शनिवार, 26 नवंबर 2016
कालेधन के नाम पर छलावा और कब तक?
केन्द्र सरकार द्वारा कालेधन पर हमले के नाम पर की गयी नोटबंदी की कार्रवाई ने मुसिबतों से जूझती आम जनता को भारी संकट में धकेल दिया है। उसकी गाढ़ी कमाई के रूपयों को एक ही झटके में रद्दी के टुकड़ों में बदल दिया गया। 8 नवम्बर की रात को प्रधानमंत्री की औचक घोषणा के बाद हालात लगातार बदतर होते चले गये। रूपये बदलवाने के लिए बैंकों में मारामारी ही नहीं मची, टीवी और अखबारों के जरिये एक से एक बुरी खबरें भी सामने आ रही हैं। मुम्बई में अस्पताल द्वारा 500 के नोट स्वीकार न किए जाने के कारण एक दुधमुँहे ने बिना इलाज दम तोड़ दिया। केरल में पैसा निकालने के दौरान हुई धक्का-मुक्की में चार लोगों की मौत हो गयी । एक आदमी बैंक की छत से तब कूद गया, जब उसे पता चला कि अपने पीएफ खाते से उधार ली गयी राशि को निकाल नहीं सकता । बैंक के बाहर धूप में लाइन लगाये खड़े दो बुजुर्ग व्यक्तियों की जान चली गयी। इस तरह नोट बदलवाने के चक्कर में 50 लोगों की जाने जा चुकी हैं। नकद के अभाव में कई घरों में शादियाँ रुक गयी, किसानों व छोटे व्यापारियों के काम-धंधे ठप पड़ गये और दिहाड़ी मजदूरों-मेहनतकशों को खाने के लाले पड़ गये। लोगों में अचानक फैली असुरक्षा और भय का फायदा उठाते हुए उत्तर प्रदेश में कई जगहों पर व्यापारियों ने नमक के अभाव की अफवाह फैलाकर लाखों कमा लिए। देश में कई जगहों पर हिंसा-झड़पें हुई और बदहवास जनता द्वारा दुकानों से आटा व नमक लूटे जाने की खबरें भी आयीं। सवाल है कि देश की आम जनता को इन मुसिबतों से आखिर क्यों गुजरना पड़ा?
मोदी सरकार ने इस आपातकालीन कदम के लिए तीन कारण गिनाये हैं। पहला है नकली नोटों का चलन। सरकार के अनुसार पाकिस्तान बड़ी मात्रा में नकली नोटों को छापता है, जिसके बल पर वह भारत में आतंकवाद को बढ़ावा देता है। दूसरा है कालाधन। नरेन्द्र मोदी ने इस कदम को कालेधन के खिलाफ एक बहुत बड़ी लड़ाई बताया और जनता से आह्वान किया कि वे तकलीफ उठाकर भी इस महान लड़ाई में उनका साथ दें। तीसरा कारण है भ्रष्टाचार। सरकार का कहना है कि इस कार्रवाई से भ्रष्टाचार रुकेगा और कालेधन के बल पर चुनाव लड़ना अब किसी के लिए आसान नहीं होगा।
सरकार के इन तर्कों में कितना दम है और ये कितने सच्चे हैं इस पर कोई सोच न सके इसलिए देशभक्ति का ज्वार पैदा करने की कोशिश की गयी । देश के करोड़ों लोगों की जिन्दगी को प्रभावित करने वाली नीतियों पर गम्भीर चर्चा करने की बजाय चुनावी भाषणों द्वारा जनता को भरमाने का खेल चल रहा है। देश के गृहमंत्री ने बोला कि इस कदम के बाद देश आर्थिक महाशक्ति बन जायेगा। हालांकि ऐसा दावा न तो कोई अर्थशास्त्री कर सकता है और न ही कोई जानकार व्यक्ति। प्रधानमंत्री ने इसे कालेधन के खिलाफ जिहाद कहा । उन्होंने नेताजी सुभाष चन्द्र बोस की भद्दी नकल करते हुए कह डाला कि तकलीफ के 50 दिन आप मुझे दे दो, आपको अपने सपनों का भारत मिल जायेगा। देश और राष्ट्रहित की दुहाई देकर हर नेता बार-बार जनता से ही कुर्बानी की माँग करता है लेकिन आखिर में भरता अपनी व अपने भाईबन्दों की जेब ही है।
अब तो नरेन्द्र मोदी के कारनामे भी सामने आ गये हैं। उनके गुजरात के मुख्यमंत्री रहते हुए आयकर विभाग की छुपायी गयी रिपोर्ट के हिस्से के खुलासे ने जाहिर कर दिया है कि मोदी जी का दामन भी दागदार है। इसलिए आज नेताओं व राजनीतिक पार्टियों के लच्छेदार भाषणों के बहाव में बिना बहे अगर हम सच्चाई को देंखने की कोशिश करें तो पता चलेगा कि नरेन्द्र मोदी की नोटबंदी की यह कार्रवाई कितना बड़ा फर्जीवाड़ा है और इसे लागू करने के पीछे असली मकसद कुछ और ही है। और तभी हम काले कारोबार की उस विराट तस्वीर को देख पायेंगे जहाँ से कालाधन पैदा हो रहा है।
जहाँ तक जाली नोटों का मामला है भारतीय अर्थव्यवस्था में इसकी मौजूदगी एक वास्तविक समस्या हो सकती है । लेकिन खुद सरकार का कहना है कि इसकी मात्रा कुल नोटों के मुकाबले मामूली-सी है। उसके अनुसार 500 रूपये के 10 लाख नोटों में से मात्र 250 ही नकली है- यानी केवल .0025 प्रतिशत। इसलिए अगर इस कार्रवाई को करना ही था तो एक लम्बे समय के अन्तराल में इसे किया जा सकता था। इसके लिए देश को झकझोरने वाले और जनता को अपार मुसिबतों में डालने वाले कदम की कोई जरूरत नहीं थी। अव्वल तो नकली नोटों को बेकार साबित करने के लिए 15-20 हजार करोड़ में नये नोटों की छपाई और इसे लागू करने में कई हजार करोड़ अतिरिक्त फूंकना कोई अक्लमंदी का काम नहीं। क्योंकि कुछ समय बाद नकली नोट छापने वाले नये नोटों की नकल भी छापने लगेंगे । इसके अलावा यह बताना कि देश के किसी हिस्से में कोई आन्दोलन जाली या असली नोटों की सप्लाई बन्द होने से दम तोड़ देगा- सरासर बचकाना जुमला है । कश्मीर हो, पूर्वोत्तर राज्य हो या छत्तीसगढ़- लम्बे समय से चले आ रहे ऐसे सभी आन्दोलनों के अपने-अपने राजनीतिक मुद्दे हैं जो कि सालों से चले आ रहे हैं और इन मुद्दों का आज भी जिन्दा रहना भारत की राजनीतिक पार्टियों की चरम असफलता को दिखाता है । इसलिए बजाय कि अपनी अक्षमता की कीमत आम जनता से वसूली जाय, सत्ता में बैठे हुए लोगों को चाहिए कि वे इन मुद्दों का साहस के साथ सामना करें ताकि उनका समाधान हो ।
कालेधन का मुद्दा और भी छलावे वाला है। चूंकि हमारे देश की 80 फीसदी जनता खून-पसीना एक करके मामूली ही कमा पाती है और इनमें से करोड़ों कुछ भी नहीं कमा पाते, इसलिए काली कमाई या कालाधन जनता के लिए हमेशा ही एक संवेदनशील मुद्दा बना रहता है। लेकिन आम लोग यह नहीं जानते कि कालाधन किन-किन तरीकों से पैदा होता है और असली अपराधी कौन-कौन है ? राजनीतिक पार्टियाँ, पैसे वाले लोग और मीडिया इसकी असलियत को कभी भी जनता के सामने नहीं लाते, जिससे जनता बार-बार ठगी जाती है । हमें याद है कि मोदी जी ने 2014 के चुनाव को विदेशों में जमा कालेधन की वापसी के वायदे के साथ लड़ा था। उनका यह भी वादा था कि कालेधन की वापसी करवा कर हर नागरिक के बैंक खाते में वे 15 लाख रूपये डलवायेंगे। देश की जनता इंतजार करती रही पर 15 रूपये भी उनके खाते में नहीं आये । जबकि कालाधन बढ़ता ही जा रहा है । आज नोटबंदी कर देश के अन्दर के कालेधन को समाप्त करने की जो बात कही जा रही है, तय है यह भी एक जुमला ही साबित होगा।
हकीकत है कि नरेन्द्र मोदी का यह आपातकालीन कदम कालेधन के एक मामूली हिस्से को ही जब्त कर सकता है। क्योंकि कालेधन का बड़ा हिस्सा विदेशों में चला जाता है और देश के अन्दर छोटा हिस्सा ही रह जाता है । इस छोटे से हिस्से का भी बहुत छोटा भाग नकद के रूप में मौजूद होता है। उदाहरण के लिए अंग्रेजी दैनिक हिन्दुस्तान टाइम्स के मुताबिक इस साल के 1 अप्रैल से लेकर 31 अक्टूबर के दौरान की आयकर विभाग की जाँच-पड़ताल में पाया गया कि 7700 करोड़ रूपये की टैक्स चोरी से कालाधन पैदा किया गया है । लेकिन इसमें नकद रूपये का हिस्सा 408 करोड़ यानी महज 5 प्रतिशत है। शेष बड़ा हिस्सा उद्योग-व्यापार में, स्टॉक मार्केट में, जमीन-जायदाद में लगाया गया है या बेनामी बैंक खाते में रखा गया है । इस 5 प्रतिशत में चूंकि आभूषणों की गिनती भी शामिल है इसलिए नकद की मात्रा 3 या 4 प्रतिशत ही होगी। जबकि उन अरबों रूपयों के कालेधन को जानबूझ कर अनदेखा कर दिया जाता है जो हर साल चुपके से बाहर चला जाता है।
नेशनल इंस्टिच्यूट ऑफ पब्लिक फाइनैन्स एण्ड पॉलिशी ने आकलन किया कि हमारे देश में कालाधन सकल घरेलू उत्पाद, डेड़ लाख अरब रूपये (2.2 ट्रिलियन डालर), का 75 फीसदी है । कालाधन पैदा करने वालों में देश के पूँजीपति, विदेशी कम्पनियाँ, वित्तीय संस्थाएँ, निर्यातक, रियल एस्टेट, नौकरशाह, छोटे-मझोले कारोबारी और भ्रष्ट नेता आदि सफेदपोश लोग हैं । हर सरकार की जानकारी में यह काला धन्धा चलता रहता है । यही कम्पनियाँ या पूँजीपति-व्यापारी, राजनीतिक पार्टियों को चुनाव लडऩे के लिए भारी मात्रा में काला धन मुहैया कराते हैं । इसीलिए भारत की आजादी के बाद कालेधन पर बैठाये गये 40 जाँच कमीशनों व कमिटियों का कोई नतीजा नहीं निकला। काला कारोबार और कालेधन की मात्रा बढ़ती ही गयी । हालांकि 1990 तक कालेधन की मात्रा काफी सीमित थी। वोफोर्स तोप घोटाले जैसा इक्का-दुक्का कांड ही सामने आता रहा है । 1991 से देश की सम्पूर्ण जनता के लिए एक बिल्कुल अलग दौर की शुरुआत की गयी। क्योंकि इसी साल कांग्रेस की अल्पमत सरकार ने ‘उदारीकरण-निजीकरण-वैश्वीकरण’ की नीतियों को एकमुश्त लागू किया था। इन नीतियों ने देशी-विदेशी पूँजीपतियों के लाभ कमाने की सारी बाधाओं को तोड़ दिया जिससे देश में काले कारोबार की बाढ़ आ गयी । ढेरों चीजें जो पहले गैर-कानूनी थी, अब कानूनी बना दी गयी। जैसे पहले किसानों और आदिवासियों की जमीनों को पूँजीपतियों के लिए खरीदना आसान नहीं था। आज उन्हीं जमीनों पर कब्जा जमाना और खरीद-फरोख्त किया जाना कालेधन का सबसे बड़ा कारण बन गया है।
विदेशी मुद्रा नियमन कानून के दाँत तोड़ दिए गये, आयात व निर्यात कानून को बेहद लचीला कर दिया गया । जिससे आयात-निर्यात करने वाली कम्पनियों को ओवर-इन्वॉयसिंग, अन्डर-इन्वॉयसिंग के द्वारा हर बार करोड़ों की टैक्स चोरी करने का मौका मिल गया। फिर इसी कालेधन को वे विदेशी बैंकों में रखते हैं या डालर, सोना-आभूषण, रियल एस्टेट में निवेश करते हैं या शेल (कागजी या फर्जी) कम्पनियों में निवेश दिखाकर उसे सफेद कर लेते हैं। मशहूर विदेशी बैंक एचएसबीसी के मामले में यह पता चला कि सभी विदेशी बैंक कालेधन को सफेद बनाने में माहिर हैं । इसके अलावा, सभी विदेशी कम्पनियाँ अपनी भारतीय शाखाओं से गैर-कानूनी धन-प्रेषण (रेमिटेंस) हासिल कर हर साल करोड़ों डालर कालाधन कमाती हैं । ये सभी काले धन्धे सरकार की मूक सहमति से चलते रहते हैं । क्योंकि यही कम्पनियाँ चुनाव के लिए फंडिगं करती हैं।
काले कारोबार का दायरा यही नहीं है, इसमें सरकारें भी शामिल होती हैं। देशी-विदेशी पूँजीपतियों के हित में सभी सरकारों ने गाँवों के विकास के बारे में सोचना और वहाँ पूँजी निवेश करना बन्द कर दिया है। जिससे ग्रामीण अर्थव्यवस्था की कमर टूट गयी और लाखों किसान आत्महत्या करने को मजबूर हुए। यह सिलसिला आज भी जारी है। मजदूरी करने वाली जनता का हाल भी यही है। मजदूरों की सुरक्षा के लिए बनाये गये श्रम कानूनों को सरकारें 1991 से ही बदलने की जुगत में हैं, कांग्रेस और भाजपा इस मसले पर पूरी तरह सहमत भी हैं लेकिन भारत की संसद अपनी बदनामी के डर से अब तक इस पर मुहर नहीं लगा पायी । इसके बावजूद उद्योग जगत ने व्यवहार में श्रम कानूनों को लागू करना छोड़ दिया है। न्यूनतम मजदूरी अधिनियम अब लागू नहीं होता, स्थायी कामों के लिए बेहद सस्ते में ठेका मजदूर रखे जाते हैं, मजदूरों को यूनियन का संवैधानिक अधिकार नहीं दिया जाता और जब मर्जी तब किसी मजदूर को निकाल दिया जाता है।
पूँजीपतियों की कोशिश होती है कि आधुनिक से आधुनिक तकनीक का इस्तेमाल किया जाए ताकि अधिक से अधिक ठेका मजदूरों के बल पर बेहिसाब मुनाफा कमाया जा सके । इसलिए पढ़े-लिखे नौजवानों को सम्मानजनक नौकरी मिलना आज असम्भव-सा हो गया है। फिक्की, एसोचैम जैसे उद्योपतियों के संगठनों ने अपने कई अध्ययनों में पाया कि भारत में हर साल एक करोड़ बीस लाख लोग रोजगार के लिए आते हैं जिनमें से 75 प्रतिशत लोग उनके काम के नहीं हैं। इसी तरह इंजीनियरिंग संस्थानों के सर्वे में भी उन्होंने इतने ही प्रतिशत नौजवानों को अपने लिए बेकार पाया। जाहिर है कि उन्होंने अपने कल-कारखाने-संस्थाओं को सरकार की मदद से ज्यादा से ज्यादा मुनाफा कमाने की मशीन बना लिया है जिनमें हमारे देश के पढ़े-लिखे युवा-युवतियों की अब कोई जरुरत नहीं रही। यही वह छल-प्रपंच है जिससे पूँजीपतियों ने पिछले 25 सालों में भारी मुनाफा कमाया। अम्बानी, टाटा-बिड़लाओं की आसमान छूती कमाई हो या देश के 111, डालर अरबपतियों की संख्या हो, सभी देश में पैर जमाये भारी-भरकम काले कारोबार की ओर ही इशारा करते हैं।
इतना ही नहीं, विकास के नाम पर ये सभी पार्टियाँ देश के सारे संशाधनों को उन्हीं धनी लोगों पर लुटाती है । 2005-2006 से लेकर अब तक विभिन्न मदों में इन लोगों का 42 खरब रूपये का कर्जा माफ कर दिया गया है। इन कर्जों की माफी के चलते सरकारी बैंक हमेशा घाटे की स्थिति में बने रहते हैं । बैंकों को बचाने के लिए सरकार जनता की खून-पसीने के करोड़ों रूपये बार-बार उसमें झोंकती रहती है । यह सरकार की मिलीभगत से पूँजीपतियों द्वारा देश के अरबों-खरबों रूपये को डकार जाने के अलावा कुछ नहीं है । लेकिन सरकार ऐसी काली कमाई को कालाधन नहीं कहती, वह हाथियों को अनदेखा करती है जबकि चुहों को पकड़ कर वाह-वाही लूटना चाहती है। हालांकि ये सरकारें हाथियों को पकड़ भी नहीं सकती है । क्योंकि पूँजी के ये ताकतवर खिलाड़ी 1991 के बाद भारतीय अर्थव्यवस्था पर अपनी मुकम्मल पकड़ बना चुके हैं । शेयर बाजार पर विदेशी वित्तीय संस्थाओं की ही पकड़ है जिससे वे देश की वित्तीय नीतियों को अपने हितों के अनुकूल बनाने में सक्षम हैं। संसद में मौजूद पार्टियाँ जो उन्हीं के चंदे पर पलती है, उनका बाल भी बाँका नहीं कर सकती हैं । पार्टियाँ, सरकारें और मंत्रीगण कैसे उनके हाथ के खिलौने हैं इसकी झलक चर्चित रहे राडिया टेप और एस्सार टेप कांड में साफ तौर पर देखी जा सकती है । 2010 में आउटलुक पत्रिका ने राडिया टेप का खुलासा इस शीर्षक के साथ किया- ‘भारतीय गणतंत्र अब बिकाऊ है। राडिया टेप कांग्रेस काल के भ्रष्टाचार को सामने लाता है जबकि 2016 में सामने आया एस्सार टेप कांड भाजपा और कांग्रेस दोनो को ही नंगा करता है । इन टेपों ने नेताओं-मंत्रियों-नौकरशाहों की टाटा-अम्बानियों से साठगाँठ को बहुत ही साफतौर से उजागर किया है । इस बीच, सत्ताधारी भाजपा जिस एकमात्र ‘ईमानदार’ व्यक्ति के सहारे अपनी नैया पार लगाने की कोशिश कर रही है, नये खुलासे से अब उसकी ईमानदारी भी संदेह के घेरे में आ गयी है । 2013 में आयकर विभाग ने आदित्य बिड़ला और सहारा कम्पनियों पर छापा मारा था और जिसकी एक भारी-भरकम रिपोर्ट विभाग ने सरकार को सौंपी थी । उस समय रिपोर्ट के उन हिस्सों को छुपा दिया गया था, जो अब सामने आ गये हैं, में साफ दर्ज है कि कम्पनियों ने गुजरात, दिल्ली, मध्यप्रदेश और छत्तीसगढ़ के मुख्यमंत्रियों को और भाजपा व कांग्रेस के कई दिग्गज नेताओं को करोड़ों रूपयों की रिश्वत दी थी । भ्रष्टाचार की कीचड़ में डूबी ऐसी पार्टियाँ क्या कालेधन के खिलाफ कोई लड़ाई लड़ सकती है? सच्चाई यही है कि नरेन्द्र मोदी सरकार अपने ढाई साल के कार्यकाल के दौरान आम जनता को राहत के नाम पर वैसी कोई लॉलीपाप भी थमा नहीं पाई जैसा कि कांग्रेस की अत्यंत भ्रष्ट सरकार ने ‘मनरेगा’ के नाम पर थमाया था । अब जबकि कुछ ही महिनों बाद उत्तर प्रदेश, पंजाब समेत पाँच राज्यों में और 2019 में देश में आम चुनाव है, मोदी ऐसा कोई ‘महान’ काम करने पर आमादा है जो 2014 में बनायी गयी उनकी ईमानदार छवि की गिरती साख को बचा सके । मोदी का देश में फिर से डंका बजे यह पूँजीपति तबका, अमीर वर्ग और मध्य वर्ग का बड़ा हिस्सा अपने मतलब के कारण चाह रहा है । इसलिए वे सब नोटबंदी में पूरी तरह मोदी के साथ हैं । इतना ही नहीं, नोटबंदी से मोदी की कार्रवाई इन धन्ना सेठों को और भी बड़ा फायदा पहुँचाने जा रही है जो अभी आम जनता की आँखों से ओझल हैं ।
सरकार की यह तानाशाही वाली कार्रवाई आम लोगों को मजबूर कर रही है कि वे अपनी गाढ़ी कमाई के रूपयों को उन्हीं बैंकों में जमा करें जो एनपीए के नाम पर जनता के अरबों-खरबों रूपयों को धन्ना सेठों के हाथों सौंप देती है । रेहड़ी-खोके वालों तक को मजबूर किया जा रहा है कि वे सब वित्तीय कम्पनियों के माध्यम से ही अब लेन-देन करें। 5-10 हजार महिना कमाने वालों की आमदनी से भी ये रक्त-पिपासु कम्पनियाँ अब मुनाफा वसूलना चाहती है । आज यही वित्तीय तानाशाही आम जनता पर थोपी गयी है । देश के 80 प्रतिशत नागरिक आज अपार मुसिबतों का सामना कर रहे हैं । लेकिन यह तो महज शुरुआत है । अगर यह वित्तीय तानाशाही मजबूत हो गयी तो गरीबी, भूखमरी, बेरोजगारी, महँगाई आदि का नंगा नाच देखने को मिलेगा । कालाधन और भ्रष्टाचार पूँजीवादी अर्थव्यवस्था का अभिन्न हिस्सा है। पूँजीवाद के बने रहते इससे मुक्ति पाने की झूठी उम्मीद पालने के बजाय हमें स्पष्ट तौर पर कहना चाहिए कि- बस ! अब हमें कोई और छलावा मंजूर नहीं । काम कर सकने वाले हर नागरिक को स्थायी रोजगार चाहिए, हर व्यक्ति को सम्मानजनक जीवन जीने का अधिकार मिलना चाहिए । साभारः रेड ट्यूलिप
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