(सुरेंद्र विश्वकर्मा)|
65 वर्षिय बुजुर्ग मित्र इलियास शेख के बार - बार अनुरोध पर आखिरकार मैं इस यात्रा के पहले पड़ाव
वर्धमान पहुँच गया। खाना खाने के लिए रेलवे के भोजनालय पहुँचने पर पता चला कि कैन्टीन को किसी प्राइवेट कम्पनी को
दिया जा रहा है, इसलिये भोजनालय बन्द है और सभी कर्मचारी इस नव उदारवादी बदलाव के खिलाफ हड़ताल पर हैं।
अमूमन यात्राओं में मैं रेलवे के भोजनालय में ही खाना खाता हूँ क्योंकि खाना साफ - सुथरा, ताजा और मात्र 35 रुपये का ही होता है।
बरहाल मैं नव उदारवादी नीतियों का मारा रात 7 बजे फरक्का स्टेशन पर पहुँच गया।
मैं न तो कोई नदी - घाटी परियोजना का विशेषज्ञ हूँ न ही भौगोलिय परिवर्तनों को समझने वाला ज्ञाता लेकिन इस वर्ष साधारण सी बारिश से पटना शहर में 1 से 1.5 फिट तक पानी भर गया। लगा कि कुछ तो गड़बड़ है, क्या गंगा नदी का तल इतना ऊंचा हो गया है कि नदी पानी को खींच नहीं पा रही है? जबकि इस वर्ष गंगा नदी से सम्बंधित पहाड़ों और मैदानी इलाकों में औसत से कम वर्षा हुई थी।
नितीश कुमार सन 2017 तक फरक्का बाँध को बिहार की त्रासदी बता रहे थे तो क्या सन 2018 तक आते - आते चीफ मिनिस्टर साहब के गले का पानी सूख गया? या मोदी का सफेद हाथी वाराणसी से हल्दिया गंगा नदी में व्यापारिक जहाज चलना ज्यादा हावी हो गया है। नेशनल ग्रीन ट्रिब्यूनल बोर्ड ने कैसे इस परियोजना को मंजूरी दी जो नदी के फ्लड प्लेन को ही तबाह कर दे।
शेख साहब बतातें हैं कि मई के महीने में बड़े - बड़े टीले फरक्का से साहिबगंज तक देखे जा सकते हैं। इसका सीधा सा मतलब है कि नदी स्वयं बैराज को नहीं तोड़ सकती है और सरकार बन रहे सफेद हाथी के कारण इसे तोड़ेगी भी नहीं क्योकि इस परियोजना में अरबों रुपये का हेर - फेर होगा। गंगा के कैचमेंट एरिया में जिस वर्ष अत्यधिक वर्षा होगी सम्भव है कि नदी अपनी धारा ही बदल दे तो साहिबानों प्रलय नहीं महाप्रलय आएगा।
कम्युनिस्ट पार्टी जब विपक्ष में थी तो बाँध के विरोध में थी लेकिन सत्ता में आते ही इसकी वकालत करने लगी। शायद साम्यवादी सरकार से पड़ोसी देश की खुशहाली देखी नहीं गयी!
गढ्ढ़ा खोदने वाला खुद ही के बनाये गाद में दब गया है कि पूर्वी पाकिस्तान की बर्बादी के लिये बने बांध से हर साल बलिया तक भूमि कटान से खेत और घर नदी में समा रहे हैं और प्रत्येक वर्षा काल में बिहार की आधी आबादी बाढ़ जैसी विभीषिका झेलने को मजबूर है। कोलकाता बंदरगाह की सिल्ट साफ करने के लिये लायी गयी 40000 क्यूसेक पानी से कुछ नहीं होता और आज भी बंदरगाह से बालू हटाने के लिये प्रतिवर्ष 350 करोड़ रुपये खर्च किये जाते हैं। सप्ताह में केवल एक छोटा सा टूरिस्ट जहाज बड़े स्टीमर जैसा चलाते हैं, यही एकमात्र उपलब्धि कही जा सकती है वो भी यात्रियों की संख्या पर निर्भर है।
बंगलादेश की एक तिहाई आबादी गंगा के पानी पर निर्भर है। पानी की कमी से धान की खेती और मत्स्यपालन तो प्रभावित हुआ ही सुन्दरबन के अस्तित्व पर संकट आन पड़ी है। इस आर्थिक और भौगोलिक परिवर्तन से कितने लोगों का पलायन हुआ होगा, इसका कोई आँकड़ा दोनों देशों के पास नहीं है।
फरक्का में भोजन काफी सस्ता है। 10 रुपये में नास्ता (4 पूड़ी और सब्जी) और 35 - 45 रुपये में बढियां खाना एक सूखी सब्जी, साग, आलू का भुजिया, दाल, चटनी, पापड़, प्याज, रोटी या चावल, और खाना स्टील की थाली में पत्तल पर। अधिकतर लोग चावल खाना पसंद करते हैं और केवल शाकाहारी खाना मिलना असंभव है। साधारणतया लोग गंगा के पानी को बिना फिल्टर किये पीते हैं।
अगले दिन बैराज पार कर के बहाव के विपरीत दिशा में पैदल चलने लगा तो इतने बड़े - बड़े टापू दिखाई दिये कि मैं वाकई हैरान रह गया। लगभग 3 किलोमीटर पैदल चल कर नदी किनारे बसे मल्लाहों के गांव में पहुंच गया। लोग गंगा में बने टापुओं से मड़ई छाने वाला 10 फिट लम्बा सरकंडों का बोझा ला रहे थे। बदलते जमाने के साथ छावन का प्रयोग अब ईधन के रूप में किया जाता है। सरकार तटीय आबादी को 2 लीटर डीजल एक सप्ताह के लिए देती है। मैं भी एक मशीनी नाव पर सवार होकर दो किलोमीटर की यात्रा के बाद एक हरे भरे टापू पर पहुँच गया, यहाँ खेती भी की जाती है। द्वीप इतना बड़ा कि दूसरे सिरे का पता ही नहीं चलता जैसे लगा कि अलिफ लैला के जजीरे वाली रहस्यमयी दुनिया में आ गया हूँ। इसी तरह के बड़े - बड़े टापुओं को ब्रम्हपुत्र नदी में भी देखा था, जिसमें हाथी रहते हैं। यह सब फरक्का बाँध का चमत्कार है, खेतिहर जमीन और गांव सब गंगा के चपेट में, केवल मालदा जिले की 4000 एकड़ जमीन सन 2014 तक गंगा लील चुकी है।
बैराज के दूसरी तरफ का नजरा और भी शानदार था, पानी के तेज बहाव में पक्षी मछली खाने और खेलने के लिए टूटे पड़े हुए थे।
बैराज के 112 गेट में से केवल 4 गेट ही खुले हुये थे और फीडर की दिशा में सभी 11 गेट हमेशा खुले रहते हैं। यहाँ फोटो खीचना प्रतिबंधित है जो प्रमाणित करता है कि भारत जल समझौते का उल्लंघन कर रहा है।
2 किमी इस दिशा में आगे जाने पर एक धारा बायीं तरफ मुड़ गयी है जिसमें वाराणसी से आने वाले जहाज मुड़ कर कोलकाता की ओर जाते हैं। इसी धारा में फीडर के पानी को आगे मिला दिया गया है। यहाँ ढेर सारा कबाड़ स्टीमर, क्रेन इत्यादि सन 1975 से सड़ रहा है और इसकी रखवाली CISF के दो जवान करते हैं, जिनमें से एक जवान की सैलरी 54000 रुपये है।
इस एरिया में मशीनी नाव परिवहन का आसन और सस्ता साधन है। सरकारों ने यह मान लिया है कि नदी रोड को लील जायेगी इसलिये वह रोड बनाने के बारे में सोंचती ही नहीं है।
ढेर सारे लोग बड़े - बड़े ड्रम, बैंड, इत्यादि बाजों के साथ झारखंड के किसी चमत्कारी बाबा के कान फोड़ने के लिये नावों पर सवार हो रहे थे, नाव चलते ही थाली पीटना और हुलूक ध्वनि शुरू हो गई 😊। एक महिला श्रीधर से लहसुन के ढेरों बोरों के साथ आयी थीं। इन्होंने किसान से 8 - 20 रुपये / किलो के हिसाब से खरीदा था। गुवाहाटी में इस लहसुन को 50 - 70 रुपये / किलो के भाव में बेचने की कोशिश करेंगीं। पूरे देश में एक ही हालात हैं कि किसान को उसके उपज का उचित मूल्य न मिलना। क्या आपको अजीब नहीं लगता है जब बात किसानों की होनी चाहिये तो हम मन्दिर की बात करने लगते हैं?
बहरहाल शाम को इलियास जी ने पकड़ लिया और जबरन अपने गांव ले गए। रास्ते में बहुत बड़े - बड़े आम के बाग दिख रहे थे लगता था कि मालदा में केवल आम ही पैदा होता है। बहुत दिनों बाद ढंग का खाना नसीब हुआ। अगले दिन से वापसी की यात्रा शुरू हुई।
फरक्काबांध बना कर VIP इंजीनियर तो चले गए लेकिन आज भी सरकार इन VIP बंगलों को संभाल कर रखे हुए है, काश इसमें स्कूल - कॉलेज या हॉस्पिटल ही खोल दिए जाते।
65 वर्षिय बुजुर्ग मित्र इलियास शेख के बार - बार अनुरोध पर आखिरकार मैं इस यात्रा के पहले पड़ाव
वर्धमान पहुँच गया। खाना खाने के लिए रेलवे के भोजनालय पहुँचने पर पता चला कि कैन्टीन को किसी प्राइवेट कम्पनी को
दिया जा रहा है, इसलिये भोजनालय बन्द है और सभी कर्मचारी इस नव उदारवादी बदलाव के खिलाफ हड़ताल पर हैं।
अमूमन यात्राओं में मैं रेलवे के भोजनालय में ही खाना खाता हूँ क्योंकि खाना साफ - सुथरा, ताजा और मात्र 35 रुपये का ही होता है।
बरहाल मैं नव उदारवादी नीतियों का मारा रात 7 बजे फरक्का स्टेशन पर पहुँच गया।
मैं न तो कोई नदी - घाटी परियोजना का विशेषज्ञ हूँ न ही भौगोलिय परिवर्तनों को समझने वाला ज्ञाता लेकिन इस वर्ष साधारण सी बारिश से पटना शहर में 1 से 1.5 फिट तक पानी भर गया। लगा कि कुछ तो गड़बड़ है, क्या गंगा नदी का तल इतना ऊंचा हो गया है कि नदी पानी को खींच नहीं पा रही है? जबकि इस वर्ष गंगा नदी से सम्बंधित पहाड़ों और मैदानी इलाकों में औसत से कम वर्षा हुई थी।
नितीश कुमार सन 2017 तक फरक्का बाँध को बिहार की त्रासदी बता रहे थे तो क्या सन 2018 तक आते - आते चीफ मिनिस्टर साहब के गले का पानी सूख गया? या मोदी का सफेद हाथी वाराणसी से हल्दिया गंगा नदी में व्यापारिक जहाज चलना ज्यादा हावी हो गया है। नेशनल ग्रीन ट्रिब्यूनल बोर्ड ने कैसे इस परियोजना को मंजूरी दी जो नदी के फ्लड प्लेन को ही तबाह कर दे।
शेख साहब बतातें हैं कि मई के महीने में बड़े - बड़े टीले फरक्का से साहिबगंज तक देखे जा सकते हैं। इसका सीधा सा मतलब है कि नदी स्वयं बैराज को नहीं तोड़ सकती है और सरकार बन रहे सफेद हाथी के कारण इसे तोड़ेगी भी नहीं क्योकि इस परियोजना में अरबों रुपये का हेर - फेर होगा। गंगा के कैचमेंट एरिया में जिस वर्ष अत्यधिक वर्षा होगी सम्भव है कि नदी अपनी धारा ही बदल दे तो साहिबानों प्रलय नहीं महाप्रलय आएगा।
कम्युनिस्ट पार्टी जब विपक्ष में थी तो बाँध के विरोध में थी लेकिन सत्ता में आते ही इसकी वकालत करने लगी। शायद साम्यवादी सरकार से पड़ोसी देश की खुशहाली देखी नहीं गयी!
गढ्ढ़ा खोदने वाला खुद ही के बनाये गाद में दब गया है कि पूर्वी पाकिस्तान की बर्बादी के लिये बने बांध से हर साल बलिया तक भूमि कटान से खेत और घर नदी में समा रहे हैं और प्रत्येक वर्षा काल में बिहार की आधी आबादी बाढ़ जैसी विभीषिका झेलने को मजबूर है। कोलकाता बंदरगाह की सिल्ट साफ करने के लिये लायी गयी 40000 क्यूसेक पानी से कुछ नहीं होता और आज भी बंदरगाह से बालू हटाने के लिये प्रतिवर्ष 350 करोड़ रुपये खर्च किये जाते हैं। सप्ताह में केवल एक छोटा सा टूरिस्ट जहाज बड़े स्टीमर जैसा चलाते हैं, यही एकमात्र उपलब्धि कही जा सकती है वो भी यात्रियों की संख्या पर निर्भर है।
बंगलादेश की एक तिहाई आबादी गंगा के पानी पर निर्भर है। पानी की कमी से धान की खेती और मत्स्यपालन तो प्रभावित हुआ ही सुन्दरबन के अस्तित्व पर संकट आन पड़ी है। इस आर्थिक और भौगोलिक परिवर्तन से कितने लोगों का पलायन हुआ होगा, इसका कोई आँकड़ा दोनों देशों के पास नहीं है।
फरक्का में भोजन काफी सस्ता है। 10 रुपये में नास्ता (4 पूड़ी और सब्जी) और 35 - 45 रुपये में बढियां खाना एक सूखी सब्जी, साग, आलू का भुजिया, दाल, चटनी, पापड़, प्याज, रोटी या चावल, और खाना स्टील की थाली में पत्तल पर। अधिकतर लोग चावल खाना पसंद करते हैं और केवल शाकाहारी खाना मिलना असंभव है। साधारणतया लोग गंगा के पानी को बिना फिल्टर किये पीते हैं।
अगले दिन बैराज पार कर के बहाव के विपरीत दिशा में पैदल चलने लगा तो इतने बड़े - बड़े टापू दिखाई दिये कि मैं वाकई हैरान रह गया। लगभग 3 किलोमीटर पैदल चल कर नदी किनारे बसे मल्लाहों के गांव में पहुंच गया। लोग गंगा में बने टापुओं से मड़ई छाने वाला 10 फिट लम्बा सरकंडों का बोझा ला रहे थे। बदलते जमाने के साथ छावन का प्रयोग अब ईधन के रूप में किया जाता है। सरकार तटीय आबादी को 2 लीटर डीजल एक सप्ताह के लिए देती है। मैं भी एक मशीनी नाव पर सवार होकर दो किलोमीटर की यात्रा के बाद एक हरे भरे टापू पर पहुँच गया, यहाँ खेती भी की जाती है। द्वीप इतना बड़ा कि दूसरे सिरे का पता ही नहीं चलता जैसे लगा कि अलिफ लैला के जजीरे वाली रहस्यमयी दुनिया में आ गया हूँ। इसी तरह के बड़े - बड़े टापुओं को ब्रम्हपुत्र नदी में भी देखा था, जिसमें हाथी रहते हैं। यह सब फरक्का बाँध का चमत्कार है, खेतिहर जमीन और गांव सब गंगा के चपेट में, केवल मालदा जिले की 4000 एकड़ जमीन सन 2014 तक गंगा लील चुकी है।
बैराज के दूसरी तरफ का नजरा और भी शानदार था, पानी के तेज बहाव में पक्षी मछली खाने और खेलने के लिए टूटे पड़े हुए थे।
बैराज के 112 गेट में से केवल 4 गेट ही खुले हुये थे और फीडर की दिशा में सभी 11 गेट हमेशा खुले रहते हैं। यहाँ फोटो खीचना प्रतिबंधित है जो प्रमाणित करता है कि भारत जल समझौते का उल्लंघन कर रहा है।
2 किमी इस दिशा में आगे जाने पर एक धारा बायीं तरफ मुड़ गयी है जिसमें वाराणसी से आने वाले जहाज मुड़ कर कोलकाता की ओर जाते हैं। इसी धारा में फीडर के पानी को आगे मिला दिया गया है। यहाँ ढेर सारा कबाड़ स्टीमर, क्रेन इत्यादि सन 1975 से सड़ रहा है और इसकी रखवाली CISF के दो जवान करते हैं, जिनमें से एक जवान की सैलरी 54000 रुपये है।
इस एरिया में मशीनी नाव परिवहन का आसन और सस्ता साधन है। सरकारों ने यह मान लिया है कि नदी रोड को लील जायेगी इसलिये वह रोड बनाने के बारे में सोंचती ही नहीं है।
ढेर सारे लोग बड़े - बड़े ड्रम, बैंड, इत्यादि बाजों के साथ झारखंड के किसी चमत्कारी बाबा के कान फोड़ने के लिये नावों पर सवार हो रहे थे, नाव चलते ही थाली पीटना और हुलूक ध्वनि शुरू हो गई 😊। एक महिला श्रीधर से लहसुन के ढेरों बोरों के साथ आयी थीं। इन्होंने किसान से 8 - 20 रुपये / किलो के हिसाब से खरीदा था। गुवाहाटी में इस लहसुन को 50 - 70 रुपये / किलो के भाव में बेचने की कोशिश करेंगीं। पूरे देश में एक ही हालात हैं कि किसान को उसके उपज का उचित मूल्य न मिलना। क्या आपको अजीब नहीं लगता है जब बात किसानों की होनी चाहिये तो हम मन्दिर की बात करने लगते हैं?
बहरहाल शाम को इलियास जी ने पकड़ लिया और जबरन अपने गांव ले गए। रास्ते में बहुत बड़े - बड़े आम के बाग दिख रहे थे लगता था कि मालदा में केवल आम ही पैदा होता है। बहुत दिनों बाद ढंग का खाना नसीब हुआ। अगले दिन से वापसी की यात्रा शुरू हुई।
फरक्काबांध बना कर VIP इंजीनियर तो चले गए लेकिन आज भी सरकार इन VIP बंगलों को संभाल कर रखे हुए है, काश इसमें स्कूल - कॉलेज या हॉस्पिटल ही खोल दिए जाते।