बुधवार, 29 अप्रैल 2015

कहीं नहीं है, कहीं भी नहीं है लहू का सुराग

40 साल पहले, 26 जून 1975 को तत्कालीन इंदिरा गाँधी सरकार ने देश में आंतरिक आपातकाल लागू करके जनता को मिले सीमित जनवादी अधिकार भी छीन लिये थे। हालांकि ढाई साल बाद चुनाव में इंदिरा कांग्रेस का पतन हो गया था। जनता पार्टी की सत्ता बनी और नयी आजादी का शोर मचा। लेकिन हुआ क्या? राज्य सत्ता के दमनकारी चरित्र पर वास्तव में कोई खास फर्क नहीं पड़ा। दमनकारी मीसा कानून का स्थान मिनी मीसा ने ले लिया। कभी टाडा, कभी पोटा तो कभी मकोका जैसे काले कानून बनते रहे, सरकारी निरंकुशता बढ़ती रही और मेहनतकश अवाम का दमन और तेज होता गया।
राज्य मशीनरी के एक महत्वपूर्ण अंग के बतौर दमनकारी खौफ की पर्याय बन चुकी खाकी वर्दी के कारनामें नित नये रूप में सामने आते रहे हैं। इसी कड़ी में पिछले रोज एक ही दिन में दो राज्यों में कथित पुलिसिया मुठभेड़ के नाम पर 25 नागरिकों की मौत से पुलिसिया चरित्र की एक और पटकथा लिख गयी।
पहली घटना आंध्र प्रदेश के चित्तूर में सेषचलम पहाडि़यों की है जहाँ कथित तौर पर मुठभेड़ के बहाने बीस कथित चंदन तस्करों को पुलिस ने मार दिया। खुद पड़ोसी राज्य तमिलनाड़ु (मृतक जहाँ के नागरिक थे) सरकार का दावा है कि मारे गये लोग श्रमिक थे। तथ्य जो उजागर हुए हैं उसके अनुसार जिन पर गोलियां दागी गयीं, वे हथियारबंद नहीं थे, जिनसे जान को खतरा होता। तो उन्हें गिरफ्तार क्यों नहीं किया गया? यही नहीं यदि पुलिस कथित भीड़ से प्रतिरक्षा में गोली चलाती तो नियमतः उसे कमर के नीचे के हिस्से में गोली दागना चाहिए था, लेकिन उसने सीधे जान से क्यों मार दिया? सभी प्रमाण स्पष्ट हत्या के हैं।
दूसरी घटना नवोदित तेलंगाना राज्य का है। यहाँ वारंगल में विचाराधीन पाँच कैदियों को पेशी पर ले जाने के दौरान कथित ‘जवाबी फायरिंग’ में मौत की है। पुलिस का तर्क है कि एक कैदी ने पुलिस की रायफल छीनने की कोशिश की। अब सवाल उठ रहा है कि हथकड़ी में जकड़े कैदी ने रायफल कैसे छीनी होगी? सोशल मीडिया पर आई तस्वीरें इस बात की तस्दीक कर रही हैं कि वे राइफल छीन या भाग नहीं सकते थे। तस्वीरों में मृतकों के हाथ में हथकडि़यां हैं।

ये दो घटनाएं तो महज बानगी हैं। आजाद भारत के पिछले 68 सालों का इतिहास पुलिसिया मुठभेड़ की अनगिनत हत्यारी घटनाओं से भरा पड़ा है। जो मामले खुलकर सामने आ जाते हैं, उनमें भी पूरी राज्य मशीनर हत्यारों को बचाने का ही काम करती है। पिछले 22 मार्च को दिल्ली की एक अदालत का फैसला इस नंगी सच्चाई का दर्पण है। 42 लोगों का कत्ल, 28 साल चला मुकदमा, पाँच चश्मदीद गवाह और पहचान की नाकामयाबी में हत्यारे बरी।
1987 में उत्तर प्रदेश के मेरठ दंगे के दौरान पीएससी की बटालियन ने 47 मुसलमानों को उठा लिया था और गाजियाबाद जिले के हाशिमपुरा के सूनसान इलाके में गोलियों से भुनकर शवों को नहर में फेंक दिया था। इसमें 42 लोगों की मौत हो गयी थी, पाँच इत्तेफाक से मौत के मुंह से बच गये थे। जो चश्मदीद गवाह बने। इस बारे में घटना के दौरान गाजियाबाद के पुलिस कप्तान रहे विभूति नारायण राय 24 मार्च को अमर उजाला में प्रकाशित अपने लेख में लिखते हैं कि ‘‘हाशिमपुरा का नरसंहार स्वतंत्रता बाद की सबसे बड़ी हिरासत में मौत की घटना है। इसके पहले जहाँ तक मुझे याद है, कभी इतनी बड़ी संख्या में पुलिस ने अपनी हिरासत में लेकर लोगों को नहीं मारा था। इसके बावजूद एक भी अपराधी को दण्डित नहीं किया जा सका। अदालत के फैसले से मुझे कोई आश्चर्य नहीं हुआ है। मैंने पहले ही दिन से यही अपेक्षा की थी। दरअसल भारतीय राज्य का कोई भी स्टेक होल्डर नहीं चाहता था कि दोषियों को सजा मिले।’’
यही आज की सच्चाई है। आपातकाल के काले अंधेरे दौर से भी भयावह दौर में आज भारतीय समाज खड़ा है।
[ संघर्षरत मेहनतकश पत्रिका के 23वें  अंक का सम्पादकीय।
Cotact no. 09412969989] 09873057637

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