सोमवार, 31 दिसंबर 2018

फरक्का की यात्राः नदी ने धारा बदली तो महाप्रलय आएगा

                     (सुरेंद्र विश्वकर्मा)|
65 वर्षिय बुजुर्ग मित्र इलियास शेख के बार - बार अनुरोध पर आखिरकार मैं इस यात्रा के पहले पड़ाव

वर्धमान पहुँच गया। खाना खाने के लिए रेलवे के भोजनालय पहुँचने पर पता चला कि कैन्टीन को किसी प्राइवेट कम्पनी को
दिया जा रहा है, इसलिये भोजनालय बन्द है और सभी कर्मचारी इस नव उदारवादी बदलाव के खिलाफ हड़ताल पर हैं।
अमूमन यात्राओं में मैं रेलवे के भोजनालय में ही खाना खाता हूँ क्योंकि खाना साफ - सुथरा, ताजा और मात्र 35 रुपये का ही होता है।
बरहाल मैं नव उदारवादी नीतियों का मारा रात 7 बजे फरक्का स्टेशन पर पहुँच गया।

मैं न तो कोई नदी - घाटी परियोजना का विशेषज्ञ हूँ न ही भौगोलिय परिवर्तनों को समझने वाला ज्ञाता लेकिन इस वर्ष साधारण सी बारिश से पटना शहर में 1 से 1.5 फिट तक पानी भर गया। लगा कि कुछ तो गड़बड़ है, क्या गंगा नदी का तल इतना ऊंचा हो गया है कि नदी पानी को खींच नहीं पा रही है? जबकि इस वर्ष गंगा नदी से सम्बंधित पहाड़ों और मैदानी इलाकों में औसत से कम वर्षा हुई थी।

नितीश कुमार सन 2017 तक फरक्का बाँध को बिहार की त्रासदी बता रहे थे तो क्या सन 2018 तक आते - आते चीफ मिनिस्टर साहब के गले का पानी सूख गया? या मोदी का सफेद हाथी वाराणसी से हल्दिया गंगा नदी में व्यापारिक जहाज चलना ज्यादा हावी हो गया है। नेशनल ग्रीन ट्रिब्यूनल बोर्ड ने कैसे इस परियोजना को मंजूरी दी जो नदी के फ्लड प्लेन को ही तबाह कर दे।

शेख साहब बतातें हैं कि मई के महीने में बड़े - बड़े टीले फरक्का से साहिबगंज तक देखे जा सकते हैं। इसका सीधा सा मतलब है कि नदी स्वयं बैराज को नहीं तोड़ सकती है और सरकार बन रहे सफेद हाथी के कारण इसे तोड़ेगी भी नहीं क्योकि इस परियोजना में अरबों रुपये का हेर - फेर होगा। गंगा के कैचमेंट एरिया में जिस वर्ष अत्यधिक वर्षा होगी सम्भव है कि नदी अपनी धारा ही बदल दे तो साहिबानों प्रलय नहीं महाप्रलय आएगा।

कम्युनिस्ट पार्टी जब विपक्ष में थी तो बाँध के विरोध में थी लेकिन सत्ता में आते ही इसकी वकालत करने लगी। शायद साम्यवादी सरकार से पड़ोसी देश की खुशहाली देखी नहीं गयी!
गढ्ढ़ा खोदने वाला खुद ही के बनाये गाद में दब गया है कि पूर्वी पाकिस्तान की बर्बादी के लिये बने बांध से हर साल बलिया तक भूमि कटान से खेत और घर नदी में समा रहे हैं और प्रत्येक वर्षा काल में बिहार की आधी आबादी बाढ़ जैसी विभीषिका झेलने को मजबूर है। कोलकाता बंदरगाह की सिल्ट साफ करने के लिये लायी गयी 40000 क्यूसेक पानी से कुछ नहीं होता और आज भी बंदरगाह से बालू हटाने के लिये प्रतिवर्ष 350 करोड़ रुपये खर्च किये जाते हैं। सप्ताह में केवल एक छोटा सा टूरिस्ट जहाज बड़े स्टीमर जैसा चलाते हैं, यही एकमात्र उपलब्धि कही जा सकती है वो भी यात्रियों की संख्या पर निर्भर है।

बंगलादेश की एक तिहाई आबादी गंगा के पानी पर निर्भर है। पानी की कमी से धान की खेती और मत्स्यपालन तो प्रभावित हुआ ही सुन्दरबन के अस्तित्व पर संकट आन पड़ी है। इस आर्थिक और भौगोलिक परिवर्तन से कितने लोगों का पलायन हुआ होगा, इसका कोई आँकड़ा दोनों देशों के पास नहीं है।

फरक्का में भोजन काफी सस्ता है। 10 रुपये में नास्ता (4 पूड़ी और सब्जी) और 35 - 45 रुपये में बढियां खाना एक सूखी सब्जी, साग, आलू का भुजिया, दाल, चटनी, पापड़, प्याज, रोटी या चावल, और खाना स्टील की थाली में पत्तल पर। अधिकतर लोग चावल खाना पसंद करते हैं और केवल शाकाहारी खाना मिलना असंभव है। साधारणतया लोग गंगा के पानी को बिना फिल्टर किये पीते हैं।

अगले दिन बैराज पार कर के बहाव के विपरीत दिशा में पैदल चलने लगा तो इतने बड़े - बड़े टापू दिखाई दिये कि मैं वाकई हैरान रह गया। लगभग 3 किलोमीटर पैदल चल कर नदी किनारे बसे मल्लाहों के गांव में पहुंच गया। लोग गंगा में बने टापुओं से मड़ई छाने वाला 10 फिट लम्बा सरकंडों का बोझा ला रहे थे। बदलते जमाने के साथ छावन का प्रयोग अब ईधन के रूप में किया जाता है। सरकार तटीय आबादी को 2 लीटर डीजल एक सप्ताह के लिए देती है। मैं भी एक मशीनी नाव पर सवार होकर दो किलोमीटर की यात्रा के बाद एक हरे भरे टापू पर पहुँच गया, यहाँ खेती भी की जाती है। द्वीप इतना बड़ा कि दूसरे सिरे का पता ही नहीं चलता जैसे लगा कि अलिफ लैला के जजीरे वाली रहस्यमयी दुनिया में आ गया हूँ। इसी तरह के बड़े - बड़े टापुओं को ब्रम्हपुत्र नदी में भी देखा था, जिसमें हाथी रहते हैं। यह सब फरक्का बाँध का चमत्कार है, खेतिहर जमीन और गांव सब गंगा के चपेट में, केवल मालदा जिले की 4000 एकड़ जमीन सन 2014 तक गंगा लील चुकी है।

बैराज के दूसरी तरफ का नजरा और भी शानदार था, पानी के तेज बहाव में पक्षी मछली खाने और खेलने के लिए टूटे पड़े हुए थे।

बैराज के 112 गेट में से केवल 4 गेट ही खुले हुये थे और फीडर की दिशा में सभी 11 गेट हमेशा खुले रहते हैं। यहाँ फोटो खीचना प्रतिबंधित है जो प्रमाणित करता है कि भारत जल समझौते का उल्लंघन कर रहा है।
2 किमी इस दिशा में आगे जाने पर एक धारा बायीं तरफ मुड़ गयी है जिसमें वाराणसी से आने वाले जहाज मुड़ कर कोलकाता की ओर जाते हैं। इसी धारा में फीडर के पानी को आगे मिला दिया गया है। यहाँ ढेर सारा कबाड़ स्टीमर, क्रेन इत्यादि सन 1975 से सड़ रहा है और इसकी रखवाली CISF के दो जवान करते हैं, जिनमें से एक जवान की सैलरी 54000 रुपये है।

इस एरिया में मशीनी नाव परिवहन का आसन और सस्ता साधन है। सरकारों ने यह मान लिया है कि नदी रोड को लील जायेगी इसलिये वह रोड बनाने के बारे में सोंचती ही नहीं है।
ढेर सारे लोग बड़े - बड़े ड्रम, बैंड, इत्यादि बाजों के साथ झारखंड के किसी चमत्कारी बाबा के कान फोड़ने के लिये नावों पर सवार हो रहे थे, नाव चलते ही थाली पीटना और हुलूक ध्वनि शुरू हो गई 😊। एक महिला श्रीधर से लहसुन के ढेरों बोरों के साथ आयी थीं। इन्होंने किसान से 8 - 20 रुपये / किलो के हिसाब से खरीदा था। गुवाहाटी में इस लहसुन को 50 - 70 रुपये / किलो के भाव में बेचने की कोशिश करेंगीं। पूरे देश में एक ही हालात हैं कि किसान को उसके उपज का उचित मूल्य न मिलना। क्या आपको अजीब नहीं लगता है जब बात किसानों की होनी चाहिये तो हम मन्दिर की बात करने लगते हैं?

बहरहाल शाम को इलियास जी ने पकड़ लिया और  जबरन अपने गांव ले गए। रास्ते में बहुत बड़े - बड़े आम के बाग दिख रहे थे लगता था कि मालदा में केवल आम ही पैदा होता है। बहुत दिनों बाद ढंग का खाना नसीब हुआ। अगले दिन से वापसी की यात्रा शुरू हुई।

 फरक्काबांध बना कर VIP इंजीनियर तो चले गए लेकिन आज भी सरकार इन VIP बंगलों को संभाल कर रखे हुए है, काश इसमें स्कूल - कॉलेज या हॉस्पिटल ही खोल दिए जाते।

शुक्रवार, 21 दिसंबर 2018

नरक से बदतर जीवन जी रहे आदिवासी

                  ...(सुरेंद्र विश्वकर्मा)
यह यात्रा मुण्डा आदिवासी समाज और पथलगढ़ी आंदोलन से सम्बंधित है। खुंटी जिले में प्रवेश करते ही इतने अधिक अर्द्ध सैनिक बलों को देखकर वाकई मैं बहुत अधिक डर गया था, लेकिन अभ्यस्त होने के बाद लगा कि ये तो केवल बकरे हैं जो आम लोंगो के धन पर ही पलते हैं। चलिये अब यात्रा शुरू करते हैं।

झारखण्ड राज्य में कोई सरकारी बस नहीं चलती
झारखण्ड राज्य में कोई सरकारी बस नहीं चलती है, केवल राँची शहर में कुछ सरकारी बसें चलती हैं अन्यथा सभी बस प्राइवेट आपरेटर ही चलाते हैं।
राँची से लगभग 55 किलोमीटर की दूरी पर खुंटी जिले के कितहातु गाँव जाने वाले चौक पर लगभग 11 बजे बस और टाटा सूमों की यात्रा के बाद पहुँच गया।

 पुलिसिया आतंक का गवाह है कितहातु चौक
चौक पर एक शहीद स्मारक है जो 2016 में हुये पुलिसिया आतंक का गवाह है और यहीं पर पथलगढ़ी किया गया है। दस मीटर की दूरी पर एक 10 x 20 फुट का एक सरकारी पोस्टर पथलगढ़ी के विरोध में लगा है, लेकिन  संविधान में लिखी बातों को आप कैसे गलत साबित कर सकते हैं। इस तरह के पोस्टर पथलगढ़ी के अलावा गैर आदिवासी इलाकों में भी मिल जाते हैं।

डर और नास्ते से निपटने के बाद अब आगे की कहानी
गाड़ी से उतरते ही CRPF के अत्याधुनिक हथियारों से लैस कई जवानों के दर्शन हो गये। मैं बगल के एक झोपड़ी नुमा दुकान में प्रवेश कर गया क्योंकि थोड़ी दूर आगे थाने के कुछ सिपाही हर आने - जाने वाले से पूछताछ कर रहे थे।

जनजातीय इलाकों में खाने - पीने का सामान बहुत ही सस्ता होता है। आंटे और गुड़ का बना गुलाब जामुन जितना बड़ा गुलगुला एक रुपये का एक, इडली जैसा समान भी एक रुपये का, बड़ा सा मालपुआ जिसका स्वाद लाजवाब होता है पांच रुपये का इत्यादि। डर और नास्ते से निपटने के बाद अब आगे की कहानी।

बिरसा मुंडा के गाँव उलिहातु पहुँच गया
यहां से उलिहातु का टैम्पो दोपहर 3:30 पर जाता है।
4 किलोमीटर पैदल और 14 किलोमीटर गैस सिलेंडर ढोने वाले टैम्पो की सहायता से बिरसा मुंडा के गाँव उलिहातु पहुँच गया। रास्ते में सड़क पर ही गाँव के लोग धान सुखाते दिखाई दिये। धान मुंडारी लोगों का मुख्य फसल है। रोड काफी अच्छा बना है क्योंकि नेताओं की यह धारणा है कि बिरसा मुंडा के दर पर जाने से झारखण्ड के आदिवासी समुदाय का वोट प्राप्त हो जायेगा।

बिरसा मुंडा के पौत्र से मुलाकात
बिरसा मुंडा के 75 वर्षिय पौत्र सुखराम मुण्डा जी के
पास दो घण्टे था। इनके दो लड़कों को चतुर्थ श्रेणी की सरकारी नौकरी मिल गयी है। इस गाँव में सरकारी स्कूल के साथ ही CRPF कैम्प भी है। लगता है कि ज्ञान और आतंक दोनों साथ - साथ चलते हैं। यह गाँव मुंडाई समुदाय का सबसे विकसित गाँव माना जाता है। 2017 में अमित शाह भी यहाँ आये थे सुखराम जी और इनके पड़ोसी के यहाँ एक - एक पक्का शौचालय, सुखराम जी के यहाँ एक सोलर लैम्फ और बरांडे में रोड बनाने वाला टाइल बिछाया गया है। लेकिन शाह ने एक बड़ा बैनर लगवा कर यह दावा किया है कि सभी 136 परिवारों के लिये घर और
सोलर वाटर टंकी।
100 सोलर लैम्फ बनवा और लगवा दिया गया है साथ में और भी कई सारे दावे किये गए हैं। शौचालय के नाम पर कई गांवों के प्रत्येक घरों के बाहर एक लगभग 2 x 3 फुट का नीले रंग का ढाँचा रख दिया गया है, हगने के लिए न शीट न पाइप न ही कोई पानी का इंतजाम लेकिन स्वच्छता का प्रचार दबा के किया
स्वच्छ भारत अभियान का हाल।
गया है। शौचालय बनाने के लिए 12000 रुपये आवंटित होते हैं लेकिन ठेकेदारों ने बमुश्किल 700 - 800 रुपये खर्च किये होंगे। इस पूरे यात्रा में मुझे कहीं भी सड़क या पगडंडियों पर पखाना नहीं दिखा। सुखराम जी और गाँव वाले प्रस्तवित माइक्रो घर को मिनी घर में तब्दील करवाने की लड़ाई लड़ रहे हैं।

मात्र 25 वर्ष जीने वाले बिरसा मुंडा मूलतः मुण्डा, खड़िया, उरांव इत्यादि जनजातियों के लिए भगत सिंह की तरह एक क्रांतिकारी नायक थे, लेकिन इन्हें भी भगवा रंग में रगनें की पुरजोर कोशिश की जा रही है। उलिहातु गाँव में कहीं पथलगढ़ी नहीं दिखा लेकिन सरकार के प्रति आक्रोश बढ़ रहा है।

मारंगबरू की यात्रा में एक नौजवान पति - पत्नी गोद में बच्चा और पीठ पर झोले में सुअर का बच्चा लिये मेरे सहयात्री बन गए
उलिहातु से 10 किलोमीटर दूर तीन पहाड़ जंगल पार मुझे सेल्दा गाँव होते हुए मारंगबुरु जाना था। लगभग 3 किमी चलने के बाद पहाड़ शुरू होता है। यहीं से एक नौजवान पति - पत्नी गोद में बच्चा और पीठ पर झोले में सुअर का बच्चा लिये मेरे सहयात्री बन गए। इन लोगों ने स्थानीय बाजार में वयस्क सुअर को बेंच कर एक नवजात को लिया और बाकी पैसों से जरूरत का सामान मोल लिया था। इनकी बहुत ही इच्छा थी कि मैं इनके साथ गांव चलूँ और अगले दिन अपने राह लगूँ। वक्त की कमी के करण यह संभव नहीं था। 45 मिनट की सहयात्रा के बाद ये लोग अपने गांव की तरफ मुड़ गए और मैं सेल्दा गांव के रास्ते लगा।
बरहाल मैं पहाड़ और जंगल पार करते हुए अंधेरा होने के ठीक पहले मारंगबुरु गाँव पहुँच गया। इस गांव में पथलगढ़ी नहीं हुई है। गाँव के प्रत्येक परिवार 5 रुपये प्रतिवर्ष मालगुजारी जमा करते हैं। गांव में बिजली - पानी नहीं है, केवल एक सोलर लैम्फ इसी वर्ष लगा है। इसकी रोशनी में गांव वाले अपने पर्व की रात नाचते हैं। फसल काटने से पहले आदिवासी समाज जंगल देवता सरना (किसी भी एक पेड़ को चुन लिया जाता है) की पूजा करते हैं और रात में हड़िया (चावल का देसी शराब) पीकर सभी लोग जोरदार तरीके से नाच - गान करते हैं। प्रकृति के करीब होने के करण आदिवासी बहुत ही विनम्र होते हैं। हिंदु धर्म और इनके देवी देवताओं से इनका कोई नाता नहीं है। आदिवासी महिलाएं सिंदुर इत्यादि का प्रयोग नहीं करती हैं। गांव में एक माध्यमिक विद्यालय और चर्च भी है, गांव के 40 परिवारों में से 10 लोगों ने इसाई धर्म अपना लिया है। विद्यालय के अध्यापक खुंटी से आते हैं, इसलिये अक्सर गैरहाजिर ही रहते हैं।

 मारंगबुरू गांव में गरीबी भयानक रूप से फैली है

मारंगबुरू गांव में गरीबी भयानक रूप से फैली है, कुछ ही लोगों के पास ठंड काटने के लिए गरम कपड़े दिखे, अन्यथा सभी आग के सहारे ही ठंड से लड़ते हैं। कुछ नौजवान लोग दिल्ली, पंजाब, तमिलनाडु इत्यादि राज्यों में पिछले 4 - 5 सालों से मजदूरी करने जाने लगे हैं। पिछले पांच वर्षों में आदिवासियों के आर्थिक हालात अत्यंत दयनीय हो गये हैं, इसका मुख्य कारण लाख (मुंडारी भाषा में लाही) के दाम का 900 रुपये से गिरकर 140 -170 रुपये / किलो तक आ जाना है साथ ही रुपये का अवमूल्यन। सरकार और पूंजीपतियों के गठजोड़ से यह काम बखूबी चल रहा है। खुंटी जिले का मुंडारी समाज इस लाख को बेचकर अपने जरूरत का सामान जैसे कपड़ा, साबुन - तेल, नमक - मसाला, शादी, बच्चों की पढ़ाई, हारी - बीमारी इत्यादि का इंतजाम करते हैं।

पूरी यात्रा में दो परिवारों के पास ही दिखा टीवी और ट्रैक्टर
खेती से बचे समय में लाख को मुख्यतया कुसुम की डालियों से निकाला जाता है। आदिवासी लोग खेती में रासायनिक खाद का प्रयोग न के बराबर करते हैं। इनका मुख्य फसल धान ही है, लेकिन अरहर, उडद, आलू और सरसों की भी खेती की जाती है। खेत जोतने के लिए हल - बैल का प्रयोग किया जाता है। पूरी यात्रा में केवल दो परिवारों के पास ट्रैक्टर और टीवी दिखा।

60 किलो से ज्यादा का नहीं दिखा कोई आदिवासी
यात्रा में किसी भी आदिवासी समुदाय का वजन 60 किलो से अधिक नहीं दिखा, महिलाओं का वजन तो 45 किलो से भी कम। 60 किलो वजन से अधिक केवल तीन ही लोग दिखे जो सरकारी नौकरी करते हैं।

नाग काटने से मरी बकरी का बना मांस
मारंगबुरु में आग तापते ढेर सारे लोगों का मैं कौतुहल का विषय बन गया क्योंकि पहली बार घुमन्तु किस्म का कोई बाहरी व्यक्ति इस दुर्गम गांव में आया था, कुछ का मत था कि मैं CID से हूँ और पथलगढ़ी से संबंधित जानकारी इक्कठा करने आया हूँ। मैने पूरी कोशिश की कि बातचीत इस मुद्दे पर न हो, बरहाल मै इसमें कामयाब रहा और लोग खुलने लगे। दोपहर में बकरी को नाग ने काट लिया था और वह मर गई थी। सोलर लैम्फ की रोशनी में उसे काटा गया और जिन लोगों ने काटने में मदद किया था उनको बराबर का हिस्सा दिया गया।
नोट: पके मांस को खाने से विष असर नहीं करता है।
मुंडारी लोग गाय - बैल, सुअर, बकरी, भेड़ और मुर्गी पालते हैं और गाय को छोड़ कर सभी का मांस खाते हैं। गोबर का प्रयोग खेतों में खाद के लिए किया जाता है और लकड़ी को ईधन के रूप में इस्तेमाल करते हैं। महिलाये घर में ही धान कूटती हैं।

चावल सब्जी खाकर स्कूल में सो गया
चावल और सब्जी खाकर रात 9 बजे मैं स्कूल में आठ बच्चों के साथ सोने चल दिया। इन बच्चों में DJ के प्रति गजब का उत्साह था, सभी दरवाजा बंद करके पुरबिया रीमिक्स DJ सुन रहे थे। सुबह हाथ - मुंह धोकर मैं मारंगबुरु गांव से निकल लिया। रास्ते में  गाड़ा नदी (मुंडारी भाषा में ) के किनारे बसे कई गाँव मिले थे। चार किमी चलने के बाद गितलबेडा गांव आया, यहां शादी थी इसलिये जोरदार तरीके से DJ बज रहा था और बच्चे शाखु के दोनों में मुरमुरा खा रहे थे। इस तरफ के गाँवों में पथलगढ़ी नहीं किया गया है। थोड़ी दूर आगे अरक्की जाते एक टेम्पो से राजाबाजार यहां से फोर्स नामक गाड़ी से दलभंगा के रविवारीय एक बहुत बड़े मेले जैसे बाजार में आ गया। बाजार एक बहुत बड़े खुले मैदान में लगा था। लोग जमीन पर पॉलीथिन बिछा कर दुकानदारी में लगे थे। जनजातीय लोग लाख लेकर आ रहे थे। आज लाख का भाव 170 रुपये है कल 160 रुपये था तीन दिन पहले140 रुपये था। लोग लाख बेचकर अपने जरूरत का सामान खरीद रहे थे। हड़िया (देसी शराब) और खाने के सामानों का कोई हिसाब ही नहीं था। इस तरफ के गांवों में पथलगढ़ी की गई है।

कोचांग जैसी सड़कें नहीं देखीं
हड्डी तोड़ रोड की यात्रा पूरी करके मैं रात 7 बजे अपनी मंजिल कोचांग गांव पहुँच गया। मै बहुत घूमा हूँ लेकिन ऐसी भयानक सड़कों से कभी पाला नहीं पड़ा था। खुंटी - बन्धगाँव होते हुए भी कोचांग पहुंचा जा सकता है, लेकिन बन्धगाँव के रास्ते सवारी गाड़ी नहीं मिलती। यह रोड हाल ही में बना है।


कोचांग गांव बना पथलगढ़ी आंदोलन का केंद्र
फिलहाल कोचांग गाँव पथलगढ़ी आंदोलन का केंद्र
बन गया है। इसलिये एक CRPF कैम्प का होना भी लाजमी है जो कि यहां के सरकारी प्राइमरी स्कूल में स्थापित किया गया है और यहां के बच्चों को 4 किमी दूर किसी अन्य स्कूल में पढ़ने को कहा जा रहा है। सरकार कोचांग गांव में एक सामुदायिक भवन बनवाना चाहती है लेकिन बिना ग्राम प्रधान और ग्रामीणों की सहमति के। इसके लिए ग्राम प्रधान को गाँव से बाहर बन्दूक के नोक पर 15 नवम्बर को हस्ताक्षर लिया जाता है और उसी हस्ताक्षर के नीचे ग्रामीणों से भी दस्तखत लिया गया है धोती बँटवाकर। ग्रामीण सामुदायिक भवन के विरोध में नहीं हैं वह तो केवल अपनी सहमति से जगह, आकर और इससे जुड़ी सुविधाओं का चयन करना चाहते हैं जो कि उनका अपना संवैधानिक अधिकार है।

पथलगढ़ी से सरकार को परेशानी क्या है
इससे पहले की घटनायें और पथलगढ़ी में क्या लिखा गया जिससे सरकार पगला गयी है सुधिपाठक इंटरनेट पर देख सकते हैं। इसके लिए द वायर पर नीरज सिन्हा की रिपोर्ट पढ़ें   http://thewirehindi.com/35737/jharkhand-patthalgadi-tribal-movement-raghubar-das-government/

इससे मुंडारी समाज के आर्थिक, सामाजिक और पथलगढ़ी के बाद समाज में आ रहे बदलाव को जानने और समझने में मदद मिलेगी।

प्राथमिक चिकित्सा केंद्र में नहीं मिलते डाक्टर
कोचांग गाँव में एक चर्च और माध्यमिक मिशनरी
स्कूल भी है। शायद 600 या 900 बच्चे पढ़ते हैं, थोड़ा मैं भूल रहा हूँ लगता है कि उम्र का असर है क्या! वार्षिक फीस 300
रुपये है और फादर और सिस्टर का वेतन 3000 रुपये है।
गांव में पोस्ट ऑफिस और प्राथमिक चिकित्सा केंद्र भी है लेकिन डॉक्टर और उनका अमला शायद ही कभी आता है। पथलगढ़ी आंदोलन ने बिजली का इंतजाम कर दिया है क्योंकि CRPF के जवान तो बिना बिजली के रह ही नहीं सकते हैं। मोबाइल का नेटवर्क केवल एक पहाड़ी पर आता है और वहाँ CRPF के जवानों का कब्जा बना रहता है।


माध्यमिक के बाद 80 प्रतिशत बच्चों की गरीबी के कारण छूट जाती है पढ़ाई
माध्यमिक शिक्षा के बाद लगभग 80% बच्चे आर्थिक
कोचांग गांव का मिशनरी स्कूल।
हालात के कारण आगे पड़ना छोड़ देते हैं, जिसके कारण सामाजिक रूप से पिछड़ा हुआ वर्ग बुनियादी रूप से और भी पिछड़ जाता है। आगे की पढ़ाई के लिये सक्षम परिवार के बच्चे खुंटी के प्राइवेट स्कूलों में पढ़ते हैं और वहीं हॉस्टल में रहते हैं। इसलिये जरूरत है कि सामुदायिक भवन बनाने की जगह स्कूल, कॉलेज और हॉस्पिटल खोलें जाएं और यह सुनिश्चित किया जाये कि वो किसी भी मायने में प्राइवेट संस्थाओं से पीछे न हों।


बादशाह किसानों का खयाल रखे तो उसे सेना की जरूरत नहीं पड़ेगी: शेख सादी
तेरहवीं शताब्दी में शेख सादी ने कहा था कि यदि बादशाह किसानों का ख्याल रखती है तो उसे फौज की जरूरत नहीं है। लगभग 75000 - 80000 रुपये प्रति माह एक CRPF जवान पे खर्च आता है, यदि सरकार वाकई कुछ करना चाहती है तो इस खर्च का केवल10% ग्रामीणों के उत्थान पर व्यय किया जाय तो तसवीर दूसरी होगी।


पथलगढ़ी आंदोलन से गिरी पुजारियों की कमाई
कोचांग में एक नौजवान पुजारी (ओझा) मिले जो पथलगढ़ी विरोधी थे क्योंकि लोगों की चेतना ने इनकी आमदनी कम कर दी है। ईसी तरह के लोग और साहूकार आंदोलन विरोधी खेमे के हैं। स्तिथि तब और बिगड़ गई जब पथलगढ़ी समर्थकों ने अपना बैंक खोलने का एलान कर दिया।

पथलगढ़ी आंदोलन और सामाजिक चेतना
पथलगढ़ी आंदोलन ने लोगों को भारतीय संविधान में लिखे Scheduled Area के ग्राम सभाई अधिकारों जैसे: विकास किस रूप में होगा, कैसे होगा और इसका मुनाफा किन लोगों में वितरित होगा इत्यादि के बारे में काफी सचेत कर दिया है।
सरकार इस चेतना के स्तर को दबाये रखना चाहती है अन्यथा इसका फैलाव माइन एरिया में हो गया तो कार्पोरेटी लूट सम्भव नहीं रहेगा। इसलिये ग्रामीणों को आये दिन डरना, किसी - किसी गांव के सभी लोगों को थाने में नामजद करना इत्यादि सभी सम्भव हथकंडे अपनाये जा रहे हैं। कुछ लोगों पर तो इतने तरह के मुकदमे दर्ज कर दिये गये हैं कि पा जायें तो सीधा इनकाउंटर कर दें। लाख की गिरती कीमतों ने आदिवासियों को संवैधानिक अधिकारों की शरण में जाने को मजबूर किया किया है जिसका परिणाम पथलगढ़ी के रूप में सामने आया है।

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धार्मिक दंगे-फसाद लाते हैं बर्बादी
https://youtu.be/kZ469_ddRJo
मानव सभ्यता की विकास यात्रा पर बच्चों की अनोखी प्रस्तुति
https://youtu.be/s7vwNHUKFyc