शनिवार, 28 सितंबर 2024

जम्मू-कश्मीर की जवानी को चट कर रहा नशा

  • देवेंद्र प्रताप
इस समय भले ही पाकिस्तान की तरफ से सीमावर्ती इलाकों में गोलीबारी बंद है और इससे होने वाला जान-माल का नुकसान भी नहीं हो रहा है, लेकिन नार्को टेररिज्म यानी नशा आतंकवाद की वजह से जम्मू-कश्मीर में हर साल दर्जनों युवा अपनी जान गंवा रहे हैं। अंग्रेजी दैनिक ग्रेटर कश्मीर के मुताबिक इस समय जम्मू-कश्मीर में बेरोजगारी की दर 18 प्रतिशत है। यह बेरोजगारी की राष्ट्रीय दर से दस प्रतिशत अधिक है। यहां उद्योग धंधे बहुत ज्यादा नहीं हैं, ऐसे में लोगों की पहली प्राथमिकता सरकारी नौकरी ही होती है। अनुच्छेद 370 हटने और केंद्रशासित प्रदेश बनने के बाद केंद्र सरकार ने जम्मू-कश्मीर में औद्योगिक क्षेत्र में निवेश के जरिये देशी-विदेशी पूंजी निवेश का वादा किया था, लेकिन इसमें अब तक खास प्रगति नहीं हुई है। ऐसे में यहां बेरोजगारी की दर बहुत विकराल हो गई है। यदि बेरोजगारी दर के आंकड़ों से इतर यहां के किसी भी मुहल्ले में जाकर सर्वे किया जाए तो पता चलता है कि हर चार-पांच घर में एक-दो बेरोजगार युवा बैठा है। ऐसे में सरकार की यह जिम्मेदारी बनती है कि प्रदेश के विभिन्न विभागों में लाखों रिक्त पदों को भरने के लिए जल्द से जल्द कदम उठाए। बेरोजगार युवाओं की फौज बढ़ना भी समाज में नशा बढ़ने के पीछे एक अहम वजह है। एक अनुमान के मुताबिक जम्मू-कश्मीर में तेरह लाख से ज्यादा युवा इस समय नशे के चपेट में हैं। अमर उजाला में प्रकाशित एक खबर के मुताबिक पुलिस ने पिछले चार साल में करीब 30 हजार करोड़ की हेरोइन बरामद की है। वर्ष 2020 में जहां पुलिस ने 128 किलो हेरोइन जब्त की थी, वहीं वर्ष 2023 में यह बरामदगी 200 किलो  तक पहुंच गई। इन चार वर्षों में पुलिस ने 9400 नशा तस्करों को भी गिरफ्तार किया। पुलिस पर लाख सवाल उठाया जाए लेकिन आंकड़े बताते हैं कि वर्ष 2021 में जहां 2500 नशा तस्कर पकड़े गए थे, वहीं 2023 से अब तक 4500 से ज्यादा आरोपियों को पुलिस गिरफ्तार कर चुकी है। ऐसे में बड़ा सवाल यही है कि इतनी कार्रवाइयों के बाद भी नशा तस्करी क्यों नहीं खत्म हो रही है। यदि गंभीरता से सोचा जाए तो पता चलता है कि इसके पीछे कहीं न कहीं बेरोजगारी भी जिम्मेदार है। सीमावर्ती इलाकों में सरकार को इस मसले को हल्के में नहीं लेना चाहिए। जब पाकिस्तानी गोलीबारी होती थी तब भी हर महीने इतनी मौतें नहीं होती थी, जितने नशे के ओवरडोज के कारण हो रही है। पाकिस्तान की तरफ से फैलाए जाने वाले नार्को टेररिज्म के चलते हर महीने जम्मू-कश्मीर में एक दर्जन से ज्यादा युवाओं की जान चली जाती है। इसके बावजूद यह दुर्भाग्य ही है कि पाकिस्तानी गोलीबारी थमने का मुद्दा राजनीतिक लाभ के लिए उठाया जाता है, लेकिन नशे से जितनी ज्यादा मौतें हो रही हैं, उस पर अब तक यहां के किसी राजनीतिक दल ने आंदोलन खड़ा करने का प्रयास नहीं किया। जिस घर में किसी युवा की  नशे के कारण मौत होती है, तो उसका पूरा परिवार जीते जी मर जाता है। जिस घर का इकलौता चिराग बुझ जाता है, उसका दर्द अब तक राजनीतिक दल नहीं महसूस कर पाए हैं। 

आतंकवाद और नशा तस्करी में गहरा नाता
आपको याद होगा कि कुछ वर्ष पहले गुजरात के बंदरगाह पर तीन हजार किलो से ज्यादा मादक पदार्थ पकड़े गए थे। तब भी इस पर बहुत गंभीर सवाल खड़े हुए थे। जहां तक जम्मू-कश्मीर की बात है, यहां नशे का आतंकवाद से भी रिश्ता है। सभी को पता है कि पहले दक्षिण कश्मीर के कई इलाके आतंकवाद के गढ़ हुआ करते थे, लेकिन अब जम्मू संभाग में भी आतंकवाद अपने पैर पसार रहा है। खासकर यहां के सीमा से सटे इलाकों में पिछले कुछ वर्षों में आतंकियों केे देखे जाने और मुठभेड़ में तेजी आई है। साफ है कि मादक पदार्थ की तस्करी और आतंकवाद में गहरा नाता है। 

पंजाब की तरह जम्मू-कश्मीर में बढ़ने लगे नशामुक्ति केंद्र
पंजाब की तरह अब जम्मू-कश्मीर में नशा मुक्ति केंद्रों की संख्या तेजी से बढ़ने लगी है। नशा किस तरह जम्मू-कश्मीर की जवानी को निगल रहा है इसे एक आंकड़े से समझ सकते हैं। वर्ष 2021 में 600 लोग, नशा छुड़ाने के लिए नशा मुक्ति केंद्र पहुंचे थे। यह आंकड़ा अब 1100 के करीब पहुंच गया है। हालांकि इन आंकड़ों से इसकी पूरी सच्चाई सामने नहीं आती है, क्योंकि यदि यह सच्चाई का महज दस प्रतिशत ही है। यह पता करना बहुत मुश्किल नहीं है। यदि आप अपने आसपास नजर डालें तो पता चलेगा कि यह आंकड़ा काफी ज्यादा होगा। जम्मू के अस्पतालों में दस वर्ष पहले जितने लोग नशा छुड़ाने के लिए पहुंचते थे, अब वह संख्या दोगुनी हो गई है। 


जम्मू शहर में नशे के कारण लूट और हमले की वारदातें बढ़ीं
दस साल पहले जम्मू शहर का माहौल काफी अच्छा था, लेकिन नशा बढ़ने के साथ यहां अपराध भी तेजी से बढ़े हैं। इसके साथ शहर में सीसीटीवी भी बढ़ने लगे हैं। शहर में अब स्ट्रीट लाइट भी ज्यादा हैं और बाजारों, सार्वजनिक स्थलों, लोगों के घरों आदि में सीसीटीवी भी काफी लग गए हैं, फिर भी चोरी की वारदातें बहुत बढ़ गई हैं। इसलिए यह सब उपाय तो ठीक है, लेकिन समाज में गरीब और अमीर के बीच बढ़ती खाई और बेरोजगारी को दूर किए बिना इस तरह के अपराध पर रोक लगाना मुश्किल ही है। समाज में समरसता भी कम हो गई है, जिसके कारण मामुली बातों में लोगों के आपा खोने के मामले भी बढ़े हैं। अब रात में शहर में लोग अकेले निकलने से डरते हैं, क्योंकि नशेड़ियों के हथियार बंद गिरोह अब चार सौ-पांच सौ रूपये के लिए जान तक ले लेते हैं। पुलिस कहां-कहां लोगों को इन गिरोहों से बचाएगी। इसलिए हमारी सरकार जिस तरह मादक पदार्थ की तस्करी को हल्के में ले रही है, वह आने वाले दिनों में बहुत बड़ी समस्या बनने वाली है। ऐसे में यह जरूरी है कि इससे जुड़े मुद्दों को लेकर समाज के लोग आगे आएं।

शुक्रवार, 27 सितंबर 2024

जम्मू-कश्मीर में जनता के पीछे चुनाव मैदान में विपक्ष

इस समय जम्मू-कश्मीर में विधानसभा चुनाव चल रहा है। यहां तीन चरणों में हो रहे विधानसभा चुनाव में से दो चरण संपन्न हो गए हैं, जबकि तीसरे और अंतिम चरण के लिए एक अक्टूबर को मतदान होगा। इस चुनाव में जो प्रत्याशी जीतेंगे वे विधायक बनकर विधानसभा में पहुंचेंगे, लेकिन यहां की विधानसभा उत्तर प्रदेश, बिहार, पंजाब, हिमाचल प्रदेश या अन्य किसी पूर्ण राज्य जैसी नहीं होगी, बल्कि दिल्ली की तरह होगी। वहां केजरीवाल की आम आदमी पार्टी की सरकार के साथ क्या-क्या हुआ और अभी भी जनता द्वारा चुनी गई सरकार की क्या हालत है, यह पूरा देश देख रहा है। सरकार के सकारात्मक-नकारात्मक पक्ष तो हर राज्य में हैं, लेकिन यहां केंद्रीय सत्ता के हस्तक्षेप की बात हो रही है। यह हस्तक्षेप चाहे उपराज्यपाल के माध्यम से हो या केंद्रीय जांच एजेंसियों के। विरोधी

राजनीतिक पार्टी और मीडिया के हस्तक्षेप की भी बात हो सकती है, क्योंकि वह सत्तापक्ष के प्रति एक प्रतिकूल जनमानस तैयार करता है, लेकिन यहां हम केंद्रीय सत्ता के हस्तक्षेप तक ही खुद को सीमित रखेंगे। पुनः मुख्य प्रश्न पर लौटते हैं। जम्मू-कश्मीर में दस साल से विधानसभा चुनाव नहीं हुए थे। ऐसे में लोगों में चुनी हुई सरकार को लेकर उत्साह तो है, लेकिन उपरोक्त कारणों से यहां बड़ी संख्या में लोग चाहते हैं कि जम्मू-कश्मीर को पूर्ण राज्य  का दर्जा मिले। पूरे जम्मू-कश्मीर में इस समय यही सबसे बड़ा मुद्दा है।
भाजपा-पीडीपी का गठबंधन टूटने के बाद सारी ताकत राज्यपाल के पास चली गई थी। उसके बाद पांच अगस्त 2019 को केंद्र सरकार ने यहां से अनुच्छेद 370 और  35-ए को खत्म कर जम्मू-कश्मीर के दो टुकड़े कर दिए। जम्मू संभाग और कश्मीर संभाग को मिलाकर केंद्रशासित प्रदेश जम्मू-कश्मीर और दूसरा कारगिल और लेह जिले वाला हिस्सा केंद्रशासित प्रदेश लद्दाख बना। 
यह चुनाव सत्तापक्ष के लिए यह अवसर है कि वह जनता के पास जाए और उसने जो कार्य किए हैं, उसे जनता के सामने रखे। वहीं, विपक्ष के पास भी यही सबसे बड़ा मौका है कि वह जनता जनार्दन को बताए कि वह सत्तापक्ष के पिछले कार्यकाल में जो-जो कार्य हुए, जो निर्णय लिए गए, जो कानून बने उसके बारे में उसकी क्या राय है। सत्तापक्ष की आलोचना के साथ उसके पास क्या बेहतर विकल्प है, इसके बारे में भी बताना विपक्ष का दायित्व होता है। विपक्ष को यह भी बताना होता है कि जब जनता सड़कों पर थी, तो वह कहां था। देखा जाए तो इस समय भले ही विपक्ष सत्तापक्ष पर कितने ही आरोप क्यों न लगाए, लेकिन यह सच्चाई है कि पिछले दस वर्षों में जितना भी स्पेस मिला जनता अपनी सामूहिक ताकत के बल पर सड़कों पर उतरी और उसका नेतृत्व करने के लिए अधिकांश बार राजनीतिक ताकत के रूप में विपक्ष की गैरमौजूदगी ही रही। यानी इस दौरान जनता नेतृत्व विहीनता की शिकार रही, जिसकी वजह से उसे अक्सर हारना भी पड़ा। इस समय विधानसभा चुनाव में सबसे बड़ा मुद्दा जम्मू और कश्मीर दोनों संभागों में पूर्ण राज्य की बहाली है। अनुच्छेद 370 की बहाली का मुद्दा खासकर कश्मीर तक ही सीमित है। दोनों संभागों में इन मुद्दों को लेकर विपक्ष आक्रामक दिख रहा है, लेकिन यह दोनों प्रमुख मुद्दे तो पिछले पांच साल से हैं, तो इन पांच वर्षों में विपक्ष ने इस पर कब बड़ा आंदोलन किया। कुछ प्रतीकात्मक धरना-प्रदर्शन को छोड़ दें तो आमतौर पर विपक्ष खामोश ही रहा। पाठकों को यह जानकार हास्यास्पद ही लगेगा कि कुछ विपक्षी दलों के प्रदर्शन भी अपने कार्यालय के सामने ही  होते थे। यहां तक कि महंगाई, बेरोजगारी, स्मार्ट मीटर, नहर के पानी, जलभराव, सड़कों की खस्ताहालत, अस्थायी सरकार कर्मचारियों को स्थायी करने की मांग जैसे तमाम मुद्दों पर जनता खामोश नहीं रही, लेकिन विपक्ष रस्मी विरोध से आगे बढ़कर किसी मुद्दे पर आंदोलन नहीं खड़ा कर पाया, जो उसके पक्ष में जनमानस का निर्माण करता। विपक्ष की कमजोरियां जनता को भी पता हैं। यह सब बताने का मकसद यही है कि जनता जिस तरह का विपक्ष चाहती है, वह उसके अनुरूप नहीं है। ऐसे में इस विधानसभा चुनाव में जनता का जो तबका विपक्ष के साथ दिख रहा है, उससे यह भ्रम नहीं होना चाहिए कि वह विपक्ष के नेतृत्व को स्वीकार कर उसके पीछे चल रही है या उसका समर्थन कर रही है। हकीकत यह है कि विकल्पहीनता की वजह से ऐसा है। विपक्ष जनता के मुद्दों को हवा देकर उसका समर्थन हासिल करने का प्रयास कर रहा है। वहीं, सत्तापक्ष ने भी जनता से जो-जो वादे किए थे, उनमें से अधिकांश वादे पूरे करने में वह नाकाम साबित हुआ है। सीमावर्ती इलाकों में पाकिस्तानी गोलीबारी लगभग बंद हो गई है, यह उसके पक्ष में है, तो जम्मू संभाग में भी आतंकी गतिविधियां बढ़ना सवाल भी खड़े कर रहा है। अनुच्छेद 370 हटने से साठ के दशक में साफ-सफाई के लिए जम्मू-कश्मीर लाए गए वाल्मीकि समाज खुश हैं, क्योंकि अब वह यहां के स्थायी निवासी बन गए हैं। देश के विभाजन के समय पश्चिमी पाकिस्तान से जम्मू-कश्मीर आए लोगों में जो लोग कैंपों में रहे, वे अब उस समय उनको आवंटित जमीनों के मालिक बन गए हैं और चुनाव मतदान भी कर सकते हैं। इनमें बड़ी संख्या उनकी है, जो 1947 में शिविरों में नहीं ठहरे थे। अब वह भी जमीन की मांग कर रहे हैं। इसी तरह विभाजन के समय जब जम्मू-कश्मीर से पाकिस्तान गए लोगों की जिन मकानों में लोग कस्टोडियन विभाग के किरायेदार के रूप में रह रहे थे, अब केंद्र सरकार ने उन्हें मालिक बना दिया है। सत्तापक्ष को निश्चित ही इन सबका फायदा मिलेगा। स्मार्ट सिटी के नाम पर जम्मू और श्रीनगर में हुए विकास कार्य भी सत्तापक्ष गिना रहा है। कुलमिलाकर सत्तापक्ष के पास और भी बहुत से काम गिनाने के लिए हैं, लेकिन यह इतने नहीं हैं जो जनआकांक्षाओं की पूर्ति कर सकें। इसलिए विपक्ष के पास यहां मौका तो बहुत था, लेकिन हकीकत यही है कि वह जनता के पीछे रहकर चुनाव मैदान में है। उसकी भूमिका नेतृत्वकारी की नहीं है। ऐसे में कश्मीर संभाग और  उससे सटे इलाकों में जहां अनुच्छेद 370 और पूर्ण राज्य की बहाली का मुद्दा पांच साल से लगातार गर्म रहा, वहां तो विपक्ष को ज्यादा लाभ मिलना तय माना जा रहा है, लेकिन जम्मू संभाग में चिनाब बैली से आगे जम्मू तक, जहां जनता की चेतना के स्तर को अपने अनुकूल करने में विपक्ष ने खास काम नहीं किया, वहां वह जनता के पीछे रहने की रणनीति अपना रहा है। कश्मीर में इस बार निर्दलीय भी चालीस प्रतिशत से अधिक चुनाव मैदान में हैं। इसलिए सरकार किसकी बनेगी, इसके बारे में अभी कोई भी ठोस ढंग से कुछ नहीं कह सकता है। 

रविवार, 22 मई 2022

महराज यह तो गजब का देश है...


नीचे नजर आती
ब्रम्हपुत्र (सियांग) नदी
महराज यह तो गजब का देश है! यहां महिलाएं करघे पर बुनी चमकीली लुंगी पहनती हैं और अपने पतियों से उम्र में बड़ी हैं। अधिकांश पुरूष घर से निकलते समय कोई न कोई हथियार लेकर चलता है और दूसरे राज्य से यहां आने पर परमिट लेना पड़ता है। यह यात्रा संस्मरण सियोम घाटी के पूर्वोत्तरीय सीमांत इलाके मेचुखा का है। इस यात्रा के साथी धीरज थे, जो परम हनुमान भक्त तथा टाइट जनेऊधारी पंडित होने के कारण ब्रम्हचारी बने हुए हैं, लेकिन दिल मचलता रहता है। चलते समय हम लोगों के मित्रों ने इनसे कहा कि वहां शादी की संभावना बन सकती है, तो साहब अरुणाचल प्रदेश के आलो कस्बे में रात को एक सैलून में बाल और मूंछ रंगा के नौजवान बन गए।

                         सुरेंद्र विश्‍वकर्मा

1. 
पूर्वी असम के आखिरी रेलवे स्टेशन मुरकंगसेलेक से यात्रा का आगाज
26 अप्रैल, 2022 की रात गुवाहाटी से पूर्वी असम के आखिरी रेलवे स्टेशन मुरकंगसेलेक की यात्रा से इस यात्रा का आगाज होता है। असम राज्य पांच हिस्सों में बंटा है, जिसमें ऊपरी असम के इलाकों की खूबसूरती अभी बची है और आबादी का घनत्व भी बहुत कम है। बाकी के हिस्सों के जंगल को पूंजी के प्रकोप ने काट कर प्लाई बोर्ड बना दिया है और अब जमीन के नीचे दबे कोयले की बारी है।

नौगांव के आगे ऊपरी असम का इलाका 

आकाश से चूता ही रहता है पानी
नौगांव के आगे ऊपरी असम का इलाका शुरू होता है, जो काफी विरल आबादी वाला हिस्सा है। गांव के घर कंक्रीट की जगह बांस के बने होते हैं और उन्हें ताड़ के पत्तों से छाया जाता है। इस तरह के घरों में खाना बनाने से लेकर पखाना करने तक की सभी सुविधाएं होती हैं। एक छोटे परिवार के लिए इस तरह की झोपड़ी बनाने में 50-60 हजार रुपये की लागत आती है। घर के साथ ही लगा हुआ खेत होता है, जिसे बांस की ठठरियों से घेर दिया जाता है। जहां पानी जमा हो जाए वहीं गढ़ई या पोखरी बन जाती है, क्योंकि इस भूभाग में तो आकाश से पानी चूता ही रहता है और बांस इतना है कि पोखरी को घेरने में देर नहीं करते हैं, फिर मछली रानी पोखरी से रसोई में और फिर सुबह खाद बनने खेत में, फिर धान की फसल ऐसी लहलहाती है कि पूछिये मत!

रोजाना सुबह 20-25 मिनट में कट कर बिक जाते हैं तीन-चार सुअर
अधिकतर लोग घर के पीछे सुअरबाड़े में सुअर भी खूब पालते हैं, लेकिन साफ-सफाई का बहुत ध्यान रखा जाता है। एक छोटे से कस्बे में रोज सुबह 20-25 मिनट में तीन-चार सुअर कट के बिक जाना आम बात है। यहां 50 किलो के वयस्क सुअर की कीमत 13000 रुपये तथा मछली 200 रुपये किलो के भाव से बिकती है।

रेलगाड़ियों के आने-जाने के लिये एक ही रेलपटरी पर चलाने का रिवाज
असम में रेलगाड़ियों के आने-जाने के लिये एक ही रेलपटरी पर चलाने का रिवाज है, जिसके कारण महज 500 किलोमीटर की दूरी को 11 घंटे में तय करना निर्धारित किया गया है। फलस्वरूप एक्सप्रेस गाड़ी को हर स्टेशन पर आराम करने का पर्याप्त समय मिल जाता है और यात्री भी प्लेटफार्म पर तफरीह कर लेते हैं और हमारे जैसे लोग उपरोक्त वर्णन के लिये कस्बे का चक्कर भी लगा आते हैं, क्योंकि जब तक दूसरी गाड़ी नहीं आयेगी तो हमारी वाली के जाने का सवाल ही नहीं उठता है। कहा जा रहा है कि दूसरी पटरी बिछाने के लिये सरकार के पास पैसा नहीं है, लेकिन जिस तरह मोदी जी खाने के पैकेट से लेकर देश के गली-मुहल्ले में अपनी मुस्कान बिखेर रहे हैं तो यहां के मुख्यमंत्री उनसे एक कदम आगे गुवाहाटी रेलवे स्टेशन को अपने बड़े-बड़े होर्डिंगों से पटवा दिया है। न जाने इस तरह के प्रचार में कितना रुपया फूंका जाता है। इस तरह की भड़ैती करने की जगह 56 इंच के सीना वाले हमारे कद्दावर प्रधानमंत्री जी थोड़ी हिम्मत करें तो केवल सरकारी बैंकों के एनपीए की वसूली से सात लाख करोड़ रुपये से अधिक की रकम मात्र कुछ दिनों में इकट्ठा कर सकते हैं, जिससे देश की सभी परियोजनाओं के लिये धन की कोई कमी नहीं होगी और यदि आम आदमी के बराबर कारपोरेट घरानों से भी टैक्स वसूलें तो वल्ड बैंक, वर्ल्ड ट्रेड आर्गनाइजेशन जैसे फंदे बाजों से हमेशा के लिये गला छूट जाएं। असम के हर चुनाव में रेलपटरी का मुद्दा भी होता है और चुनाव से पहले हर पार्टी वादा भी करती है, देखें इस बार के वादे का क्या होता है।

2. 
इसी से पता चलता है कि देश में बेरोजगारी का क्या आलम है
मुरकंगसेलेक में मौसम बहुत सुहावना था और सुबह के आठ बज रहे थे। सूरज निकले लगभग साढ़े चार घंटे हो गये थे फिर भी हल्की-हल्की ठंड लग रही थी। मुरकंगसेलेक इस दिशा का आखिरी रेलवे स्टेशन है। जहां रेल की पटरी खत्म होती है उससे थोड़ा आगे रुकसिन नामक कस्बा है, वहां से पासीघाट की गाड़ी आसानी से मिल जाती है। स्टेशन के बाहर रेलगाड़ी से उतरने वालों की संख्या के लगभग बराबर इलेक्ट्रिक रिक्शे वाले आपका इंतजार कर रहे होते हैं, फलस्वरुप यात्रियों की खींचातानी भगदड़ का स्वरूप ले लेती है और दोनों पक्ष कुत्ते की तरह जीभ निकाल कर हांफने लगते हैं। इसी से पता चलता है कि देश में बेरोजगारी का क्या आलम है।
रुकसिन के आगे आबादी लगभग रुक सी जाती है, कहीं-कहीं इक्का-दुक्का घर और धान के खेत दिखाई देते हैं। इस बार मार्च से ही पानी बरसाने लगा था। इसलिये कुछ लोगों ने धान की रोपाई कर दी थी। इसके अलावा सुपाड़ी के बाग थे तो वहीं ताड़ महाशय अनायास ही दाएं-बाएं सिर उठाये खड़े थे। आजकल ताड़ के सुपाड़ी की मांग ज्यादा है। कुछ लोगों ने पाम के बाग भी लगाएं हैं और राज्य सरकार इसके बीज को खरीद भी लेती है, लेकिन तेल नहीं निकालती है। साथ बैठे ग्रामीणों को तेल न निकालने के बारे में कुछ खास नहीं पता था।

अरुणाचल में प्रवेश के लिये इनर लाइन परमिट
पोबा संरक्षित वन क्षेत्र के शुरू होते ही असम की सीमा का आखिरी पड़ाव आ गया। अरुणाचल प्रदेश में दूसरे राज्यों के लोगों को प्रवेश करने के लिये इनर लाइन परमिट दिखाना पड़ता है, जो कि अब आनलाइन भी बन जाता है। पोबा के जंगल में बांस और बेंत की झाड़ियां थीं यहां एक इंच से लेकर 10 इंच तक के बांस के पेड़ थे। एक घंटे की यात्रा के बाद पासीघाट आ गया, यह बड़ी जगह है। आगे जाने वाली गाड़ी ग्यारह बजे की थी, लिहाजा खाना खाने और घूमने निकल पड़े। ब्रम्हपुत्र नदी को अरुणाचल प्रदेश में सियांग नाम से पुकारा जाता है। सियांग नदी के किनारे बसा पासीघाट पूर्वोत्तर की ओर के पहाड़ों की तरफ जाने का प्रवेश द्वार है। सब कुछ इसी रास्ते ऊपर की ओर जाता है। दुकानें उत्तर भारत जैसी ही हैं, लेकिन अधिकांश छोटी दुकानों में बेचने और खरीदने के कामों में महिलाएं ही नजर आ रही थीं। सब्जी, ताम्बूल (छिलका सहित सुपाड़ी), पान का पत्ता, गन्ने के गुड़ का ईंट, लाई साग (सरसों जैसा), कोउ पत्ता (चावल के आटे के घोल को कोउ पत्ता पर फैला कर पत्ते को मोड़ दिया जाता है और फिर इसे खौलते पानी में उबालते हैं। तैयार पीठे नुमा रोटी को सुबह नास्ते में खाया जाता है), लिंगड का साग और कई तरह के पहाड़ी साग, केले का दिल (फूल), सूखी मछलियां, कीनू, संतरा आदि स्थानीय उत्पाद यहां की हर सब्जी बेचने वाली महिला अपने दुकान पर रखती है। अरुणाचल प्रदेश के तराई और ऊंचाई के लोग कीनू और सन्तरे के बाग लगाते हैं तो वहीं केले के जंगल अपने आप उग आते हैं। आजकल यहां के ऊंचाई वाले इलाकों में कीवी और सेब के बाग लगाने की कोशिश भी हो रही है।

ब्रम्हपुत्र (सियांग) नदी का मनमोहक नजारा
नीचे घाटी में सियांग नदी

पासीघाट से पहाड़ शुरू होता है। नदी के साथ थोड़ा ऊपर जाने पर सियांग नदी की मुख्य धारा के अलावा सैकड़ों अन्य जल धाराएं जाल की शक्ल में 30 से 35 किलोमीटर के फैलाव में फैली नजर आती हैं। यह दृश्य इतना मनमोहक होता है कि यहां से हिलने की इच्छा नहीं होती है। दो घंटे की यात्रा के बाद एक बांस और ताड़ के पत्तों से बनी झोपड़ी में दोपहर का खाना हुआ। इस झोपड़ी नुमा घर के नीचे घाटी में तिब्बत से आने वाली सियांग नदी बहुत फैलाव के साथ शोर मचाते हुए बह रही थी। कोमसिंग गांव के पास सियांग की सहायक नदी सियोम हमारी पथप्रदर्शक बन गई। कोमसिंग से आलो तक रोड की चौड़ाई को बढ़ाने के लिये पहाड़ की कटाई की जा रही थी और ऊपर से बादलों की मेहरबानी, फलस्वरूप लगभग 25 किलोमीटर का रास्ता कीचड़ से लबालब भर गया था। इसी में काम करते मजदूर, जिनमें से अधिकांश असम के चाय बागानों में काम करने वाले परिवारों से आते हैं। इनकी जिंदगी में एक बार बहार (चारु मजूमदार की अगुवाई में चले नक्सलबाड़ी आन्दोलन से उपजी चेतना) आती दिख रही थी, लेकिन ऊपरवाले (यदि हो!) से वो भी देखा न गया, अब तो वह आंदोलन समाज में एक गाली बन गया है। आलो या अलोंग तक पहुंचते-पहुंचते घाटी बहुत फैल गई है, इसलिये इसे पश्चिमी सियांग जिले का जिला मुख्यालय बनाया गया है। शाम के चार बज गये थे, लिहाजा यात्रा को विराम दे दिया गया। शहर की ऊंचाई 700 मीटर से अधिक नहीं है, फिर भी हल्की ठंड जैसा मौसम था। मेचुखा अभी मोटरगाड़ी से 7 घंटे की दूरी पर था, इसलिये अगले दिन सुबह साढ़े पांच बजे की चारपहिया वाहन में आगे की दो सीट बुक करवा लिया गया।

3. 
गालो और आदि जनजाति का धर्म
'आलो', गालो और आदि जनजाति का एक बहुत बड़ा कस्बा है। बहुसंख्यक आबादी की मान्यताओं में डोनीपोलो (सूर्य-चंद्रमा) धर्म है, जिसे लगभग 50 वर्ष पूर्व एक बार फिर से संसोधित करके जीवित किया गया है। इनके मतावलंबी दहकते लाल रंग का सूर्य (डोनी) और बैकग्राउंड में सफेद रंग मतलब चंद्रमा (पोलो) का एक बड़ा सा झंडा अपने घर के दरवाजों पर लगा कर इस धर्म का अनुयायी होने की घोषणा करने से गुरेज नहीं करते हैं। इनकी तुलना में बौद्ध वाले एक पतली सी लंबी झंडी फुरफुराते हैं तो वहीं ईसाई समुदाय अभी झंडे की खोज में लगी हुई है। आलो कस्बा बहुत फैली हुई घाटी में है, इसलिये जिला मुख्यालय है। यहां के बहुत सारे लोगों को सरकारी नौकरी मिली हुई है। जो व्यक्ति सरकारी नौकरी में होता है उसके निश्चित आय से उसका परिवार तो खाता ही है साथ में तीन-चार अन्य परिवारों का गुजारा कपड़ा, सौंदर्य प्रसाधन, सब्जी, राशन इत्यादि बेचकर चल जाता है। वहीं प्राइवेट सेक्टर की नौकरी से खुद के परिवार का ठीक-ठाक गुजारा हो जाए वही बड़ी बात है।

जनजातियों में सेना की स्वीकार्यता के लिए कैंटीन
कस्बे में थल और वायु सेना वाले भी बड़ी संख्या में दखल रखते हैं। वायु सेना की एक हवाई पट्टी भी है, जिसमें रंगरूट लोग सुबह-शाम दौड़ने, चलने के साथ-साथ वर्जिश भी करते हैं। इनमें कुछ बुजुर्गवार भी अपनी चर्बी गला रहे थे, शायद अफसरान होंगे। फौज की एक कैंटीन भी है जहां आम नागरिक सुबह, दोपहर और शाम को बहुत कम दाम पर अपना पेट भर सकते हैं। खाना बनाने के लिए एक फौजी को लगाया गया है, जिसका वेतन 60,000 रुपये प्रति माह है। संभवतः यह पहल जनजातियों में सेना की स्वीकार्यता के लिए किया गया होगा। सवारी गाड़ी चलाने को छोड़कर अन्य कामों में महिलाओं का दखल कुछ ज्यादा ही है। असम के दुकानदार भी हैं तो इक्का-दुक्का बिहार के निवासी फल, सब्जी, बहुत तेज बसाती सूखी मछली और रोजमर्रा के समान के साथ दुकान लगाए बैठे हैं।

हर पुरूष के पास एक फुट लंबा चाकू और हिंदी के गाने बेहद पसंद
स्थानीय पुरूष जब भी घर से निकलते हैं तो कंधे पर लगभग एक फुट लंबा चाकू लटकाते हैं, जिसका फल बेंत के म्यान में होता है, वहीं महिलाएं चमकदार लुंगी में लकदक करती फिरती हैं। सभी हिंदी भाषा अच्छी तरह बोल और समझ सकते हैं, गाड़ियों में हिंदी के गाने बजते हैं। दो स्थानीय और एक हिंदी भाषी हो तो बातचीत हिंदी भाषा में होगी न कि बंगालियों की तरह कि दोनों बंगाली अपनी भाषा में बात करने लगें और उनका तीसरा मित्र केवल उनका मुंह देखता रहे।

4. 
नजारा कुछ ऐसा कि देखने वाला उसमें खो जाए
28 अप्रैल, 2022 को सुबह गाड़ी चली तो पांच मिनट में ही आलो कस्बा पार हो गया और दूर तक फैले खेतों के दर्शन हुए, अभी धान की रोपाई नहीं हुई थी, लेकिन महिला और पुरूष पांव में रबर का लांग बूट चढ़ाए और सिर पर हैट बांधे खेतों को रोपने के लिए तैयार करते नजर आ रहे थे। खेतों के साथ लगे पहाड़ों के निचले हिस्से में अनायास उगे केले के जंगल, उसके ऊपर अत्यधिक वर्षा वाले घनघोर वन और कुछ पहाड़ों के उन्नतांश पर बर्फ की छींटाकशी। यही हाल बहुत फैल कर बह रही सियोम नदी के दूसरी ओर का भी था। नजारा कुछ ऐसा था कि देखने वाला बस उसमें खो जाए, लेकिन इन सबसे अलग गायों के बड़े-बड़े झुंड सड़क पर बैठ कर निर्लिप्त भाव से पगुरी कर रहे थे। मानो कह रहे हों कि ज्यादा हार्न-फार्न न बजाओ, रोड क्या हमसे पूछ कर बनाई गई थी, सूखी जमीन है इसलिये सबसे पहले हमारा अधिकार है और ज्यादा चूं-चपड़ न करो। यदि हमें कहीं खरोंच भी लग गई तो मेरी मालकिन मेरे होने वाले बच्चे के बच्चे का हर्जाना निकलवा लेगी, इसलिये चुपचाप गाड़ी सड़क के नीचे उतार कर ले जाओ।

कायिंग गांवः 100 रुपये में इतना केला कि पांच दिन तक खाते रहे
इन्हीं नजारों में दो घंटे चलने के बाद कायिंग गांव आ गया, यहां सुबह के नास्ते से फारिग होने के बाद 100 रुपये में बहुत ही मीठा ढेर सारा केला खरीद लिया, जिसे हम पांच दिन तक खाते रहे। केला खरीदते समय कस्बे के एक सरकारी स्कूल में पिछले 25 साल से हिंदी पढ़ा रहे पटना के एक मास्टर जी से मुलाकात हो गई। ज्यादा बातचीत का वक्त नहीं था, लेकिन अरुणाचलियों के हिंदी बोलने और समझने का राज समझ में आ गया। यहां से आगे सड़क कटाई के कामों में स्थानीय महिला और पुरूष दोनों लगे हुये थे। वहीं मशीन चलाने की जिम्मेदारी बीआरओ तथा झारखंड के मजदूर निभा रहे थे। जो सरकारी मुलाजिम हैं उनका जिक्र ही क्या, लेकिन झारखंड के मजूर 18,000 रुपये में तो स्थानीय 15,000 रुपये में अपना श्रम एक महीने के लिए बेंच रहे थे। 12 बजने से पहले ही शि-योमी जिले का मुख्यालय टाटो आ गया। यहां से एक रास्ता नदी किनारे-किनारे मेचुखा को तो दूसरा रास्ता नदी पार एक दूसरी घाटी मोनीगोंग को जाता है। दोपहर के भोजन के बाद पहाड़ की चढ़ाई शुरू हो गई। अरुणाचल प्रदेश के पश्चिमोत्तर भाग के वनों की अपेक्षा पूर्वोत्तर के जंगल अत्यधिक घने हैं। चौड़ी सड़क के बनते ही इसका व्यावसायिक दोहन शुरू हो जाएगा।

मेचुखा कस्बे का चौराहा
मेचुखा: विशाल घाटी नुमा एक कस्बा
दो-ढाई घंटे की यात्रा के बाद हमारी मंजिल मेचुखा आ गई। विशाल घाटी नुमा एक कस्बाई शहर, बीच से इठलाती हुई बहती एक नदी, दाएं-बाएं की बर्फिली चोटियां बदलों से खेलती हुईं, नजारे देखें कि पांच दिन के प्रवास के लिए अपने मेजबान को ढूंढें, दिल की इच्छाओं को दबाकर पूछते-पाछते आखिरकार मैडमात के आलीशान बंगले में पहुंच गए। निजता के मद्देनजर मेजबान का परिचय नहीं दे रहा हूं। मेल-मिलाप और कुछ पेट पूजा को तुरंत निपटा, हम दोनों मित्र सियोम नदी की ओर चल पड़े। बर्फीली चोटियों और पहाड़ी जंगलों से बहुत सारे बड़े-बड़े नाले निकले हैं, जिनका आखिरी पड़ाव नदी है। ऐसे ही दो नालों के ऊपर बने पुल को पार करने के बाद सेना की छावनी आ गई। छावनी के बाद एक पगडंडी नदी की ओर जाती है, जहां स्टेडियम जैसा कुछ बन रहा था। यहां काम करने वाली लड़कियां और महिलाएं नदी के दूसरी ओर मेम्बा जनजाति के सबसे पुराने मूल मेचुखा गांव से आती हैं, जिन्हें 350 रुपये मजदूरी मिलती है। सूरज डूबने वाला था, लिहाजा काम बंद हो गया और सभी झूले के पुल से नदी पार अपने गांव को चल पड़ीं। इनके गुजरने के बाद हम भी पुल पर आ गए। नदी चौड़ी होने के साथ गहरी भी थी और बहाव बहुत तेज था। पानी इतना साफ कि बीस फुट की ऊंचाई से तलहटी में बैठे पत्थरों के टुकड़े तक साफ दिखाई दे रहे थे।

5. 
सवाल भी ऐसे कि सामने वाले का संदेह गहराने लगे
मेचुखा जैसे दुर्गम कस्बे मेंय वो भी बरसात में दिल्ली से केवल घूमने के लिये आना अड़ोसी- पड़ोसी तो दूर मेजबान के रिश्तेदारों को भी हजम नहीं हो रहा था। जैसे ही हम लोग घूम फिर के वापस पहुंचे एक-एक करके लोगों का जिरह के लिए आना शुरू हो गया। इसमें मुझे मजा भी आता है और इस परिस्थिति का इतना आदि हो गया हूं कि सामने वाला कुछ पूछे उससे पहले अपने सवाल दागते रहो। सवाल भी ऐसे कि सामने वाले का संदेह गहराने लगे। मसलन, क्या करते हैं, शिक्षा कितनी है, कितने बच्चे हैं, बच्चों के शिक्षा की स्थिति क्या है, आपके पिताजी के कितने बच्चे थे, यहां के मूल निवासी हैं, यदि नहीं तो कहां से और कब आए, खेती में क्या-क्या उगता है, सरकारी अस्पताल और स्कूल-कालेज की क्या दशा है, नदी कहां से निकलती है, आखरी गांव कितना दूर है, सीमा किन-किन दिशाओं में और कितनी दूर है, कस्बे की आबादी तथा धार्मिक स्थिति क्या है, इत्यादि। सामने वाला इन सवालों में ही बौड़ियाने लगता है, इसके बाद बताऊं कि मैं प्रिंटिंग प्रेस में प्लेट, केमिकल और इंक बेचता हूं, तो उसे मेरे इस सीधे-साधे जवाब पर कतई भरोसा नहीं होता है, वह प्रवास के आखिरी दिन तक अपने नए-नए प्रश्नों के साथ मुझे टटोलने में लगा रहता है। ऊपर से मेरा चेहरा और पहनावा सैलानी की जगह कोई सरकारी मुलाजिम होने की चुगली करता है।

1995 तक सामूहिक नरसंहार का दौर चला था
मेचुखा में मेब्बा और आदि दो जनजातियों के लोग निवास करते हैं। सियोम नदी के उस पार मेब्बा लोगों की बस्तियां हैं तो इस पार आदि लोग निवास करते हैं। आदि, मेब्बाओं की अपेक्षा अधिक समृद्ध हैं। परंतु, आदि यहां के मूल निवासी नहीं हैं, संभवतः चार-पांच पीढ़ी पहले मोनीगोंग से यहां आकर बसना शुरू हुए हैं, जिसके कारण 1995 तक सामूहिक काटाकूटी (नरसंहार) का दौर भी चला था। रात के अंधेरे में एक व्यक्ति दूसरे कबीले के छोटे बच्चे से लेकर बुजुर्ग और महिला सभी को काट डालता था, इस व्यक्ति को अपने कबीले में योद्धाओं जैसा सम्मान दिया जाता था। पूर्वोत्तर भारत की लोकगाथाओं में इस तरह के सैकड़ों लोगों का जिक्र आता है, जो यहां के जनमानस में बहुत ही सम्मानित हैं। खैर काटाकूटी के दौर गुजरे तीनदशक होने को आए हैं, लेकिन जमीन को लेकर असंतोष अभी भी बरकरार है। जब इस तरह की कोई बात उठती है तो संख्या में थोड़े कम आदि जनजाति वाले मोनीगोंग से अपने साथियों को बुलवा लेते हैं, जिन्हें यहां तक पहुंचने में 6-7 घंटे लगते हैं। लगभग इतना ही समय मेम्बा लोगों को अपने फैले हुए गांवों से एकत्र हो झूले वाले पुल से नदी पार कर पहुंचने में लगता है। लेकिन, शिक्षा धीरे-धीरे दोनों समुदायों को करीब ला रही है, किन्तु दसवीं के आगे पढ़ने के लिए कोई शिक्षण संस्था नहीं है। मोनीगोंग, जहां से आदि लोग मेचुखा में आए हैं, मेचुखा से लगभग 120 किलोमीटर दूर तिब्बती बार्डर से लगा एक गांव है। मेम्बा और आदि लोग भी मेचुखा या मोनीगोंग के मूल निवासी नहीं हैं, ये लोग भी तिब्बत से आएं हैं। कुछ 1956 से पहले, तो कुछ सैकड़ों या हजारों साल पहले विस्थापित हुए थे, लेकिन शुरुआती विस्थापन कब और क्यों शुरु हुआ, इस सवाल का जबाब उपरी असम से लेकर अरुणाचल तक मुझे किसी से नहीं मिला, बस सबके जेहन में है कि हमारे पुरखे-पुरनियां तिब्बत से आए थे।

ईसा पूर्व 2200 से शुरू हुआ था विस्थापन
बहरहाल मेरे पास हिमालय के उस पार से विस्थापन कब से और क्यों हुआ, इसका एक ठीक - ठाक जवाब है। भूगर्भीय समय पर नजर रखने वाली एक अधिकृत संस्था इंटरनेशनल कमीशन आन स्टैटीग्राफी ने जुलाई 2018 में मेघालयन नामक एक शोध प्रस्तुत किया। इसके मुताबिक, विस्थापन ईसा पूर्व 2200 से अब तक जारी है और इसकी शुरुआत एक बहुत भीषण सूखे से होती है, जिसनें मिस्र, मेसोपोटामिया, चीन और हिंदुस्तान की सभ्यताओं को कुचल कर रख दिया था। यह भीषण सूखा संभवतः महासागरों और वातावरण में आए बदलावों की वजह से पड़ा था। हिमालय के उस पार से पलायन की शुरुआत आज से लगभग 4200 साल पहले शुरु हुए इसी सूखे से होती है, फिर आवाजाही का दौर 1956 में भारत-चीन के बीच तनाव तक चला था। कायदे से इस रिपोर्ट के आने के बाद सरकार को हिमालय के प्रचलित गिरिद्वारों से डीएनए सैंपल की खोज और जांच करनी चाहिए थी, लेकिन उसे खलनायक सिनेमा के फूहड़ गाने चोली के पीछे क्या है की तर्ज पर मस्जिद के नीचे क्या है पर गुनगुनाने में मजा आ रहा है! मेचुखा कस्बे में एक निर्माणाधीन अस्पताल हैं, तो वहीं शराब की अनगिनत दुकानें हैं। अन्य राज्यों की अपेक्षा अरुणाचल में शराब आधे दाम पर बिकती है।
सियोम नदी पर बना झूले वाला पुल

इस पीढ़ी में भी 3-4 बच्चे
दसवीं तक विद्यालय होने कारण आबादी पर थोड़ा नियंत्रण लगा है और इस पीढ़ी के लोग 3-4 बच्चे पैदा कर रहे हैं, अन्यथा पिछली पीढ़ी वालों में 8-10 बच्चे होना आम बात थी। कस्बे के जितने भी परिवारों से मुलाकात हुई, उसमें महिला की उम्र अपने पति से अधिक थी। खुद हमारी मेजबान मैडम अपने पति से दो साल बड़ी हैं और अपने शादी का प्रस्ताव दसवीं में पढ़ते समय अपने नाबालिग हमसफर के सामने रखा था। फिर महोदय 6 महीना अपने होने वाले ससुराल में खटकर अपनी योग्यता को साबित किया। शादी में हुजूर के परिवार ने पांच मिथुन भेंट दिया, जो भोज में आए लोगों के पेट में हजम हुआ। हमारे प्रवास के दौरान कस्बे में एक शादी थी, जहां 10 मिथुन और 30 सुअर काटे गए थे। इन जनजातीय इलाकों में बिना मिथुन दिए शादी नहीं होती है। मिथुन दिखने में गाय और कुछ-कुछ भैंस जैसा होता है, लेकिन इसे पाला नहीं जाता है, ये जंगलों में घूमते रहते हैं। नमक चटा कर इन्हें पालतू बना लेते हैं और पहचान के लिए अलग-अलग आकार में कान काट दिया जाता है। काफी लोग घर की चारदीवारी के पीछे सुअर पालते हैं, तीन महीने नए के नवजात सुअर की कीमत यहां 8000 रुपये है। हमारे आगमन के दस दिन पहले मेजबान मैडम के तीन सुअरियों ने 29 बच्चों को जन्म दिया था, जो जनजातियों के आर्थिक समृद्धि का एक स्रोत भी है। भेड़, बकरी और गरेड़िया संस्कृति के अभाव में इस संभाग के फौजी भी इन लजीज मांस का सेवन करते हैं, लेकिन इस बात को किसी ने खुल कर स्वीकार नहीं किया। पारंपरिक आयोजनों में शरीक होने वाले अपने साथ एक चाकू रखते हैं, जिससे परोसे गए 3-4 किलो के मांस के टुकड़े को काट-काट कर खाया जा सके। प्रकृति ने यहां के लोगों का हाजमा दुरुस्त रखने के लिए एक नायाब औषधि जायर दिया है, जो पतली टहनियों में मटर जितना बड़ा और गहरे हरे रंग का होता है। इसकी खुशबू बहुत तेज और शानदार होती है, यहां के लोग इसका प्रयोग मसाले की तरह करते हैं।

6. 
वहीं कहीं अपने देश की आखिरी सीमा है
मेचुखा में सुबह का उजाला दिल्ली की अपेक्षा एक घंटा 25 मिनट पहले होना शुरू हो जाता है। मेजबान ने मेरे पढ़ने-लिखने का इंतजाम कर दिया था, लिहाजा उजाला होते ही मैं अपने काम में लग गया।
मेचुखा घाटी और खूबसूरत सियोम नदी

दोपहर बारह बजे हम दोनों मित्र कस्बे के पास में एक पहाड़ी पर बने नये गोम्पा की ओर चल पड़े। गोम्पा के पीछे और उससे लगी एक काफी ऊंची पहाड़ी है, जहां फौज के बंकर बन रहे हैं, लेकिन काम बंद है। बंकर संभवतः वायु सेना की हवाई पट्टी की सुरक्षा के लिए बनाए जा रहे हैं। धीरज ने अपनी सेहत के मद्देनजर नीचे रहना मुनासिब समझा। जब मैं ऊपर पहुंचा तो पता चला कि एक कच्ची सड़क से भी ऊपर आ सकते हैं। यहां से पूरी घाटी के चप्पे-चप्पे का नजारा हो रहा था। घाटी के पश्चिमोत्तर दिशा में लगभग 12 किलोमीटर दूर एक ऊंचे पहाड़ी पर एक और आलीशान गोम्पा, गोम्पा से कुछ दूर आगे घाटी का संभवतः आखिरी छोटा सा गांव थरगेलिंग, गांव से नीचे नदी की ओर एक गुरुद्वारा, गुरुद्वारे के ऊपर बर्फीली चोटियां, शायद वहीं कहीं अपने देश की आखिरी सीमा है।
मेचुखा, नदी की तरफ ढलांव लिए हुए एक बहुत बड़ा लगभग समतल परवलयकार भूभाग है, जिसके पश्चिमोत्तर दिशा से लेकर दक्षिण तक बर्फीली चोटियां और बाकी दिशाओं में देवदार के जंगलों से लदे ऊंचे-ऊंचे पहाड़, साथ में दाएं-बाएं घूम कर बहती एक औसत दर्जे की नदी जिसके पानी के स्रोत यही बर्फीले पहाड़ और जंगल हैं। कम दूरी में एक नदी का बनना यही मेचुखा घाटी की खासियत है, जो मेम्बा भाषा में इसके नाम को सार्थक करती है, जिसका मतलब होता है - चिकित्सकीय गुण वाली बर्फीली नदी।

सरकारी सफेद हाथी
घाटी में नदी को पैदल पार करने के लिये कई झूले वाले पुल बनाए गए हैं। मेरी गिद्ध वाली आंख ने उनमें से चार पुल ढूंढ निकाले और मैं इस निष्कर्ष पर पहुंचा कि घाटी को सड़क की अपेक्षा इन पुलों के द्वारा घूमना बहुत आसान है, क्योंकि सड़क नदी के साथ बहुत दाएं-बाएं घूमकर किसी मंजिल को पहुंचाती प्रतीत हो रही थी। पहाड़ी से उतरने के बाद हम दोनों घूमते - घामते एक अत्यंत निर्जन इलाके में स्थित उपभोक्तावादी संस्कृति से उपजे कचरे से बिजली बनाने के सफेद हाथी के पास पहुंचे (देखने में संयंत्र बिजली बनाने का ही प्रतीत हो रहा था)। बिल्डिंग के खिड़की-दरवाजे तो दूर संयंत्र ही लंगड़ा गई थी। कोई मिलता तो पूछते भइया यह सरकारी है या पीपीपी (पब्लिक प्राइवेट पार्टनरशिप) माडल और इसने किन-किन लोगों को कृतार्थ किया है।

आलू के साथ मेमो साग की लाजवाब भुजिया
कस्बे के बहुत सारे परिवारों ने तथागत को छोड़कर ईसाइयत का दामन थामा है, जिसमें मोनीगोंग से आए आदि जनजाति के लोग बड़ी संख्या में हैं, तो कुछ ऐसे भी हैं जो यह कहते हैं कि इस वादी में रहना ही हमारे जीस्त का मुकद्दर है। ऐसे ही एक व्यक्ति के खेत में मुझे मेमो साग दिख गया। इसका स्वाद कुछ-कुछ हरे
                          मेमो का साग

प्याज के पत्ते की तरह होता है, जिसको लगभग 1900 मीटर की ऊंचाई पर उगाया जा सकता है और आलू के साथ बने इसके भुजिए का जवाब नहीं है। खेती और मजदूरी परिवार के आय के स्रोत हैं। खेत में खड़ी गेहूं की फसल को पकने में अभी बीस दिन की देर है, तो वहीं गोभी और आलू तैयार हो गए हैं। इन सबके बाद धान रोपने की तैयारी शुरु होगी। सुधिजनय धान और गेहूं के बीच में यहां मंडुवा भी उगाई जाती है। यहां तक पहुंचते -पहुंचते रासायनिक खाद बहुत महंगी हो जाती है, लिहाजा गोबर और सड़ी पत्तियों का उपयोग खाद की तरह किया जाता है। खाने में मडुवे की रोटी और मेमो का साग तथा रात्रि विश्राम के अनुरोध को अस्वीकार करके हम लोग मिलते रहने के वादे के साथ विदा हुए। हमारे साथ ढेर सारा मेमो साग था, जिसे रात के खाने में उपयोग किया गया।

7. 
400 साल पुराने महायान संप्रदाय का समतेन योंगचा मठ
अगले दिन रविवार को दोनों मित्र 12-13 किलोमीटर दूर 400 साल पुराने महायान संप्रदाय के समतेन योंगचा मठ के लिए निकले तो वहीं हमारे मेजबान अपने तीन बच्चों के साथ चर्च के लिए रवाना हुए। तीन झूले के पुल और दलदली जमीन को लांघते हुये लगभग ढाई घंटे की यात्रा के बाद पहाड़ी पर बने तिब्बतीय माडल के मठ द्वार पर हमने दस्तक दे दी, लेकिन तथागत बुद्ध का अभी पुर्नजन्म लंबित है और उनके अनुयायी लामा लोग शायद कस्बे में कहीं पेटपूजा कर रहे थे, निर्जनता ऐसी थी कि आदमी और जानवर तो दूर परिंदे भी गायब थे। वापसी के लिये जैसे ही मुड़े, बदलों ने मेहरबानी शुरू कर दी। चलते समय मौसम ठीक था, इसलिये बचाव का कोई इंतजाम नहीं किया गया था। बरसात हो रही थी, लिहाजा पगडंडियों वाले रास्ते की जगह सड़क मार्ग को अपनाया गया। पिच रोड इतनी बेहतरीन ढंग से बनी हुई थी कि दबाने से दब जाए और जोर से रगेद दें तो नीचे से मिट्टी निकल आए।

साथी ठहरे मोदी भक्त
साथी ठहरे मोदी भक्त और साथ में पार्टी के प्रचारक। केंद्र और राज्य में इन्ही के पार्टी की सरकार। बार-बार दुहाई देने लगे कि अभी इसके ऊपर कंकरीट की ढलाई की जाएगी। साहिबानय इसे कहते हैं अंधभक्ति। जब दिमाग गलत को सही ठहराने के लिये तथ्य और तर्क ढूंढने लगे, तो समझिए कि आपने अफीम चाट लिया है या चटा दिया गया है।

700 रुपये में दो छाता
खैर एक घंटा तर होने के बाद आबादी के इलाके में पहुंचे तो 700 रुपये में दो छाता खरीदा गया, जो दिल्ली में अधिक से अधिक 150 रुपये में एक मिल जाता। दो मई को मित्र धीरज ने कहीं चलने से मना कर दिया। बहुत मान-मनौव्वल के बाद साहब खेत वाले सज्जन के यहां चलने को राजी हुए। चल ऐसे रहे थे कि जैसे बबासीर का कोई गंभीर मरीज टांग फैलाकर बहुत धीरे-धीरे कदम बढ़ता है। पिछले दिन का 24 किलोमीटर चलना और भींगना साहब को बहुत भारी पड़ गया था।

एक वोट की कीमत तीन लाख रुपये
खेत वाले परिवार के साथ चाय पीते समय एक बात का खुलासा हुआ कि यहां के स्थानीय चुनाव में एक वोट की कीमत तीन लाख रुपये हो सकती है, जो लेने वाले नौजवान दंपति को जमीन के शक्ल में दी गई थी और दंपति भी साथ बैठे हुए थे। दोनों ने घर वालों की मर्जी के बगैर शादी की था। लड़का बीआरओ में 700 रुपये में दिहाड़ी मजदूरी करता है और उम्र में थोड़ी बड़ी महिला को फौज की कैंटीन में खाना बनाने के 350 रुपये रोजाना मिलते हैं, लेकिन 25 साल के उम्र में ही दोनों तीन बच्चों के मां-बाप बन गए हैं। चुनाव में तीन लाख रुपये की जमीन देने वाले को मैं बहुत करीब से जानता हूं। साहब इतने सज्जन पुरुष हैं कि शराब को छूना पाप समझते हैं, लेकिन लोगों को पिलाकर मस्त रखते हैं। मतलब कस्बे में एक मदिरालय के मालिक हैं। 

डीजल 70 रूपये लीटर बेचकर भी 20 रूपये मुनाफा
सुधीजन एक और राज की बात बताता हूॅं।आलो से मेचुखा के रास्ते में कुछ ऐसे ठिकाने हैं, जहां डीजल 70 रुपये लीटर मिलता है, जिसे बेंचने वाला 20 रुपये लीटर के मुनाफे पर बेचता है, बिना किसी मिलावट और घटतौली के, है न आश्चर्य की बात। बस इतना समझिए कि यह सड़क का कमाल है। अब इस दास्तान को विराम देने का वक्त आ गया है, लिहाजा अगले दिन सुबह साढ़े पांच बजे की गाड़ी में दो सीट बुक करा लिया गया। इस बार नदी की दिशा में चलते हुए गुवाहाटी फिर दिल्ली।

मंगलवार, 22 दिसंबर 2020

आपबीतीः एक गलती ने पहुंचा दिया कोरोना कैदखाना

सुनीता


जिस दिन कृषि उत्पादों पर मोदी सरकार द्वारा पास बिल पर देश के किसानों ने देशव्यापी हड़ताल का आह्वान किया था उसी 26 नवम्बर 2020 को मैं और मेरे पति ने कोरोना टेस्ट कराया। यह टेस्ट उत्तर प्रदेश सरकार द्वारा इंदिरापुरम, गाज़ियाबाद के एक गुरुद्वारा में कैम्प लगाकर किया जा रहा था। पूर्वी उत्तर प्रदेश के अपने गांव 7-8 महीने रहकर अक्टूबर के पहले सप्ताह में मैं गाज़ियाबाद आई थी। गांव से आये अभी डेढ़ महीने हुए थे कि मुझे और मेरे पति को सर्दी-जुकाम और हल्का बुखार हो गया। एहतियात बरतते हुए हम दोनों पैरासिटामोल खाकर हम दोनों ठीक हो चुके थे। मेरे पति के ऑफिस में उनके एक कलीग ने बोला कि कोरोना टेस्ट करा लो। उन्होंने आव देखा न ताव हमारा और अपना कोरोना टेस्ट करा लिया।

         हमें लगा था कि हम लोग पूरी तरह ठीक हैं कोरोना पॉजिटिव होने का कोई सवाल ही नहीं बनता लेकिन सीधे उल्टा हुआ।कोरोना टेस्ट सेम्पल देने के 24 घंटे के अंदर उत्तर प्रदेश के कोरोना साइट पर हम दोनों का  एंटीजेन निगेटिव दिखाया। 28 और 29 नवम्बर के शाम तक उपरोक्त साइट पर RT-PCR रिसेम्पलिंग दिखाता रहा। 30 नवम्बर को दिन के 11 बजे के करीब उत्तर प्रदेश के स्वास्थ्य विभाग से फोन आया कि हम दोनों कोरोना पॉजिटिव हैं। जब हमें पता चला कि हम कोरोना पॉजिटिव हैं तो हम लोग सतर्क हो गए और होम क्वारंटाइन हो गए और मजे में थे। 1 दिसंबर को उत्तर प्रदेश, गाज़ियाबाद के स्वास्थ्य विभाग ने तरह-तरह के नम्बर से फोन करके हमारा जीना हराम कर दिया। हमने उन्हें बताया कि हमें किसी भी किस्म की कोई दिक्कत नहीं है फिर भी यदि टेस्ट में पॉजिटिव आया है तो हम लोग होम क्वारंटाइन हैं, हमारी दो साल की बिटिया भी है और वह भी स्वस्थ है। उन्होंने हमारे पास ऑक्सिमिटर, थरमामीटर और घर में टॉयलेट बाथरुम के होने के बारे में पूछा जिसकी उपलब्धता की जानकारी हमने उन्हें दी। पॉजिटिव आने के 24-36 घंटे में उत्तर प्रदेश, गाज़ियाबाद स्वास्थ्य विभाग से न कोई डॉक्टर आया और न ही किसी ने कोई दवा लेने का सुझाव दिया। 1 दिसंबर को सेपरेट टॉयलेट न होने का हवाला देकर हमें होस्पिटलाइज़ होने का दबाव बनाया जाने लगा। तंग आकर मेरे पति होस्पिटलाइज़ होने को तैयार हो गए लेकिन मुझे अपनी बच्ची के साथ होम क्वारंटाइन रहने के लिए कन्विंस करने की कोशिश करते रहे किंतु कोरोना हैंडलिंग विभाग का ऐसा अमानवीय रवैया रहा कि हम दोनों को बच्ची के साथ ले जाने के लिए एम्बुलेंस भेज दिया। हम और बच्ची हो न जाने पर फोन करने वाले डॉक्टर ने एफ.आई.आर करने की धमकी भी दी। आखिरकार सरकार और जनता के बीच इस बीमारी के प्रति अफवाह को देखते हुए हम लोग होस्पिटलाइज़ होने को तैयार हो गए।

      जब हमारे कॉलोनी के गेट पर एम्बुलेंस आया तो दिन के 3 बज रहा होगा। एम्बुलेंस ऐसा था जैसे कि उसमें जिंदा आदमी नहीं बल्कि किसी लाश को उठाने आये हों। सीटों पर धूल अटी पड़ी थी। ऑक्सीजन सिलिंडर तो लटका हुआ था किंतु उसका पाइप टूटा हुआ लगा। ड्राइवर से बोलकर सीट साफ कराई और बिटिया के साथ हम दोनों सवार हो गए। हम तीनों को ईएसआई, साहिबाबाद ले जाया गया। हम दोनों काफी परेशान थे लेकिन अपने लिए नहीं बल्कि अपने 2 साल की बिटिया के लिए। मेरा रो-रोकर बुरा हाल हो गया था। ईएसआई के अंदर जिस गार्ड ने हम दोनों का नाम और आधार नंबर दर्ज किया वह हमारे लगभग 10 मीटर की पर खड़ा होकर कागजी खानापूर्ति की और हमें उस गेट के अंदर डाल दिया गया जिसमें पहले से ही 20-25 स्वस्थ लोग मौजूद थे। उन लोगों में जो लोग 60-70 साल के थे वे ही थोड़ा अस्वस्थ थे। हमें कोई संदेह नहीं कि वे अपने उम्र के वजह से थोड़ा अस्वस्थ थे न कि कोरोना के वजह से। जब हम अंदर गए तो न कोई डॉक्टर था और न ही कोई नर्स। हमारी मुलाकात संजय नाम के एक सज्जन मजदूर से मुलाकात हुई जो खुद हमारे ही तरह ज़बरदस्ती पकड़कर लाए गए थे। उनका हँसता चेहरा और खुशमिजाजी से थोड़ा राहत महसूस हुआ। वे ही उस हॉस्पिटल के स्टाफ को 224 नम्बर पर फोन करके दो लोगों का और आने की सूचना दी और हम लोगों को एक कमरे में पड़े बेड को चुन लेने का इशारा किया। हॉस्पिटल में हम दो लोगों की भर्ती तो दर्ज हो गई लेकिन बिटिया का हमारे साथ होने का कहीं भी दर्ज नहीं हुआ। इससे हम और भी चिंतित होने लगे कि उत्तर प्रदेश स्वास्थ्य विभाग इतना लापरवाह क्यों है? जब मैं अपनी बच्ची के साथ होम क्वारंटाइन होने की अपील कर रहे थे तो हम पर एफ.आई.आर. कर देने की धमकी देकर, सेपरेट टॉयलेट बाथरूम न होने का हवाला देकर यहाँ लाया गया जबकि हॉस्पिटल में लेडी और जेन्स का सेपरेट कंबाइन टॉयलेट-बाथरूम है। ऐसा नहीं था कि वहाँ केवल गरीब इलाकों के ही लोग थे। वहां गाज़ियाबाद, वैशाली के अपार्टमेंट में रहने वाले लोग भी आये थे। लेकिन उत्तर प्रदेश स्वास्थ्य विभाग की बेरहमी, लापरवाही और निरंकुशता इसमें थी कि उसे दो साल की बच्ची नजर नहीं आ रही थी जो बिल्कुल स्वस्थ थी। यदि सरकारी मानदंडों के अनुसार वहाँ आए हुए सभी लोग कोरोना इन्फेक्टेड थे तो 2 साल की स्वस्थ बच्ची को इंफेक्शन होना तय था जिसकी परवाह स्वास्थ्य विभाग को नहीं थी। हॉस्पिटल और सरकार की कोरोना हैंडलिंग विभाग की असंवेदनशीलता को देखते हुए हम लोगों ने तय किया कि अब बच्ची के साथ जो भी हो किन्तु इंफेक्शन से बचाया जाना चाहिए और हम लोगों ने उसी शाम एक मित्र की मदद से उसे ग्रेटर नोएडा उसके मौसी के पास भेज दिया। हॉस्पिटल से सभी मरीजों को पाँच दिन की दवा पहले दिन ही पकड़ा दिया जाता है जो हमें भी मिली। पहली खुराक खाने के बाद हम दोनों को लगा कि दवा नुकसान कर रही है और हम दोनों ने उसे लेना बंद कर दिया।

        साहिबाबाद ईएसआई काफी बड़ा अस्पताल है। उस हॉस्पिटल के एक हिस्से में जिसमें मरीजों के इलाज के 6 कमरे थे और हर कमरे में 5-6 बेड पड़े हुए थे कैद कर दिया गया है। मरीजों के आने और क्वारंटाइन के 7 दिन तथा कोरोना टेस्ट के दिन को मिलाकर कम से कम 10 दिन होने पर डिस्चार्ज होकर जाने के लिए एक ही दरवाजा है और चारों तरह ब्लॉक कर दिया गया है। डायरेक्ट सूरज की रोशनी की कोई व्यवस्था नहीं है। कोरोना हैंडलिंग में सरकारी विभाग की लापरवाही के बेजोड़ नमूने हैं। मरीजों को कॉल करने के उनके जितने भी सेल हैं जैसे डी एम कोरोना हेल्पलाइन, सी एम कोरोना हेल्पलाइन इत्यादि और हॉस्पिटल के बीच कोई आपसी कोआर्डिनेशन नहीं है। यदि मरीज इनकी लापरवाही और बेहूदगी को गंभीरता से लें तो लगेगा कि सरकारी मानदंडो के हिसाब से जो लोग कोरोना पॉजिटिव हैं, उन्हें मारने या खुद मर जाने के लिए हॉस्पिटल में कैद किया है। हर मरीज के पास उपरोक्त हेल्पलाइन से दिन में कई बार फोन आते हैं लेकिन उन्हें खुद पता नहीं होता कि फला मरीज जिससे बात हो रही है वह अपने घर पर है या हॉस्पिटल में। कॉल करने वाले विभाग को हमारे द्वारा अपडे
ट दिए जाने के बाद भी अगले दिन हमसे वही बेहूदा सवाल पूछा जाता कि आप कहाँ हैं? आपका ऑक्सीजन लेवल और तापमान क्या है? जबकि ज्यादातर लोगों का केवल भर्ती होने के समय ही ऑक्सीजन लेवल और तापमान लिया जाता था। जो वाकई थोड़ा अस्वस्थ थे उम्रदराज थे या सुगर के मरीज थे बस उनका ही चेक होता था। बाकी लोग किसी तरह दिन गिनकर समय काटते थे। हम व्यक्तिगत तौर पर आश्वस्त नहीं है कि कोरोना वाइरल फीवर कुछ अलग भी है। लेकिन इसका आशंका जरूर है कि इसके नाम पर सारी स्वास्थ्य सेवाएं ध्वस्त की जा रही हैं और इसके बहाने दूसरा कोई इलाज नहीं दिया जा रहा है। कोरोना के मरीजों के हैंडलिंग के नियम में मुझे पता चला कि यदि आप हॉस्पिटल में भर्ती हैं और आपके परिवार में शादी है तो आपको शादी अटेंड करने की छुट्टी मिल जाएगी लेकिन फिर आपको आकर क्वारंटाइन होने के लिए भर्ती होना पड़ेगा लेकिन 2 साल की बच्ची और 72 साल की बुजुर्ग महिला के लिए सरकार और स्वास्थ्य विभाग के पास सुरक्षा का कोई न इंतजाम है और न ही कोई परवाह। क्या फिर भी आपको लगता है कि कोरोना कोई गंभीर बीमारी है? आखिरकार 7 दिसंबर को हम दोनों की क्वारंटाइन की मियाद पूरी हुई और हम दोनों रिहा कर दिए गए। जैसे स्वस्थ गए थे वैसे स्वस्थ तो नहीं नहीं लौटे लेकिन शुकुन यह था कि मेरी बिटिया स्वस्थ
 थी।

रविवार, 28 जुलाई 2019

जलते मजदूर, सोती सरकार

शनिवार को सुबह रोज की तरह फ्रेंडस कॉलोनी गली नं. 4 में चहल-पहल थी। इसी गली में कॉरस बाथ नामक फैक्ट्री है, जो कि पीतल और प्लास्टिक की टूटी बनाने का काम करती है। फैक्ट्री के गेट पर न तो नम्बर लिखा है और ना ही कोई नाम, यानी कोई अनजान व्यक्ति वहां नहीं पहुंच सकता। यही हाल उसी गली के सभी फैक्ट्रियों का है, या यों कहा जाये कि यह सुरते हाल पूरी दिल्ली का है-जहां पर मजदूर को पता नहीं होता कि वह किस कम्पनी में काम करता है और कम्पनी का नम्बर क्या है। वह पहचान के लिए लाल, काला या पीला गेट बताता है। मजदूरों को यह भी जानने का हक नहीं होता है कि वे किस कम्पनी के लिए मॉल तैयार करते हैं। इसकी चिंता न तो श्रम मंत्री को है और न ही श्रम अधिकारियों को, जिसके लिए उन्हें हर महीने मोटी रकम मिलती है।
कॉरस फैक्ट्री में रोजना की तरह 13 जुलाई, 2019 (शनिवार) को भी मजदूर भागते हुए फैक्ट्री पहुंच रहे थे। कुछ मजदूर पहुंच चुके थे और अपनी काम करने की तैयारी में थे। इन्हीं मजदूरों में संगीता, मंजू और सुहेल भी थे, जो रोज की तरह अपने घरों से निकले थे कि शाम को वे फिर वापस घर आ जाएंगे। मंजू, लोनी (एकता बिहार) में रहती है और ट्रेन से ड्युटी पर आती थी। लेकिन उस दिन ट्रेन देर होने के कारण वह बेटे के साथ बाईक से आ गई। उनको मालूम था कि आधे घंटे की देर भी महीने में मिलने वाली पगार में कमी ला सकता है, जिससे परिवार चलाने में मुश्किल हो सकती है। संगीता बिहार के नालन्दा जिले से है और अपने पति के साथ वह कृष्णा बिहार (जिला गाजियाबाद) में किराये के मकान में रहती थी। संगीता के तीन बच्चे हैं, जिनको वह गांव पर ही रख कर पढ़ाती थी। वह 9-10 साल से कॉरस फैक्ट्री में काम करती थी। संगीता रोजाना दो टैम्पू बदल कर फैक्ट्री पहुंचती थी, जिसके बदले उसे 8,500 रू. महीने की पगार मिलती थी। संगीता टाइफाइड बुखार से पीड़ित थी तो कुछ दिन तक वह 1 घंटा देर से फैक्ट्री पहुंच रही थी, लेकिन उस दिन बच्चों को पैसा भेजने के लिए जल्दी ही फैक्ट्री पहुंच गई थी।
संगीता के साथ 10 साल से काम करने वाली कुसुम पटना जिले से हैं और कृष्णा बिहार में ही रहती हैं। वह बताती है कि सन् 2010 से वह इस कम्पनी में 2,400 रू. पर काम पर लगी थी जो अभी जून 2019 में 6,100 रू. बढ़कर 8500 रू. हो गई थी। इसी फैक्ट्री में संगीता, कुसुम से एक माह पहले से इस फैक्ट्री में काम करती थी। ये लोग पहले कृष्णा बिहार के गली नं. 12 में ही काम करते थे जहां पर कॉरस फैक्ट्री की एक और यूनिट चलती है। 2015 से यहां से कुछ लोगों को झिलमिल की फ्रेंडस कॉलोनी गली नं. 4 की दूसरी यूनिट में शिफ्ट कर दिया गया, जहां पर भट्ठी से लेकर मॉल तैयार करने और पैकिंग तक काम होता है। कृष्णा बिहार से झिलमिल पहुंचने में करीब इनको एक घंटा लग जाता था और 40 रू. रोज का खर्च होता था। कुसुम बताती हैं कि इस फैक्ट्री में करीब 300 मजदूर काम करते थे, जिनमें से 50-60 महिला मजदूर थी। इनमें से 3-4 महिला के पास ही ईएसआई कार्ड और पीएफ कार्ड है और पैकिंग डिर्पाटमेंट में एक ही महिला का ईएसआई कार्ड था, जो कि 2003 से काम करती हैं। फैक्ट्री में सप्ताहिक छुट्टी और कुछ सरकारी छुट्टी ही मिलती थी। इसके अलावा कोई भी छुट्टी करने से पैसा कट जाता था। फैक्ट्री का समय सुबह 9 से शाम 5.30 बजे तक है। सुबह 9.15 से लेट होने पर पैसे कटते थे। कुसुम बताती हैं कि मालिक अच्छा था और वह 10 तारीख को तनख्वाह और 25 को एडवांस दे देता था। महिलाएं अगर खड़ी होती थीं तो उनको पहले पैसा देता था। संगीता, कुसुम जैसे दिल्ली के लाखों मजदूरों के लिए अच्छा मालिक होने का मतलब है कि समय से पैसा दे देना, यानी दिल्ली में मजदूरों को अपना पैसा भी समय से नहीं मिलता है।
कुसुम बताती हैं कि वह चौथी मंजिल पर काम करती थी और संगीता तीसरी मंजिल पर। सुबह हमलोग अपने काम पर लगे ही थे कि धुंआ ऊपर आने लगा। संगीता मेरे पास आई और कही कि पता नहीं धुंआ कहां से आ रहा है और हमें लेकर वह नीचे वाली फ्लोर पर आ गई। हम चार महिलाएं दूसरी मंजिल के फ्लोर पर आकर ऑफिस वाले केबिन में चले गये कि यहां ए.सी. चलता है तो धुंआ नहीं लगेगा। लेकिन ए.सी भी बंद थी और दफ्तर में धुंआ भरने लगा। कुसुम चिल्लाने लगी - ‘‘हमारा प्राण चला जायेगा, मेरा बच्चा का क्या होगा’’? संगीता, कुसुम को हिम्मत दे रही थी और अपनी भाषा में बोल रही थी कि ‘‘बहिनी का करीयो, जो लिखल होई वहीं होई, निकल जाओ’’ (बहन क्या कर सकती हो जो लिखा होगा वो होगा, हम लोग निकलते हैं)। चारं महिलाएं नीचे आ रही थी, एक दूसरे को पकड़े हुए। उसमें संगीता की बहन की बेटी भी थी। कुसुम बताती है कि संगीता को कुछ याद आया और वह ऊपर चली गई। हम किसी तरह बाहर निकले, संगीता बाहर नहीं आ पाई। इस हादसे में संगीता, मंजू और सुहेल की दम घुटने से जान चली गई। कुसुम अभी सदमे है और वह संगीता की लाश को भी नहीं देखना चाहती। बस वह याद कर रही है कि किस तरह संगीता उसको हिम्मत देते हुए बाहर निकलने के लिए कह रही थी।
संगीता के रिश्तेदार बताते हैं कि संगीता का पति शराबी था और वह अपनी कमाई पूरा खर्च कर जाता था। संगीता ही बच्चों की देख-भाल के लिए पैसा जुटा कर गांव भेजती थी और वह बहुत ही मिलनसार स्वभाव की थी। पोस्टमार्टम होने के बाद लाश जब एम्बुलेन्स में रखी गई तो मालिक की तरफ से संगीता के परिवार को 10 हजार, मंजू के परिवार को 7 हजार और सुहेल के परिवार को 5 हजार रू. अंतिम संस्कार के लिये दिये गये और किसी तरह का आश्वासन नहीं दिया गया। कुसुम कहती हैं कि मालिक पैसा नहीं देगा, वह छुट्टी का भी पैसा नहीं देगा। कुसुम कहती हैं -‘‘उस फैक्ट्री में दुबारा जाने का दिल नहीं करता है, लेकिन बच्चे पालने हैं -जब मालिक बुलायेगा तो जाना ही पड़ेगा, क्योंकि दूसरी जगह काम करने पर 4-5 हजार रू. ही मिलेंगे। मेरी हाथ एक्सीडेंट में कमजोर हो गयी है तो दूसरे जगह काम मिलने में भी मुश्किल होगी। वहां पुरानी थी तो हमें काम का आइडिया है तो मैं काम कर लेती हूं‘‘।
दिल्ली में आग लगने और मजदूरों की जान जाने की न तो यह पहली घटना है और ना ही आखिरी। इससे पहले कुछ ही सालों में आग लगने के कई बड़े-बड़े हादसे हो चुके हैं, जिसमें सैकड़ों मजदूरां की जानें जा चुकीं हैं। बवाना, नरेला, पीरागढ़ी, शादीपुर, सुल्तानपुरी, मुंडका आदि जगहों पर आग लगने से मजदूरों की जानें जा चुकीं हैं और प्रशासन लाशें गिनने और अवैध वसूली करने में लगा हुआ है। फ्रेंड्स कॉलोनी गली नं. 1 में 14 जुलाई को आग लगने की घटना हुई थी। इससे दो माह पहले इसी गली में आग लगी थी। दिल्ली के आधुनिक कहे जाने वाले इंडिस्ट्रयल एरिया बवाना, नरेला और भोरगढ़ में औसतन प्रतिदिन एक से दो फैक्ट्री में आग लगती है, जैसे कि बवाना में 2017 अप्रैल से 2018 मार्च तक 465 फैक्ट्रियों में आग लगी, उसी तरह नरेला में यह संख्या 600 से अधिक है। बवाना में अक्टूबर, 2017 में लगी आग में 17 मजदूरों की जानें चली गईं थीं, उसके बाद भी दर्जनों मजदूर आग लगने से मर चुके हैं।
मंडोली के उस श्मसान घाट, जहां पर संगीता का पार्थिव शरीर को लिटाया गया था, एक श्लोक लिखा हुआ था -
‘‘मानुष तन दुर्लभ है, होय ना दूजी बार।।
पक्का फल जो गिर पड़े, बहूरी ना लगे डारि।।’’
यह श्लोक जहां इंगित करता है कि मनुष्य का शरीर दुबारा नहीं मिलता है वहीं पर मुनाफाखोरों के लिए इस शरीर की कोई कीमत नहीं है। एक शरीर खत्म होते ही दूसरा शरीर के शोषण के लिए मुनाफाखोर तैयार रहता है। जहां इस अमानवीय बर्ताव के लिए मुनाफाखोर पूंजीपतियों पर कड़े कानून लाकर शिकंजा कसने की जरूरत थी वहीं पर सरकार श्रम कानूनों में बदलाव कर और भी अमानवीय तरीके से मजदूरों के शोषण की  छूट दे रही है। शासन-प्रशासन मजदूरों की लाशों पर पैसा उगाही का काम करते हैं। अगर हम देखें तो हालिया घटना में किसी भी मालिक को कोई सजा नहीं हुई है। एक दिखावटी कानूनी खाना-पूर्ति करने के बाद उनको छोड़ दिया जाता है और वे दुबारा से मजदूरों के खून पीने के लिए तैयार रहते हैं। उनकी लूट का एक हिस्सा शासन-प्रशासन और सरकार में बैठे लोगों तक पहुंचता है। आखिर हम कब तक इस तरह के अमानवीय शोषण को बर्दाश्त करते रहेंगे? क्या हमारे पास इससे छुटकारा पाने के लिए कोई हथियार नहीं हैं? कब तक सरकार सोती रहेगी और मजदूरों को लूटने वालों को संरक्षण देती रहेगी? मंजू, संगीता और सुहेल की मौत की जिम्मेवारी किसकी है, इसके लिए किसको सजा मिलेगी?

शनिवार, 16 मार्च 2019

धनंजय शुक्ल की कहानी *ढाबा *

नगीना में रेलवे क्रासिंग से थोड़ा पहले एक ढाबा है, जिस पर ढाबा जैसा कुछ नही लिखा है, उसकी पहचान भी ढाबे जैसी नही है। उस पर दो बूढ़े सरदार रहते हैं। दोनों भाई हैं। दोनों हर दिन एक ही तरह के कपड़े पहनते हैं। ढाबा धुंआ से बिल्कुल काला हो गया है। वे साफ सुथरे सरदारों की तुलना में गंदे दिखते हैं, लेकिन हैं नही। उस पर खाना देने वाले या बर्तन धुलने वाले लड़के कभी लड़के रहे होंगे, लेकिन अब सब अधेड़ हैं। असल में ढाबे के बगल में ही, एक हर तरह की गाड़ियों के पंचर जोड़ने वाला बिहारी भी दुकान खोले हुए है, बाद में पता चला कि उसका असली मिस्त्री एक बंगाली है। अंदर बैठने की जगह पर उसने लोहे की कुर्सियां, और चारपाइयाँ डाल रखी हैं, अजीब एंटीक टाइप का माहौल रहता है। एक भूत टाइप का आदमी टहलता हुआ आया, उसने जब सलाद और चटनी सामने रखी तो वह चटनी को देखता ही रह गया, अभी दाल रोटी आने में देर थी तो उसने चटनी को मूली में लगा के चखा। तभी बेवजह ही उसके दिमाग में एक बूढ़ी सरदारनी का चेहरा घूम गया जो किसी बच्चे को चटनी रोटी खिला रही थी। जबकि वह पूर्वजन्म को नही मानता, कल्पना को कल्पना की तरह देख लेता है, अनुभव में उसने किसी सरदारनी को देखा नही। उसे लगा दिमाग के पर्दे पर उस चटनी के माध्यम से कोई उतरा था। कारण कुछ भी हो ! बाद में उस बूढ़े सरदार से बात करते हुए पता चला कि यह चटनी उसकी नानी ने उसे बनाना सिखाया था। उसकी नानी, लाहौर के पास के एक गांव की थीं,और बाबा, गुरुदास पुर में रहते थे।उसको अपना बचपन याद आ गया था। आजादी के पहले का गुरुदास पुर , यह उसकी आँखों में तैर रहा था। किसी बूढ़े की आँख में उसके बचपन की स्मृतियों से पैदा हुए भाव को तैरते हुए देखना, एक बहुत अलग अनुभव है ! असल में उसे सरदारों को देखने पर जो चीजें याद आती थीं, उनमें पाकिस्तान और भारत का बंटवारा तो आता ही था उसके अलावा गुरुनानक के साथ बाकी सभी गुरुओं का नाम भी ख्याल में आ जाता था। उसने अपने कस्बे में सरदार की कैसेट की दुकान पर सबसे पहले किसी सरदार को देखा था, उसे उस दौर के तमाम गानों की याद आयी, वह लिस्ट भी, जिसे कैसेट में भरने के लिए सरदार को दी थी। उसे अजीब लगता है वो जिस भी चीज को देखता है उससे उसका इतिहास झांकने लगता है। वह उन सरदारों को देखता है बड़ा भाई ज्यादा शांत है, उसके दुख के अनुभव ज्यादा लगते हैं, वो सीधा भी है। सीधा तो दूसरा भी है लेकिन वो थोड़ा बेहतर हिसाब किताब कर लेता है। दोनों बचपन के खेल की तरह ढाबा चलाते हैं। दोनों की पत्नियां खत्म हो गयी हैं। लड़के और नाती पोते बड़े महानगरों में बस गए हैं, एक तो विदेश चला गया है। वे गरीब नही हैं,लेकिन गरीबों के साथ रहते हैं। उनके पास लकधक देखकर आने वालों की संख्या नगण्य है, जो उसके स्वाद को जानते हैं वे ही उसके पास आते हैं। वे बताते हुए यह भी बताते हैं कि शुरुवात में उन्होंने अपना ढाबा कलकत्ता में खोला था, यह आजादी के तुरंत बाद की बात है। वह बंगलादेश बनने तक वहाँ थे। उसके बाद वे हरिद्वार चले आये थे। उन लोगों ने बताया कि वे लोग कई बार उजड़े और बसे हैं ! और यह ढाबा तो उन्होंने पचीस साल पहले इस क्रासिंग पर खोला था, तब यहां कोई नही रहता था, अब तो यह शहर के बीच में आ गया। उसे वे दोनों आदमी से ज्यादा किसी बड़े पेड़ की तरह लग रहे थे, जो ठूंठ में बदलते जा रहे थे, लेकिन आपस में बहुत बढ़िया संवाद की वजह से बीच-बीच में हरे भी हो जाते थे।

शुक्रवार, 8 मार्च 2019

'भारतीय चिंतन परंपरा' से गायब कर दिए गए हैं फुले, पेरियार और अंबेडकर

(युवा सामाजिक कार्यकर्ता नन्हेलाल द्वारा के. दामोदरन की पुस्तक 'भारतीय चिंतन परंपरा'
की संक्षिप्त आलोचना)

भारत के आधुनिक विचारकों में प्रमुख तीन शख्सियतों को हमें गिनाना हो तो ज्योतिबा फूले, रामासामी पेरियार और डॉक्टर भीमराव अंबेडकर होंगे । लेकिन आपको यह जानकर आश्चर्य होगा कि के. दामोदरन की किताब 'भारतीय चिंतन परंपरा' में उपरोक्त तीनों नायकों का कहीं भी चर्चा तक नहीं है । लेखक ने अपनी पुस्तक में जिन आधुनिक विचारकों की चर्चा की है वह निम्न है-
★ राजा राममोहन राय
★ स्वामी विवेकानंद
★ रविन्द्र नाथ ठाकुर
★ इकबाल
★ महात्मा गांधी
★ जवाहरलाल नेहरू

दुनिया में आधुनिक समाज का आगाज यूरोप में औद्योगिक क्रांति के साथ हुआ। इसकी वैचारिक पृष्ठभूमि यूरोप के पुनर्जागरण (1400-1650) ईसवी और प्रबोधन(ज्ञानोदय) 1650-1780 ईसवी में ही रख दी गई थी। इस दौर में यूरोप में इस कदर खलबली मची हुई थी कि पूरा समाज उथल-पुथल के दौर से गुजर रहा था। एक तरफ तो पुरानी सामंती व्यवस्था जो मुख्यतः कृषि अर्थव्यवस्था पर निर्भर थी और सामाजिक व्यवस्था पर राजे रजवाड़ों और धर्म की ताकत का बोलबाला था। इसी के गर्भ से जन्मा दस्तकारी और इसका हमसफर वैज्ञानिक चिंतन ने पुरानी व्यवस्था को ध्वस्त करने का आंदोलन तूल पकड़ लिया । धर्म की ईश्वरीय सत्ता को चुनौती दी जाने लगी और हर चीज को तर्क की कसौटी पर कसा जाने लगा। मानव मात्र को केंद्र में रखकर हर घटनाएं और इतिहास परखा जाने लगा। यूरोप ज्ञान के मामले में इतना अधैर्य था कि दुनिया के हर संभव कोनों से संपर्क स्थापित करने की कोशिश की और साथ ही अब तक के लिखित इतिहास को खंगालने में जाने में जुटा रहा। ठीक इसी वक्त दुनिया के तमाम देश धीरे-धीरे ब्रिटेन के उपनिवेश भी बने। पुनर्जागरण और प्रबोधन हर अतार्किक चीज को नकारा और इंसान केंद्रित स्वतंत्रता, समानता और बंधुत्व इसका प्रमुख नारा बन गया। ज्ञानोदय के इसी आभामंडल ने विज्ञान को कुलांचें भरने की जमीन मुहैया कराया।
जब एक तरफ यूरोप आगे बढ़ रहा था तब भारत जैसे तमाम देश यूरोपी देशो के उपनिवेश बन रहे थे और गुलाम देशों के शोषण से यूरोप को आगे बढ़ने का ईंधन मुहैया हो रहा था। यूरोप अपनी दासता के पुराने बेड़ियों को तोड़ रहा था जो कृषि आधारित सामाजिक संरचना से उपजे थे। दूसरी तरफ औधोगिक क्रांति मानवता की दासता की नई बेड़ियों को अपने साथ लिए हुए था । कहने का मतलब है कि औद्योगिक समाज को अपने नई दासता की बेड़ियों से अभी उसे कोई आभास नहीं था। लेकिन सामंती दासता को वह अब बर्दाश्त नहीं कर सकता था जो मानव समाज की स्वभाविक गति से उपजी थी।
 भारत में आधुनिक विचार ब्रिटेन के खिलाफ मुक्ति संघर्ष के दौरान ही अपना आकार ग्रहण किया। भारत ब्रिटेन का गुलाम बनने से पहले यूरोप और पश्चिम एशिया के आक्रमणकारियों से हर हमेशा तहस-नहस होता रहा ।भारतीय उपमहाद्वीप की स्वाभाविक सामाजिक संरचना को देखें तो यह अनेक रियासतों में बटा हुआ था और वर्ण  व्यवस्था की जकड़न कहीं अधिक तो कहीं कम थी जो कृषि अर्थव्यवस्था पर टिकी हुई थी। यदि भारतीय सामंती समाज को आधुनिक समाज में बदलना था तो उसे पुरानी वर्ण व्यवस्था की सामाजिक संरचना को ध्वस्त कर देना था और इसकी दासता से मुक्त होकर औद्योगीकरण में पदार्पण करना था किंतु ब्रिटेन के उपनिवेश हो जाने के कारण यह स्वाभाविक गति अवरूद्ध हो गई।

के. दामोदरन ने जिन भारतीय आधुनिक विचारों का नाम गिनाया है वह भारत के वर्ण व्यवस्था में ही पले बढ़े थे और उन्हीं पुरानी मूल्यों मान्यताओं के साथ खड़े थे। एशियाई महाद्वीप में यूरोप जैसा पुनर्जागरण और प्रबोधन का सामाजिक उथल पुथल नहीं हुआ जो इस पूरे महाद्वीप को अपने आगोश में ले सकें और औद्योगिक समाज के नए मुल्यों से मानव समाज को सराबोर कर दे। लेकिन इस तथ्य से कौन इनकार कर सकता है कि इस जमीन पर अलग-अलग काल खंडों में वर्ण व्यवस्था को जबरदस्त चुनौती मिली थी। बौद्ध धर्म तो ब्राह्मणवाद के खिलाफ ही संघर्ष करते हुए खड़ा हुआ था। लेकिन वर्ण व्यवस्था के खिलाफ संघर्ष इस पूरे उपमहाद्वीप को एक सूत्र में नहीं पिरो पाया। वर्ण व्यवस्था के खिलाफ संघर्ष की निरंतरता अंग्रेजी शासन के खिलाफ संघर्षों के दौरान ज्योतिबा फुले,  पेरियार और अंबेडकर में दिखाई देती है। चिन्हित करना कठिन नहीं है कि राजा राममोहन राय, स्वामी विवेकानंद, रविंद्र नाथ ठाकुर, इकबाल, महात्मा गांधी और जवाहरलाल नेहरू भारत के आधुनिक विचारों की श्रेणी में नहीं आ सकते जो किसी न किसी रूप में सामंती समाज की सामाजिक संरचना वर्ण व्यवस्था की आलोचना तो करते हैं किंतु इसके पूर्ण खात्मे की बात कतई नहीं करते।
अब हम आते हैं 'भारतीय चिंतन परंपरा' के लेखक के. दामोदरन के दृष्टि भ्रम पर। इस बात से इनकार करना बेमानी होगी कि लेखक मार्क्सवादी विज्ञान से परिचित नहीं है जो दुनिया के पैमाने पर अब तक उपलब्ध मानव समाज के विश्लेषण का अचूक हथियार साबित हो चुका है। आखिर लेखक ने आधुनिक विचारक के लिए क्या मानदंड बनाया है?
क्या आधुनिक विचारक उन्हें मान लिया जाए जो पुराने मूल्यों मान्यताओं या मूल रूप से कृषि अर्थव्यवस्था पर टिकी सामाजिक संरचना वर्ण व्यवस्था के पैरोकार होते हुए भी औद्योगिक समाज के मूल नारे स्वतंत्रता, समानता और बंधुत्व को भी स्वीकार कर ले?
यदि भारतीय समाज का स्वाभाविक विकास होता और वर्ण व्यवस्था के खिलाफ निर्णायक संघर्ष अपने मुकाम को हासिल करता तो क्या ये तथाकथित आधुनिक विचारक सभ्यता के दोनों नावों पर सवार रहते?
मेरा मानना है कि ऐसा नहीं होता तो फिर इन्हें आधुनिक विचारक कैसे मान लिया जाए?

यह कहना अतिशयोक्ति नहीं होगा कि के. दामोदरन ने भारतीय समाज को समझने के लिए ऐतिहासिक भौतिकवाद का इस्तेमाल करने में चूक की है । मार्क्स के शब्दों में 'अब तक का ज्ञात (लिखित) मानव इतिहास वर्ग संघर्षों का इतिहास है', तो भारत में भी सनातन परंपरा के खिलाफ  भौतिकवादी परंपरा हर हमेशा मौजूद रही होगी; जो लोकायत/ श्रमण परंपरा थी। भारत में प्राचीन काल से ही हर दौर में सनातनी परंपरा के खिलाफ लोकायत/ श्रमण परंपरा हमेशा चुनौती के रूप में खड़ी रही है । इसे मुखर रूप से चिन्हित करने और तथ्यों को सामने लाने में श्रेय बहुजन चिंतकों और लेखकों को दिया जाना चाहिए जिन्होंने धर्म ग्रंथों से भी इस संघर्ष परंपरा के सार को अपनी लेखनी के माध्यम से जनता तक पहुंचा रहे हैं। लेखक के पक्ष में यदि हम यह मान भी लें कि ब्राह्मणवादी बहुत ही आक्रामक थे और श्रमण परंपरा के नायकों और उनके लिखित दस्तावेजों को नष्ट कर देते थे तो भी ऐतिहासिक भौतिकवाद पर पकड़ रखने वाले चिंतक का दृष्टि भ्रम स्वाभाविक नहीं लगता। वह इसके साक्ष्यों को अन्य स्रोतों में भी तलाश करेगा , वह दुश्मन के साहित्य में भी ढूंढने की कोशिश करेगा।
मेरा मानना है लेखक ने यूरोप के सामाजिक संरचना को भारतीय समाज पर आरोपित करने का प्रयास किया है और जाति व्यवस्था के प्रश्न से बचने की कोशिश की है । जाति व्यवस्था ऐसा जटिल सा दिखता है जिसमें श्रमिक वर्ग का भी कई संस्तरों पर विभाजन सा प्रतीत होता है। किंतु यह स्थिति बाद की है जबकि प्राचीन और मध्य काल तक तो शुद्र और अछूत जातियां ही सर्वहारा वर्ग के रूप में मौजूद रही होंगी।  लेकिन यह प्रश्न चाहे जितना भी जटिल हो इससे किनाराकशी करने पर सनातन परंपरा के खिलाफ श्रमण परंपरा की पूरी क्रांतिकारी विरासत ही आंखों से ओझल हो जाती है और क्रांतिकारी विरासत के रूप में हम हंसिया हथौड़ा लेकर शून्य में टटोलते नजर आते हैं । इस दृष्टि भ्रम का ही नतीजा है कि ब्राह्मणवाद का ही मानवीय चेहरा के रूप में निकला आर्य समाज, ब्रह्म समाज, प्रार्थना समाज इत्यादि को मानने वाले जो जाति व्यवस्था में थोड़ा सुधार तो चाहते हैं पर उसका विनाश कतई नहीं चाहते और उन्हें ही हम आधुनिक विचारक घोषित करने में लगे हुए हैं।