े कम आदि जनजाति वाले मोनीगोंग से अपने साथियों को बुलवा लेते हैं, जिन्हें यहां तक पहुंचने में 6-7 घंटे लगते हैं। लगभग इतना ही समय मेम्बा लोगों को अपने फैले हुए गांवों से एकत्र हो झूले वाले पुल से नदी पार कर पहुंचने में लगता है। लेकिन, शिक्षा धीरे-धीरे दोनों समुदायों को करीब ला रही है, किन्तु दसवीं के आगे पढ़ने के लिए कोई शिक्षण संस्था नहीं है। मोनीगोंग, जहां से आदि लोग मेचुखा में आए हैं, मेचुखा से लगभग 120 किलोमीटर दूर तिब्बती बार्डर से लगा एक गांव है। मेम्बा और आदि लोग भी मेचुखा या मोनीगोंग के मूल निवासी नहीं हैं, ये लोग भी तिब्बत से आएं हैं। कुछ 1956 से पहले, तो कुछ सैकड़ों या हजारों साल पहले विस्थापित हुए थे, लेकिन शुरुआती विस्थापन कब और क्यों शुरु हुआ, इस सवाल का जबाब उपरी असम से लेकर अरुणाचल तक मुझे किसी से नहीं मिला, बस सबके जेहन में है कि हमारे पुरखे-पुरनियां तिब्बत से आए थे।

ईसा पूर्व 2200 से शुरू हुआ था विस्थापन
बहरहाल मेरे पास हिमालय के उस पार से विस्थापन कब से और क्यों हुआ, इसका एक ठीक - ठाक जवाब है। भूगर्भीय समय पर नजर रखने वाली एक अधिकृत संस्था इंटरनेशनल कमीशन आन स्टैटीग्राफी ने जुलाई 2018 में मेघालयन नामक एक शोध प्रस्तुत किया। इसके मुताबिक, विस्थापन ईसा पूर्व 2200 से अब तक जारी है और इसकी शुरुआत एक बहुत भीषण सूखे से होती है, जिसनें मिस्र, मेसोपोटामिया, चीन और हिंदुस्तान की सभ्यताओं को कुचल कर रख दिया था। यह भीषण सूखा संभवतः महासागरों और वातावरण में आए बदलावों की वजह से पड़ा था। हिमालय के उस पार से पलायन की शुरुआत आज से लगभग 4200 साल पहले शुरु हुए इसी सूखे से होती है, फिर आवाजाही का दौर 1956 में भारत-चीन के बीच तनाव तक चला था। कायदे से इस रिपोर्ट के आने के बाद सरकार को हिमालय के प्रचलित गिरिद्वारों से डीएनए सैंपल की खोज और जांच करनी चाहिए थी, लेकिन उसे खलनायक सिनेमा के फूहड़ गाने चोली के पीछे क्या है की तर्ज पर मस्जिद के नीचे क्या है पर गुनगुनाने में मजा आ रहा है! मेचुखा कस्बे में एक निर्माणाधीन अस्पताल हैं, तो वहीं शराब की अनगिनत दुकानें हैं। अन्य राज्यों की अपेक्षा अरुणाचल में शराब आधे दाम पर बिकती है।
सियोम नदी पर बना झूले वाला पुल

इस पीढ़ी में भी 3-4 बच्चे
दसवीं तक विद्यालय होने कारण आबादी पर थोड़ा नियंत्रण लगा है और इस पीढ़ी के लोग 3-4 बच्चे पैदा कर रहे हैं, अन्यथा पिछली पीढ़ी वालों में 8-10 बच्चे होना आम बात थी। कस्बे के जितने भी परिवारों से मुलाकात हुई, उसमें महिला की उम्र अपने पति से अधिक थी। खुद हमारी मेजबान मैडम अपने पति से दो साल बड़ी हैं और अपने शादी का प्रस्ताव दसवीं में पढ़ते समय अपने नाबालिग हमसफर के सामने रखा था। फिर महोदय 6 महीना अपने होने वाले ससुराल में खटकर अपनी योग्यता को साबित किया। शादी में हुजूर के परिवार ने पांच मिथुन भेंट दिया, जो भोज में आए लोगों के पेट में हजम हुआ। हमारे प्रवास के दौरान कस्बे में एक शादी थी, जहां 10 मिथुन और 30 सुअर काटे गए थे। इन जनजातीय इलाकों में बिना मिथुन दिए शादी नहीं होती है। मिथुन दिखने में गाय और कुछ-कुछ भैंस जैसा होता है, लेकिन इसे पाला नहीं जाता है, ये जंगलों में घूमते रहते हैं। नमक चटा कर इन्हें पालतू बना लेते हैं और पहचान के लिए अलग-अलग आकार में कान काट दिया जाता है। काफी लोग घर की चारदीवारी के पीछे सुअर पालते हैं, तीन महीने नए के नवजात सुअर की कीमत यहां 8000 रुपये है। हमारे आगमन के दस दिन पहले मेजबान मैडम के तीन सुअरियों ने 29 बच्चों को जन्म दिया था, जो जनजातियों के आर्थिक समृद्धि का एक स्रोत भी है। भेड़, बकरी और गरेड़िया संस्कृति के अभाव में इस संभाग के फौजी भी इन लजीज मांस का सेवन करते हैं, लेकिन इस बात को किसी ने खुल कर स्वीकार नहीं किया। पारंपरिक आयोजनों में शरीक होने वाले अपने साथ एक चाकू रखते हैं, जिससे परोसे गए 3-4 किलो के मांस के टुकड़े को काट-काट कर खाया जा सके। प्रकृति ने यहां के लोगों का हाजमा दुरुस्त रखने के लिए एक नायाब औषधि जायर दिया है, जो पतली टहनियों में मटर जितना बड़ा और गहरे हरे रंग का होता है। इसकी खुशबू बहुत तेज और शानदार होती है, यहां के लोग इसका प्रयोग मसाले की तरह करते हैं।

6. 
वहीं कहीं अपने देश की आखिरी सीमा है
मेचुखा में सुबह का उजाला दिल्ली की अपेक्षा एक घंटा 25 मिनट पहले होना शुरू हो जाता है। मेजबान ने मेरे पढ़ने-लिखने का इंतजाम कर दिया था, लिहाजा उजाला होते ही मैं अपने काम में लग गया।
मेचुखा घाटी और खूबसूरत सियोम नदी

दोपहर बारह बजे हम दोनों मित्र कस्बे के पास में एक पहाड़ी पर बने नये गोम्पा की ओर चल पड़े। गोम्पा के पीछे और उससे लगी एक काफी ऊंची पहाड़ी है, जहां फौज के बंकर बन रहे हैं, लेकिन काम बंद है। बंकर संभवतः वायु सेना की हवाई पट्टी की सुरक्षा के लिए बनाए जा रहे हैं। धीरज ने अपनी सेहत के मद्देनजर नीचे रहना मुनासिब समझा। जब मैं ऊपर पहुंचा तो पता चला कि एक कच्ची सड़क से भी ऊपर आ सकते हैं। यहां से पूरी घाटी के चप्पे-चप्पे का नजारा हो रहा था। घाटी के पश्चिमोत्तर दिशा में लगभग 12 किलोमीटर दूर एक ऊंचे पहाड़ी पर एक और आलीशान गोम्पा, गोम्पा से कुछ दूर आगे घाटी का संभवतः आखिरी छोटा सा गांव थरगेलिंग, गांव से नीचे नदी की ओर एक गुरुद्वारा, गुरुद्वारे के ऊपर बर्फीली चोटियां, शायद वहीं कहीं अपने देश की आखिरी सीमा है।
मेचुखा, नदी की तरफ ढलांव लिए हुए एक बहुत बड़ा लगभग समतल परवलयकार भूभाग है, जिसके पश्चिमोत्तर दिशा से लेकर दक्षिण तक बर्फीली चोटियां और बाकी दिशाओं में देवदार के जंगलों से लदे ऊंचे-ऊंचे पहाड़, साथ में दाएं-बाएं घूम कर बहती एक औसत दर्जे की नदी जिसके पानी के स्रोत यही बर्फीले पहाड़ और जंगल हैं। कम दूरी में एक नदी का बनना यही मेचुखा घाटी की खासियत है, जो मेम्बा भाषा में इसके नाम को सार्थक करती है, जिसका मतलब होता है - चिकित्सकीय गुण वाली बर्फीली नदी।

सरकारी सफेद हाथी
घाटी में नदी को पैदल पार करने के लिये कई झूले वाले पुल बनाए गए हैं। मेरी गिद्ध वाली आंख ने उनमें से चार पुल ढूंढ निकाले और मैं इस निष्कर्ष पर पहुंचा कि घाटी को सड़क की अपेक्षा इन पुलों के द्वारा घूमना बहुत आसान है, क्योंकि सड़क नदी के साथ बहुत दाएं-बाएं घूमकर किसी मंजिल को पहुंचाती प्रतीत हो रही थी। पहाड़ी से उतरने के बाद हम दोनों घूमते - घामते एक अत्यंत निर्जन इलाके में स्थित उपभोक्तावादी संस्कृति से उपजे कचरे से बिजली बनाने के सफेद हाथी के पास पहुंचे (देखने में संयंत्र बिजली बनाने का ही प्रतीत हो रहा था)। बिल्डिंग के खिड़की-दरवाजे तो दूर संयंत्र ही लंगड़ा गई थी। कोई मिलता तो पूछते भइया यह सरकारी है या पीपीपी (पब्लिक प्राइवेट पार्टनरशिप) माडल और इसने किन-किन लोगों को कृतार्थ किया है।

आलू के साथ मेमो साग की लाजवाब भुजिया
कस्बे के बहुत सारे परिवारों ने तथागत को छोड़कर ईसाइयत का दामन थामा है, जिसमें मोनीगोंग से आए आदि जनजाति के लोग बड़ी संख्या में हैं, तो कुछ ऐसे भी हैं जो यह कहते हैं कि इस वादी में रहना ही हमारे जीस्त का मुकद्दर है। ऐसे ही एक व्यक्ति के खेत में मुझे मेमो साग दिख गया। इसका स्वाद कुछ-कुछ हरे
                          मेमो का साग

प्याज के पत्ते की तरह होता है, जिसको लगभग 1900 मीटर की ऊंचाई पर उगाया जा सकता है और आलू के साथ बने इसके भुजिए का जवाब नहीं है। खेती और मजदूरी परिवार के आय के स्रोत हैं। खेत में खड़ी गेहूं की फसल को पकने में अभी बीस दिन की देर है, तो वहीं गोभी और आलू तैयार हो गए हैं। इन सबके बाद धान रोपने की तैयारी शुरु होगी। सुधिजनय धान और गेहूं के बीच में यहां मंडुवा भी उगाई जाती है। यहां तक पहुंचते -पहुंचते रासायनिक खाद बहुत महंगी हो जाती है, लिहाजा गोबर और सड़ी पत्तियों का उपयोग खाद की तरह किया जाता है। खाने में मडुवे की रोटी और मेमो का साग तथा रात्रि विश्राम के अनुरोध को अस्वीकार करके हम लोग मिलते रहने के वादे के साथ विदा हुए। हमारे साथ ढेर सारा मेमो साग था, जिसे रात के खाने में उपयोग किया गया।

7. 
400 साल पुराने महायान संप्रदाय का समतेन योंगचा मठ
अगले दिन रविवार को दोनों मित्र 12-13 किलोमीटर दूर 400 साल पुराने महायान संप्रदाय के समतेन योंगचा मठ के लिए निकले तो वहीं हमारे मेजबान अपने तीन बच्चों के साथ चर्च के लिए रवाना हुए। तीन झूले के पुल और दलदली जमीन को लांघते हुये लगभग ढाई घंटे की यात्रा के बाद पहाड़ी पर बने तिब्बतीय माडल के मठ द्वार पर हमने दस्तक दे दी, लेकिन तथागत बुद्ध का अभी पुर्नजन्म लंबित है और उनके अनुयायी लामा लोग शायद कस्बे में कहीं पेटपूजा कर रहे थे, निर्जनता ऐसी थी कि आदमी और जानवर तो दूर परिंदे भी गायब थे। वापसी के लिये जैसे ही मुड़े, बदलों ने मेहरबानी शुरू कर दी। चलते समय मौसम ठीक था, इसलिये बचाव का कोई इंतजाम नहीं किया गया था। बरसात हो रही थी, लिहाजा पगडंडियों वाले रास्ते की जगह सड़क मार्ग को अपनाया गया। पिच रोड इतनी बेहतरीन ढंग से बनी हुई थी कि दबाने से दब जाए और जोर से रगेद दें तो नीचे से मिट्टी निकल आए।

साथी ठहरे मोदी भक्त
साथी ठहरे मोदी भक्त और साथ में पार्टी के प्रचारक। केंद्र और राज्य में इन्ही के पार्टी की सरकार। बार-बार दुहाई देने लगे कि अभी इसके ऊपर कंकरीट की ढलाई की जाएगी। साहिबानय इसे कहते हैं अंधभक्ति। जब दिमाग गलत को सही ठहराने के लिये तथ्य और तर्क ढूंढने लगे, तो समझिए कि आपने अफीम चाट लिया है या चटा दिया गया है।

700 रुपये में दो छाता
खैर एक घंटा तर होने के बाद आबादी के इलाके में पहुंचे तो 700 रुपये में दो छाता खरीदा गया, जो दिल्ली में अधिक से अधिक 150 रुपये में एक मिल जाता। दो मई को मित्र धीरज ने कहीं चलने से मना कर दिया। बहुत मान-मनौव्वल के बाद साहब खेत वाले सज्जन के यहां चलने को राजी हुए। चल ऐसे रहे थे कि जैसे बबासीर का कोई गंभीर मरीज टांग फैलाकर बहुत धीरे-धीरे कदम बढ़ता है। पिछले दिन का 24 किलोमीटर चलना और भींगना साहब को बहुत भारी पड़ गया था।

एक वोट की कीमत तीन लाख रुपये
खेत वाले परिवार के साथ चाय पीते समय एक बात का खुलासा हुआ कि यहां के स्थानीय चुनाव में एक वोट की कीमत तीन लाख रुपये हो सकती है, जो लेने वाले नौजवान दंपति को जमीन के शक्ल में दी गई थी और दंपति भी साथ बैठे हुए थे। दोनों ने घर वालों की मर्जी के बगैर शादी की था। लड़का बीआरओ में 700 रुपये में दिहाड़ी मजदूरी करता है और उम्र में थोड़ी बड़ी महिला को फौज की कैंटीन में खाना बनाने के 350 रुपये रोजाना मिलते हैं, लेकिन 25 साल के उम्र में ही दोनों तीन बच्चों के मां-बाप बन गए हैं। चुनाव में तीन लाख रुपये की जमीन देने वाले को मैं बहुत करीब से जानता हूं। साहब इतने सज्जन पुरुष हैं कि शराब को छूना पाप समझते हैं, लेकिन लोगों को पिलाकर मस्त रखते हैं। मतलब कस्बे में एक मदिरालय के मालिक हैं। 

डीजल 70 रूपये लीटर बेचकर भी 20 रूपये मुनाफा
सुधीजन एक और राज की बात बताता हूॅं।आलो से मेचुखा के रास्ते में कुछ ऐसे ठिकाने हैं, जहां डीजल 70 रुपये लीटर मिलता है, जिसे बेंचने वाला 20 रुपये लीटर के मुनाफे पर बेचता है, बिना किसी मिलावट और घटतौली के, है न आश्चर्य की बात। बस इतना समझिए कि यह सड़क का कमाल है। अब इस दास्तान को विराम देने का वक्त आ गया है, लिहाजा अगले दिन सुबह साढ़े पांच बजे की गाड़ी में दो सीट बुक करा लिया गया। इस बार नदी की दिशा में चलते हुए गुवाहाटी फिर दिल्ली।

3 टिप्‍पणियां:

  1. बहुत कुछ याद दिला दिया आपने। लगभग 30 साल पहले की दुनिया में लौट गया। पासीघाट से एलांग (तब हम यही कहते थे आलो या अलोंग को) की अपनी यात्रा भी याद आई।..अनगिनत स्मृतियाँ हैं वहाँ की। 5 साल कम तो नहीं होते!..

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    1. आप जैसी सोच लेकर गया था। पहले दिन की अध्यापकी के लिए कक्षा में प्रवेश करते ही सामने दरवाजे पर लिखा था- 'Foreigners go back..' मैं चकित हुआ था। लगा था यहाँ भी एक जीवन है जो सिर सिर्फ़ ऊपर-नीचे नहीं हिलाता!...

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    2. अभी कहाँ हैं?
      पूर्वाग्रह का भ्रम धीरे - धीरे टूटता है, इसके शिकार यात्रा के साथी असमिया पण्डित भाई थे, जो बहुत डरे हुए थे। लेकिन, लोगों की आत्मीयता ने जनाब का धड़का खोल दिया।
      बहरहाल आपने यात्रा वृतांत पढ़ने के उपरांत कुछ लिखा, यही मुझे सुकून दे रहा है। नहीं तो आज के पूंजीवादी घुड़दौड़ में ऐसे पाठक कहाँ मिलते हैं!
      सुरेंद्र विश्वकर्मा.

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