मंगलवार, 22 मई 2018

योगीराज में भगत सिंह की दुर्गा भाभी का स्कूल हड़पने में जुटे बिल्डर!

क्रांतिकारी दुर्गा भाभी द्वारा स्थापित लखनऊ मॉंटेसरी स्कूल को लखनऊ में कुछ निहित स्वार्थ तत्व एवं बिल्डर फ़र्ज़ी दस्तावेज़ बनाकर हड़पना चाहते हैं .

इस साज़िश में रजिस्ट्रार सोसायटीज और शिक्षा विभाग के कुछ अधिकारी शामिल हैं.
इस विद्यालय की आधारशिला स्वयं नेहरू जी ने रखी थी . यह विद्यालय सचिवालय से बहुत क़रीब है और ज़मीन बहुमूल्य . यह विद्यालय हमारी सामाजिक – धरोहर है .
इन लोगों की साजिश को विफल करने के लिए सिविल सोसायटी को आगे आने की ज़रूरत है .
बिलकुल यही तरीक़ा बनारस के राजघाट में लोकनायक जय प्रकाश नारायण द्वारा स्थापित गांधी विद्या संस्थान को हड़पने के लिए अपनाया गया था .
विद्यालय को ग़लत हाथों में जाने से बचाने के लिए लखनऊ के नागरिक समाज की ओर से सोमवार 21 मई को सायं पॉंच बजे जी पी ओ पार्क में महात्मा गॉंधी, डा अम्बेडकर और सरदार पटेल की प्रतिमाओं के समक्ष प्रार्थना करके संकल्प लिया जायेगा .
निवेदक
प्रो. प्रमोद कुमार श्रीवास्तव 9415109017
संदीप पांडेय 05224242830
नवीन तिवारी 9935008249
जय प्रकाश 9415933805
देवेन्द्र 9648081000

गुरुवार, 17 मई 2018

आज के कश्मीर की आंखों देखी जमीनी हक़ीकत

  अंकल आप लोग श्रीनगर में हमारे घर ठहरिए

  •                   भगवान स्वरूप कटियार

जलियांवाला बाग की शताब्दी में शामिल होने के लिए लखनऊ छह साथियों का एक शहीद यात्रा दल अमृतसर गया था। इसके पहले भी यह 2011 में हुसैनीवाला फिरोजपुर शहीद यात्रा में गया था जहाँ, भगत सिँह, राजगुरु और सुखदेव का अंतिम संस्कार किया गया था। आज के इस दौर में जलियांवाला बाग काण्ड के हत्यारे जनरल डायर से इंग्लैंड में जाकर बदला लेने शहीद ऊधम सिंह को याद करना बहूत जरूरी है जिन्हें हम भुलाते जा रहे है।उधम सिंह जनरल को मार कर उसी तरह देश की क्रांतिकारी धारा को धार दी जिस तरह भगत सिंह औऱ उनके साथियों ने लाला लाजपतराय की हत्या का बदला साण्डर्स को मार कर की थी।इन शहीदों के विचारों और सपनों के बारे में आज हम सब देशवासियों को सोचने की जरूरत है और देश की फासीवादी सरकार को उखाड़ फ़ेंकने की भी जरूरत है। इस शहीद यात्रा दल में शामिल है एम के सिंह,रामकिशोर,मसूद साहब,ओ पी सिन्हा, बी एस कटियार,विपिन त्रिपाठी ।इन्क़लाब जिंदाबाद। यहां से ये साथी जम्मू से होते हुए कश्मीर की यात्रा पर गये। वहां आंखो देखी आपके लिए ....(पहली किस्त)

किसी भी देश या उस क्षेत्र का जहां लोग अपने सामाजिक–सांस्कृतिक वजूद के साथ रहते हैं और अपनी शैली में जिन्दगी जीते हैं, एक तहजीब और अपनी पूरी कायनात रचते हैं, उसे महज़ धरती का एक टुकड़ा समझना नाइंसाफ़ी होगी। रंग–रूप और जीवनशैली की विविधिता इंसानी एकता में कहीं बाधा नहीं बनती। फिर यह जंग क्यों? फौजें और सरहदें क्यों? कुछ ऐसे ही और कई सवालों के जवाब ढूंढने के ‌लिए लखनऊ से कुछ सामाजिक कार्यकर्ता पिछले दिनों धरती की जन्नत की सैर पर गए। वहां उन्होंने जो कुछ देखा, महसूस किया उसे साझा किया है। 
लखनऊ से चार सामाजिक कार्यकर्ता एमके सिंह, मोहम्मद मसूद, ओपी सिन्हा और बीएस कटियार कश्मीर की जमीनी हकीकत को समझने के लिए वहां गए थे। बिना किसी बैनर या मंच के वे कश्मीर के गांवों में गए, कालेजों में छात्र-छात्राओं और प्रोफेसरों से मिले। उनके मुताबिक धरती की जन्नत की उनकी यात्रा के प्रेरणास्रोत थे जाने-माने विचारक, चर्चित लेखक और एक्टविस्ट गौतम नौलखा। पिछले साल लखनऊ में आयोजित एक गोष्ठी में उन्होंने कहा था कि हम लोगों को कश्मीर जाकर वहां के लोगों से मिल कर हक़ीकत जाननी और समझनी चाहिए। 13 अप्रैल को अमृतसर में जलियांवाला बाग हत्याकांड की शताब्दी में शामिल होते हुए 14 अप्रैल को चारों लोग जम्मू पहुंचे और फिर यहां से टैक्सी से श्रीनगर के लिए रवाना हुए|
  हमारी टैक्सी का चालक एक कश्मीरी नौजवान इरफ़ान था। वह श्रीनगर में रहता है। उसने रास्ते में हम लोगों से कहा अंकल आप लोग श्रीनगर में हमारे घर ठहरिए। हमारे मेहमान बनिए। हम आपके रहने-खाने का इंतजाम करेंगे और पूरा श्रीनगर अपनी गाड़ी से घुमएंगें। कश्मीर की कश्मीरियत से यह हमारी शुरुआती मुलाकात थी। दहशत, तनाव और तबाही के इस दौर में इरफान की बातों ने हमें कश्मीरियों की इस सहृदयता और मेहमाननवाजी को सलाम करने को मजबूर कर दिया। हमने उसे शुक्रिया कहा।
हमें अपने पूर्व निर्धारित कार्यक्रम के अनुसार अनंतनाग से लगभग 15 किलोमीटर दूर पहलगाम रोड पर अक्कड़ गांव जाना था, जहाँ बिलाल मियां (बिलाल रैना) अपने वालिद मोहम्मद सुल्तान रैना और अपने परिवार के साथ हमारा इंतजार कर रहे थे। इरफ़ान भले ही टैक्सी चलाता है, लेकिन उसने अलीगढ़ से एमए बीएड की डिग्री हासिल की है। वह घर में अकेला मर्द है और पांच बहने हैं, जिनको पढ़ाने-लिखाने और शादी-ब्याह की जिम्मेदारी उसके कन्धों पर है। उसके वालिद और मां का पहले ही इन्तकाल हो चुका है। उसने बताया कि उसके दो बड़े भाइयों को आतंकी बता कर इनकाउन्टर में मार दिया गया, जिसमें एक सरकारी नौकरी कर रहा था। इरफ़ान को अपने भाई की जगह नौकरी इसलिए नहीं दी गयी, क्योंकि उसके भाई को आतंकी कहा गया और उसका एनकाउन्टर किया गया था। उसने पैसों को इंतजाम किया और टैक्सी खरीदी, जिसे वह खुद चलाता है। 
कश्मीर में गरीबी नहीं नजर आती। हर किसी के पास कम से कम अपना घर चलाने और खाने-कमाने के लिए कुछ न कुछ तो है। कश्मीरी मेहनती, ईमानदार और स्वाभिमानी होते हैं इसलिए कोई भी काम उनके लिए छोटा-बड़ा नहीं होता है। लखनऊ में जाड़े के मौसम में ये लोग हमारे यहां भी आते हैं। हम उनसे कश्मीरी शाल और मेवे खरीदते हैं। इनमें से कमोवेश सभी कश्मीरी किसान होते हैं, जो पारा माइनस में जाते ही यूपी, बिहार में कारोबार के लिए निकल पड़ते हैं। यद्यपि अब कश्मीरी नौजवानों की एक बड़ी संख्या बेरोजगारी की भी शिकार है जो बेकार घूम रहे हैं। वे मेहनती और स्वाभिमानी हैं, इसलिए सेब और अखरोट के बगीचे उनकी मेहनत के पसीने से महकते-लहकते रहते हैं। कश्मीरी खुद नहीं बोलते पर कश्मीर के हालात जानने के बारे में कहने पर वे बम की तरह फूट पड़ते हैं। यह तजुर्बा हमें अपनी पूरी कश्मीर यात्रा में लोगों से मिलते हुए हुआ। चाहे छात्र हों या अध्यापक या किसान-मजदूर या कारोबारी सबके दिल जख्मी हैं और दर्द से भरे हैं। इसके बावजूद उनमें किसी हिन्दू या किसी हिन्दुस्तानी के प्रति जरा भी नफ़रत नहीं नजर आती है। 
हमने पाया कि उनका झुकाव पाकिस्तान की तरफ भी नहीं है। वे किसी पर शक–सुबहा भी नहीं करते हैं। इरफ़ान की तरह और भी लोग मिले जो आज के मीडिया से शख्त नफ़रत करते हैं। वे कहते हैं कि मीडिया ने कश्मीर की छवि बिगाड़ी है। वे फ़ौज और मीडिया से एक जैसी नफ़रत करते हैं। इरफान उम्मीद और आत्मविश्वास से लबरेज नौजवान है। उसने कहा कि हमारे पास पानी है, जंगल हैं। पानी से बिजली बना कर और जंगलात की लकड़ी निर्यात कर कश्मीर को इंग्लैंड बनाया जा सकता है। हमें किसी से मदद लेने की जरूरत नहीं है। कश्मीर के जितने लोगों से हम मिलने उनमें से 90 प्रतिशत आज की राजनीति से ऊबे हुए और गुस्से से भरे हुए नजर आए। महबूबा मुफ़्ती हों, उमर अब्दुल्ला, गिलानी या मोदी उसके लिए सब एक जैसे हैं। कश्मीर की इस हक़ीकत से हमारा पहला साक्षात्कार था। 
कश्मीर के खराब हालात के नाम लोगों को डराया जा रहा
कश्मीर के स्‍थानीय लोगों ने बताया कि पहले यहां काफी टूरिस्ट आते थे, लेकिन जिस तरह से लोगों को कश्मीर के खराब हालात के नाम पर डराया जा रहा है, उससे अब टूरिस्ट की तादाद में काफी गिरावट आई है। कुछ लोग इसमें हिमाचल के मीडिया की साजिश भी बताते हैं, ताकि टूरिस्ट हिमाचल ज्यादा जाएं। यह अतिरंजना भी हो सकती है, पर उनका नजरिया मीडिया के प्रति किस स्तर तक बिगड़ गया है, यह कश्मीरियों से मिलते हुए हमें साफ नजर आया। एक और खास बात कश्मीर के नौजवान देश के अन्य हिस्सों के मुताबिक ज्‍यादा राजनीतिक, सामाजिक और आर्थिक चेतना से लैस नजर आए।

बच्ची की हत्‍या से उबल रहा कश्मीर
जम्मू के कठुआ के रसाना गांव में आठ साल की मासूम बच्ची के साथ दुष्कर्म और हत्या के खिलाफ प्रतिरोध की लपटें पूरे कश्मीर में दिखाई दीं। इसमें नौजवानों और छात्र-छात्राओं की शिरकत सबसे ज्यादा दिखी। कमोवेश हर इलाके में इसके खिलाफ लोगों में उबाल नजर आया। लोगों की एक ही मांग है कि हत्यारों को कड़ी से कड़ी सजा दी जाए। इस मामले में की जा रही राजनीति के प्रति उनमें दिली नफरत नजर आई।

बुधवार, 16 मई 2018

जम्मू कश्मीर की बर्बादी की कहानी, रेशम की जुबानी (पहली किश्त)

  • किसानों को महज 30 दिन में लखपति बनाने की क्षमता वाले सेरीकल्चर विभाग की अब तक छीनी  जा चुकी है हजारों कनाल जमीन
  • गरीब और भूमिहीन किसानों, घरेलू महिलाओं, कामगारों और बेरोजगार युवकों को छिन रहा रोजगार 
  •  हजारों रेशम उत्पादकों की आजीविका पर मंडरा रहा खतरा
                      देवेन्द्र प्रताप, जम्मू
जम्मू कश्मीर के लोगों को केंद्र सरकार हमेशा भिखारी बनाए रखना चाहती है। वरना यहां संशाधनों की कोई कमी नहीं है। पुराने जमाने में जिस रेशम के कपड़े ने पूरी दुनिया का ध्यान भारत की तरफ खींचा उसमें कश्मीर के कोकून का अहम रोल है, पर आज इतिहास के पन्ने पलटने की किसे फुरसत है। दुनिया में सबसे अच्छा रेशम कश्मीर में पैदा होता है। सिल्क रूट पर इसने राज किया। जम्मू में एक मुहल्ला ही रेशम घर बन गया, जहां लेखक रहता है। बाकी आगे......

जम्मू-कश्मीर में एक तो पहले ही रोजगार के अवसर काफी कम हैं, लेकिन जो क्षेत्र यहां के लाखों लोगों को स्वरोजगार दे सकता है, उसका दम घोंटा जा रहा है। कभी रियासत की शान रहा और लाखों लोगों को रोजगार देने वाला रेशम उद्योग आज अपनी बदहाली पर आंसू रो रहा है। महज 30 दिन के अंदर किसी भी गरीब किसान को लखपति बनाने वाले विभाग की जमीनें छीनकर उसे लाचार बनाया जा रहा है। इससे लाखों गरीब और भूमिहीन किसानों, घरेलू महिलाओं, कामगारों और बेरोजगार युवकों की आजीविका खत्म हो जाएगी। 
 सेरीकल्चर विभाग के पास पूरी रियासत में हजारों कनाल जमीन है। इसमें लाखों शहतूत के पेड़ लगे हैं। इनकी पत्तियां रेशम बनाने वाले कीट खाकर कोकून बनाते हैं, जिनसे रेशम बनता है। इन्हीं जमीनों पर सेरीकल्चर विभाग की फैक्ट्रियां और अन्य प्रोसेसिंग यूनिट बनी हैं।  इन सबके बावजूद राज्य सरकार विकास के नाम पर सेरीकल्चर विभाग की लगातार जमीनें छीनती रही है। जम्मू संभाग में मेडिकल कालेज के हास्टल के लिए,रिंग रोड के लिए, रामबन बस स्टैंड, कटड़ा में रेलवे और म्यूनिसिपल कमेटी के लिए व इसी तरह कई अन्य इलाकों में विकास के नाम पर सरकार ने सेरीकल्चर विभाग की जमीनें ले लीं हैं। अब तो विभाग के पास इसी तरह कश्मीर संभाग के अंदर वस्सू में विस्थापितों की कालोनी के लिए, बनिहाल में पुल निर्माण के लिए, श्रीनगर के तुलसीबाग में सरकारी क्वार्टर्स के निर्माण के लिए भी सैकड़ों कनाल जमीन सरकार ने छीन ली है। ऐसे में सवाल उठता है कि यदि शहतूत के पेड़ उगाने के लिए इस्तेमाल की जाने वाली जमीनें यूं ही सरकार छीनती रहेगी, तो भला रेशम के कीड़ों के भोजन के लिए शहतूत की पत्तियां कहां से आएंगी।

एक माह में लाखों रुपये कमाते हैं किसान
वर्ष कोकून उत्पादन (एमटी में) किसानों को आय (लाख रुपये में)
2008-09  738 455.67
2010-11 860 1100
2012-13 901 1193
2014-15 1032 1907.49
2016-17 973 1921.12
नवंबर 2017 तक 900 2000

कब खुलेगी सरकार की आंख
आंध्रप्रदेश, तमिलनाडु, प. बंगाल के किसान एक साल में 2-3 बार कोकून पैदा करते हैं। इसे मल्टीक्रापिंग) कहा जाता है। जम्मू-कश्मीर में इस क्षेत्र से जुड़े किसान साल भर में एक ही सीजन में कोकून का उत्पादन करते हैं। यहां रेशम उत्पादन बढ़ाने में न तो केंद्र सरकार और न ही राज्य सरकार कोई खास ध्यान दे रही है। रियासत में न तो रेशम उत्पादकों को पर्याप्त तकनीकी मदद मिल रही है और न जरूरत के मुताबिक शोध हो रहे हैं। इसके बावजूद जम्मू-कश्मीर के रेशम की गुणवत्ता इतनी अच्छी होती है कि राज्य का कोई भी किसान थोड़ी सी मेहनत से 26-27 दिन में लखपति बन सकता है। इसलिए केेंद्र और राज्य सरकार को रियासत में उन्नत गुणवत्ता के रेशम उत्पादन के लिए विशेष प्रयास शुरू करने चाहिए। इससे राज्य में बढ़ रही बेरोजगार युवाओं की फौज को रोजगार भी मिलेगा।

( एक और जरूरी लेख पढ़ें
https://100flovers.blogspot.com/2013/04/blog-post_272.html?m=1)

मंगलवार, 15 मई 2018

आग में जलती बस्तियां

सुनील कुमार
गर्मी का मौसम शुरू होते ही आग लगने की घटनाओं में तेजी आ गई है। दिल्ली में लगातार हो रही घटनाओं में 24 तारीख को 11.30 बजे सुबह शाहबाद डेरी की बंगाली बस्ती से आग लगने की सूचना आई। मैं वहां पर एक बंगाली बस्ती को पहले से जानता था क्योंकि 18 मार्च, 2016 को झुग्गी में बदमाशों ने सुबह 4 बजे आग लगा दी थी और जब वह दुबारा झुग्गी डालने कि कोशिश की तो कुछ गुंडे आकर फायरिग भी किए थे। मुझे जब न्यूज पेपर के माध्यम से जब इस घटना का पता चला तो मैं उस बंगाली बस्ती के पास गया तो पता चला कि आग की घटना इस बार शाहबाद एक्सटेंशन पार्ट-2 का है। मैं जब बस्ती में जा रहा था तो दो स्कूली बच्चे मिले जो कि आपस में बंगला में बातचीत कर रहे थे। मैंने उनसे पूछा कि आप कि बस्ती में आग लगा है तो वे बोले कि नहीं मेरे बस्ती के बाद दूसरी बस्ती है वहां आग लगी है। उनसे पूछा कि आप लोग नहीं गए थे वहां परउन्होंने बताया कि जब बस्ती जल रही थी तब गए थे सभी झुग्गियां जल गई क्योंकि आग बुझाने के लिए पहले एक ही गाड़ी आई थी और उसमें भी आधा पानी थाजब झुग्गियां जल गई तब बहुत सी आग बुझाने वाली गाड़ियां आईलोगों का कोई समान नहीं बचा। बच्चों की वो झुग्गियां आ गई जहां वो रहते थे इससे आगे की झुग्गी मे आग लगी थी। मुझे आगे का रास्ता बताते हुए वह अपने झुग्गी के अंदर चले गए। मैं आगे बढ़ा तो देखा कि एक नाले के किनारे-किनारे एक बस्ती जली हुई है वहां पर तीन टेंटएक टॉयलेट और एक जल बोर्ड का टैंकर दिख रहा था। पास में जाने पर देखा कि कुछ लोग अपने जली हुई झुग्गियों के राखों में से कुछ कागज के टुकड़े उठा कर ध्यान से पढ़ने कि कोशिश कर रहे हैं। इस काम में महिलाएंबच्चे और आदमी भी शामिल थे कई बार पूछने के बावजूद भी वह कोई जवाब देना उचित नहीं समझे और अपने कामों में लगे रहेकागज के टुकड़ा उठाते गौर से देखते फिर दूसरे टुकड़े उठाते। किसी तरह राजेश से बात हो पाई वह भी राख के ढेर से कुछ खोजने कि उम्मीद के साथ लगे हुए थे। राजेश ने बताया कि इस बस्ती में इटावा के छह परिवार रहते हैं जो पीओपीट्रेवल एजेंसीकोरियर का काम करते हैं। राजेश पीओपी का काम करते हैं जिस समय आग लगी वह काम पर गए हुए थे और उनका सभी सामान जल कर खाक हो गया जिसमें करीब एक लाख रू. का नुकसान हुआ है। उनको चिंता हैं कि सरकार मुआवजा देगी भी या नहीं।
राजेश से बात करके आगे बढ़ा तो देखा कि कुछ लोग जले हुए सामानों को राख के ढेर से इक्ट्ठा कर रहे हैं तो कुछ बोरे में भर रहे हैं। यहां पर चमेली मिली जो कि आठवीं कक्षा में पढ़ती है और दूसरी बस्ती में रहती है वह अपनी दोस्त पायल की मद्द करने आई है जो कि खाना लेने गई है। चमेलीपायल के परिवारों वालों के साथ राख के ढेर से जले हुए बर्तनों को इक्ट्ठा कर रही थी जिससे उसको बेच कर कुछ पैसा मिल जाए। इसी तरह से सातवीं में पढ़ने वाले इमरान शेख भी अपने परिवार की मद्द कर रहे थे। पायल के पिता अब्दुल बारीक कबाड़ चुनने का काम करते हैं।
अनारूल विरभूम जिले के रहने वाले हैं और चार साल के उम्र से मां-पिता के साथ दिल्ली में रह रहे हैं। पहले वह संजय अमर कॉलोनी में मां-पिता के साथ रहते थे लेकिन उनकी झुग्गी 14 साल पहले तोड़ दिया गया और बवाना में 12 गज का प्लाट मिला जिनमें पूरे परिवार का रहना नामुमिकन था। अनारूल अपने परिवर के साथ शाहबाद में रह कर सोसाइटी से कूड़ा इक्ट्ठा करने का काम करते हैं।
मंगलू (45) विरभूम जिला के रहने वाले हैं और 40साल से दिल्ली में रह रहे हैं। मंगलू बताते हैं कि 16साल शाहबाद इलाके में रहते हैं और इस बस्ती में 7साल से रह रहे हैं। मंगलू के परिवार में 5 सदस्य हैं जिसमें से दो बेटे सलाम (18) और मिठू (28) रोहणी सेक्टर 28 और 16 में घरों से कूड़ा इक्ट्ठा करने का काम करते हैं। मंगलू सेक्टर 17 के सोसाइटी से कूड़ा इक्ट्ठा करते हैं। घरों से कूड़ा उठाने का मेहनताना उन्हें केवल कूड़ा मिलता है जिसमें से प्लास्टिककागजगत्ते छांट कर वह अपना गुजारा करते हैं। मंगलू बताते हैं कि उनकी14 साल की बेटी परबिना का सरकारी स्कूल रोहिणी सेक्टर 26 में दाखिला नहीं ले रहे हैं और बेटे सलाम का आठवीं का सार्टिफिकेट नहीं दे रही है प्रीसिंपल। इसी तरह कि चिंता रिंकी बेगम पत्नी सूरज शेखमनी पत्नी बबलू को भी सता रही है कि इनके सभी दस्तावेज और सामान जल गए हैं उनके बच्चों को कोई प्राब्लम तो नहीं आएगी। रिंगी बेगममनी के पति भी रोहिणी के अलग-अलग सेक्टरों से कूड़ा उठाने का काम करते हैं और यह महिलाएं घरों मे साफ-सफाई (डोमेस्टिक वर्कर) का काम करते हैं। रिंकी बेगम बताती हैं कि वह छह साल से कूड़े में मिलने वाली धातु (तांबापितलएल्युमिनियम) को इक्ट्ठा करके रखी थी घर में। इस आग ने उनके छह साल के इक्ट्ठे किए हुए धातु को गला दिया इसके साथ ही रिंकी को घर जाने का अरमान भी चूरचूर हो गया जो कि वह छह साल से अपने दिल में पाल रखी थी।
शाहबाद एक्सटेंशन के पार्ट 2 में करीब 85झुग्गियां थी वह सभी जल कर राख हो गई। शाहबाद में काफी झुग्गी बस्तियां बंगाली बस्ती के नाम से जानी जाती है। इस बस्ती में रहने वाले लोग बंगाली हैं और सड़कोंरोहिणी की सोसाईटियों से कूड़ा उठाने का काम करते हैंमहिलाएं घरों में सफाई का काम करती है। इनमें बहुत ऐसे लोग हैं जिनकी पैदाईश दिल्ली की ही है और वो बचपन से ही कूड़ा चुन कर अपना गुजारा करते हैं और दिल्ली को स्वच्छ रखने में इनडायरेक्ट योगदान करते  हैं। यह बस्ती वाले तो रहते हैं सरकारी जमीन पर लेकिन इनसे भाजपा नेता नरेन्द्र राणा (कुलवंत राणा का भाई) इनसे प्रति गज 15 रू. और बिजली का प्रति यूनिट 10 रू. लेता है। यह रेट अलग-अलग इलाके का अलग-अलग है कहीं कहीं यह रेट20 रू. प्रति गज (80 सेंटीमीटर) भी है और यह रकम नरेद्र राणा के रहमो करम के अनुसार घटता-बढ़ता भी है।
दिल्ली का केवल शाहबाद इलाका ही नहीं रिठालाजहांगीरपुरीतुगलकाबादनवादा इत्यादी जगहों पर कबाड़ चुनने वाले लोगों से सरकारी जमीन का किराया वसूला जाता है। प्रशासन भी इस बात को जानती हैं लेकिन वह अपना आंखकानमुंह बंद किए हुए इस लूट में शामिल रहती है। 
आग लगने के बाद शासन-प्रशासन दो-चार दिन खाना और दो-चार टेन्ट सप्ताह भर लगा कर अपने कार्यों को इतिश्री कर लेती है। आखिर कब तक दिल्ली में इस तरह से बस्तियां जलती रहेंगी और लोगों की सालों-साल की कमाई जलकर खाक हो जाती है जिसके एवज में 20-25 हजार रू. सरकार देकर बोलती है कि हमने मुआवजा दे दिया है। आग से केवल उनके घर और समान ही नहीं जलते बच्चों के अरमान भी जल जाते हैं। जैसा कि इस बस्ती में आग लगने के बाद बच्चों को चिंता है कि स्कूल में आगे क्या होगाजब बच्चों को खबर मिली तो वह स्कूल से रोते हुए आए और अपने जले हुए कपड़े और सामानों को देखकर उनके दिल में चोट पहुंचती है जिसकी भरपाई करना मुश्किल होता है। कब तक जलती रहेंगी बस्तियांकब तक इनके साथ भेदभाव होता रहेगाकब तक इनके साथ अछूतों जैसा व्यवहार होता रहेगाआखिर कब तक इनको सरकारी जमीन का किराया देता रहना पड़ेगाकब तक वोट के लिए जहां झुग्गीवहां मकान का जुमला चलता रहेगा?

लाल बाग बस्ती उजड़ने-बसने की कहानी

सुनील कुमार
मानसरोवर मेट्रो स्टेशन के ठीक बगल में एक बस्ती है लाल बाग। इस जगह जाने से इंडिया और भारत का फर्क नजर आ जाता है। यह बस्ती तीन भागो में बंटी हुई हैपहले भाग में फ्लाईओवर के नीचे राजस्थान का परिवार रहता हैदूसरे भाग में यूपी और बिहार के लोग रहते हैंतीसरे भाग मेजो कि रेलवे और मेट्रो की जमीन पर बसा हुआ है वहां पर यूपी के बराबंकी और फैजाबाद जिले के बंजाराजाटनटसमुदाय के 300 परिवार रहता है। यह परिवार सड़क से कबाड़ चुननेढोल-ताश बजाने और निंबू मिर्च बेचने का काम करता है। बस्ती में पानी के एक टैंकर से यह 300 परिवार अपनी प्यास बुझाते थे और दूसरे तरह के कामों के लिए बस्ती में स्थित रैन बसेरा के मोटर के द्वारा निकले पानी पर निर्भर रहते थे। 
फ्लाईओवर के नीचे बसी ंइन 65 झुग्गियों को 22अगस्त, 2017 को प्रशासन ने तोड़ दिया था और इस बस्ती को भी तोड़ने वाले थे तो उन्होंने कोर्ट से स्टे ले लिया। 23 मार्च, 2018 को इस बस्ती में आग लग गई या लगा दी गयी जिसमें बंजाराजाटनट समुदायों की 250 के करीब झुग्गियां जल गई और एक बच्ची कलू (6 साल) पटेल की  पुत्री  की जलकर मृत्यु हो गई। कलू आग लाने पर अपनी जान बचाने के लिए दूसरी तरफ जाकर एक झुग्गी में छिप गई जिससे कि वह बच सके लेकिन आग ने उसे अपनी चपेट मे ले लिया और इसके साथ ही एक कुत्ता भी जल गया जो कि उसी घर में छिपा हुआ था। जब हम बस्ती में शाम को गए तो देखा लोग आग से जले हुए बर्तन को लेकर निकाल कर बोरे में भर रहे हैं जिसको कबाड़ में बेच कर कुछ पैसा ला सके। बाहर एक टेंट लगा हुआ है जिसमें दिल्ली सरकार के वालंटीयर लगे हुए हैं और लोगों के लिए खाना बन रहा है। बस्ती के पास दो और टेन्ट हैं लेकिन उसमें कोई नहीं है। लोग बाहर अपनी जली हुई बस्ती के पास बैठे हैं क्योंकि टेन्ट में कोईपंखा या लाईट नहीं है। बस्ती में एक एम्बुलेन्स आती है और चीत्कार मच जाती हैबात करने पर पता चला कि कालू की लाश आई है। मैं लाश को देखने के लिए जाता हूं तो एक आदमी उसको उठाये हुए दफनाने के लिए ले जाता है जिसके पीछे कुछ लोग हैं। मैं उस लाश को देखकर हतप्रभ हो गया कि यह छह साल की बच्ची है या छह माह कामैंने लोगों से बात किया तो लोगो ने बताया कि जलने के कारण वह इतना छोटी लग रही है।
शेरा (20 साल) बताते हैं कि उनके पिता की मृत्यु हो चुकी हैउनका जन्म सीलमपुर के झुग्गी में हुआ था जब वह गोद में थे तो इस जगह (लाल बाग) पर सीलमपुर से आए थे और यहीं पर जवान हुए। शेरा बराबंकी के रहने वाले हैं लेकिन वह कभी अपने गांव नहीं गए क्योंकि गांव पर कुछ नहीं है। शेरा की मां कबाड़ चुनने का काम करती है जबकि वह खुद ढोलताशा बजाने का काम करते हैं जो कि अब जल चुका है। शेरा बताते हैं कि उसके सारे दस्तावेजपहचान पत्रवर्षों से खरीदे गए कपड़ेबर्तन और पैसे जल गए हैं जिनको पूरा करने में कई साल लग जाएगा।
वंदना (18 साल) आठवीं कक्षा की छात्रा है वह पास के एक सेंटर में ट्यूशन पढ़ने भी जाती है। वंदना की मांकबाड़ चुनने का काम करती है जबकि पिता निंबू मिर्च बेचते हैं। वंदना बताती है कि उसके घर के सभी सामान और उसके कपड़ेकिताब-कॉपी जल गए हैं।
संगीता (24) कबाड़ चुनने का काम करती हैउसके पति ठेला रिक्शा चलाते हैं। संगीता की एक ढाई साल की बेटी है एक लड़का हुआ था जो पैदा होने के बाद मर गया। संगीता कहती है कि पहले वे लोग सीलमपुर में रहते थे वहां से उनको भगा दिया गया उनके पास वहां के सभी दस्तावेज थे फिर भी उनको कोई जगह नहीं दी गई जिसके बाद वह लाल बाग में आकर बस गए। यहां पर उनकी झुग्गी को जलाकर सारे सबूत को मिटा दिए गए। वह कहती हैं कि-‘‘कोई सुनवाई ही नहीं कर रहा है कि इनको जगह दिला देंवह हमें भगाना चाहते हैं। यहां लोग आते हैं बोलते हैं कि इनको भगा दो इनके पास कोई सबूत नहीं है’’
तलिया कबाड़ा बीनने का काम करती है वह बताती हैं कि आग में सारा सामान उनका जल चुका है उनका कहना है कि ‘‘आग बुझाने वाली गाड़ी (फायर बिग्रेड) देर से नहीं आती तो कुछ झुग्गियां बच सकती थी।’’ उसकी बकरीढोलताशा सब जल गए हैं। तलिया के दो बच्चे अविनाश (11) और अंजली (12) छठवीं और सातवीं कक्षा में पढ़ते हैं उनके कॉपीकिताबस्कूल की ड्रेस सभी जल गए।
पप्पी विधवा है उनके पास दो लड़के और एक लड़की रहते हैं वह बता रही हैं कि उनके गहने जल गए और उनके 30-40 हजार रू. जल गए हैं जो कि घर में ही रखे हुए थे। पप्पी को चिंता है कि बारिश होगी तो कहां छुपेंगें।
सबीर (45) फैजाबाद के रहने वाले हैं वह निंबूमिर्च बेचने का काम करते थेपरिवार में 9 सदस्य हैं। जिसमें से दो बच्चे सीमागुल्लू और वंदना छठीं में पढ़ते हैं। उनकी पत्नी कबाड़ा चुनने का काम करती हैं। वह अपना बक्शा और समान दिखाते हुए बताते हैं कि हमारा दो लाख का सामान जल गया है।
काजल बताती है कि रात में भी गर्मी से सो नहीं पाते हैं पहले हमारे पास पंखा होता था तो आराम से सो लेते थे अब बच्चों को सुलाने के लिए पूरी रात जग कर आंचल से हवा देते रहते हैं।
अपने जली हुई झुग्गियों के पास में खड़ी दो बहनें मेना (13) और गहना (13) सामान इक्ट्ठा कर रही थीवह बताती है कि ‘‘छठवीं कक्षा में पढ़ती है उन्हें मच्छर लग रहा हैं। हमारे घर के टीवीफ्रीज, 15हजार रू. जल गयाहमारे पास भी अच्छे अच्छे कपड़े थे लेकिन अभी कुछ नहीं है’’। गहना बताती हैं कि ‘‘हमारे स्कूल का खाता था लेकिन हमें पता नहीं था कि सभी जल जाएगानहीं तो पैसा उसमें रखते थे।
इसी तरह कि बात बस्ती के हर लोग करते हैं और सभी का यह कहना है कि फायर ब्रिगेड की गाड़ी देर से आई नहीं होती तो काफी झुग्गियां बच जाती। लोगों ने यह भी आशंका जताया कि भगाने के लिए झुग्गियों में आग लगाई गई है। ह्मयुमाना इंटरनेशनल नाम के एनजीओ के एक पदाधिकार ने बताया कि इस बस्ती को मेट्रो के लिए सिक्युरिटी थ्रेट’ घोषित कर रखा है और इसे हटाना चाहते थे। उन्होंने यह बताया कि इनके एनजीओ का लाखों रू. का सामान जल कर खाक हो गया है वह दूसरे संगठनों की मद्द से इन बस्ती वालों के लिए सामान जुटाने का काम कर रहे हैं।
इस बस्ती में एक किनारे से आग लगा है जिसमें दूसरे किनारे तक कि सभी झुग्गियां जल कर राख हो गई। बर्तन और सामान को जलने कि स्थिति देखकर आग कि भयावयता का पता चल रहा है। इस बस्ती से तीन-चार कि.मी. की दूरी पर फायर बिग्रेड का दो-तीन डिपो हैं लेकिन वह आने में इतना समय लिया जब तक कि पूरी बस्ती स्वाहा हो गयी। बस्तीवालों के का आरोप कि जांच होनी चाहिए कि आखिर क्यों देर से फायर बिग्रेड की गाड़ी पहुंचीजब इन्हें पहली बार सन् 2000 में सीलमपुर से उजाड़ा गया तो इन्हें पुनर्वास स्कीम के तहत क्यों नहीं बसाया गयाबहुत सारे मेट्रो पिलर के पास बड़े-बड़े मकान बने हुए हैं तो इन बस्ती वालों से मेट्रो के किस तरह से सिक्युरिटी थ्रेट हैयह बस्ती17 साल पुरानी होने के बाद भी यहां पऱ सुविधाएं क्यों नहीं मुहैय्या कराई गईआग लगने के बाद इन परिवारों को क्यों टेन्ट नहीं दिया गया?  यह खुले आसमान के नीचे छोटे-छोटे बच्चों के साथ रहने को मजबूर हैंइनको गर्मी से राहत दिलाने के लिए पंखेलाईट की व्यवस्था क्यों नहीं कि गई हैसरकार के मंत्री इनके पास तक पहुंचने में देरी क्यों कर रहे हैं? ‘जहां झुग्गी वहां मकान’ वाली सरकार इनके लिए अभी तक कोई समुचित व्यवस्था नहीं कि बल्कि खानापूर्ति करने के लिए कुछ वालंटियर और एक फैशनेबुल टेंट (शादियों वाला) लगा रखी है। स्वच्छता अभियान’ के विज्ञापन पर करोड़ो-अरबों खर्च करने वाली सरकार इन स्वच्छताकर्मियों का पुनर्वास क्यों नहीं कर पा रही हैइस महादलित के आबादी के लिए अम्बेडकरवादी भी चुप हैं क्योंकि यह उनके वर्गीय चरित्र में फीट नहीं बैठते हैं। सामाजिक हाशिये पर जीवन व्यतीत करने वालों के लिए कोई नहीं है?

शहरी रोजगार कानून पर व्यापक बहस की जरूरत

                      पंकज सिंह
नई आर्थिक नीतियों के 27 बरस बाद आज देश के ग्रामीण क्षेत्रों में रोजगार के अवसर सीमित होते जा रहे हैं और कृषि के हालात भी बेहद खराब हैं। नतीजतन हमारे शहरों पर दबाव बढ़ रहा है। देश के शहरों को हमने समृद्धि के टापू में बदल दिया है, जहां हर रोज लाखों युवा, बेरोजगार जैसे-तैसे जीने की चाह में खिंचे चले आ रहे हैं। वहीं दूसरी तरफ भारतीय शहरों को 'विश्व स्तरीय शहर' (वल्र्ड क्लास सिटी), सुविधायुक्त 'सक्षम विकास केंद्र' और 'नवीनतायुक्त केंद्र' बनने की होड़ भी लगी है। सरकारी नीतियों और शहरी योजनाओं के जरिये विकास का जो नया ककहरा लिखा जा रहा है, उसमें दो तस्वीर उभरती हैं। पहली, शहर आर्थिक गतिविधियों के केंद्र के रूप में विस्तार पा रहे हैं। इससे विनिर्माण (मैन्युफैक्चरिंग) की कीमत पर सेवा क्षेत्र (सर्विस सेक्टर) को बढ़ावा दिया जा रहा है। दूसरी तस्वीर ज्यादा भयावह है, इसमें बस्तियों और झुग्गी-झोपडिय़ों को उजाड़कर विश्व स्तरीय शहर के सपनों की नींव रखी जा रही है। ऐसे हालात में, शहरी मेहनतकश दो तरह की समस्याओं से जूझ रहा है। एक तरफ वे घरों से बेदखल होकर विस्थापित किए जा रहे हैं, वहीं दूसरी ओर आधुनिकीकरण एवं मशीनीकरण के नाम पर उनके रोजगार के साधनों को छीना जा रहा है।

आज सरकार दावा कर रही है कि देश की अर्थव्यवस्था बेहतरीन दौर में हैं। अर्थव्यवस्था की मजबूती का सूचकांक शेयर बाजार दिन-प्रतिदिन नई ऊचांइयों को छूता हुआ 30,000 के जादुई आंकड़े को कब का पार कर गया है और दावा है कि यह जल्द ही 40 हजार के पार भी पहुंच जाएगा। पंच सितारा होटल, बड़े-बड़े शापिंग मॉल, फ्लाईओवर, मेट्रो रेल, सस्ती होती हवाई यात्रा आर्थिक व्यवस्था की मजबूती का खुशनुमा अहसास कराती हैं। हालांकि इस खुशहाली के दूसरे पहलू के रूप में उजड़ती बस्तियां, छूटते रोजगार, बढ़ती आत्महत्याएं तथा आपराधिक गतिविधियां हमें चारों तरफ दिखाई देती हैं। इससे देश के 93 प्रतिशत असंगठित क्षेत्र के कामगार प्रभावित हुए हैं। बताने की जरूरत नहीं कि बीते 27 सालों में भूमंडलीकरण के साये में बढ़ी व्यावसायिक प्रतिद्वंद्विता ने तकनीक के विकास किया और कम से कम श्रम के इस्तेमाल से अधिक से अधिक मुनाफा कमाने की प्रवृति ने बेरोजगारों की एक बड़ी खेप तैयार की है। सिमटते औद्योगिकीकरण के दौर में शहर के बस्ती वाले, रेहड़ी-पटरी वाले, बेघर मजदूर, निर्माण मजदूर, घरेलू कामगार, रिक्शा चालक, कूड़ा बीनने वाले एवं कच्ची बस्तियों में रहने वाले लोग सबसे ज्यादा प्रभावित हुए हैं, वहीं मध्य वर्ग के युवा भी बेरोजगार की इस मार से बच नहीं पाए हैं। मैन्यूफैक्चरिंग के बजाय सेवा क्ष़ेत्र को बढ़ावा देने के कारण अनौपचारिक क्षेत्र में ज्यादा संख्या में लोग आए और इससे बढ़ी बेदखली के कारण लोग अपने रोजगार से दूर होकर तथाकथित गैरकानूनी रोजगार करने लगे।

अब सबसे बड़ा सवाल है कि इस नई प्रकार की समस्या का हल क्या हो? इन शहरी कामगारों की समस्याओं को समझने के लिए पिछले दिनों दिल्ली की 6 पुनर्वास बस्तियों में यूएनडीपी की एक परियोजना के तहत साझा मंच ने शहरी रोजगार योजना बनाने के लिए कई शोध (शिक्षा, स्वाथ्य, न्यूनतम मजदूरी इत्यादी) और कार्यशालाएं कीं। इससे ये बात सामने आई कि शहर में मुख्यत: तीन प्रकार के रोजगार हैं। (1) वेतन भोगी रोजगार, जो असुरक्षित है। (2) स्वरोजगार, यह गैरकानूनी है। (3) अद्र्ध रोजगार, यह असुरक्षित और गैरकानूनी। इन अध्ययनों से तीन महत्वपूर्ण मांगें सामने आईं। (1) कानूनी पहचान का हक, (2) वैध जगह एवं साधन, (3) आसान शर्तों पर कर्ज।

कामगार तबकों के इन्हीं अध्ययनों के आधार पर राष्ट्रीय शहरी रोजगार का अधिकार कानून का प्रारूप भी तैयार किया गया है। इस प्रारूप पर असंगठित मजदूर संस्थाओं, राष्ट्रीय मजदूर संघों एवं नागरिक संगठनों के साथ अलग-अलग सेमिनारों में चर्चा भी  की गई है और मौटे तौर पर राष्ट्रीय शहरी रोजगार का अधिकार कानून पर एक व्यापक राष्ट्रीय बहस की जरूरत पर सहमति बनी है। ताकि इस कानून के मसौदे पर विभिन्न मजदूर आंदोलनों की एक समझ बन सके और ये एक व्यापक एवं प्रभावशाली कानून बन सके। मौजूदा समय में इसके लिए व्यापक अभियान चलाने की भी जरूरत है ताकि सरकार इसे जल्द से जल्द लागू कर सके।

इस प्रारूप कानून के महत्वपूर्ण बिंदू निम्न हैं- 
1- शहरी क्षेत्रों में कामगारों की आजीविका को सुनिश्चित करने के लिए पहली मांग है प्रत्येक वयस्क व्यक्ति, जिसने उत्पादन कार्य के लिए पंजीकरण करवाया है, को साल के 300 दिन काम मिलना चाहिए।
2- इसमें प्रत्येक व्यक्ति को, 15 वीं भारतीय श्रम सम्मेलन, 1957 के मुताबिक और जिसे सर्वोच्च न्यायालय ने भी माना है, न्यूनतम मजदूरी की जगह जीने लायक मजदूरी मिलने का हक होना चाहिए। 
3- जहां वेतन भोगी मजदूर के लिए मालिक है जिसे त्रिपक्षीय आयोग में रखा जा सकता है, वहां स्व-रोजगार अद्र्ध-रोजगार और बेरोजगार के लिए कोई मालिक नहीं होता, इसलिए सबके लिए सरकार को ही प्रधान नियोक्ता (जिम्मेदार मालिक) मानना चाहिए।
4- इसका मतलब यह भी है कि अगर वेतन-भोगी या स्व-रोजगार या बेरोजगार व्यक्ति को जीने लायक मजदूरी से कम मिल रहा हो तो उसकी भरपाई कल्याणकारी सरकार और श्रम विभाग द्वारा की जाएगी।
5- मजदूर वर्गों के कल्याण के लिए अलग-अलग बोर्ड बनाने के स्थान पर इसकी पूरी जिम्मेदारी श्रम विभाग को लेनी चाहिए जिससे मजदूर वर्गों की एकता बनी रहेगी एवं श्रम विभाग को भी अधिक उत्तरदायी बनया जाएगा।
6- इस प्रारूप में काम का अधिकार एक मौलिक अधिकार के रूप में रखा गया है और केवल रोजगाार गारंटी की मांग नहीं है जो एक प्रकार से सरकार की मर्जी और लोगों की मजबूरी पर निर्भर है तथा अधिकार को कल्याण का रूप दे देती है।
7- मजदूर के रहने की व्यवस्था काम के नजदीक अनिवार्य रूप से होना चाहिए ताकि आमदनी का बड़ा हिस्सा परिवहन पर खर्च करने की जरूरत न हो।
8- हर काम करने या चाहने वाले को श्रम विभाग की ओर से रोजगार पहचान पत्र मिलना चाहिए जो शहर में ही नहीं लेकिन गांव में भी काम के लिए स्वीकृत हो ताकि प्रवासी मजदूर अधर में न लटका रहे।
9- हर रोजगार स्वस्थ और सुरक्षित होना चाहिए, तथा विकलांग और कमजोर व्यक्तियों के लिए भी उपलब्ध होना चाहिए, ताकि मजदूर के साथ-साथ पर्यावरण और समाज की भी हिफाजत हो।
10- रोजगार बढ़ाने के लिए हर सार्वजनिक काम और योजना में 40 प्रतिशत राशि रोजगार के लिए सुरक्षित होनी चाहिए तथा सरकारी विभागों में नियुक्तियों पर लगी रोक हटाई जानी चाहिए- इससे श्रम विभाग की कार्यकुशलता भी बढ़ेगी।
12- पूरी प्रणाली में मजदूरों की भागीदारी होनी चाहिए जिसमें संगठन बनाने का हक शामिल है। इससे सरकार की पारदर्शिता और जवाबदेही को कायम रखा जा सके।

आज समय की मांग है कि इन बिंदुओं पर खुली चर्चा हो और व्यापक समझ बनाई जाए एवं इस पर आधारित प्रारूप पर एक राष्ट्रीय स्तर पर अभियान चलाया जाना चाहिए। 

(लेखक टाटा इंस्टीट्यूट ऑफ सोशल साइंसेज के गोल्ड मेडलिस्ट छात्र रहे हैं और सक्रिय सामाजिक कार्यकर्ता हैं)
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पंकज सिंह जी का परिचय
जन्मदिन: 31 जुलाई 1985
शिक्षा: जवाहर नवोदय विद्यालय के छात्र रहे। बनारस हिन्दू यूनिवर्सिटी से स्नातक और टाटा इंस्टिट्यूट ऑफ सोशल साइंसेस (टिस्स) से गोल्ड मेडल के साथ मास्टर्स डिग्री। 
श्री पंकज सिंह ने दिल्ली में साझा मंच एवं हैजार्ड सेंटर के साथ लगभग 3 वर्ष तक शहर की योजना, रोजगार एवं शहरी गरीबों के मुद्दों पर काम किया। इसके बाद उन्होंने सिंगरौली में महान संघर्ष समिति में सक्रिय नेतृत्व किया और जंगल को बचाने और अदिवासियों के हक की लड़ाई लड़ते हुए 69 गांवों के लगभग एक लाख परिवारों को उजडऩे से बचाया।