बुधवार, 17 फ़रवरी 2016

युग-पलटने में मशरूफ़ लोग कैसे मरते हैं? - दलजीत अमी

रोहित वेमुला के बाद नवकरन की आत्महत्या दुखद है। नवकरन की आत्महत्या एक तरफ़ तो आत्महत्याओं के रुझान की एक कड़ी है पर दूसरी तरफ़ उसकी पहचान के साथ जुड़ कर आत्महत्याओं के जटिल पहलू को उजागर करती है। नवकरन एक कम्युनिस्ट धड़े (रिवोल्यूशनरी कम्युनिस्ट लीग आफ इंडिया या आरसीएलआई) का पूर्णकालिक कार्यकर्ता था। उसकी उम्र 22 साल की थी। रोहित वेमुला की आत्महत्या के बाद पंजाब यूनिवर्सिटी में हुए रोष प्रदर्शन की तस्वीरें फेसबुक पर नवकरन की आ‌खिरी पोस्ट थी। जब रोहित वेमुला के आखिरी खत की चर्चा चल रही है तो इसी दौरान नवकरण ने अपनी जिन्दगी का आखिरी खत लिखा है। रोहित वेमुला की तरह नककरन भी अपने खत में किसी को मुखातिब नहीं और और अन्त में उसने अपना नाम नहीं लिखा। यह खत पढ़ना दर्दनाक है पर यह हमारे समय के युग पलटने निकले नौजवान ने लिखा है इसलिए पढ़ना ज़रूरी है। टुकड़ों में लिखे इस खत की नकल इस तरह है। शायद मैं ऐसा फैसला बहुत पहले ले चुका होता लेकिन जो चीज़ मुझे यह करने से रोक रही थी वह मेरी कायरता थी . . . और वह पल आ गया जिस पल की अटलता के बारे में मुझे शुरू से ही भरोसा था पक्का और दृढ़ भरोसा। लेकिन अपने भीतर दो चीजों को सम्भालते हुए अब मैं थक चुका हूँ। जिन लोगों के साथ मैं चला था मुझमें उन जैसी अच्छाई नहीं शायद इसीलिए मैं उनका साथ नहीं निभा पाया। दोस्तो मुझे माफ कर देना और एक छोटी सी प्यारी सी रूह से भी मैं माफ़ी माँगता हूँ... मुझे माफ कर देना मेरी प्यारी . . . . . मैं भगोड़ा हूँ लेकिन गद्दार नहीं. . .अलविदा. मैं यह फैसला अपनी खुद की कमज़ोरी की वजह से ले रहा हूँ। मेरे लिए अब करने के लिए इससे बेहतर काम नहीं है। हो सके तो मेरे बारे में सोचना तो जरा रियायत से इस खत के शब्दों में बहुत स्पेस है जो पाठक को परेशान करती है। कुछ शब्दों के अर्थ तो उससे रोज़ाना संपर्क में रहने वालों की समझ में आ सकते हैं। खत बताता है कि वह अपने साथियों जैसी ‘अच्छाई’ न होने के कारण उनसे ‘निभा नहीं पाया’ और ‘थक’ जाने के कारण इस फैसले को टालता रहा पर आखिर वह ‘अटल’ पल आ गया, जब उसने अपनी ‘कायरता और कमज़ोरी’ की जगह मौत को तवज्जो दी। खत के शब्दों के बीच में स्पेस के अलावा इस में नवकरन के व्यक्तित्व का एक पहलू बहुत साफ़ झलकता है। वह बहुत संभल-संभल के लिख रहा है। एक सवाल तो सपष्ट ही उठता है कि वह जिस माहौल में जी रहा है, उसमें उसको ‘भगोड़ा’ और ‘गद्दार’ शब्दों का इस्तेमाल कैसे होता है? रोहित वेमुला के खत पर बहुत चर्चा हो रही है। नवकरन का खत रोहित वेमुला के ही खत की एक और रीडिंग से पर्दा उठाता है। दरअसल इन दोनों खतों की सांझी तार इन दोनों का सक्रिय कार्यकर्ता होना है। रोहित ‘अपने अम्बेडकर स्टूडेंट एसोसिएसन के परिवार को निराश करने के लिए माफी मांगता’ है और नवकरन अपने साथियों से मौत के बाद ‘ज़रा रियायत से सोचने’ की मांग करता है। रोहित लिखता है “लोग मुझे डरपोक करार दे सकते हैं। मेरे जाने के बाद मुझे खुदगर्ज़ या मूर्ख करार दिया जा सकता है। मैंने इस बात की परवाह नहीं की कि कोई बाद में मुझे क्या कहेगा”। नवकरन लिखता है “मैं भगोड़ा हूं गद्दार नहीं”। रोहित अपनी हालत बयां करता है “मैं दुखी नहीं हूं। मैं उदास नहीं हूं। मैं खाली हूं। बिलकुल खाली अपने-आप से बेख़बर। यहीं दुःख है। इसी वजह से मैं विदा होता हूं”। नवकरन इसी राइट अप का अगला वाक्य लिखता मालूम पड़ता है, “मैं ऐसा फैसला बहुत पहले ले चुका होता लेकिन जो चीज़ मुझे यह करने से रोक रही थी वह मेरी कायरता थी . . . और वह पल आ गया जिस पल की अटलता के बारे में मुझे शुरू से ही भरोसा था पक्का और दृढ़ भरोसा”। इन दोनों खतों को एक ही दौर के सक्रिय कार्यकर्ताओं ने लिखा है। दोनों अंतिम समय तक अपने संगठनों के सक्रिय कार्यकर्ता थे। दोनों युग बदलने में मशरूफ़ थे। युग पलटने से बेहतर सपना या जीने का कारण और क्या हो सकता है? युग पलटने का सपना प्यार से लबरेज़ व्यक्तियों को ही आता है। उनमें से ज्यादा हिम्मत वाले पूर्णकालिक कार्यकर्ता बनते हैं। यह बात तो व्यवस्था विरुद्ध चलने वाले, युग पलटने वाले सारे आंदोलनों के बाबत मानी जाती है कि पूर्णकालिक कार्यकर्ता समाज की मलाई होते हैं। यह सवाल अपनी जगह है कि इस धारणा को पेश करने की राजनीति क्या है? जब कोई संगठन या कोई आंदोलन युग पलटने या व्यवस्था परिवर्तन का दावा करता है तो उसकी एक सीमा होती है। उस संगठन या आंदोलन को भले ही समूची व्यवस्था को बदलने में कामयाबी न मिले, पर उसका सिक्का कहीं तो चलता है। पूर्णकालिक कार्यकर्ता पर तो उनका सिक्का चलता है। अगर पूर्णकालिक कार्यकर्ता पर मौजूदा व्यवस्था का असर मायने रखता है, तो संगठनों की हुकूमत भी मायने रखती है। नए समाज के सृजन का सपना एक सोच के व्यक्तियों के आपसी व्यवहार में से नक्श निखारता है। यह सवाल मायने रखता है कि युग पलटने का सपना मौजूदा व्यवस्था के पतन के शिकार हुए इंसान का इलाज कैसे करता है? युग पलटने की हामी भरने वाले संगठनों और आंदोलनों की यह खांटी दलील है कि इंसान को ज़लालत के रास्ते पर चलने की बजाए बगावत के रास्ते पर चलना चाहिए। पिछले सालों में यह दलील लगातार दी गयी है कि बदहाली के कारण आत्महत्याओं की बजाय लोगों को लामबंद होना चाहिए, संगठित होना चाहिए और संघर्ष करना चाहिए। लामबंदी इंसान को संवेदना से सौन्दर्य के रास्ते पर ले जाती है। यह इंसान को अहसास करवाती है कि उसकी दुश्‍वारियों का कारण व्यक्तिगत नाकामयाबियों या माथे पर लिखी तकदीर नहीं बल्कि व्यवस्था है। यह सोच इंसान की इंसान के साथ सांझ पैदा करती है। व्यक्ति को प्यार से लबरेज़ करती है और सयुक्त प्रयासों को अहमियत देती है। यह मनुष्य को सामाजिक दुश्‍वारियों को शर्म, सलीके या पर्दे में ढक के रखने की जगह उसको एक सामाजिक जीव की तरह व्यवहार करने की सूझ देती है। यह सवाल अपनी जगह पर अहम है कि इन वादों/दावों और कारगुज़ारियों में कितना फासला है? रोहित और नवकरण की आत्महत्याएं इन दावों के निरीक्षण की मांग करती है। अगर रोहित धरने से जाकर आत्महत्या करता है तो यह सवाल तो उसके साथियों के दिलो-दिमाग में आना चाहिए कि व्यवस्था के शून्य किये गये में ‘युग पलटने का सपना’ ज़रूरी गर्मी भरने में नाकामयाब क्यों रहा? युग पलटने के लिए मशरूफ़ संगठन ‘खाली हो कर चल दिये साथी’ के शोक में अपनी नाकामयाबी को क्यों नहीं पहचानते? अगर व्यवस्था ‘युग पलटने के सपने लेने वालो व्यक्तियों’ का दम घोंटने पर उतारू है, तो ‘युग पलटने में मशरूफ़ लोग’ अपने साथियों के दिलों की धड़कन सुनने के समय मशीनें क्यों बन जाते हैं। मौजूदा व्यवस्था की दलील रहती है कि इन आत्महत्याओं के कारण निज़ी हैं। व्यवस्था खुद-ब-खुद हत्यारे को परिधि में से निकालने का यत्न इसी दलील के सहारे करती है। दूसरी तरफ़ ‘युग पलटने का दावा/वादा करने वाले संगठनों और लोग’ हर सवाल को गद्दारी और कुत्सा प्रचार या प्रतिक्रांतिकारी करार देते हैं। इसी के परिणामस्वरूप जब ‘युग पलटने में मशरूफ़ लोगों’ का मोहभंग होता है तो वह ‘युग पलटने के हर यत्न’ से मुंह फेर लेते हैं। वह अपने अनुभवों के हवाले से इन यत्नों के बेमायने होने के प्रचारक तक बन जाते हैं। अगर रोहित बाबत सवाल पूछने पर मौजूदा व्यवस्था देशद्रोही या नक्सलवादी या हिंदू विरोधी करार देती है, तो सवाल वाज़िब है। अगर रोहित और नवकरन बाबत पुछे गए सवालों को ‘युग पलटने में मशरूफ़ लोग कुत्सा प्रचार या गद्दारी करार देते हैं तो यह सवाल बार-बार पूछे जाने बनते हैं। अगर ‘युग पलटने में मशरूफ़ लोग’ बुखार से नहीं मरते तो निरीक्षण से भी नहीं मरने लगे। संघर्षत रहे रोहित वेमुला को अपने साथियों को अपने साथियों के संग अपना जीवन क्यों खाली लगता था/है? नवकरन को आत्महत्या के मामले में पक्का और दृड़ भरोसा क्यों था/है? (दलजीत अमी डाट काम से अनुवादित) सबंधित लिंक-http://daljitami.com/2016/02/09/suicide-by-a-communist-whole-timer-daljit-ami/