- देवेंद्र प्रताप
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शनिवार, 28 सितंबर 2024
जम्मू-कश्मीर की जवानी को चट कर रहा नशा
शुक्रवार, 27 सितंबर 2024
जम्मू-कश्मीर में जनता के पीछे चुनाव मैदान में विपक्ष
राजनीतिक पार्टी और मीडिया के हस्तक्षेप की भी बात हो सकती है, क्योंकि वह सत्तापक्ष के प्रति एक प्रतिकूल जनमानस तैयार करता है, लेकिन यहां हम केंद्रीय सत्ता के हस्तक्षेप तक ही खुद को सीमित रखेंगे। पुनः मुख्य प्रश्न पर लौटते हैं। जम्मू-कश्मीर में दस साल से विधानसभा चुनाव नहीं हुए थे। ऐसे में लोगों में चुनी हुई सरकार को लेकर उत्साह तो है, लेकिन उपरोक्त कारणों से यहां बड़ी संख्या में लोग चाहते हैं कि जम्मू-कश्मीर को पूर्ण राज्य का दर्जा मिले। पूरे जम्मू-कश्मीर में इस समय यही सबसे बड़ा मुद्दा है।
रविवार, 22 मई 2022
महराज यह तो गजब का देश है...
नीचे नजर आती ब्रम्हपुत्र (सियांग) नदी |
रोजाना सुबह 20-25 मिनट में कट कर बिक जाते हैं तीन-चार सुअर
मुरकंगसेलेक में मौसम बहुत सुहावना था और सुबह के आठ बज रहे थे। सूरज निकले लगभग साढ़े चार घंटे हो गये थे फिर भी हल्की-हल्की ठंड लग रही थी। मुरकंगसेलेक इस दिशा का आखिरी रेलवे स्टेशन है। जहां रेल की पटरी खत्म होती है उससे थोड़ा आगे रुकसिन नामक कस्बा है, वहां से पासीघाट की गाड़ी आसानी से मिल जाती है। स्टेशन के बाहर रेलगाड़ी से उतरने वालों की संख्या के लगभग बराबर इलेक्ट्रिक रिक्शे वाले आपका इंतजार कर रहे होते हैं, फलस्वरुप यात्रियों की खींचातानी भगदड़ का स्वरूप ले लेती है और दोनों पक्ष कुत्ते की तरह जीभ निकाल कर हांफने लगते हैं। इसी से पता चलता है कि देश में बेरोजगारी का क्या आलम है।
रुकसिन के आगे आबादी लगभग रुक सी जाती है, कहीं-कहीं इक्का-दुक्का घर और धान के खेत दिखाई देते हैं। इस बार मार्च से ही पानी बरसाने लगा था। इसलिये कुछ लोगों ने धान की रोपाई कर दी थी। इसके अलावा सुपाड़ी के बाग थे तो वहीं ताड़ महाशय अनायास ही दाएं-बाएं सिर उठाये खड़े थे। आजकल ताड़ के सुपाड़ी की मांग ज्यादा है। कुछ लोगों ने पाम के बाग भी लगाएं हैं और राज्य सरकार इसके बीज को खरीद भी लेती है, लेकिन तेल नहीं निकालती है। साथ बैठे ग्रामीणों को तेल न निकालने के बारे में कुछ खास नहीं पता था।
नीचे घाटी में सियांग नदी |
पासीघाट से पहाड़ शुरू होता है। नदी के साथ थोड़ा ऊपर जाने पर सियांग नदी की मुख्य धारा के अलावा सैकड़ों अन्य जल धाराएं जाल की शक्ल में 30 से 35 किलोमीटर के फैलाव में फैली नजर आती हैं। यह दृश्य इतना मनमोहक होता है कि यहां से हिलने की इच्छा नहीं होती है। दो घंटे की यात्रा के बाद एक बांस और ताड़ के पत्तों से बनी झोपड़ी में दोपहर का खाना हुआ। इस झोपड़ी नुमा घर के नीचे घाटी में तिब्बत से आने वाली सियांग नदी बहुत फैलाव के साथ शोर मचाते हुए बह रही थी। कोमसिंग गांव के पास सियांग की सहायक नदी सियोम हमारी पथप्रदर्शक बन गई। कोमसिंग से आलो तक रोड की चौड़ाई को बढ़ाने के लिये पहाड़ की कटाई की जा रही थी और ऊपर से बादलों की मेहरबानी, फलस्वरूप लगभग 25 किलोमीटर का रास्ता कीचड़ से लबालब भर गया था। इसी में काम करते मजदूर, जिनमें से अधिकांश असम के चाय बागानों में काम करने वाले परिवारों से आते हैं। इनकी जिंदगी में एक बार बहार (चारु मजूमदार की अगुवाई में चले नक्सलबाड़ी आन्दोलन से उपजी चेतना) आती दिख रही थी, लेकिन ऊपरवाले (यदि हो!) से वो भी देखा न गया, अब तो वह आंदोलन समाज में एक गाली बन गया है। आलो या अलोंग तक पहुंचते-पहुंचते घाटी बहुत फैल गई है, इसलिये इसे पश्चिमी सियांग जिले का जिला मुख्यालय बनाया गया है। शाम के चार बज गये थे, लिहाजा यात्रा को विराम दे दिया गया। शहर की ऊंचाई 700 मीटर से अधिक नहीं है, फिर भी हल्की ठंड जैसा मौसम था। मेचुखा अभी मोटरगाड़ी से 7 घंटे की दूरी पर था, इसलिये अगले दिन सुबह साढ़े पांच बजे की चारपहिया वाहन में आगे की दो सीट बुक करवा लिया गया।
3.
'आलो', गालो और आदि जनजाति का एक बहुत बड़ा कस्बा है। बहुसंख्यक आबादी की मान्यताओं में डोनीपोलो (सूर्य-चंद्रमा) धर्म है, जिसे लगभग 50 वर्ष पूर्व एक बार फिर से संसोधित करके जीवित किया गया है। इनके मतावलंबी दहकते लाल रंग का सूर्य (डोनी) और बैकग्राउंड में सफेद रंग मतलब चंद्रमा (पोलो) का एक बड़ा सा झंडा अपने घर के दरवाजों पर लगा कर इस धर्म का अनुयायी होने की घोषणा करने से गुरेज नहीं करते हैं। इनकी तुलना में बौद्ध वाले एक पतली सी लंबी झंडी फुरफुराते हैं तो वहीं ईसाई समुदाय अभी झंडे की खोज में लगी हुई है। आलो कस्बा बहुत फैली हुई घाटी में है, इसलिये जिला मुख्यालय है। यहां के बहुत सारे लोगों को सरकारी नौकरी मिली हुई है। जो व्यक्ति सरकारी नौकरी में होता है उसके निश्चित आय से उसका परिवार तो खाता ही है साथ में तीन-चार अन्य परिवारों का गुजारा कपड़ा, सौंदर्य प्रसाधन, सब्जी, राशन इत्यादि बेचकर चल जाता है। वहीं प्राइवेट सेक्टर की नौकरी से खुद के परिवार का ठीक-ठाक गुजारा हो जाए वही बड़ी बात है।
कस्बे में थल और वायु सेना वाले भी बड़ी संख्या में दखल रखते हैं। वायु सेना की एक हवाई पट्टी भी है, जिसमें रंगरूट लोग सुबह-शाम दौड़ने, चलने के साथ-साथ वर्जिश भी करते हैं। इनमें कुछ बुजुर्गवार भी अपनी चर्बी गला रहे थे, शायद अफसरान होंगे। फौज की एक कैंटीन भी है जहां आम नागरिक सुबह, दोपहर और शाम को बहुत कम दाम पर अपना पेट भर सकते हैं। खाना बनाने के लिए एक फौजी को लगाया गया है, जिसका वेतन 60,000 रुपये प्रति माह है। संभवतः यह पहल जनजातियों में सेना की स्वीकार्यता के लिए किया गया होगा। सवारी गाड़ी चलाने को छोड़कर अन्य कामों में महिलाओं का दखल कुछ ज्यादा ही है। असम के दुकानदार भी हैं तो इक्का-दुक्का बिहार के निवासी फल, सब्जी, बहुत तेज बसाती सूखी मछली और रोजमर्रा के समान के साथ दुकान लगाए बैठे हैं।
28 अप्रैल, 2022 को सुबह गाड़ी चली तो पांच मिनट में ही आलो कस्बा पार हो गया और दूर तक फैले खेतों के दर्शन हुए, अभी धान की रोपाई नहीं हुई थी, लेकिन महिला और पुरूष पांव में रबर का लांग बूट चढ़ाए और सिर पर हैट बांधे खेतों को रोपने के लिए तैयार करते नजर आ रहे थे। खेतों के साथ लगे पहाड़ों के निचले हिस्से में अनायास उगे केले के जंगल, उसके ऊपर अत्यधिक वर्षा वाले घनघोर वन और कुछ पहाड़ों के उन्नतांश पर बर्फ की छींटाकशी। यही हाल बहुत फैल कर बह रही सियोम नदी के दूसरी ओर का भी था। नजारा कुछ ऐसा था कि देखने वाला बस उसमें खो जाए, लेकिन इन सबसे अलग गायों के बड़े-बड़े झुंड सड़क पर बैठ कर निर्लिप्त भाव से पगुरी कर रहे थे। मानो कह रहे हों कि ज्यादा हार्न-फार्न न बजाओ, रोड क्या हमसे पूछ कर बनाई गई थी, सूखी जमीन है इसलिये सबसे पहले हमारा अधिकार है और ज्यादा चूं-चपड़ न करो। यदि हमें कहीं खरोंच भी लग गई तो मेरी मालकिन मेरे होने वाले बच्चे के बच्चे का हर्जाना निकलवा लेगी, इसलिये चुपचाप गाड़ी सड़क के नीचे उतार कर ले जाओ।
इन्हीं नजारों में दो घंटे चलने के बाद कायिंग गांव आ गया, यहां सुबह के नास्ते से फारिग होने के बाद 100 रुपये में बहुत ही मीठा ढेर सारा केला खरीद लिया, जिसे हम पांच दिन तक खाते रहे। केला खरीदते समय कस्बे के एक सरकारी स्कूल में पिछले 25 साल से हिंदी पढ़ा रहे पटना के एक मास्टर जी से मुलाकात हो गई। ज्यादा बातचीत का वक्त नहीं था, लेकिन अरुणाचलियों के हिंदी बोलने और समझने का राज समझ में आ गया। यहां से आगे सड़क कटाई के कामों में स्थानीय महिला और पुरूष दोनों लगे हुये थे। वहीं मशीन चलाने की जिम्मेदारी बीआरओ तथा झारखंड के मजदूर निभा रहे थे। जो सरकारी मुलाजिम हैं उनका जिक्र ही क्या, लेकिन झारखंड के मजूर 18,000 रुपये में तो स्थानीय 15,000 रुपये में अपना श्रम एक महीने के लिए बेंच रहे थे। 12 बजने से पहले ही शि-योमी जिले का मुख्यालय टाटो आ गया। यहां से एक रास्ता नदी किनारे-किनारे मेचुखा को तो दूसरा रास्ता नदी पार एक दूसरी घाटी मोनीगोंग को जाता है। दोपहर के भोजन के बाद पहाड़ की चढ़ाई शुरू हो गई। अरुणाचल प्रदेश के पश्चिमोत्तर भाग के वनों की अपेक्षा पूर्वोत्तर के जंगल अत्यधिक घने हैं। चौड़ी सड़क के बनते ही इसका व्यावसायिक दोहन शुरू हो जाएगा।
मेचुखा जैसे दुर्गम कस्बे मेंय वो भी बरसात में दिल्ली से केवल घूमने के लिये आना अड़ोसी- पड़ोसी तो दूर मेजबान के रिश्तेदारों को भी हजम नहीं हो रहा था। जैसे ही हम लोग घूम फिर के वापस पहुंचे एक-एक करके लोगों का जिरह के लिए आना शुरू हो गया। इसमें मुझे मजा भी आता है और इस परिस्थिति का इतना आदि हो गया हूं कि सामने वाला कुछ पूछे उससे पहले अपने सवाल दागते रहो। सवाल भी ऐसे कि सामने वाले का संदेह गहराने लगे। मसलन, क्या करते हैं, शिक्षा कितनी है, कितने बच्चे हैं, बच्चों के शिक्षा की स्थिति क्या है, आपके पिताजी के कितने बच्चे थे, यहां के मूल निवासी हैं, यदि नहीं तो कहां से और कब आए, खेती में क्या-क्या उगता है, सरकारी अस्पताल और स्कूल-कालेज की क्या दशा है, नदी कहां से निकलती है, आखरी गांव कितना दूर है, सीमा किन-किन दिशाओं में और कितनी दूर है, कस्बे की आबादी तथा धार्मिक स्थिति क्या है, इत्यादि। सामने वाला इन सवालों में ही बौड़ियाने लगता है, इसके बाद बताऊं कि मैं प्रिंटिंग प्रेस में प्लेट, केमिकल और इंक बेचता हूं, तो उसे मेरे इस सीधे-साधे जवाब पर कतई भरोसा नहीं होता है, वह प्रवास के आखिरी दिन तक अपने नए-नए प्रश्नों के साथ मुझे टटोलने में लगा रहता है। ऊपर से मेरा चेहरा और पहनावा सैलानी की जगह कोई सरकारी मुलाजिम होने की चुगली करता है।
मेचुखा में मेब्बा और आदि दो जनजातियों के लोग निवास करते हैं। सियोम नदी के उस पार मेब्बा लोगों की बस्तियां हैं तो इस पार आदि लोग निवास करते हैं। आदि, मेब्बाओं की अपेक्षा अधिक समृद्ध हैं। परंतु, आदि यहां के मूल निवासी नहीं हैं, संभवतः चार-पांच पीढ़ी पहले मोनीगोंग से यहां आकर बसना शुरू हुए हैं, जिसके कारण 1995 तक सामूहिक काटाकूटी (नरसंहार) का दौर भी चला था। रात के अंधेरे में एक व्यक्ति दूसरे कबीले के छोटे बच्चे से लेकर बुजुर्ग और महिला सभी को काट डालता था, इस व्यक्ति को अपने कबीले में योद्धाओं जैसा सम्मान दिया जाता था। पूर्वोत्तर भारत की लोकगाथाओं में इस तरह के सैकड़ों लोगों का जिक्र आता है, जो यहां के जनमानस में बहुत ही सम्मानित हैं। खैर काटाकूटी के दौर गुजरे तीनदशक होने को आए हैं, लेकिन जमीन को लेकर असंतोष अभी भी बरकरार है। जब इस तरह की कोई बात उठती है तो संख्या में थोड़े कम आदि जनजाति वाले मोनीगोंग से अपने साथियों को बुलवा लेते हैं, जिन्हें यहां तक पहुंचने में 6-7 घंटे लगते हैं। लगभग इतना ही समय मेम्बा लोगों को अपने फैले हुए गांवों से एकत्र हो झूले वाले पुल से नदी पार कर पहुंचने में लगता है। लेकिन, शिक्षा धीरे-धीरे दोनों समुदायों को करीब ला रही है, किन्तु दसवीं के आगे पढ़ने के लिए कोई शिक्षण संस्था नहीं है। मोनीगोंग, जहां से आदि लोग मेचुखा में आए हैं, मेचुखा से लगभग 120 किलोमीटर दूर तिब्बती बार्डर से लगा एक गांव है। मेम्बा और आदि लोग भी मेचुखा या मोनीगोंग के मूल निवासी नहीं हैं, ये लोग भी तिब्बत से आएं हैं। कुछ 1956 से पहले, तो कुछ सैकड़ों या हजारों साल पहले विस्थापित हुए थे, लेकिन शुरुआती विस्थापन कब और क्यों शुरु हुआ, इस सवाल का जबाब उपरी असम से लेकर अरुणाचल तक मुझे किसी से नहीं मिला, बस सबके जेहन में है कि हमारे पुरखे-पुरनियां तिब्बत से आए थे।
बहरहाल मेरे पास हिमालय के उस पार से विस्थापन कब से और क्यों हुआ, इसका एक ठीक - ठाक जवाब है। भूगर्भीय समय पर नजर रखने वाली एक अधिकृत संस्था इंटरनेशनल कमीशन आन स्टैटीग्राफी ने जुलाई 2018 में मेघालयन नामक एक शोध प्रस्तुत किया। इसके मुताबिक, विस्थापन ईसा पूर्व 2200 से अब तक जारी है और इसकी शुरुआत एक बहुत भीषण सूखे से होती है, जिसनें मिस्र, मेसोपोटामिया, चीन और हिंदुस्तान की सभ्यताओं को कुचल कर रख दिया था। यह भीषण सूखा संभवतः महासागरों और वातावरण में आए बदलावों की वजह से पड़ा था। हिमालय के उस पार से पलायन की शुरुआत आज से लगभग 4200 साल पहले शुरु हुए इसी सूखे से होती है, फिर आवाजाही का दौर 1956 में भारत-चीन के बीच तनाव तक चला था। कायदे से इस रिपोर्ट के आने के बाद सरकार को हिमालय के प्रचलित गिरिद्वारों से डीएनए सैंपल की खोज और जांच करनी चाहिए थी, लेकिन उसे खलनायक सिनेमा के फूहड़ गाने चोली के पीछे क्या है की तर्ज पर मस्जिद के नीचे क्या है पर गुनगुनाने में मजा आ रहा है! मेचुखा कस्बे में एक निर्माणाधीन अस्पताल हैं, तो वहीं शराब की अनगिनत दुकानें हैं। अन्य राज्यों की अपेक्षा अरुणाचल में शराब आधे दाम पर बिकती है।
मेचुखा में सुबह का उजाला दिल्ली की अपेक्षा एक घंटा 25 मिनट पहले होना शुरू हो जाता है। मेजबान ने मेरे पढ़ने-लिखने का इंतजाम कर दिया था, लिहाजा उजाला होते ही मैं अपने काम में लग गया।
मेचुखा घाटी और खूबसूरत सियोम नदी |
दोपहर बारह बजे हम दोनों मित्र कस्बे के पास में एक पहाड़ी पर बने नये गोम्पा की ओर चल पड़े। गोम्पा के पीछे और उससे लगी एक काफी ऊंची पहाड़ी है, जहां फौज के बंकर बन रहे हैं, लेकिन काम बंद है। बंकर संभवतः वायु सेना की हवाई पट्टी की सुरक्षा के लिए बनाए जा रहे हैं। धीरज ने अपनी सेहत के मद्देनजर नीचे रहना मुनासिब समझा। जब मैं ऊपर पहुंचा तो पता चला कि एक कच्ची सड़क से भी ऊपर आ सकते हैं। यहां से पूरी घाटी के चप्पे-चप्पे का नजारा हो रहा था। घाटी के पश्चिमोत्तर दिशा में लगभग 12 किलोमीटर दूर एक ऊंचे पहाड़ी पर एक और आलीशान गोम्पा, गोम्पा से कुछ दूर आगे घाटी का संभवतः आखिरी छोटा सा गांव थरगेलिंग, गांव से नीचे नदी की ओर एक गुरुद्वारा, गुरुद्वारे के ऊपर बर्फीली चोटियां, शायद वहीं कहीं अपने देश की आखिरी सीमा है।
सरकारी सफेद हाथी
घाटी में नदी को पैदल पार करने के लिये कई झूले वाले पुल बनाए गए हैं। मेरी गिद्ध वाली आंख ने उनमें से चार पुल ढूंढ निकाले और मैं इस निष्कर्ष पर पहुंचा कि घाटी को सड़क की अपेक्षा इन पुलों के द्वारा घूमना बहुत आसान है, क्योंकि सड़क नदी के साथ बहुत दाएं-बाएं घूमकर किसी मंजिल को पहुंचाती प्रतीत हो रही थी। पहाड़ी से उतरने के बाद हम दोनों घूमते - घामते एक अत्यंत निर्जन इलाके में स्थित उपभोक्तावादी संस्कृति से उपजे कचरे से बिजली बनाने के सफेद हाथी के पास पहुंचे (देखने में संयंत्र बिजली बनाने का ही प्रतीत हो रहा था)। बिल्डिंग के खिड़की-दरवाजे तो दूर संयंत्र ही लंगड़ा गई थी। कोई मिलता तो पूछते भइया यह सरकारी है या पीपीपी (पब्लिक प्राइवेट पार्टनरशिप) माडल और इसने किन-किन लोगों को कृतार्थ किया है।
कस्बे के बहुत सारे परिवारों ने तथागत को छोड़कर ईसाइयत का दामन थामा है, जिसमें मोनीगोंग से आए आदि जनजाति के लोग बड़ी संख्या में हैं, तो कुछ ऐसे भी हैं जो यह कहते हैं कि इस वादी में रहना ही हमारे जीस्त का मुकद्दर है। ऐसे ही एक व्यक्ति के खेत में मुझे मेमो साग दिख गया। इसका स्वाद कुछ-कुछ हरे
मेमो का साग |
प्याज के पत्ते की तरह होता है, जिसको लगभग 1900 मीटर की ऊंचाई पर उगाया जा सकता है और आलू के साथ बने इसके भुजिए का जवाब नहीं है। खेती और मजदूरी परिवार के आय के स्रोत हैं। खेत में खड़ी गेहूं की फसल को पकने में अभी बीस दिन की देर है, तो वहीं गोभी और आलू तैयार हो गए हैं। इन सबके बाद धान रोपने की तैयारी शुरु होगी। सुधिजनय धान और गेहूं के बीच में यहां मंडुवा भी उगाई जाती है। यहां तक पहुंचते -पहुंचते रासायनिक खाद बहुत महंगी हो जाती है, लिहाजा गोबर और सड़ी पत्तियों का उपयोग खाद की तरह किया जाता है। खाने में मडुवे की रोटी और मेमो का साग तथा रात्रि विश्राम के अनुरोध को अस्वीकार करके हम लोग मिलते रहने के वादे के साथ विदा हुए। हमारे साथ ढेर सारा मेमो साग था, जिसे रात के खाने में उपयोग किया गया।
अगले दिन रविवार को दोनों मित्र 12-13 किलोमीटर दूर 400 साल पुराने महायान संप्रदाय के समतेन योंगचा मठ के लिए निकले तो वहीं हमारे मेजबान अपने तीन बच्चों के साथ चर्च के लिए रवाना हुए। तीन झूले के पुल और दलदली जमीन को लांघते हुये लगभग ढाई घंटे की यात्रा के बाद पहाड़ी पर बने तिब्बतीय माडल के मठ द्वार पर हमने दस्तक दे दी, लेकिन तथागत बुद्ध का अभी पुर्नजन्म लंबित है और उनके अनुयायी लामा लोग शायद कस्बे में कहीं पेटपूजा कर रहे थे, निर्जनता ऐसी थी कि आदमी और जानवर तो दूर परिंदे भी गायब थे। वापसी के लिये जैसे ही मुड़े, बदलों ने मेहरबानी शुरू कर दी। चलते समय मौसम ठीक था, इसलिये बचाव का कोई इंतजाम नहीं किया गया था। बरसात हो रही थी, लिहाजा पगडंडियों वाले रास्ते की जगह सड़क मार्ग को अपनाया गया। पिच रोड इतनी बेहतरीन ढंग से बनी हुई थी कि दबाने से दब जाए और जोर से रगेद दें तो नीचे से मिट्टी निकल आए।
साथी ठहरे मोदी भक्त और साथ में पार्टी के प्रचारक। केंद्र और राज्य में इन्ही के पार्टी की सरकार। बार-बार दुहाई देने लगे कि अभी इसके ऊपर कंकरीट की ढलाई की जाएगी। साहिबानय इसे कहते हैं अंधभक्ति। जब दिमाग गलत को सही ठहराने के लिये तथ्य और तर्क ढूंढने लगे, तो समझिए कि आपने अफीम चाट लिया है या चटा दिया गया है।
खैर एक घंटा तर होने के बाद आबादी के इलाके में पहुंचे तो 700 रुपये में दो छाता खरीदा गया, जो दिल्ली में अधिक से अधिक 150 रुपये में एक मिल जाता। दो मई को मित्र धीरज ने कहीं चलने से मना कर दिया। बहुत मान-मनौव्वल के बाद साहब खेत वाले सज्जन के यहां चलने को राजी हुए। चल ऐसे रहे थे कि जैसे बबासीर का कोई गंभीर मरीज टांग फैलाकर बहुत धीरे-धीरे कदम बढ़ता है। पिछले दिन का 24 किलोमीटर चलना और भींगना साहब को बहुत भारी पड़ गया था।
खेत वाले परिवार के साथ चाय पीते समय एक बात का खुलासा हुआ कि यहां के स्थानीय चुनाव में एक वोट की कीमत तीन लाख रुपये हो सकती है, जो लेने वाले नौजवान दंपति को जमीन के शक्ल में दी गई थी और दंपति भी साथ बैठे हुए थे। दोनों ने घर वालों की मर्जी के बगैर शादी की था। लड़का बीआरओ में 700 रुपये में दिहाड़ी मजदूरी करता है और उम्र में थोड़ी बड़ी महिला को फौज की कैंटीन में खाना बनाने के 350 रुपये रोजाना मिलते हैं, लेकिन 25 साल के उम्र में ही दोनों तीन बच्चों के मां-बाप बन गए हैं। चुनाव में तीन लाख रुपये की जमीन देने वाले को मैं बहुत करीब से जानता हूं। साहब इतने सज्जन पुरुष हैं कि शराब को छूना पाप समझते हैं, लेकिन लोगों को पिलाकर मस्त रखते हैं। मतलब कस्बे में एक मदिरालय के मालिक हैं।
सुधीजन एक और राज की बात बताता हूॅं।आलो से मेचुखा के रास्ते में कुछ ऐसे ठिकाने हैं, जहां डीजल 70 रुपये लीटर मिलता है, जिसे बेंचने वाला 20 रुपये लीटर के मुनाफे पर बेचता है, बिना किसी मिलावट और घटतौली के, है न आश्चर्य की बात। बस इतना समझिए कि यह सड़क का कमाल है। अब इस दास्तान को विराम देने का वक्त आ गया है, लिहाजा अगले दिन सुबह साढ़े पांच बजे की गाड़ी में दो सीट बुक करा लिया गया। इस बार नदी की दिशा में चलते हुए गुवाहाटी फिर दिल्ली।
मंगलवार, 22 दिसंबर 2020
आपबीतीः एक गलती ने पहुंचा दिया कोरोना कैदखाना
साहिबाबाद ईएसआई काफी बड़ा अस्पताल है। उस हॉस्पिटल के एक हिस्से में जिसमें मरीजों के इलाज के 6 कमरे थे और हर कमरे में 5-6 बेड पड़े हुए थे कैद कर दिया गया है। मरीजों के आने और क्वारंटाइन के 7 दिन तथा कोरोना टेस्ट के दिन को मिलाकर कम से कम 10 दिन होने पर डिस्चार्ज होकर जाने के लिए एक ही दरवाजा है और चारों तरह ब्लॉक कर दिया गया है। डायरेक्ट सूरज की रोशनी की कोई व्यवस्था नहीं है। कोरोना हैंडलिंग में सरकारी विभाग की लापरवाही के बेजोड़ नमूने हैं। मरीजों को कॉल करने के उनके जितने भी सेल हैं जैसे डी एम कोरोना हेल्पलाइन, सी एम कोरोना हेल्पलाइन इत्यादि और हॉस्पिटल के बीच कोई आपसी कोआर्डिनेशन नहीं है। यदि मरीज इनकी लापरवाही और बेहूदगी को गंभीरता से लें तो लगेगा कि सरकारी मानदंडो के हिसाब से जो लोग कोरोना पॉजिटिव हैं, उन्हें मारने या खुद मर जाने के लिए हॉस्पिटल में कैद किया है। हर मरीज के पास उपरोक्त हेल्पलाइन से दिन में कई बार फोन आते हैं लेकिन उन्हें खुद पता नहीं होता कि फला मरीज जिससे बात हो रही है वह अपने घर पर है या हॉस्पिटल में। कॉल करने वाले विभाग को हमारे द्वारा अपडे
ट दिए जाने के बाद भी अगले दिन हमसे वही बेहूदा सवाल पूछा जाता कि आप कहाँ हैं? आपका ऑक्सीजन लेवल और तापमान क्या है? जबकि ज्यादातर लोगों का केवल भर्ती होने के समय ही ऑक्सीजन लेवल और तापमान लिया जाता था। जो वाकई थोड़ा अस्वस्थ थे उम्रदराज थे या सुगर के मरीज थे बस उनका ही चेक होता था। बाकी लोग किसी तरह दिन गिनकर समय काटते थे। हम व्यक्तिगत तौर पर आश्वस्त नहीं है कि कोरोना वाइरल फीवर कुछ अलग भी है। लेकिन इसका आशंका जरूर है कि इसके नाम पर सारी स्वास्थ्य सेवाएं ध्वस्त की जा रही हैं और इसके बहाने दूसरा कोई इलाज नहीं दिया जा रहा है। कोरोना के मरीजों के हैंडलिंग के नियम में मुझे पता चला कि यदि आप हॉस्पिटल में भर्ती हैं और आपके परिवार में शादी है तो आपको शादी अटेंड करने की छुट्टी मिल जाएगी लेकिन फिर आपको आकर क्वारंटाइन होने के लिए भर्ती होना पड़ेगा लेकिन 2 साल की बच्ची और 72 साल की बुजुर्ग महिला के लिए सरकार और स्वास्थ्य विभाग के पास सुरक्षा का कोई न इंतजाम है और न ही कोई परवाह। क्या फिर भी आपको लगता है कि कोरोना कोई गंभीर बीमारी है? आखिरकार 7 दिसंबर को हम दोनों की क्वारंटाइन की मियाद पूरी हुई और हम दोनों रिहा कर दिए गए। जैसे स्वस्थ गए थे वैसे स्वस्थ तो नहीं नहीं लौटे लेकिन शुकुन यह था कि मेरी बिटिया स्वस्थ थी।