गुरुवार, 9 मार्च 2017

मारुति मजदूरों पर कोर्ट का फैसला आज

मारुति सुजुकी मानेसर कंपनी में हुई घटना को साढ़े चार साल बीत चुके हैं और अभी तक भी 11 मजदूर जेल में बंद दिवारों से न्याय की उम्मीद लगाये बैठे हैं। लगभग साठे तीन या चार साल बाद उच्च न्यायालय से 139 मजदूरों को ही जमानत मिल सकी है। अब कानूनी प्रक्रिया तेज हुई है और 10 मार्च को अन्तिम पफैसला आना है। बेगुनाही के पर्याप्त सबूत तो हैं, लेकिन जब शुरू से ही मज़दूरों को दोषी ठहराने की कवायद कम्पनी प्रबंधन से लेकर सरकारें करती रही हैं, जमानत तक देने में नीचे से ऊपर तक अदालत का एक रुख रहा है, तब मज़दूर विरोध्ी किसी फैसले से इंकार नहीं किया जा सकता!
जरा पूरी कवायद पर गौर करें। आम जनसाधरण की सोच को प्रभावित करते हुए कम्पनी ने सरकार के साथ मिलकर बडी आसानी से एक साथ 2300 मजदूरों को काम से निकाल दिया और 148 निर्दोष मजदूरों को अपराध बनाकर जेल में डाल दिया। आज साढ़े चार साल का समय बीत जाने पर भी दोषी और निर्दोष का खेल जारी है। इसी खेल के ऊपर ही इन निर्दोष मजदूरों की जिन्दगी का फैसला होना है। जिन सवालों को हम मजदूरों ने अपने सतत प्रदर्शन के द्वारा लोगो के सामने रखा वही सच्चाई आज कोर्ट में हाजिर है। विदेशी पूँजीनिवेश के चलते और मारुति कंपनी के मुनाफे की सोच में ही हरियाणा सरकार ने 148 मजदूरों की बलि चढा दी। और हर मुकाम पर न्याय की लड़ाई को कुचला जाता रहा। कानूनी कार्रवाई में आज ये बातें सपष्ट रूप में आ चुकी हैं कि कम्पनी ने अपने पूर्व नियोजित षडयंत्रा को 18 जुलाई 2012 को कार्यान्वित किया। न्यायालय की कार्रवाई में ये बातें आ चुकी हैं कि कम्पनी ने 11 बजे ही पुलिस को झगडा होने की कथित आशंका पर बुला लिया था लेकिन विवाद के वक्त पुलिस को कम्पनी के अन्दर आने से रोका। कम्पनी के जिस जनरल मैनेजर दीपक आनन्द ने 55 लोगों के खिलाफ एफआईआर दर्ज करवाई वो सुनवाई के दौरान एक भी मजदूर को पहचान न सका। यह संभव है कि यदि भीड इक्ट्ठा हो और झगडा हो रहा हो तो हमें किसी का चेहरा ध्यान में रहे लेकिन इस मामले में दीपक आनन्द 2000 लोगों में से 55 लोगों को उनके नाम से जानता था लेकिन चेहरा किसी का भी याद नहीं था? झगडे के समय कम्पनी के चार ठेकेदारों ने 89 मजदूरों को तोड़फोड़ करते हुए देखा। पहला गवाह कहता है कि उसने 'अ* से व 'ग' से शुरू होने वाले नाम के 16 लडकों को एक जगह वारदात करते हुए देखा। ऐसे ही दूसरे ने 'ग' व 'प' नाम के, तीसरे नें 'प' से लेकर 'स' तक व चैथे गवाह ने 'स' से 'य' तक के नाम वाले मजदूरों को देखा। मतलब यह है कि पहले मजदूरांे ने अपने आप को नाम के पहले अक्षर के हिसाब से जुटाया फिर मारपीट की? सभी चार गवाहों ने एक भी ऐसे मजदूर को नहीं पहचाना जिनका नाम लिया था? दीपक आनन्द के एफआईआर में दर्ज है कि 400-500 मजदूरों ने हाथों में सरिया, राड, बेलचा, डंडा लेकर मैनेजमेंट को पीटा लेकिन गवाही में बताया कि मजदूरों के हाथों में डोर बीम व शाॅकर थे? लगभग सभी गवाह कोर्ट में अपने ऊपर हमला करने वाले व्यक्ति को पहचान न पाये जबकि सभी ने नाम व पते के साथ उनकी शिकायत की थी। यही नहीं कंपनी के गवाह शलिल बिहारी ने, जिस जीया लाल को घटना के दिन बुलाकर उसकी जाँच की थी, कोर्ट में उसकी जगह किसी दूसरे को पहचाना। जिन गवाहों द्वारा आग लगाते हुए देखने की बात थी वे भी किसी को भी पहचान नहीं पाये। अवनीश देव की लाश कमरे के अन्दर मिली लेकिन गवाहों ने कहा कि आग कमरे के बाहर लगाई गई और बताया कि दो लागों ने अवनीश देव को दोनो हाथों से पकडा व अन्य ने उसको पांव पर मारा, मतलब कि किसी का इरादा जान से मारने का नहीं बना। अपने ऊपर हुए हमले में गवाहों ने कहा कि गुस्साए मजदूरों के सिर पर खून सवार था और हाथों में हथियार लेकर एक आदमी के ऊपर कई लोग वार कर रहे थे, लेकिन साथ ही कहा कि उनको किसी ने नहीं छुड़ाया बल्कि मजदूरों ने अपने आप ही छोड़ दिया। चार पांच लोगों द्वारा इकट्ठा होकर किसी को मारना और उसको थोडा सा पीटकर छोडना कत्ल का इरादा कैसे हो सकता है जब उनको बचाने वाला कोई ना हो? अवनीश देव की मेेडिकल रिपोर्ट में साफ लिखा है कि उसकी मौत दम घुटने से हुई और यह बात अभी तक भी सिद्ध नहीं हुई कि आग किसने और कैसे लगाई? जिस कमरे मेें आग लगी जहाँ पर सबकुछ जलकर राख हो गया लेकिन वहाँ पर माचिस की डिब्बी न तो जली और ना उस पर जरा सा भी जलने का कोई निशान मिला। पुलिस ने बतौर सबूत प्रत्येक मज़दूर के घर से हथियार के रूप में डोर बीम और शाॅकर की बरामदगी दिखायी। यानी मारकर उस हथियार को वह अपने घर ले गया? इसी तरह के सैंकडों सवाल मौजूद हैं जो यह दिखाते हैं कि कम्पनी ने कैसे मजदूरों के संगठन को तोडने के लिये योजनाबद्ध तरीके से अपने एक मैनेजर को कुर्बान कर मजदूरों को जेल में पहुंचा दिया। सरकार व कानूनी प्रक्रिया का इस्तेमाल कर इतने लम्बे समय तक मजदूरों को जेल में रखकर अन्य उद्योगों के मजदूरों के सामने ऐसे पेश करना कि अगर वे संगठित होने का प्रयास करेंगे तो उनके साथ भी मारुति मजदूरों जैसा बर्ताव होगा। यह सबक पूंजीपति अपने इस कारनामें को अंजाम देकर उदाहरण के रूप में हम मजदूरों को देना चाहता है।जहाँ अपने आप को निर्दोष सिद्ध करने के लिए ही पाँच साल से भी ज्यादा समय लग जाता हो वहाँ न्याय कैसा होगा इसकी हम कल्पना कर सकते हैं? हम आज अपनी आलोचना कर सकते हैं कि जहाँ पूंजीपति वर्ग अपने काम को अंजाम देने के लिए एकजुट है वहीं हम देश की 70 प्रतिशत से ज्यादा आबादी होने पर भी अपने हकों को बचा नहीं पा रहे हैं। आज भी हम अपने निजी स्वार्थों के चलते सिर्फ वर्गहित को अनदेखा कर व्यक्तिगत हित को प्राथमिकता देते हैं। मारुति मजदूरों की लड़ाई आज भी जारी है और यह लड़ाई अपने संगठन की लड़ाई से बदलकर एक वर्ग की लड़ाई बन गयी है। जहाँ पूँजीपतिवर्ग तो खुलेआम इसे वर्गसंघर्ष कहता है लेकिन मजदूर वर्ग के लिए ये सिर्फ मारुति मजदूरों की लड़ाई बनकर रह गयी है। भले ही इस संघर्ष को हम मारुति मजदूर एक व्यापक संघर्ष में तब्दील ना कर पाये हों लेकिन इस संघर्ष में अन्य मजदूर वर्ग व उसके प्रतिनिधियों की क्या भूमिका रही ये सवाल भी इतिहास में हमेशा जीवित रहेगा! ('संघर्षरत मेहनतकश' जनवरी-मार्च,2017 में प्रकाशित राम निवास का लेख्‍ा)

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