कॉमरेड देबू की याद में, जो 31 मई को हमसे दूर चले गए...
मुकुल, मजदूर नेता
कॉमरेड देवब्रत सेन अब हमारे बीच नहीं रहे। इस सच को स्वीकार करना कितना कठिन है? 30 मई को वीडियो कॉल से जब देबू दा ने बात करके अन्तिम सलाम बोला था, तब भी यह अहसास नहीं था कि महज 22 घंटे बाद उसकी बात सच साबित हो जाएगी!
कैंसर के असाध्य रोग से जूझते हुए जिस पीड़ादायी दौर से वह गुजर रहे थे उसमें मौत तो तय थी। इस सच को जानते हुए भी जितनी सहजता का उनका व्यवहार था, अपनी शारीरिक सीमाओं और घटती क्षमताओं के बीच वे जिस अदम्य साहस के साथ अन्त तक सक्रिय रहे, वह ‘अग्नि दीक्षा’ के पॉवेल की याद दिलाता है। एक सच्चे कम्युनिस्ट का प्रतिरूप।
31 मई को दुखदाई खबर मिलने के बाद मन बहुत उद्विग्न रहा। चलचित्र की तरह पिछले लगभग साढ़े तीन दशक की तमाम बातें-यादें जीवंत हो गयीं। वह अल्हड़पन, वह खिलन्दड़पन, वे हंसी-मजाक, वे झगड़े-विवाद, बेपनाह प्यार की बातें, गम्भीर बातों को भी सरल तरीके से कहने का अन्दाज़... ढ़ेरों छोटी-बड़ी बातें...। क्या साझा करें क्या छोड़ें, बहुत मुश्किल है!
यूँ तो देबू दा का कम्युनिस्ट आन्दोलन में प्रवेश ही उस वक्त हुआ, जब आपातकाल के काले अन्धेरे दौर के बाद क्रान्तिकारी कम्युनिस्ट आन्दोलन एक नये दौर में प्रवेश कर रहा था। क्रान्तिकारी जनदिशा को लागू करने और देश की सामाजिक-राजनीतिक परिस्थितियों को समझने का नया प्रयास शुरू हुआ था।
सांस्कृतिक आंदोलन के एक कार्यकर्ता के तौर पर देबू ने आंदोलन में दस्तक दी थी। 1978-79 में 'राष्ट्रीय जनवादी सांस्कृतिक मोर्चा' का गठन हुआ जिसमें बनारस की टीम की ओर से देबू भी शामिल हुए। 1984 में गोरखपुर में 'सांस्कृतिक आंदोलन की दिशा' का सेमिनार हुआ, जिसके वे एक पार्ट थे। तब संगठन में देश के सामाजिक राजनीतिक आर्थिक स्थितियों के विश्लेषण के बाद मूलतः पूंजीवादी विकास होने की सोच मुकम्मल हुई थी। यह सेमिनार उसी का एक प्रस्थान बिंदु था।
1984 में बनारस में 'गतिविधि विचार मंच' और गोरखपुर में 'दिशा छात्र समुदाय' बना था। बनारस की टीम का देबू दा एक अहम हिस्सा थे। 1985 में बनारस में शहीद मेला का आयोजन हुआ था। उसके बाद फासिस्ट ताक़तों ने बनारस में होस्टल स्थित कार्यालय पर हमला किया था। इन घटनाओं के बाद गर्मी के दिनों में गोरखपुर में डॉक्टर लाल बहादुर वर्मा के आवास पर आम खाते हुए मेरी पहली मुलाकात भी हुई थी। तब इस एक अजीब व्यक्तित्व की सहजता से मैं प्रभावित हुआ था। लेकिन दो अलग कार्य क्षेत्र में काम करने के कारण हमारी दूरी बनी रही।
1988 में 'पूर्वांचल नौजवान सभा' के बैनर तले पूर्वी उत्तर प्रदेश के गांव में देबू काम करने वाली टीम में शामिल हुए और तब गोरखपुर आना जाना ज्यादा बना और मुझसे नजदीकी भी। हालांकि इसके बाद ही संगठन में विवादों और टूट-फूट के दौर भी चले और यह दौर हमारी नजदीकियों का भी दौरा रहा। 1990 में 'मार्क्सवाद जिंदाबाद मंच' द्वारा गोरखपुर में आयोजित पांच दिवसीय अखिल भारतीय संगोष्ठी में लगभग एक टीम की तरह हमने काम किया। इसी दौरान दिगंबर-आशु, सत्यम-रूबी की शादियों में देबू का एक अलग मस्त अंदाज सामने था।
1990 की फूट के बाद जब देबू पुनः हमारी टीम के साथ शामिल हुए, उसके बाद से तो अनगिनत घटनाओं के हम साझीदार रहे। 1991 में गोरखपुर में हम- देबू, अरविंद, सुरेंद्र और मैं एक साथ थे। तब आर्थिक संकट भी था और नए कामों के साथ 'दायित्वबोध' और 'आह्वान कैम्पस टाइम्स', दो पत्र-पत्रिकाओं के प्रकाशन की जिम्मेदारी हम चार के कंधे पर थी। उस दौर में मैं और सुरेंद्र लिखने की शुरुआती दौर में थे और तब पैसा जुटाना, सामग्री तैयार करना, छपाना, वितरित करना - यह सब कभी लाज़ में, तो कभी किसी कमरे में बैठकर हम लोगों ने जिस मशक्कत से कामों को किया था, जो जीवंतता बनी हुई थी, वह आज भी यादों में है।
यह वह दौर था जब देश में नई आर्थिक नीतियां लागू हुई थी, देश और दुनिया के पैमाने पर भारी परिवर्तन हो रहे थे। तब पत्र पत्रिकाओं में एक सही समझदारी को लिखना बेहद कठिनाई भरा था। लेकिन जितनी सरलता से उस दौर को हमने पार किया था, उसमें बार-बार देबू और अरविंद याद आते हैं - जो दोनों साथी अब हमारे बीच में नहीं रहे।
एक घटना याद आती है- मैं, देबू दा और अरविंद रात में मीटिंग करके अपने कमरे में पहुंचे तो पाया कि स्टोब में तेल नहीं है। देबू ने मोमबत्ती जलाया उस पर एक पैन खड़ा किया और अंडा तोड़कर डाल दिया। उस रात का वह भोजन आज ही स्मृतियों में जीवित है।
बाद के कुछ वक्त तक मै व देबूदा पूर्वी उत्तर प्रदेश में मर्यादपुर, बड़हलगंज, गोरखपुर का काम संयुक्त रूप से देख रहे थे। 'दिशा', 'नौजवान भारत सभा', 'देहाती मज़दूर किसान यूनियन' के काम का दौर था। तब भी गुरबत के दिनों में ही एक असीम प्यार हमारे बीच था। मजाक में ही तमाम गंभीर बातें करना मैन देबू से ही सीखा। यह सच है कि मेरी लेखन शैली विकसित करने का उस्ताद भी वह रहा।
किसी गंभीर विषय को सरल तरीके से कैसे लिखा जाए, संस्कृति टीम हो, स्टडी सर्किल हो, वर्कशॉप हो - सब में बेहद क्रिएटिविटी व संजीदा व्यवहार देबू की धरोहर थी। 'आह्वान' में समानांतर सिनेमा पर चली बहस उसकी बानगी मात्र है।
मई 1994 में, राहुल फाउंडेशन-सहारा विवाद के समय, जब हम 18 लोग घायल होकर थाने और अस्पताल में थे, अचानक देबू घटनास्थल पर पहुंचे, और यह जानते हुए भी की उस पर हमले होंगे, उसने नारे लगाए, उस पर हमले हुए, सर फूटा और वह भी गिरफ्तार होकर थाने पहुंच गया। हम लोगों ने पूछा तुम कैसे, बोला- घायल होकर साथी जेल जाएंगे और मैं बाहर घूमूंगा? यही थी देबू की अदा।
31 दिसंबर 1994 को लखनऊ में हम साथ टहल रहे थे। तब तक देबू दा कानपुर में मजदूरों के बीच काम कर रहे थे। यह मुलाकात भावुक माहौल में हुई थी। क्योंकि तब देबू कुछ सोचने समझने के लिए बनारस जा रहा था। कुछ दिन बनारस प्रवास के बाद पुनः वह पुराने संगठन में वापस चला गया। विभिन्न कार्यों में सक्रिय रहा।
वह तनाव का एक दौर था, जब 2006 के अंत में हमारी पुनः मुलाकात हुई, शामली के एक साथी के घर पर। वहां से लेकर अब तक कई दौर है कभी हमने एक साथ पुनः काम किया, तो कभी हम अलग हुए। तमाम परिस्थितियों से गुजरते हुए उसने कुछ साथियों के साथ नोएडा गाजियाबाद के इलाके में अपने को पुनः संगठित किया। 'रेडट्युलिप' नाम से Google ग्रुप बनाया, 'श्रमजीवी पहल' नाम से पत्रिका लांच की, तो संदीप के साथ मज़दूरनामा' ब्लॉग बनाया।
और अभी कामों का यह सिलसिला कुछ आगे बढ़ता कि कैंसर के असाध्य रोग ने उसे घेर लिया। उसकी क्या कहें हम सबकी जो लापरवाहियां होती हैं उसी का परिणाम था - उनकी पित्त की थैली में काफी बड़ी पथरी निकली। बनारस में ऑपरेशन हुआ। जब वे बायप्सी की रिपोर्ट देखने अस्पताल पहुंचे तो डॉक्टर एक बार उसके तनावमुक्त चेहरे को देख रहा था और एक बार रिपोर्ट को। तब पता चला कैंसर के असाध्य रोग का। ...और शुरू हुआ उससे जूझने, इलाज, ऑपरेशन, थैरेपियों का दौर।
इस दौर में एक तरफ सभी पुराने साथियों ने चाहे रविंदर गोयल हों, गैरी हो, नीरज जैन हो चाहे बचपन के मित्र शांतनु या फिर विभिन्न क्रांतिकारी संगठन जिनमें देबू दा रहे हो या नहीं, सबने अपने इस कॉमरेड के लिए हर तरीके से सहयोग किया। दूसरी ओर नोएडा में रहते हुए, इलाज कराते हुए, साथी संदीप, नन्हे लाल, जनार्दन, समीक्षा, रामू सिद्धार्थ, राजकुमार, अभिनव, अजय आदि साथियों के साथ जीवंत रूप से बातचीत, स्टडी सर्किल, यथासंभव कार्यक्रमों में सक्रियता बनी रही।
अंतिम दौर में, बनारस प्रवास के दौरान भी, वहां के युवा साथियों के बीच देबू कार्य करते रहे, स्टडी सर्किल चलते रहे। वे फोन पर हर बार यही कहते थे कि "मुझे मालूम है कि मेरी जिंदगी के दिन बहुत कम बचे हैं। मैं जितना इस समय का सदुपयोग कर सकता हूं, करने का प्रयास कर रहा हूं।" और उसने प्रयास अंत तक जारी रखा।
आज के इस कठिन दौर में, जब चौतरफा जिंदगी और इंकलाब के द्वंद के बीच तमाम साथी जिंदगी की ओर खींचे जा रहे हैं, ऐसे में इंकलाब की ओर अंत तक अपने को मजबूती से बनाए रखना, उन्हें एक सच्चे कम्युनिस्ट के रूप में स्थापित करता है।
तमाम यादों के साथ कॉमरेड देवब्रत को लाल सलाम! तुम जीवित रहोगे स्मृतियों में। विश्वास, प्यार और दोस्ती, लड़ाई झगड़े सब कुछ याद रहेंगे। समाज परिवर्तन की इस जद्दोजहद में, सर्वहारा वर्ग के मुक्तिकामी संघर्ष में, तुम्हारे अधूरे मिशन को पूरा करने के संकल्प को आगे बढ़ने में तुम्हारे सहयोद्धा सक्रिय रहेंगे।
इंक़लाबी सलाम कॉमरेड देबू! (सभी फोटो एम.एम. चन्द्रा की वॉल से)