रविवार, 30 अप्रैल 2017
आज के मजदूर आंदोलन के लिए मई दिवस का सवाल
(सुमित)।
मई दिवस मजदूर आंदोलन की वो विरासत है जो मजदूरों के संघर्ष का इतिहास बताता है, नये संघर्ष की प्रेरणा देता है। 1886 में अमेरिका के शिकागो शहर में मजदूरों ने जो लड़ाई लड़ी वो किसी खास प्लांट या मजदूरों के किसी खास हिस्से की मांग को लेकर नहीं अपितु दुनिया के सभी मजदूरों के लिए थी यानी मजदूर वर्ग के लिए।
आठ घंटे काम की मांग मई दिवस के संघर्षों से उभरकर सामने आयी थी और आज 129 सालों बाद ये अधिकार इस मौजूदा पीढ़ी से पूँजीपतियों ने छीन लिया है। 4 मई 1886 यानी मई दिवस की घटना के पीछे सतत संघर्ष मौजूद था जिसने मालिकों और उनकी दलाल सरकारों के तमाम षडयंत्र और दमन-शोषण का मुँह तोड़ जवाब देते हुए हार मानने से लगातार इंकार किया था।
मई दिवस तथाकथित न्यायपालिका का मजदूर विरोधी चरित्र उजागर करता है। आठ घण्टे काम की मांग करने पर मई दिवस के शहीदों को जिस प्रकार पूँजीपतियों के षड़यंत्र के मुताबिक अदालत ने फांसी की सजा सुनाई आज ठीक उसी प्रकार यूनियन बनाने की मांग करने पर मारुति के 13 मजदूरों को उम्र कैद की सजा सुनाई गई। एक बार फिर मालिकों ने मजदूरों को डराने के लिए अदालत का इस्तेमाल करते हुए ये बताना चाहा कि अगर मजदूर अपने अधिकारों की लड़ाई लड़ने आगे आएंगे तो फांसी और उम्रकैद के जरिए उन्हें और उनके आंदोलन को कुचल दिया जाएगा।
यह जटिल दौर है
आज का मज़दूर मई दिवस के दौर से भी ज्यादा कठिन व जटिल दौर में है।
बदलाव के नये रूप
तमाम उतार-चढ़ाव से गुजरते हुए आज पँूजीवादी उत्पादन प्रणाली में लगातार बदलाव हो रहा है। इसी के साथ शोषण की प्रक्रिया में अलग-अलग बदलाव हुए हैं। विश्व पूँजीवादी व्यवस्था ने जहाँ मुनाफे की रफ्तार तेज कर दी है, वहीं सामाजिक बंटवारे को तीखा कर दिया है। दूसरी तरफ राजकीय नियंत्राण को घटा कर निजीकरण को खुला रूप दे दिया है।
उदारीकरण के पिछले तीस साल में उत्पादन के क्षेत्र में बड़े पैमाने पर ढांचागत बदलाव हुआ है। वे उच्च तकनीक से थोड़े से स्थाई और भारी पैमाने पर ठेका, ट्रेनी, स्किल डेवलपमेण्ट आधारित कम वेतन और कभी भी निकालने के अधिकार के साथ उत्पादन व भारी मुनाफा बटोरने में जुटे हैं। आज मज़दूर स्थाई-ठेका-ट्रेनी, मुख्य प्लाण्ट, वैण्डर, सब वैण्डर जैसे बहु संस्तरों में बंटा-बिखरा है।
अधिकारों को छीनने का दौर
मई दिवस की परम्परा में लम्बे संघर्षों के दौर में हासिल सीमित कानूनी अधिकारों को छीनने का यह दौर है। मोदी सरकार ने सत्ता संभालने के बाद से ही इसे तेज कर दिया। एक-एक कर कानूनों को मालिकों के हित में बदलना उसका प्रमुख एजेण्डा है। जिसके मूल में है हायर एण्ड फायर, यानी जब चाहो काम पर रखो, जब चाहो निकाल दो। कम से कम वेतन पर ज्यादा से ज्यादा खटाओ।
नस्ल-धर्म आधरित बंटवारे तेज
आज पूरी दुनिया में मेहनतकश आवाम पर धर्म, नस्ल व जाति के आधार पर बंटवारे जुनूनी हद तक तेज हो गये हैं। पूरी दुनिया में नस्लवादी, फासीवादी मजदूर विरोधी ताकतें जाति और धर्म की पहचान को उभारकर जनता को घृणा और उन्माद के जरिए लामबंद कर सत्ता में आ रही हैं। देश के भीतर जातीय व मजहबी हमले और बंटवारे बेहद तीखे हो गये हैं। इसी के साथ, वाट्सऐप, फेसबुक जैसे सोसल मीडिया झूठ और भ्रम फैलाने के महत्वपूर्ण उपकरण बन गये हैं।
मुनाफाखोरों की चालों को पहचानों
यह मालिकों के मुनाफे को कायम रखने के लिए मजदूरों का शोषण बढ़ाने का मामला है। इनके खिलाफ मजदूरों को ठेका, स्थायी, कैजुअल के बंटवारे की दीवार को तोड़कर व्यापक एकता बनानी होगी - जाति और धर्म की पहचान से परे समान काम समान वेतन, सम्मानजनक वेतन व ठेका प्रथा के खात्मे जैसी तत्कालिक मांगों को लेकर ना सिर्फ प्लांट स्तर पर बल्कि इलाका स्तर पर एकजुट होकर संघर्ष करना होगा। इन संघर्षो का नेतृत्व भी खुद मजदूरों को करना होगा और जिस तरह संघर्ष आगे बढ़ेगे नेतृत्व करने वाले मजदूर भी निकलकर आएंगे। लेकिन मौजूदा भ्रमपूर्ण स्थिति में मज़दूरों के सामने वैचारिक स्थिति भी साफ करना होगा। मई दिवस की विरासत हमें बताती है कि जब तक उत्पादन और राज-काज पर मेहनतकश वर्ग का नियंत्राण नहीं होगा, तब तक मज़दूरों की मुक्ति संभव नहीं है। इसलिए मज़दूरों को अपने तात्कालिक माँगों के साथ अपनी मुक्ति के दीर्घकालिक मुद्दों पर भी सतत संघर्ष को आगे बढ़ाना होगा।
नयी राह पर आगे बढ़ना होगा!
ऐसे में मई दिवस का रास्ता मजदूर वर्ग की मुक्ति की लड़ाई में ऐसा प्रेरणा स्रोत है जिसे हमें लगातार अपने सामने रखकर मजदूरों को संगठित करना होगा। आज वो दौर नहीं है कि लगातार बड़ी बड़ी हड़ताले हो रही हैं और मजदूर खूद अपनी पहलकदमी से मालिकों को, उत्पादन को चुनौती दे रहा है। स्थिति ठीक विपरीत है। आज के हालात में मजदूर आन्दोलन बिखरा हुआ है और लगातार पीछे जा रहा है। हालांकि बढ़ते शोषण के खिलाफ लगातार उठते स्वतःस्पफूर्त आन्दोलन प्रतिरोध की स्थितियां भी बयां कर रहे हैं।
इन्हीं मौजूदा चुनौतियों के बीच मई दिवस पर ये सवाल उपस्थित है कि मज़दूर आन्दोलन को नयी राह पर आगे कैसे बढ़ाया जाये?
(‘संघर्षरत मेहनतकश’ पत्रिका से)
शुक्रवार, 14 अप्रैल 2017
मारुती मज़दूर विवाद में निर्णय : न्याय या न्याय का ढकोसला
18 मार्च 2017 को दिए गए अपने निर्णय में, गुडगांव डिस्ट्रिक्ट कोर्ट के जज RP Goel ने लगभग 5 साल से चल रहे मारुति मानेसर संबंधी केस ( State Vs. Ram Mehar Etc.) में निर्णय सुना दिया। निर्णय के तहत जज महोदय ने 148 आरोपियों में से 117 को बाइज्ज्ात बरी कर दिया गया। 13 आरोपियों को हत्या के जुर्म में उम्रकैद की सजा सुनाई गयी, 4 आरोपियों को हिंसक प्रवेश (violent trespass) के जुर्म में 5 साल की जेल की सजा दी गयी तथा शेष 14 आरोपियों को गंभीर क्षति पहुँचाने का दोषी पाया गया, लेकिन चूंकि वे पहले से जेल में रहते हुए अपनी सजा काट चुके थे, इसलिए उन्हें रिहा कर दिया गया। 13 मज़दूर जिन्हें उम्रकैद की सजा सुनाई गयी है, उनमें से बारह मारुति मानेसर की यूनियन के पदाधिकारी सदस्य हैं (राम मेहर, संदीप ढिल्लों, रामविलास, सरबजीत सिंह, पवन कुमार, सोहन कुमार, प्रदीप कुमार, अजमेर सिंह, जियालाल, अमरजीत कपूर, धनराज भांबी, योगेश कुमार और प्रदीप गुज्जर) तथा तेरहवां आदमी जिया लाल है, जिसका 18 जुलाई 2012 की सुबह एक सुपरवाइजर के साथ विवाद हुआ था।
यूं तो 2006 में स्थापित मारुति की मानेसर फैक्ट्री में प्रशाशन और मज़दूरों के बीच विवाद जून 2011 से ही चल रहा था। विवाद का विषय पहले था स्वतंत्र यूनियन बनाने का अधिकार और 1 मार्च 2012 को यूनियन के रजिस्टर हो जाने के बाद 13 सूत्री मांगपत्र पर प्रशसन से यूनियन की बातचीत चल रही थी। मारुति में जारी ठेका प्रथा का अंत और ठेका मज़दूरों को नियमित करना यूनियन की मुख्य मांगों में से एक थी, लेकिन जो केस पिछले 4 साल से गुडगांव डिस्ट्रिक्ट कोर्ट में चल रहा था उसके संबंध में मज़दूरों का कहना है कि 18 जुलाई 2012 की सुबह जियालाल नामक मज़दूर और एक सुपरवाइजर के बीच हुआ विवाद था। इसमें प्रशासन ने जियालाल को निलंबित कर दिया। यह सब उस समय हुआ, जबकि मज़दूर यूनियन कुछ पुराने मुद्दों के संबंध में प्रबंधन के साथ बैठक कर रहा था। जब निलंबन की खबरें यूनियन तक पहुंचीं तो उन्होंने मांग की कि निलंबन रद्द किया जाए। मज़दूरों के अनुसार, उस दिन परिसर में कंपनी ने कई बाउंसर (भाड़े पर बुलाए गए मारपीट करने वाले पहलवान) भी तैनात किए थे और बातचीत के वक्त प्रशासन ने पुलिस भी बुला ली थी। निलंबन को रद्द करने के सवाल पर प्रशासन के टालमटोल के कारण, तनाव बढ़ता गया। उसके बाद हुई हाथापाई में कुछ प्रशासन कर्मी और मज़दूरों को चोटें आईं। इस बीच कार्यालय में आग लग गयी और सांस घुटने से एक एचआर प्रबंधक अविनाश देव की दुःखद मृत्यु हो गयी। मज़दूरों के विवरण को तवज्जो न देते हुए न्यायालय ने प्रशासन के नज़रिए को ही आधार बनाकर सुनवाई की। सुनवाई का आधार बनी मारुति मानेसर के जनरल मैनेजर दीपक आनंद की शिकायत। उन्होंने अपनी शिकायत में बताया कि 18 जुलाई 2012 सुबह जियालाल नामक मज़दूर ने सुपरवाइजर राम किशोर माझी से हाथपाई की। इसकी सुपरवाइजर द्वारा शिकायत करने पर प्रशासन ने जियालाल को अनुशासनहीनता के इल्जाम पर सस्पेंड कर दिया। यूनियन प्रशासन पर निलंबन वापसी का जोर दे रही थी और जब बातचीत से कोई नतीजा न निकला, तो शाम को तकरीबन 7 बजे 500/600 मज़दूर 'बेलचे' लेकर दफ्तर में घुस गए और प्रशासन के नुमाइंदों से मारपीट की। दफ्तर में आग लगा दी, इस आग में एचआर प्रबंधक अविनाश देव जलकर मर गया। मारुति मानेसर के मैनेजर ने अपनी शिकायत में 55 आदमियों के नाम लिखवाए और दोषी व्यक्तियों के खिलाफ न्याय संगत कार्रवाई की मांग की। दीपक आनंद की शिकायत के आधार पर FIR बनाते समय 213 लोगों क़ो दोषी करार दिया गया, जिसमें से 148 लोगों पर केस चला, बाकि 65 क़ो गिरफ्तार न किया जा सका।
इस केस में हुई कार्रवाई से स्पष्ट है की न्यायालय मज़दूरों को सख्त सजा देने को पहले से ही कटिबद्ध था। यह नीचे के तीन उदहारणों से स्पष्ट हो जाएगा।
सबसे पहले 148 आरोपियों में से 117 मज़दूरों का बाइज़्ज़त बरी हो जाना, इस बात का सबूत है कि केस बहुत ही कमजोर था। कोर्ट के कागज़ बताते हैं कि नितिन सारस्वत नामक मारुति का एक अफसर 19 जुलाई 2012 की रात में तीन बजे फैक्ट्री में आया और 89 लोगों की लिस्ट बनाकर उसने सुबह पुलिस को सौंपी। पुलिस ने सुबह उन लोगों को गिरफ्तार किया और बाद में दोपहर में चार मज़दूर ठेकेदारों से उनकी शिनाख्त कराई गयी और उन्हें आरोपी बनाया गया। कानून की ऐसी धज्जियां उड़ाने पर जज को भी कहना पड़ा " जांच कर रहे अफसरों ने इन लोगों को गिरफ्तार करके ... बिना किसी औचित्य के देश के कानून का उल्लंघन किया है।"
दूसरे, केस मारुति मानेसर के जनरल मैनेजर दीपक आनंद द्वारा लिखाई गयी FIR पर चला है। FIR में उन्होंने लिखवाया था कि वारदात के दिन शाम को करीब 7 बजे 500 /600 मज़दूर 'बेलचे' लेकर दफ्तर में घुस गए। वे एक वरिष्ठ अफसर हैं, इसलिए FIR लिखाते हुए उन्हें सभी जरूरी तथ्यों की जानकारी होने की उम्मीद की जा सकती है। गवाही के वक़्त उन्होंने बयान दिया कि मज़दूर door beams, shockers और लोहे की छड़ें लेकर दफ्तर में घुसे। बेलचों, door beams, shockers और लोहे की छड़ों से हमले के औजारों को बदलना आवश्यक था, क्योंकि यह साबित करना मुश्किल होता कि फैक्ट्री में 500/600 बेलचे क्यों रखे गए थे, जबकि कार में काम आने वाले सामान तो फैक्ट्री में होंगे ही।
जब बचाव पक्ष के वकील वृंदा ग्रोवर ने हमले के लिए इस्तेमाल में लाए गए साधनों में परिवर्तन का सवाल उठाते हुए दलील दी कि इस परिवर्तन से तो FIR झूठी साबित हो जाती है, तो जज साहब ने इस तर्क को ख़ारिज कर दिया। उनका कहना था कि FIR कोई विश्वकोष नहीं है और किसी मामले के हर विवरण का उल्लेख उसमें हो यह जरूरी नहीं है। कोई पूछे कि उन साधनों का विवरण जिससे हमला हुआ बताया गया है इतना गैर जरूरी भी तो नहीं माना जा सकता। यदि उसके बारे में ही स्पष्टता नहीं है तो FIR कितनी सच होगी। तीसरी बात, यह सवाल भी महत्वपूर्ण है कि आखिर फैक्ट्री के दफ्तर MI में आग किसने लगाई पुलिस यह नहीं साबित कर पाई कि आग कैसे लगी और किसने लगाई। सबूत के तौर पर केवल इंस्पेक्टर प्रकाश ने एक माचिस को पेश किया। लेकिन उसने माना कि उंगलियों के निशान या DNA जांच उसने नहीं कराई। जज गोयल ने भी यह स्वीकार किया कि माचिस की बरामदगी संदेह के घेरे में है, लेकिन उन्होंने यह जिम्मेदारी मज़दूरों पर डाली कि वे साबित करें कि आग किसने लगायी. यानी अगर मज़दूर यह साबित न कर पाए कि आग किसने लगाई तो यह माना जाएगा कि आग मज़दूरों ने ही लगायी है। फैसले में कहा गया कि "अमरजीत (एक आरोपी) और उनके सहयोगियों द्वारा स्पष्टीकरण के अभाव में यह मानना होगा कि वे ही थे जिन्होंने MI दफ्तर में आग लगाई."
इस प्रकार की और भी कई कमजोरियां केस के फैसले को पढ़ने से उजागर होती हैं। इसलिए यह कहना अतिशयोक्ति न होगा कि कुल मिलाकर यह फैसला कानून के आधार पर कम और शासक वर्ग की राजनीति से ज्यादा प्रेरित है। वर्तमान निज़ाम का मानना है की यदि मज़दूरों को सख्त सजा नहीं दी गई, तो देश में विदेशी पूंजी कैसे आएगी और वो विदेशी पूंजी के दम पर ही अपने राजकाज को चलाने का सपना देखते हैं। आमजन हितैषी आर्थिकी और राजनीति में इनका विश्वास नहीं है। यह पूछने पर कि उन्होंने दोषी कर्मचारियों के लिए मौत की सजा की मांग क्यों की। विशेष सरकारी अभियोजक अनुराग हुड्डा ने कहा, "हमारे औद्योगिक विकास में गिरावट आई है, एफडीआई सूख गया है, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी भारत में मेक इन इंडिया के लिए उन्हें बुला रहे हैं, लेकिन ऐसी घटनाएं हमारी छवि पर दाग हैं।"
अब मारुति के मजदूरों के आंदोलन पर बात करते हैं। मारुति में होने वाले आंदोलन ने मज़दूर आंदोलन संबंधी कई स्थापित धारणाओं को तोड़ा है। यह तय है कि आने वाले समय में मारुति का यह आंदोलन औद्योगिक संबंधों की एक मानवीय अवधारणा को स्थापित करने की दिशा में एक मील का पत्थर साबित होगा। सर्वप्रथम यह ध्यान देना दिलचस्प होगा कि मारुति की फैक्ट्री दुनिया की अत्याधुनिक तकनीक से चलने वाली फैक्ट्री है। दूसरे, आज दुनिया के पैमाने पर मारुति फैक्ट्री सबसे शोषणकारी औद्योगिक संबंधों का अग्रणी उदहारण है। तीसरे सभी बड़ी यूनियंस जैसे aituc, citu, hms, bms, intec आदि के समर्थन न देने के बावजूद तथा विदेशी पूंजी को देश की समस्याओं का रामबाण हल मानने वाली सभी बड़ी राजनीतिक पार्टियों के विरोध के बावजूद मारुति मज़दूर पिछले 6-7 साल से आंदोलन चला रहे हैं, जो उत्तरोत्तर मज़बूत हो रहा है। इस संदर्भ में यह भी ध्यान देने योग्य है कि बेशक यूनियन नेतृत्व परमानेंट मज़दूरों का है, पर उनके 13 सूत्री मांगपत्र में मारुति में जारी ठेका प्रथा का अंत और ठेका मज़दूरों को नियमित करना यूनियन की मुख्य मांगों में से एक है। यह भी गौरतलब है कि मारुति मैनेजमेंट को उसके पक्ष में गवाही देने के लिए एक भी मज़दूर नहीं मिला और आखरी बात न केवल देश में बल्कि दुनिया के पैमाने पर संघर्षरत मज़दूरों को व्यापक समर्थन मिला है। 4 अप्रैल 2017 को मारुति मज़दूरों के समर्थन में प्रतिवाद दिवस आयोजित किया गया। इस अवसर पर देश के विभिन्न हिस्सों और दुनिया के कई देश के मज़दूरों ने अपनी एकजुटता प्रदर्शित की। विरोध प्रदर्शन किया, रैलियां निकालीं। यह राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय एकजुटता कमजोर ही सही पर आज के समय में महत्वपूर्ण मिसाल है।
इस संघर्ष ने आपसी मज़दूर भाईचारे का भी अभूतपूर्व उदहारण एक लंबे समय के बाद पेश किया है। मारुति मानेसर के 13 मजदूरों को उम्रकैद की सजा में एक भाई संदीप ढिल्लों को अपनी बहन की शादी में जाने की अनुमति नहीं मिली। भाई की कमी दूर करने सैकड़ों भाई संदीप के घर पहुंचे और संदीप की अनुपस्थिति में भाई की जिम्मेदारी निभाई। 'मारुति सुजुकी प्रोविजनल कमेटी' की अगुवाई में सभी मारुति सुजुकी मजदूर संघ के मजदूरों ने और बेल्सोनिका, एफएमआई, होन्डा, हीरो, सनबीम, ओमैक्स, जीकेएन, डाईकिन, मुन्जाल किरीयु, सोना कोयो स्टेरिंग, कैरियर, एक्साइड, अरस्टी आदि यूनियनों से जुड़े मजदूर साथियों ने शादी में पहुंचकर परिवारजनो का हौसला बढ़ाया और साथ ही 8 लाख 38 हजार रुपये की आर्थिक मदद भी की। इस मदद ने जहां मानवता व भाईचारे का संदेश दिया है, वहीं जेल में बंद साथियों के मनोबल को भी बढ़ाया है और विश्वास दिलाया है कि उनके परिवार की जिम्मेदारी सब मजदूरों की है।
संपर्कः रवींद्र गोयल, ई मेल आईडीः ravi_goel2001@yahoo.com
रविवार, 9 अप्रैल 2017
मारुति के मज़दूरों को दुनिया भर से मिल रहा समर्थन
इस समय जबकि पूरी दुनिया में फासिस्ट सत्ताएं मजबूत हो रही हैं, वहीं, साम्राज्यवाद को कब्र में ढकेलना वाला मजदूर वर्ग भी दुनियाभर में अपने बिरादर भाइयों की एकता को मजबूत रहने लगा है। अब भविष्य साफ दिख रहा है समाजवाद या बर्बरता। एक बार फिर पुरजोर ढंग से यह सवाल सबके सामने उठने लगा है, तय करो किस ओर हो तुम?
यूपी में समाजवाद शब्द को सरकारी योजनाओ से हटाकर पूंजीवाद का कट्टर सेवक बाबा अपना गाल बजा रहा है। वैसे जिस समाजवाद को हटाया गया है उसकी तो लोहिया, मुलायम और चुनावी रास्ते को अपना चुकी लाल झंडे वाली पार्टियां पहले ही हत्या कर चुकी हैं।
बीसवीं सदी में जो समाजवादी सत्ताएं अस्तित्व में आईं, आज भी वे दुनिया के मजदूर वर्ग में यह उम्मीद जगा रही हैं कि पूंजीवाद अजर अमर नहीं है। उसे हराया जा सकता है। इतिहास इसका भी गवाह है कि वह मजदूर वर्ग ही था जिसने न सिर्फ दुनिया के सबसे बड़े तानाशाह हिटलर की ताकत को धूल में मिटा दिया वरन उसे आत्महत्या तक करनी पड़ी। दुनिया में आज जिस तरह से फासिस्ट सत्ताएं अस्तित्व में आ रही हैं, उसने न चाहते हुए भी फिर से सोए हुए शेर को जगा दिया है। मजदूर वर्ग फिर से खुद को झाड़ पोंछ कर खड़ा हो रहा है। एक बार फिर मजदूर वर्ग अपनी विचारधारा पर पड़ी धूल राख को साफ कर और अपनी गलतियों से सबक लेने की तरफ बढ़ता नजर आ रहा है। नए दौर में पूंजीवाद के खिलाफ और समाजवाद लाने के लिए लड़ी जाने वाली फैसलाकुन जंग में भारत का मजदूर वर्ग भी पीछे नहीं है।
जो लोग आज फासिस्ट सत्ताओं के अट्टहास में अपनी अक्ल गिरवी रख चुके हैं, उनमें से ज्यादातर मध्यवर्ग से हैं। मीडिया में सारा कोलाहल इसी रीढ़विहीन वर्ग का है। इसमें कुछ चालाक भी हैं, जो प्रगतिशीलता का लबादा ओढ़े हुए हैं। उन्होंने ऐसा माहौल बना दिया है, जिसमें मजदूर वर्ग के संघर्ष के लिए कोई जगह नहीं है। इन मीडिया घरानों को जिनकी जूठन मिलती है उसे वे कभी नहीं छोड़ सकते। ऐसे में मजदूर वर्ग को खुद अपने अखबार पत्रिकाएं निकालनी होंगी। प्रचार के और नए तरीके खोजने होंगे।
मारुति मज़दूरों की रिहाई व कार्यबहाली को लेकर दो दिवसीय विरोध के तहत 5 अप्रैल को देश के विभिन्न हिस्सों व दुनिया के कई देशों में आवाज बुलन्द हुई।
लखनऊ में केन्द्रीय ट्रेड यूनियनों व आल इण्डिया वर्कर्स काउन्सिल के नेतृत्व में मारुति मज़दूरों के समर्थन में हजरतगंज में गांधी मूर्ति के सामने प्रदर्शन व सभा हुई। सभा में मारुति के उम्र क़ैद की अन्यायपूर्ण सजा पाए 13 श्रमिकों की बिना शर्त रिहाई, 3-4 साल तक जेल में बन्दी के बाद बेकसूर साबित 117 मज़दूरों के मुआवजे व सभी मज़दूरों की कार्यबहाली की मांग के साथ ट्रेड यूनियन अधिकार पर हमले बन्द करने व ठेका-संविदा प्रथा बन्द करने की मांग उठी। शामिल संगठनों ने इस मुहिम को देशव्यापी रूप से चलाने का एलान किया।
गुड़गांव में गुरुग्राम कोर्ट द्वारा मारुति के 13 श्रमिकों को आजीवन कारावास सहित अन्यायपूर्ण फैसले के खिलाफ देश की 12 केंद्रीय ट्रेड यूनियनों के आह्वान पर ट्रेड यूनियन काउंसिल गुड़गांव-रेवाड़ी ने कमला नेहरू पार्क में रैली निकाली। इसमें आईएनटीयूसी, एआईटीयूसी, सीआईटीयू, एचएमएस, रीको धरूहेड़ा, हीरोमोटो, मारुति मजदूर संघ के लोग शामिल हुए।
जोरदार प्रदर्शन के साथ मांग की गई कि सजायाफ्ता मारूति मजदूरों को तुरंत रिहा किया जाए। बाइज्जत बरी किए गए 117 मजदूरों सहित 18 अप्रैल 2012 से मारूति कंपनी से निकाले गए 2500 के करीब स्थाई व अस्थाई वर्कर्स को दोबारा काम पर रखवाया जाए तथा उन्हें इस बीच गुजरे समय का पूरा मुआवजा दिलवाया जाए। तथा उत्पीड़न में शामिल मारूति कंपनी प्रबंधन, प्रशासनिक मशीनरी के खिलाफ कार्यवाही करने, ठेका प्रथा को पूरे तौर पर खत्म करने, समान काम-समान वेतन के बारे सर्वोच्च न्यायालय के फैसले की अविलम्ब अनुपालन करने, ट्रेड यूनियन अधिकारों पर हमले बंद करने व श्रम कानूनों में संशोधन वापिस लेने की मांग उठी।
केन्द्रीय ट्रेड यूनियन दिल्ली, जयपुर, सिरसा, रोहतक, करनाल, भिवानी आदि स्थानों पर भी प्रदर्शन किया। पंजाब में विभिन्न ट्रेड यूनियनों, मज़दूर संगठनों और जन संगठनों ने लुधियाना के डी सी ऑफिस के सामने मारुति मज़दूरों के समर्थन में सामूहिक कार्यक्रम और विरोध प्रदर्शन आयोजित हुआ। दिल्ली में 5 अप्रैल को नेशनल हॉकर फेडरेशन दिल्ली ने जंतर मंतर पर दिल्ली नगर निगम, नई दिल्ली नगर पालिका परिषद व दिल्ली पुलिस के अत्याचारों के खिलाफ प्रचंड विरोध प्रदर्शन का आयोजन किया व मारुती के 13 आंदोलनकारियों की सजा के खिलाफ भी आवाज उठाई और साथ ही मांग रखी कि उन सभी 13 लोगों को रिहा किया जाए और उन पर जो भी झूठे मुकदमे लगाए गए है उन्हें वापस ले और बाकी 117 कर्मचारियों सहित सभी बर्खास्त कर्मचारियों को काम पर वापस लिया जाए। इस सन्दर्भ में प्रधान मंत्री, श्रम मंत्री और गृहमंत्री को ज्ञापन सौंपा। नारे लगे-जेल के ताले टूटेंगें, हमारे साथी छूटेंगे! फुटपाथ दुकानदार जिंदाबाद! मजदूर एकता जिंदाबाद! नेशनल हॉकर फेडरेशन जिंदाबाद!
आध्र प्रदेश के कुर्नूल में 4 अप्रैल को पीओपी, एदटीयूआई, पीएडीएस द्वारा मारुति मज़दूरों के समर्थन में सामूहिक प्रदर्शन हुए। जबकि कन्याकुमारी में 4 अप्रैल को प्रतिवाद सभा हुई।
हैदराबाद में आईएफटीयू के साथियों द्वारा प्रदर्शन किया गया।
मुम्बई में टीयूसीआई व ट्रेड यूनियनों के संयुक्त प्लेटफार्म द्वारा मारुति मज़दूरों के समर्थन में विरोध प्रदर्शन आयोजित हुआ। इतना ही नहीं विदेशों में भी मारुति के मजदूरों को समर्थन मिला है। फ्रांस में मारुति मज़दूरों के समर्थन में अन्तर्राष्ट्रीय प्रतिवाद दिवस पर फ्रांस के ड्रिक्स शहर में प्रेस कांफ्रेंस हुई। फ्रांस के पेरिस में 4 अप्रैल को अंतराष्ट्रीय प्रतिवाद दिवस पर प्रदर्शन हुए।
वहीं हंगरी की राजधानी बुडापेस्ट में मारुति मज़दूरों के समर्थन में 4 अप्रैल को अंतराष्ट्रीय प्रतिवाद दिवस के रूप में मनाते हुए प्रदर्शन हुआ।
इन प्रदर्शनों को गिनाने का मकसद यही था कि आज यदि हर तरफ पूंजीवाद फासिज्म के रूप में नजर आ रहा है, तो उसे मौत की नींद सुलाने वाला वर्ग भी आ चुका है। और उसने अपनी ताकत का एहसास भी करवाना शुरू कर दिया है।
शुक्रवार, 7 अप्रैल 2017
टाटा मोटर्स ने 6000 कर्मचारियों को निकाला
25 हज़ार लोगों पर पड़ेगा असर, 800 सहायक ऑटो इकाईयों पर भी पड़ेगा उल्टा असर
1 अप्रैल 2017 से बीएस तृतीय वाहनों की बिक्री पर प्रतिबंध लगाने के सुप्रीम कोर्ट के फैसले के बाद टाटा मोटर्स के लगभग 6,000 अस्थायी कर्मचारियों को निकाल दिया गया है.
2 9 मार्च को सर्वोच्च न्यायालय ने 1 अप्रैल से भारत स्टेज III (बीएस -3) के वाहनों की बिक्री और पंजीकरण पर प्रतिबंध लगा दिया था. कोर्ट का कहना था कि ये वाहन देश में हवा की गुणवत्ता को और ख़राब कर सकते हैं. उसने सभी ऑटोमोबाइल कंपनियों को बीएस तृतीय वाहनों की बिक्री रोकने के निर्देश दिए और कहा था कि नागरिकों के स्वास्थ्य व्यावसायिक हित से ज्यादा महत्वपूर्ण हैं।
टाटा मोटर्स ने 31 मार्च और 3 अप्रैल को जमशेदपुर संयंत्र में दो दिवसीय बंदी की घोषणा की। इस संबंध में गुरुवार को एक नोटिस जारी किया गया। हिंदुस्तान टाइम्स का दावा है कि उसके पास इसकी एक प्रति है, जिसमें लिखा है, "स्थायी कर्मचारी और ट्रेनी कर्मचारी 4 अप्रैल को अपनी ड्यूटी के बारे में रिपोर्ट करेंगे."
हैवी कैब फिटमेंट लाइन में काम करने वाले अस्थायी कर्मचारियों की बर्खास्तगी के अलावा, करीब 5,000 स्थायी कर्मचारी और विभिन्न सेगमेंट में काम करने वाले इतनी ही संख्या में प्रशिक्षुओं ने 31 मार्च की बंदी के दौरान काम में हिस्सा नहीं लिया. रिपोर्ट में कहा गया है कि 80,000 से ज्यादा वाहनों का वार्षिक उत्पादन प्रभावित होगा.
टाटा मोटर्स, जमशेदपुर संयंत्र के प्रवक्ता रणजीत धर ने शुक्रवार को कहा कि अस्थायी कर्मचारी भविष्य में उत्पादन की मांग के मुताबिक सेवा में वापस लाए जाएंगे. हालांकि कंपनी के सूत्रों ने कहा कि बीएस चतुर्थ वाहनों का उत्पादन बड़े पैमाने पर शुरू होने पर अस्थायी कर्मचारियों को ड्यूटी पर वापस बुलाया जाएगा.
वरिष्ठ ट्रेड यूनियन नेता डीडी त्रिपाठी ने कहा कि अस्थायी कर्मचारियों के परिवार के 25,000 सदस्य प्रभावित होंगे.
कंपनी का निर्णय आदित्यपुर औद्योगिक क्षेत्र विकास प्राधिकरण (एआईएडीए) में करीब 800 सहायक इकाइयों के भविष्य पर काफी असर पड़ेगा. ये इकाइयां बड़े पैमाने पर टाटा मोटर्स पर निर्भर हैं.
सिंहभूम चैंबर ऑफ कॉमर्स एंड इंडस्ट्रीज के अध्यक्ष सुरेश सोथलिया ने कहा किस "इस फैसले से लगभग 800 सहायक इकाइयां प्रभावित होंगी, लेकिन टाटा मोटर्स इस स्थिति का सामना करने में सक्षम है और सुप्रीम कोर्ट के फैसले का कंपनी पर लंबी अवधि का प्रभाव नहीं होगा."
(मजदूरनामा से साभार)
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