-देवेन्द्र प्रताप
1981
में स्थापित मारुति उद्योग लिमिटेड से 2007 में बने मारुति सुजुकी इंडिया
लिमिटेड तक कि कहानी हमारे देश के हुक्मरानों के बड़े साम्राज्यवादी मुल्कों
और उनकी बहुराष्ट्रीय कंपनियों के सामने लगातार समर्पण करने की कहानी है।
भारत सरकार ने मारुति इंडिया लिमिटेड की स्थापना एक सार्वजनिक कंपनी के तौर
पर की थी। 1982 में इस कंपनी में जापानी कंपनी सुुजुकी का शेयर महज 16
प्रतिशत था। धीरे-धीरे मारुति कंपनी में सरकार का शेयर घटता गया और सुजुकी
का शेयर बढ़ता गया। आज सुजुकी, इस कंपनी की वास्तविक मालिक बन गई है। यह सब
बाजार की स्वस्थ प्रतियोगिता के नतीजे के रूप में नहीं हुआ। हमारे
हुक्मरानों ने जानबूझकर जबर्दस्त मुनाफा देने वाले इस उद्यम को साजिशन एक
बहुराष्ट्रीय कंपनी के हाथों सौंप दिया।जिस '80 के दशक में जापानी कंपनी सुजुकी, भारत की सार्वजनिक कंपनी मारुति की पार्टनर बनी, वह दशक भारत में भविष्य में होने वाले कई तरह के मजदूर विरोधी बदलावों की पूर्वपीठिका तैयार करने के लिए जाना जाता है। इसी दशक में पहली बार (1982) भारत में एशियार्ड का आयोजन हुआ। एशियार्ड के चार साल बाद भारत में नई शिक्षा नीति लागू होती है। इस शिक्षानीति के कारखाने से तैयार लोग भविष्य में ‘‘महाशक्तिशाली भारत’’ के लिए ‘कलपुर्जे’ बनने वाले थे। जाहिर है कि यह एक ऐसा दौर था, जब भारत का उभरता हुआ मध्यवर्ग भी यूरोप और अमेरिका के मध्यवर्र्ग की बराबरी करने के सपना बुनने लगा था। आज हमारे देश के मध्यवर्ग का वह हिस्सा, जो अमेरिका की हर ‘आतंकी कार्रवाई’ पर खुश होता है, उसे इसी दौर में खाद-पानी देकर तैयार किया गया। 1991 में जब भारत सरकार ने नई आर्थिक नीति लागू की तब एक तरफ जहां समूचे देश के मजदूरों ने इसका तगड़ा विरोध किया, वहीं साम्राज्यवाद और पूंजीवाद परस्त मध्यवर्ग के एक तबके ने निजीकरण और उदारीकरण की नीतियों का गुणगान करने का काम किया। भारत के पूंजीवादी मीडिया ने इसी मध्यवर्ग के सुर में सुर मिलाया और धीरे-धीरे एक ऐसी मानसिकता तैयार की कि जैसे भारत का विकास साम्राज्यवादी पूंजी के बेरोकटोक देश में प्रवेश और सरकारी उद्यमों के निजीकरण के बिना संभव ही नहीं है। जाहिर है मजदूर विरोधी इन नीतियों के लागू होने के रास्ते में श्रम कानून बाधक थे, इसलिए देश की पूंजीवादी सरकारों ने पहले से ही श्रम कानूनों की भोथरी धार को और कुंद करने का काम किया। जनतंत्र का लबादा ओढ़ने वाली देश की पूंजीवादी पार्टियों का चरित्र भी इसी के साथ बेपर्दा होना शुरू हुआ। इसलिए 1982 में सुजुकी ने मारुति की भागीदार बनने का निर्णय लेकर कोई जुआ नहीं खेला था। सुजुकी के मालिकान इस बात को बखूबी जानते थे कि भारत सरकार कभी भी उनके खिलाफ अपने देश की मेहनतकश जनता का पक्ष नहीं लेने वाली। हुआ भी वही। मारुति के साथ भागीदार बनने के बाद जहां एक तरफ सुजुकी का शेयर लगातार बढ़ता गया, वहीं दूसरी ओर भारत सरकार का शेयर घटता गया। दस साल बाद यानी 1992 में भारत सरकार ने मारुति का निजीकरण करके मारुति के मजदूरों को पूरी तरह मैनेजमेंट के रहमोकरम पर छोड़ दिया।
इसलिए इस वर्ष 4 जून को शुरू हुआ आंदोलन ऐसा कोई आंदालन नहीं था, जो स्वत: स्फूर्त ढंग से पैदा हो गया हो। इसकी नींंव उसी समय पड़ गई थी, जब भारत सरकार ने मारुति का निजीकरण करके उसके अंदर भारत
सरकार का बिल्ला टांगे और जापानी कंपनी सुजुकी के एक दलाल के रूप में वहां अपना एक प्रबंध निदेशक नियुक्त किया। बस फिर क्या था-जब सैंया भये कोतवाल तो डर काहें का। यहीं से मजदूरों और मैनेजमेंट के बीच टकराहट बढ़ने लगी। वर्ष 2000 में प्रोत्साहन भत्ते को लेकर शुरू हुआ मारुति सुजुकी के मजदूरों का आंदोलन मैनेजमेंट के इसी तरह के तानाशाहाना व्यवहार का नतीजा था। इस आंदोलन की गूंज संसद तक सुनाई पड़ी। लेकिन, लगता है उस समय कंपनी के मजदूरों को मालिकान की वास्तविक ताकत का अंदाजा नहीं था। वे सोचते थे कि उनकी बात संसद में जाने पर उसे सुना जाएगा। कहीं न कहीं उन्हें इस बात का भरोसा था कि देश के राजनेता उनकी जायज मांगों के लिए उनका पक्ष लेंगे, लेकिन ऐसा कुछ नहीं हुआ। संसद में इस मसले का लेकर पार्टियों ने नाटक किया, बाद में लोकसभा अध्यक्ष ने इस मसले पर सर्वदलीय बैठक बुलाई, लेकिन कंपनी ने इस सर्वदलीय बैठक के सुझावों को भी मानने से इंकार कर दिया। इस पर भी कंपनी के मजदूर मारुति के मालिकान की वास्तविक ताकत का सही अंदाजा नहीं लगा सके। हकीकत यही है कि उसे भारत की किसी भी संस्था (चाहे वह न्यायालय हो या फिर संसद) से कोई डर नहंी है। सच कहा जाए तो ये सभी संस्थाएं पूंजीपतियों के हितों की पूर्ति के लिए ही बनाई गई हैं और वे मूलत: उन्हें के हितों की पूर्ति भी करती हैं। नतीजतन इस आंदोलन को बुरी तरह पराजय का मुंह देखना पड़ा। कंपनी ने तीन हजार से ज्यादा स्थाई मजदूरों की छंटनी की और कंपनी के काम का बड़ा हिस्सा ठेका मजदूरों के हवाले कर दिया। जो लोग कंपनी में बचे थे, उनको मैनेजमेंट की ओर से जलील किया गया।
इस आंदोलन ने समूचे गुड़गांव ही नहीं देश के मजदूरों के सामने भी संसद, पूंजीवादी पार्टियों, न्यायालय और मीडिया की जनपक्षधरता को तार-तार कर दिया। इसके बावजूद भी मजदूरों का इन कानूनी संस्थाओं से मोहभंग नहीं ुुहुआ। उन्होंने अपनी व्यापक और ठोस एकता बनाने और पूंजीपति वर्ग द्वारा मजदूर वर्ग के शोषण कोअंतिम तौर पर खात्मा करने के लिए लंबी लड़ाई लड़ने की तैयारी करने के बजाय कहीं न कहीं शार्टकट से सुविधाएं हासिल करने की मानसिकता से प्रभावित रहे। दूसरी बात चूंकि हर कंपनी की यूनियन किसी न किसी केंद्रीय ट्रेड यूनियन से ही जुड़ी होती है और केंद्रीय ट्रेड यूनियन किसी न किसी संसदीय राजनीतिक पार्टी से जुड़ी होती है, इसलिए कंपनी के मजदूरों का अवसरवादी और संशोधनवादी चुनावबाज पार्टियों और अर्थवाद की राजनीति करने वाली उनकी केंद्रीय ट्रेड यूनियनों से मोहभंग नहीं हो पाता। इसके अलावा उनके पास फिलहाल कोई विकल्प भी नजर आता। जहां तक गुड़गांव क्षेत्र में क्रांतिकारी राजनीति करने वाले मजदूर संगठनोें का सवाल है, वे इस तरह के हर आंदोलन में एक बेहद नेक इरादे से शामिल जरूर होते हैं, लेकिन कुल मिलाकर ऐसे आंदोलनों में उनकी स्थिति किसी तमाशबीन से ज्यादा नहीं हो पाती। इसकी सबसे बड़ी बात यह है कि जिस सर्वहारा वर्ग को लेकर वे इस पूंजीवादी व्यवस्था से लड़ना चाहते हैं, वही उनके इर्द-गिर्द नहीं नजर आता। कई संगठन तो ऐसे हैं, जिन्हें पहले दूर दृष्टि दोष था। इसी के चलते उन्होंने अपनी बिरादरी वालों के सामने यह घोषणा तक कर दी कि फिलहाल निकट भविष्य में अभी कोई मजदूर आंदोलन नहीं खड़ा किया जा सकता, इसलिए वे जनता के बीच में अपनी ‘क्रांतिकारिता’ को ‘कैश’ कराने में लग गए। इस समय जिस तरह की घटनाएं अरब, अमेरिका, यूरोप और अपने देश को झकझोरने में लगी हैं, इनसे इन भाइयों की दूरी को देखकर तो अब ऐसा लगने लगा है कि अब इन्हें निकट दृष्टि दोष भी हो गया है, या फिर इनकी आंखों ने अब देखना ही बंद कर दिया है। बहरहाल ये लोग क्रांतिकारी घेरे में जनता को लूटने-खसोटने के लिए बदनाम हैं, इसलिए अब वे देश के मौजूदा क्रांतिकारी घेरे बाहर जा चुके हैं। राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र में कुछ ऐसे लोग भी हैं, जो केंद्रीय ट्रेड यूनियनों की अर्थवादी राजनीति में ‘भद्र क्रांतिकारिता’ का तड़का मारकर उसे मजदूरों को के मुंह में जबर्दस्ती ठूंसने का काम कर रहे हैं, तो कुछ बुद्ध बाबा की तरह मजदूरों के बीच में ‘ज्ञान का प्रकाश’ फैलाने में लगे हुए हैं। बहरहाल संक्षेप में कहा जाए तो मजदूरों के शुभचिंतकों की ऐसी जमात से बेहद संगठित और दूरदर्शी पूंजीपति वर्ग से निपटने की बात तो दूर किसी एक कारखाने में भी किसी लड़ाई को जीत तक ले जाने की कल्पना करना भी मुश्किल ही लगता है। जहां तक मारुति सुजुकी मैनेजमेंट की बात है, वह मजदूरों के हर हमले का मुंहतोड़ जवाब देने के लिए पहले से तैयार रहता है। कंपनी में मैनेमेंट परस्त यूनियन के गठन को भी इसी रूप में देखा जाना चाहिए।
इस वर्ष 4 जून को शुरू हुए मारुति सुजुकी में मजदूर आंदोलन की जड़ में यही यूनियन थी। जब कंपनी के मजदूर अपने अनुभव से इस बात को जान गए कि इस यूनियन से वे अपनी मांगों के लिए मैनेजमेंट पर कोई दबाव नहीं बना सकते, तो उन्होंने 4 जून को नई यूनियन के गठन के लिए आंदोलन शुरू किया। संविधान और श्रम कानूनों के बारे में ककहरा जानने वाला कोई भी व्यक्ति इस बात को अच्छी तरह जानता है कि संगठित होने या यूनियन बनाने का अधिकार एक संविधान प्रदत्त अधिकार है, जो देश के हर नागरिक को हासिल है। इस आंदोलन में ठेका और अप्रेंटिस मजदूरों की भी अच्छी खासी तादात थी। शासन-प्रशासन किस तरह मजदूरों का साथ देता है, इसका अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि जब मजदूरों ने नई यूनियन के गठन के लिए श्रम आयुक्त कार्यालय, चंडीगढ़ में इससे संबंधित दस्तावेज प्रस्तुत किए, तो श्रमायुक्त महोदय ने उन कागजों को मारुति मैनेजमेंट के पास भेज दिया। नतीजतन आंदोलन के 11 नेताओं को निकालने के बाद कंपनी ने मजदूरों की छंटनी और उनके दमन-उत्पीड़न का सिलसिला शुरू कर दिया। इस आंदोलन में शामिल ठेका मजदूरों को सबसे ज्यादा मुसीबतें झेलनी पड़ीं, जिनके सिर पर हरदम लटकती छंटनी की तलवार उन्हें पागल किए रहती थी। इसके बावजूद वे इस आंदोलन में लगातार डटे रहे। जहां तक केंद्रीय ट्रेड यूनियनों की बात है, तो उनका शुरू से मुख्य जोर आंदोलन से ज्यादा से ज्यादा फायदा उठाने पर ही केंद्रित रहा। इन्होंने मजदूर वर्ग को अपनी मांगों के लिए आंदोलन करने और एकताबद्ध होने का पाठ तो जरूर सिखाया, लेकिन यह सब सिर्फ इसलिए ताकि मालिकों से कुछ सहूलियतें हासिल की जा सके। उनका यही रवैया मजदूरों को अवसरवादी और संशोधनवादी राजनीति का पिछलग्गू बना देता है। अगर यह सब लंबे समय तक जारी रहता है, और ट्रेडयूनियन से जुड़े नेता मजदूर वर्ग के ऐतिहासिक ध्येय के संघर्ष से खुद को नहीं जोड़ते, तो उनमें से एक तबका ऐसा भी पैदा होता है, जो मालिकों का एजेंट बनकर, मजदूरों का काम करने के एवज में उनसे कमीशन खाकर अपने को पतन के गड्ढे में गिरा लेता है। अगर ये ट्रेडयूनियनें चाहतीं तो अपनी इलाकाई एकता कायम करके मारुति मैनेजमेंट को मजदूरों के सामने घुटने टेकने को विवश कर सकतीं थीं। अगर वे इस इलाके में काम करने वाले 20 लाख से ज्यादा मजदूरों में से वे आटोमोबाइल उद्योगों में काम करने वाले 10 लाख मजदूरों के एक चौथाई को भी सड़क पर उतार पाते, तो नतीजा कुछ और होता। बहरहाल आज चुनावबाज पार्टियों से जुड़ी ट्रेड यूनियनों से इस तरह की उम्मीद करना बेमानी ही होगा। आज के दौर में हकीकत तो यही है कि ट्रेड यूनियनों का बड़ा हिस्सा ऐसा है, जो मजदूर वर्ग के ऐतिहासिक ध्येय के बारे में सोचता तक नहीं। इसलिए वहां से अगर सोनू गुर्जर और शिवकुमार जैसे लोग पैदा हों, तो कोई आश्चर्य नहीं होना चाहिए। बहरहाल इस बार के आंदोलन के चलते कंपनी को 74,500 कारों यानी करीब 2200 करोड़ रुपये का नुकसान हुआ। इस आंदोलन के दौरान मानेसर प्लांट के मारुति सुजुकी कंपनी ने 94 लोगों को कंपनी से बाहर निकाल दिया था। समझौते के बाद 64 कर्मचारियों को काम पर वापस लिया गया, जबकि 30 अभी भी बाहर हैं। मीडिया की खबरों की मानें तो कंपनी ने अंदरखाने इनके साथ लाखों रुपये देकर सेटेलमेंट किया है। आंदोलन के दो प्रमुख नेताओं शिवकुमार और सोनू गुर्जर को भी 40 लाख से ऊपर देकर मारुति ने खरीद लिया। आंदोलन के एक नेता ऋषिपाल भी बीच में ही कंपनी साथ सेटेलमेंट करके किनारे हो गए। इस समय ज्यादातर लोग मजदूर वर्ग के इन गद्दारों को ही कोसने में लगे हुए हैं, जबकि जरूरत ऐसे गद्दारों को पैदा करने वाली राजनीति को समझने और उसे समाप्त करने के रास्ते को तलाश करने की जरूरत है। जिस तरह की राजनीति ट्रेडयूनियनें आज कर रही हैं, उसमें सोनू और शिवकुमार जैसे लोग पैदा होते रहेंगे। इसलिए इनसे निजात पाने के लिए मजदूरों को सर्वहारा वर्ग की क्रांतिकारी राजनीति से लैस होना ही होगा। मारुति के मजदूरों के बारे में यह कहना बिल्कुल सही नहंी होगा कि अपने नेताओं के बिकने के बाद वे निराश हो गए हैं। क्योंकि वे ट्रेड यूनियन की राजनीति में इस तरह चीजों से परिचित होते हैं। वे निराश होने के बजाय आंदोलन की इस परिणति को देखकर भयंकर गुस्से में हैं। इसलिए मारुति सुजुकी मैनेजमेंट को अपनी इस चाल के लिए खुश नहीं होना चाहिए, क्योंकि मजदूर वर्ग अपनी हर हार से सीखता है और अगली बार पहले से ज्यादा फौलाद बनकर सामने आता है।
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