मंगलवार, 5 मई 2015

नेपाल में भूकंप से उपजी मानवीय त्रासदी, पूंजीवाद की विफलता का निर्विवाद और जीवंत प्रमाण है

नेपाल में आए भूकंप में करीब ६७०० जानें जा चुकी हैं और लगभग पंद्रह हज़ार घायल हुए हैं. मलबे के हटने के साथ यह आंकड़ा बढ़ता जा रहा है और लोगों के जिन्दा बचने की आशा भी ख़त्म हो रही है.
नेपाल के प्रधानमंत्री सुशील कोइराला का कहना है कि मरने वालों की तादाद दस हज़ार से ऊपर जा सकती है. इसका अर्थ होगा कि यह भूकंप, १९३४ में नेपाल में आए अब तक के सबसे बड़े भूकंप में ८५०० लोगों की मौत के आंकड़े को भी, पार कर जायेगा.
राजधानी काठमांडू सहित, नेपाल के पचहत्तर जिलों में से पश्चिमी नेपाल के लगभग चालीस जिले, भूकंप की चपेट में आए हैं.

२५ अप्रैल, शनिवार को दोपहर के समय आए इस भूकंप की तीव्रता रिक्टर स्केल पर ७.८ मापी गई, जिसका केन्द्रक नेपाल की राजधानी, काठमांडू से ८० किलोमीटर पश्चिम में था. शनिवार को लगभग १२ छोटी-बड़ी कम्पन हुईं और अगले दिन रविवार को फिर ६.७ तीव्रता का भूकंप आया. इस भूकंप का विस्तार भारत में दिल्ली तक था, जहां बिहार और उत्तर प्रदेश में ७२ लोगों के मारे जाने की सूचना है. भारत के अतिरिक्त भूटान और बांग्लादेश में भी भूकंप से कई जानें गईं. माउन्ट एवरेस्ट पर १८ टूरिस्ट और पर्वतारोही हिमस्खलन के शिकार हुए, जबकि ६० से ज्यादा घायल हुए. ऐतिहासिक महत्त्व की कितनी ही महत्वपूर्ण इमारतें ज़मींदोज़ हो गईं. भूकंप से कुल नुकसान करीब सात हज़ार करोड़ से अधिक का बताया जा रहा है.
दुनिया के सबसे गरीब देशों में से एक, नेपाल में, इस तबाही से, जान-माल की भारी क्षति हुई है. इस क्षति को काफी कम किया जा सकता था यदि समय रहते नेपाल के भूकंप प्रभावित क्षेत्रों में समुचित अंतर्राष्ट्रीय सहायता पहुंचाई जाती. मगर सच्चाई यह है कि यह सहायता न सिर्फ नाममात्र की रही बल्कि काफी देरी से भी पहुंची. राहत के लिए आई सामग्री का बड़ा हिस्सा आज भी काठमांडू हवाई अड्डे पर ही पड़ा है, जिसे आगे भेजने की कोई व्यवस्था नहीं है. सैंकड़ों टन फल-सब्जियां और तैयार खाद्य सामग्री इसी तरह नष्ट हो रही है. राहत कार्य, काठमांडू तक ही सीमित हैं, जबकि सैंकड़ों दूर-दराज़ के गाँवों की खबर लेने वाला भी कोई नहीं है.
यूक्रेन से यमन तक सामरिक अभियानों में जुटी साम्राज्यवादी ताकतों ने, नेपाल की इस त्रासदी में कोई विशेष मदद नहीं दी. यूनिसेफ की रिपोर्ट के मुताबिक लगभग दस लाख बच्चों को तुरंत सहायता की जरूरत थी, जो पूरी नहीं हुई. खाने और पानी के लिए तरसते लाखों बेघर लोगों को बस किसी तरह टेंटों के भीतर ठूंसा गया और अधिकतर को तो टेंट भी नहीं मिले.
पचास लाख की आबादी वाली, राजधानी काठमांडू में, यातायात, बिजली और पानी की व्यवस्था पूरी तरह ठप्प हो गई. सबसे बुरा हाल स्वास्थ्य सेवाओं का रहा. सुचारू चिकित्सा व्यवस्था न होने के कारण, सैंकड़ों जानें गईं. लोगों को भाग्य के भरोसे छोड़ दिया गया.
नेपाल सरकार और तमाम पूंजीवादी देशों स्वर किए जा रहे खोखले दावों के बावजूद, जमीनी हकीकत यह है कि विपत्ति के शिकार लोगों के पास न खाना है न पानी, न रहने का ठिकाना, जिसके चलते खाने-पीने की वस्तुओं और रहने की सामग्री की कालाबाजारी जोरों पर है. बताया जा रहा है कि पानी की एक बोतल पचास रुपये और मैगी का एक पैकेट, काठमांडू में, सौ रुपये तक में बेचा जा रहा है.
हालात इस कदर खराब हैं कि नेपाल से, विशेष रूप से काठमांडू से, बड़े पैमाने पर पलायन हो रहा है. बचे हुए लोगों की, राहत सामग्री के लिए लम्बी कतारें लगी हैं. इस अव्यवस्था, अराजकता और नेपाली शासकों की लापरवाही से दुखी लोगों ने प्रधानमत्री सुशील कोइराला का विरोध करते हुए, ३० अप्रैल को उसे राहत शिविर में नहीं घुसने दिया. नेपाल के पूंजीवादी शासकों के इस अनाचार के चलते ही, भूकंप में कई गुना अधिक क्षति हुई है.
यह भूकंप अचानक नहीं आया. २००८ में चीन के दक्षिण-पश्चिम में स्थित सिचुआन प्रान्त में आए भूकंप के बाद से ही, जिसमें लगभग एक लाख लोग मारे गए थे, नेपाल में इस भूकंप की आशंका व्यक्त की जा रही थी. २०१३ से, इसकी पूर्व-सूचना, भूगर्भशास्त्रियों द्वारा बाकायदा और निरंतर दी जा रही थी. भूगर्भशास्त्री विनोद कुमार गौड़ ने ‘द हिन्दू’ में छपे अपने लेख में रिक्टर स्केल पर ८ के लगभग शक्ति वाले इस भूकंप की आशंका व्यक्त की थी. इस आपदा से एक हफ्ता पहले ही काठमांडू में वैज्ञानिकों की एक सभा भी हुई थी. मगर नेपाली सरकार द्वारा इस आगामी महा-विपदा की ओर ध्यान नहीं दिए जाने के कारण, कोई ठोस उपाय नहीं किए जा सके.
नेपाल सरकार और साम्राज्यवादी देश, जिनके पास इस विपदा से निपटने के सभी साधन मौजूद हैं, दोनों से पहले इसे अनदेखा किया और न इससे पहले और न ही बाद में कोई कारगर कदम उठाये, जिसकी वजह से हजारों जानें गईं.
भूकंप की स्थिति में, पहले कुछ घंटे, सुरक्षा और बचाव की दृष्टि से अत्यंत महत्पूर्ण होते हैं. मगर इस वक़्त में न तो नेपाली प्रशासन ने और न ही दूसरी पूंजीवादी सरकारों ने फौरी कदम उठाये.
सबसे बड़े साम्राज्यवादी देश अमेरिका ने पहले ६२ राहतकर्मियों के साथ मात्र छह करोड़ की मदद की घोषणा की और बाद में इसे बढाकर ५४ करोड़ रुपये किया, जो इस महाविपत्ति में एक मजाक ही है. हां इसके साथ ही एयरफोर्स के सी-१७ प्लेन भी भेजे हैं जो राहत के लिए नहीं बल्कि नेपाल में अमेरिकी सामरिक हितों को मज़बूत करने की दिशा में कदम है. इसी तरह भारत ने ३०० राहतकर्मी, चार जहाज़ और १३ सैनिक हेलीकाप्टर भेजे हैं, जिन पर बार-बार नेपाल से सटी चीनी सीमा में घुसकर जासूसी करने का आरोप लग रहा है. ब्रिटेन ने ४० करोड़ और नॉर्वे ने २० करोड़ की मदद का आश्वासन दिया है, जबकि चीन ने चार जहाज, ७२ विशेषज्ञ और १७० सैनिक भेजे हैं, जो कतई अपर्याप्त है. विपत्ति में घिरी जनता को राहत देने के बजाय, ये पूंजीवादी सरकारें, नेपाल की इस विपदा को, अपने संकीर्ण राष्ट्रीय हितों को अग्रसर करने के लिए प्रयोग कर रही हैं.
बेघर हुए लोगों के पुनर्वास और बुरी तबाह हुए नेपाल के पुनर्निर्माण के लिए जिन संसाधनों को जुटाने की जरूरत है, पूंजीवादी सरकारों के पास न तो उसके लिए कोई नीयत है और न ही कोई कार्यक्रम.
विज्ञान ने हमें ऐसी भवन निर्माण तकनीकों से लैस किया है जो बड़े भूकम्पों को भी सरलता से निष्प्रभावी कर देती हैं. दुबई का तीन सौ मंजिलों वाला टावर 'बुर्ज' और ताइवान में बन रहा हज़ार मंजिलों वाला टावर इसका उदाहरण है. मगर एक ओर तो गरीबी और साधनहीनता के चलते, जिसकी पूंजीवाद ने कृत्रिम रूप से सृष्टि की हुई है, ये तकनीक मुट्ठी भर संपन्न लोगों तक ही सीमित होकर रह गई हैं, और दूसरी ओर असीमित मुनाफों की ओर उन्मुख पूंजीवादी प्रसार और विकास के चलते, नाभिकीय बमों के परीक्षणों, छोटे-बड़े हमलों, युद्धों में हजारों टन बारूद के प्रयोग, अनियंत्रित जंगल कटान, खनन के अबाध जारी रहते, पर्यावरण को जो भारी क्षति हो रही है, उससे अकाल, बाढ़, भूकंप जैसी आपदाएं तेज़ी से बढ़ी हैं.  
भूकंप से पहले ही नेपाल साम्राज्यवादी शक्तियों के बीच राजनीतिक संघर्ष का अखाडा बना हुआ था. अमेरिका और उसके नेतृत्व में नाटो शक्तियां, नेपाल की जमीन को चीन के विरुद्ध प्रयोग करने के लिए तैयारी में जुटे थे, जिसके चलते अमेरिकी विशेष सुरक्षा दलों की दो टुकडियां नेपाल में सांझे सैनिक अभ्यास के लिए मौजूद थीं. भूकंप की स्थिति का लाभ उठाकर अमेरिका ने नेपाल में अपने सशस्त्र सैनिकों की संख्या को १६० से अधिक कर दिया है.

२०१३ में फिलिपीन्स में आये तूफ़ान से पैदा हुई त्रासदी का लाभ उठाकर, अमेरिका ने इसी तरह फिलिपीन्स में अपनी सैनिक उपस्थिति को स्थायी बना लिया था. अमेरिकी सैनिक-रणनीतिक अभियान में एकाकार हुई भारत सरकार ने भी, ‘ऑपरेशन मैत्री’ के नाम पर, नेपाल में अपनी बड़ी सैनिक उपस्थिति, विदेशी धरती पर अब तक की सबसे बड़ी उपस्थिति, बनाई है. भारत के नाभिकीय कार्यक्रम को समर्थन देते, उससे हाल ही में यूरेनियम सप्लाई का करार करने वाले कनाडा ने भी, दक्षिण-एशिया में अपना कूटनीतिक अभियान शुरू करते, राहत टीम के साथ, नेपाल में सशस्त्र सैनिकों की एक टुकड़ी भी रवाना की है. ‘मानवीय सहायता’ साम्राज्यवादी सामरिक रणनीति का अटूट हिस्सा है, जिसके जरिये विपत्तिग्रस्त राष्ट्रों के आर्थिक-राजनीतिक तंत्र को अपने प्रभाव-क्षेत्र में लाने के लिए साम्राज्यवादी शिविर एक-दूसरे से संघर्ष करते हैं.
इसके बावजूद इनमें से किसी देश ने नेपाल को पर्याप्त मदद नहीं दी. उलटे, नेपाल की बदहाली, विपन्नता और साधनहीनता को, विशेष रूप से हालिया मानवीय त्रासदी को, एक हथियार के रूप में प्रयोग करते हुए, नेपाल को और दबाने, झुकाने और पूरी तरह अधिगृहित कर लेने के लिए, ये पूंजीवादी शक्तियां सन्नद्ध हैं.
भूकंप के जरिये आई इस आपदा ने, नेपाली और इसके साथ ही दुनिया भर की पूंजीवादी सरकारों के सारे झूठे दावों की कलई खोलकर रख दी है. इस आपदा ने दिखा दिया कि निष्क्रियता और भ्रष्टाचार से लथपथ, पूंजीपतियों और स्तालिनवादियों-माओवादियों के सांझे नेतृत्व वाली नेपाली सरकार, नेपाल की मेहनतकश जनता को गरीबी और विपत्ति के अतिरिक्त कुछ भी नहीं दे सकती. अपने संकीर्ण राजनीतिक-सामरिक उद्देश्यों पर खरबों डॉलर फूंकने वाली पूंजीवादी सरकारें, मानवीय त्रासदियों के लिए, सिर्फ खानापूर्ति ही करेंगी और इन त्रासदियों को भी अपने क्षुद्र उद्देश्यों के लिए, जनता पर शोषण-उत्पीडन के शिकंजे कसने के लिए, प्रयोग करेंगी.
नेपाल में २००६ में राजशाही के पतन बाद सत्ता में आई बुर्जुआ सरकारों ने नेपाली जनता के प्रति पूरी तरह उदासीन रवैया अपनाया है. बुर्जुआ सत्ता के साथ एकाकार हुए माओवादियों ने भी इस सत्ता को कोई चुनौती देने की जगह इसे मज़बूत करने में योगदान दिया है. माओवादियों के नेतृत्व वाली सांझा सरकार ने न सिर्फ नेपाली अर्थव्यवस्था को विश्व बैंक और आई.एम्.ऍफ़ के निर्देशों पर संचालित किया और बड़े कारोबारियों के हित में इसे चलाया, बल्कि हड़तालों पर प्रतिबन्ध लगाकर बड़े अंतर्राष्ट्रीय पूंजी-निवेश के लिए वातावरण तैयार करके नेपाल को सस्ते मानव श्रम के आधार-क्षेत्र के बतौर विकसित किया.
महाविपदा के इस वक़्त में भी, नेपाल की पूंजीवादी सरकार का ध्यान, जनता को राहत मुहैया कराने के बजाय, सेना को अक्षुण्ण बनाये रखने पर केन्द्रित है, ताकि जनता की ओर से किसी संगठित विरोध की स्थिति से निपटा जा सके. आधुनिक शस्त्रों से लैस,  सेना की टुकड़ियों को पशुपतिनाथ जैसे विशाल मंदिरों, नारायणहिती जैसे महलों, स्क्वायारों और विशिष्ट भवनों की सुरक्षा में तैनात किया गया है. इन मंदिरों, भवनों में दसियों हज़ार बेघर लोगों को शरण दी जा सकती है, मगर संकट की इस घड़ी में भी जनता को इनमें शरण नहीं लेने दी जा रही है. ज्ञात हुआ है कि इन मंदिरों, महलों के दरवाजों, मूर्तियों और दूसरे हिस्सों में सैंकड़ों टन सोना लगा है. इनके खजानों में भी बेशुमार सोना और बेशकीमती हीरे जवाहरात होने की सूचना है. बताया जा रहा है कि इस दौलत का परिमाण इतना है कि नेपाल का दो बार पुनर्निर्माण संभव है. नेपाल की अथाह गरीबी के ठीक बीचों-बीच दौलत और प्रचुरता के ये अम्बार इस बात की तसदीक करते हैं कि नेपाल के लाखों-लाख  सर्वहारा और मेहनतकशों के पास समाजवादी क्रांति के जरिये, पूंजीवाद को उलटने और मजदूर-किसान सरकार की स्थापना के अलावा दूसरा कोई रास्ता नहीं है.
भूकंप ने नेपाल में दबे हुए शोषण और बदहाली को भी बाहर निकाला है. अथाह गरीबी और असहनीय जीवन दशाओं के बीच जीवन व्यतीत कर रही नेपाली मेहनतकश जनता के सामने फिर क्रान्तिकारी चुनौती को पेश किया है. मगर यह खुलासा सिर्फ नेपाल तक ही सीमित नहीं है. बांग्लादेश, श्रीलंका, पाकिस्तान, भारत और तमाम दक्षिण एशियाई देशों में कहीं भी सर्वहारा और मेहनतकश जनता के हालात, नेपाल से बेहतर नहीं कहे जा सकते. इस दृष्टि से नेपाल का यह संकट, समूचे दक्षिण एशिया में एक क्रान्तिकारी चुनौती प्रस्तुत कर रहा है. चुनौती यह है कि किस तरह पूंजीवाद के इस नर्क को ख़त्म कर देने, पूंजीवादी सरकारों को उखाड़ फेंकने और दक्षिण एशियाई राष्ट्रों का ‘संयुक्त समाजवादी संघ’ स्थापित करने के लिए, सर्वहारा को क्रान्तिकारी कार्यक्रम के चारों ओर एकजुट और तैयार किया जाय.

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