(दो साल की मासूम फलक ने आखिरकार दम तोड़ दिया। लेकिन उसकी
मौत से जुड़ी घटनाओं ने भारतीय समाज के कमजोर समूहों, खासकर स्त्रियों और बच्चों के साथ व्यवस्था और समाज के सलूक
की पोल खोल दिया है। इस समाज में पूँजीवादी लोभ और लालच की संस्कृति ने पहले से
मौजूद सामन्ती सामाजिक सोच के साथ मिलकर कोढ़ में खाज का काम किया है। अब वस्तुओं
की ही नहीं मनुष्यों की भी तस्करी होने लगी है, जिसका शिकार सबसे कमजोर समूह सबसे पहले हो रहे हैं। पूरे देश
में असमान विकास के कारण गरीबी का दंश झेल रहे इलाकों से भारी पैमाने पर स्त्रियों
की तस्करी करके उनकी भाषा और संस्कृति से कटे हुए ऐसे अनजाने इलाकों में जबरन शादी
या वेश्यावृत्ति में झोंक दिया जा रहा है जहाँ छोटे-छोटे दरबों में उनकी चीखें दम
घोंट दे रही हैं। इन असहाय, निरुपाय मासूमों की सिसकियों के लिए हमने अपने कानों में पितृसत्तात्मक
मूल्यों की रूई ठूँस रखा है। पुलिस, न्यायप्रणाली और नौकरशाही का पूरा ढाँचा पहले से ही कमजोरों के लिए औपनिवेशिक
मानसिकता से ग्रस्त है। सामाजिक सुरक्षा के नाममात्र के ढाँचे भी तोड़े जा रहे
हैं। ऐसे में समाज के जागरूक लोगों को अपनी हिचक तोड़ते हुए आगे बढ़कर सबके लिए
इंसाफ की लड़ाई लड़नी होगी। ‘द हिन्दु’ में छपे फराह नक़वी के इस लेख को हम इसी आशय से प्रस्तुत कर
रहे हैं।)
एक बच्ची की मौत हो गई और हम सामूहिक रूप में उसका शोक मना रहे हैं। वह तो सिर्फ दो साल की थी। और उसने बहादुरी के साथ संघर्ष भी किया। लेकिन उसके जीवन को सहारा दे रही एम्स ट्रॉमा सेंटर की नलियों और तारों में उस व्यवस्था की विफलता का मुकाबला करने की क्षमता नहीं थी जिसने उसे मौत के मुंह में झोंक दिया। सच तो यह है कि फलक के बचने की संभावना कभी थी ही नहीं।
फलक की जिन्दगी के बारे में हमें मीडिया रिपोर्टों के बेतरतीब टुकड़ो की ही जानकारी है। 15 साल की एक लड़की एक बेनाम बच्ची को लेकर एक अस्पताल में आती है। बच्ची के बदन पर मानव दाँतों के जख्म हैं और वह पिटाई के कारण मरणासन्न हो गई है। पता चलता है कि वह किशोरी उस बच्ची की माँ नहीं है, और वह खुद ही अपने साथी द्वारा प्रताड़ित हुई है, जिसने महीनों पहले उस बच्ची को उसके पास फेंक दिया था। कुछ दिनों बाद असली माँ मिल जाती
है—22 साल की मुन्नी, जिसकी
बिहार से दिल्ली तक कई राज्य सीमाओं के आर-पार खरीद-बिक्री हुई और राजस्थान के झुनझुनू में दूसरी शादी के
लिए बेच दिया गया, उसके तीन बच्चों को इस वादे के साथ
अनजान लोगों के रहमोकरम पर छोड़ने को उसे मजबूर किया गया कि वे उनकी देखभाल करेंगे जो उन्होंने नहीं
किया। इस दौरान कई नाम उभर कर आते हैं—बिहार का शाह हुसैन, मुन्नी
का शौहर जिसने उसे बेच दिया; किशोरी
की सहेली पूजा का पति सन्दीप पाण्डेय, जिसने
मुन्नी के साथ बलात्कार किया और उसे उत्तर प्रदेश के एटा में
एक बूढ़े से शादी के लिए बेचने की कोशिश किया, फिर राजकुमार नाम के टैक्सी ड्राइवर को सौंप दिया; राजकुमार, उस
किशोरी का मौजूदा साथी और दलाल; जितेन्दर गुप्ता, उस किशोरी का बाप जिसने उसे इतनी बुरी तरह
पीटा कि वह भाग कर इन दलालों के चंगुल
में फंस गई। कई और बेतरतीब ब्यौरे हैं—मनोज नाम
का एक आदमी और उसकी पत्नी प्रतिमा, जिन्हें पटना से गिरफ्तार किया गया— इन्होंने ही अन्ततः उस बच्ची को
राजकुमार के और उस किशोरी के हवाले किया जिसका नतीजा आखिरकार फलक की मौत के रूप में सामने आया।
पेचीदा इंसानी कड़ियाँ
आखिर ये पेचीदा इंसानी कड़ियाँ जुड़ती कैसे हैं? इनमें से बहुत सारी बातें तो हम कभी नहीं जान पाएंगे। जो कुछ हम जानते हैं वह यह है कि
मुन्नी और एक 15 साल की लड़की की हताशा और हिंसा से भरी हुई जिन्दगियाँ अनजाने एक-दूसरे से होकर गुजरीं, और एक नन्हीं बच्ची मानव-तस्करी की शिकार एक असहाय माँ के हाथों से निकलकर एक बलात्कार की शिकार, प्रताड़ित और अशान्तचित्त किशोरी के हाथों में पहुंच गई।
कहानियों के ये छोटे-छोटे टुकड़े एक टूटे हुए शीशे की उन लाखों किरचों जैसे हैं, जो एक साथ मिलकर एक घिनौना, विकृत आईना बनाती हैं। एक ऐसा आईना जो हमें दिखाता है कि हम एक ऐसे राष्ट्र के नागरिक
हैं जहाँ सबसे असहाय लोगों के लिए सामाजिक सुरक्षा का कोई ढाँचा नहीं है। फलक, मुन्नी और वह बेनाम किशोरी हमारी व्यवस्था की हर दरार में गिरने को अभिशप्त
थे। उनकी जिन्दगियाँ हजारों कहानियाँ कहती हैं।
भारत में लड़कियाँ अगर किसी तरह जन्म ले पायीं तो भी अक्सर अवांछित हैं। बाल लिंगानुपात(0 से 6 साल) में गिरावट 1000 लड़कों के मुकाबले 1991 में 945 से 2001 में 927 और 2011 में तो मात्र 914 लड़कियों तक पहुँच गई है जो स्वतन्त्रता के बाद से अब तक का निम्नतम है। शायद फलक भी
उन्हीं अवांछित, उपेक्षित और गैरजरूरी बच्चियों में से थी। अगर वह जिन्दा बच भी गई होती तो भी उन्हीं लाखों कुपोषित बच्चों में से एक होती, भारत के पाँच साल से कम उम्र के जो 42.3 प्रतिशत बच्चे सामान्य से कम वजन के हैं उनमें से एक होती, और जो 58.8 प्रतिशत बच्चे बौनेपन का शिकार हैं उनमें से एक होती(HUNGaMA रिपोर्ट, नान्दी फाउण्डेशन, 2012 )। लड़की होने के नाते वह इस कुपोषण के सबसे निचले पायदान पर
होती। अगर वह थोड़ी मजबूत रही होती तो कदाचित इस प्रताड़ना के बावजूद बच गई होती।
और उस 15 साल की किशोरी की हालत के बारे में सोचिए जिसने पहले फलक की मरम्मत किया फिर बचाने की कोशिश किया? राजधानी की हृदयस्थली में स्थित संगम विहार की झोपड़पट्टी से भागी हुई लड़की; उसकी माँ मर चुकी थी और उसके बाप ने उसे प्रताड़ित किया था जिस कारण वह सुरक्षा के लिए
भागी और दलालों के चंगुल में फंस गई। उन्होंने उससे बार-बार वेश्यावृत्ति कराया और उसके साथ बलात्कार किया। लेकिन फिर भी यह भयभीत लड़की मदद मांगने के लिए किसी व्यवस्था के पास नहीं पहुँची।
क्या उसे पुलिस के पास जाना चाहिए था? क्या वह जा सकती थी? अब तो ऐसा लगता है कि बलात्कार इतनी रोजमर्रा की घटना बन चुका है, और इंसाफ इस तरह से मृगमरीचिका बन चुका है कि उसका वहाँ जाना निरर्थक था। थाने पर
प्राथमिकी दर्ज कराने के बाद वह कहाँ जाती, जबकि उसे परिवार का सहारा भी नहीं था? कोई नहीं था जो उसे अपने घर में जगह देता। बलात्कार का मुकदमा लड़ते हुए वह कहाँ रहती, और किस तरह रहती? उसके पास न इससे पहले कोई सहारा था, न इस दौरान, न ही इसके बाद। हमने उसे कुछ नहीं दिया, सिवाय बलात्कार सम्बन्धी कानूनों और लैंगिक मामले में अन्धी एक फौजदारी न्याय
प्रणाली के। हलाँकि राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो का 2010 में दोषसिद्धि का 26.5 प्रतिशत(2003 के 26.12 से नाममात्र ज्यादा) का दावा है, लेकिन ये आँकड़े बुरी तरह से गुमराह करने वाले हैं। कानूनी ऐक्टिविस्टों के अनुसार, अपील में ही दोषसिद्धि के विरुद्ध हुए निर्णयों को देखा जाए तो बलात्कार के मामलों में
दोषसिद्धि का सही अनुमान 5 प्रतिशत तक पहुँचेगा। तो क्या इस कम उम्र की, झोपड़पट्टी से भागी हुई लड़की को अदालतों से किसी इंसाफ की सम्भावना थी? साक्ष्यों के नियम, प्रक्रियागत बाधाएं, शत्रुतापूर्ण रुख वाली पुलिस, एक बलात्कार की शिकार स्त्री के प्रति सामुदायिक और सार्वजनिक समर्थन का अभाव, और बेहिसाब सामाजिक कलंक—ये विपरीत परिस्थितियाँ थीं जो उसके सामने मुँह बाये खड़ी रही होंगी। उसके पास अगर कोई सम्भावना थी तो यही कि उसे झूठी
या गुस्ताख कुलटा कहा जाता और सीधे घर भेज दिया जाता। सच तो यह है कि इस अल्पवयस्क अशान्तचित्त परित्यक्त लड़की को उस हिंसा और प्रताड़ना वाले सम्बन्ध की तुलना में ज्यादा “वास्तविक” विकल्प उपलब्ध कराने में हम विफल हो गए। शायद आज उसे जेल की सलाखों से ज्यादा
मनोचिकित्सकीय देखभाल की जरूरत है, (19 मार्च 2012 को ‘द हिन्दु’ में छपे फराह नक़वी के लेख Who killed baby Falak? का हिन्दी अनुवाद शैलेश शरण शुक्ल ने किया है.)
जब तक समाज लड़कियों को वस्तु समझता रहेगा। यह सब चलता रहेगा। पूंजीवाद इस से अधिक कुछ सीखने नहीं दे सकता। पूंजीवाद का निरन्तर क्षरण हो रहा है। जरूरत तो उस लात की है जो इसे धक्का दे कर गिरा दे।
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