सोमवार, 19 अगस्त 2013

मिस्र में नरसंहार : एक आशा का अन्त

जैसी कि उम्मीद थी मामला उसी तरह खत्म हुआ और विगत माह मिस्र में राष्ट्रपति मुर्सी को अपदस्थ किये जाने के बाद सत्ता पर बैठे सैन्य शासकों ने अपना असली रंग दिखा दिया। बुधवार, 14 की रात को उन्होंने एक ऐसे बर्बर कत्लेआम को अंजाम दिया, देश के इतिहास पर जिसकी छाप को सुदूर भविष्य में भी मिटा पाना बहुत मुश्किल होगा। अपने इस कुकृत्य के द्वारा उन्होंने न केवल मिस्र को एक सुनिश्चित गृहयुद्ध की ओर धकेल दिया बल्कि वहाँ जारी परिवर्तन की प्रक्रिया को जिसे उन्होंने पहले ही अगवा कर लिया था, अपने ही देशवासीयों के खून के समुंदर में डुबो दिया।
   अपदस्थ राष्ट्रपति मुर्सी के समर्थकों द्वारा दिए जा रहे धरनों को उखाड़ने के लिए सेना, पुलिस और उनके गुर्गों द्वारा पिछले पाँच दिनों से जारी कार्रवाइयों में सरकारी सूत्रों से ही अब तक 800 से अधिक लोगों के मारे जाने की पुष्टि हो चुकी है, जबकि असली संख्या हजार से भी अधिक है। इसके अलावा अन्य हजारों घायल हैं। हालाँकि यह सब आतंकवाद को शिकस्त देने और व्यवस्था बहाल करने के नाम पर हो रहा है लेकिन इसमें शक की कोई गुंजाइश नहीं कि इसका असल उद्देश्य नागरिक शासन की किसी भी सम्भावना को सदा के लिए समाप्त कर पुनः सैनिक शासन बहाल करना है।
    सिर्फ दो वर्ष पहले जिस काहिरा के तहरीर चौक ने विश्वव्यापी आशा का संचार किया था वही काहिरा अब उसके कब्रगाह में तब्दील हो गया है। लेकिन इसके लिए जिम्मेदार कौन है? मुबारक को अपदस्थ किये जाने के बाद से जब भी बदलाव की प्रक्रिया को आघात लगा है मिस्र के तथाकथित क्रान्तिकारियों ने एक ही मन्त्र दुहराया है कि ‘‘क्रान्ति एक प्रकिया है’’ और उन्हें यह मुगालता रहा है कि वे ही इस प्रक्रिया को संचालित कर रहे है।
   लेकिन सच्चाई यह है कि प्रतिक्रान्ति भी एक प्रक्रिया है और आने वाले लम्बे समय के लिए उसने जड़ जमा लिया है। और ऐसा सिर्फ इसलिए नहीं हुआ है कि उसे संचालित करने वाली ताकतें, सेना और ‘फेलौल (पुरानी सत्ता के गुर्गे)  अधिक साधन सपन्न हैं बल्कि इसलिए हुआ है कि वे संगठित हैं और अपने हितों की रक्षा करने का उनका लक्ष्य सामान है जो उनके एकजुट करता है। जबकि नेतृत्वविहीन इन तथाकथित क्रान्तिकारियों में इन गुणों का नितान्त अभाव है। पुरानी व्यवस्था अंगों-उपांगो में सेना ही सबसे मजबूत होती है और उसको और एवं उसके समस्त ढाँचे को विखण्डित किये बिना किसी व्यवस्था में बुनियादी बदलाव नहीं लाया जा सकता है। पिछली शताब्दी के क्रान्तिकारियों के अलावा इस बात को खुमैनी भी जनता था जिसने सत्ता पर कब्ज़ा करने के बाद पहला काम शाह की सेना को विखण्डित करने का किया। लेकिन मिस्र के इन तथाकथित क्रान्तिकारियों के मुगालतों का कोई अन्त नहीं था। मुबारक को सत्ताच्युत किये जाने के तुरन्त बाद जब उसको अपदस्थ करने के लिए एक मंच पर आयी विभिन्न शक्तियाँ अलग-अलग रास्तों पर चल दीं तो उनके दोनों प्रमुख धड़े उदारवादियों और इस्लामियों ने विभिन्न मौकों पर अलग-अलग सेना से तालमेल स्थापित करने का प्रयास किया, मानों सेना कोई निष्पक्ष खिलाड़ी हो।
   वह भी एक ऐसी देश में जहाँ दशकों से सेना ही सत्ता का प्रमुख आधार रही है और  स्वतन्त्र रूप से व्यवसाय, संस्थानों और संसाधनों की मालिक है। यह वही सेना है जिसे अमेरिका ने खड़ा किया है और दशकों से वित्त, अस्त्र-शास्त्रों और अन्य संसाधनों द्वारा पाला-पोसा है जिससे कि वह अरब-इसराइल विवाद से अलग रहे और इस तरह पश्चिमी एशिया में उसकी चौकी की हिफाजत करे।
   जिस समय पुरानी सत्ता अपने को पुनः एकजुट कर रही थी मिस्र के ये गगनबिहारी क्रान्तिकारी अपने मुगालतों का में ही व्यस्त रहे और 3 जुलाई को जब अब्दुल फतह अल-सीसी ने सत्ता पर कब्ज़ा कर लिया तो मिस्र में परिवर्तन की प्रक्रिया का, जिसे वे क्रान्ति कहते फूले नहीं समाते थे, या अन्ततः उसके मौजूदा चरण का, अन्त हो चुका था। अब क्रान्ति सिर्फ उनकी कल्पना में रह गयी थी, लेकिन वे तब भी उसे वास्तविक समझते रहे और उनमें से तो कुछ तो इस क्रान्ति की रक्षा करने की मजबूरी के नाम पर सेना के कुकृत्यों में शरीक हो गए।
   अल-सीसी को उनके इस मुगालते को हवा देने में कोई परेशानी नहीं थी बल्कि उसने खुद भी क्रान्तिकारी का बाना ओढ़ लिया। सेना के प्रचार के मुताबिक अल-सीसी और उसके सहकर्मियों ने दो वर्ष पहले मिस्र को न केवल मुबारक से छुटकारा दिलाया बल्कि उत्तराधिकारी के रूप में तैयार किये जा रहे उसके पुत्र गमाल से भी रक्षा की जो नवउदारवादी ‘सुधार’ का समर्थक था और जिससे सेना के आर्थिक हितों पर आँच आ सकती थी। और अब वह देश की ‘मुस्लिम ब्रदरहुड’ और उसके विदेशी समर्थकों से रक्षा कर रहा है, जिसमें वे हमास से लेकर अमेरिकी राजदूत अन्ने पैटरसन तक सबका नाम शामिल करते हैं।
  इन तथाकथित क्रान्तिकारियों के मुगालतों ने सेना के इस प्रचार को हवा दी और आज की विडम्बनात्मक स्थिति पैदा की कि जिसमें एकओर नरसंहार जारी है, वही, दूसरी ओर, इस कुकृत्य को, लगता है, भारी जनसमर्थन हासिल है। सेना द्वारा गाया जा रहा क्रान्ति का गीत आज मिस्र में बहुतों को, सम्भवतः बहुसंख्यक आबादी को भा रहा है क्योंकि इसनें अंधराष्ट्रवाद के सभी तत्व हैं। इसमें शायद ही किसी को शक हो कि मौजूदा अन्तरिम सरकार के पीछे अल-सीसी और सेना की ताकत है लेकिन इसमें आश्चर्य की कोई गुञ्जाइश नहीं है यदि निकट भविष्य में ही उसका नाम राष्ट्रपति के रूप में सामने आये। ऐसी स्थिति में अल-सीसी की सरकार खुले तौर पर एक अंधराष्ट्रवादी फासिस्ट सरकार होगी।
  मौजूदा सरकार इस बात का प्रचार कर रही है कि ‘मुस्लिम ब्रदरहुड’ आतंकवादी है, इसमें  निश्चित तौर पर संदेह की अपार गुञ्जाइश है लेकिन इसमें संदेह की कोई गुञ्जाइश नहीं कि वह प्रतिक्रियावादी है। लेकिन उस पर कहर बरसा रही सेना भी प्रतिक्रियावादी है और वह एक संस्थाबद्ध और मजबूत प्रतिक्रियावादी है जो दूसरे प्रतिक्रियादी शक्ति को या कम से कम उसके एक हिस्से आतंकवादी बनाने की दिशा में धकेल रही है। यदि देश संकीर्णतावादी हिंसा की चपेट में आ जाये, जिसकी शुरुआत ढेर सारी क्रोप्टिक गिरजाघरों को आगजनी का निशाना बनाने के माध्यम से सामने आ चुकी है, तो इसका सबसे अधिक फायदा सेना को ही होनेवाला है। यहाँ वही कुछ हो रहा है जो 1900 में अल्जीरिया में हो चुका है और फ़िलहाल सीरिया में जारी है। मिस्र की इस घटनाक्रम का दुनियाभर की परिवर्तन चाहने वाली जनता के लिए महत्व है। ठीक उसी प्रकार जैसे 2011 की घटनाक्रम का था। वह जनता की पहलकदमी का ऐसा प्रस्फोट था जिसकी ओर सभी ने उम्मीद से देखा और उसका स्वागत किया। नयी शताब्दी की वह पहली घटना थी जिसमें इतिहास निर्माण में जनता की भूमिका को रेखांकित किया था। लेकिन वहाँ घटनाक्रम में आये मौजूदा मोड़ ने बदलाव की प्रक्रिया के एक दूसरे लेकिन उतने ही महत्वपूर्ण पहलू को रेखांकित कर दिया है। वह है इसमें विचारधारा और संगठन की भूमिका। जनता की पहलकदमी को यदि जनता के एक बेहतर भविष्य की विचारधारा और उस अनुरूप नेतृत्व की संरचनाओं के साथ नहीं मिलाया जाय तो वही परिणाम सामने आयेगा जो आज मिस्र और पश्चिम एशिया के अन्य देशों में सामने आ रहा है। एक ऐसी दुनिया में, जो सभी किस्म के प्रतिक्रियावादियों के आपसी मेलमिलाप व सामंजस्य और उनपर एक महाशक्ति के सर्वस्वीकृत प्रभुत्व के आधार पर चल रही है, यदि जनता की पहलकदमी को सही विचारधारा और सांगठनिक रूपों से मिलान नहीं किया जाय, तो अन्तिम योगफल में उनका फायदा उसी महाशक्ति को मिलेगा। सेना के मौजूदा ताण्डव और विचारधारा और सांगठनिक रूपों के आभाव में मिस्र का भविष्य अंधकारमय ही दिखायी देता है।
साभार-

शनिवार, 10 अगस्त 2013

चिताओं पर मेले नहीं लगते

                                                       अशफाक की कविता से छेड़छाड़

                     डॉ. महर उद्दीन खां
शहीदों की मजारों पर जुड़ेंगे हर बरस मेले।
वतन पर मरने वालों का यही बाकी निशां होगा।
शहीद अशफाक उल्लाह खां की एक कविता की ये पंक्तियां काफी प्रसिद्ध हैं। जब भी शहीदों की चर्चा होती है, ये पंक्तियां लोगों की जुबां पर बरबस ही आ जाती हैं। अफसोस कि इन पंक्तियों को दोहराते समय ‘मजारों’ की जगह ‘चिता’ कर दिया जाता है और ‘जुड़ेंगे’ की जगह ‘लगेंगे’ कर दिया जाता है। क्रांतिकारी अशफाक उल्लाह खां को 19 दिसंबर 1927 को फैजाबाद जेल में फांसी हुई थी। कम लोग जानते हैं कि अशफाक अपने अजीज मित्र रामप्रसाद ‘बिस्मिल’ की तरह ही बहुत अच्छे शायर भी थे। 16 दिसंबर 1927 को उन्होंने देशवासियों के नाम एक खत लिखा था, जिसमें उन्होंने अपने विचार व्यक्त किए थे। बाद में पता नहीं कब और किसने इस कविता में संशोधन कर दिया। पंडित बनारसी दास चतुर्वेदी द्वारा संपादित अशफाक उल्लाह खां की जीवनी में उन्होंने लिखा है-‘किसी मनचले हिन्दी प्रेमी ने ‘मजार’ की जगह ‘चिता’ बना दी। बिना यह ख्याल किए कि चिताओं पर मेले नहीं जुड़ा करते।’
एक सोची-समझी साजिश
जब ध्यान देते हैं, तो यह किसी मनचले हिन्दी पे्रमी की हरकत नहीं लगती, बल्कि एक सोची समझी योजना के चलते ‘मजार’ के स्थान पर ‘चिता’ किया गया है। अगर किसी एक की हरकत होती, तो इसका सरकारी एवं गैर सरकारी स्तर पर इतने व्यापक पैमाने पर प्रचार नहीं होता कि हर व्यक्ति की जबान पर ‘चिता’ शब्द चढ़ जाता। हद तो यह है कि कई सरकारी अभिलेखों में भी ‘चिता’ लिखा जा रहा है। इतना ही नहीं विभिन्न शहरों में लगी शहीदों की प्रतिमाओं पर भी ‘चिता’ ही लिखा जा रहा है। गाजियाबाद में घंटाघर पर शहीद भगत सिंह की प्रतिमा लगी है, उस पर भी ‘चिता’ शब्द ही लिखा है। यह सब देखकर कहा जा सकता है कि इस कविता में ‘मजार’ के स्थान पर ‘चिता’ शब्द का प्रयोग संगठित तरीके से किया गया है। हमारे देश में एक वर्ग ऐसा है, जो हर मामले को हिंदू-मुस्लिम के चश्मे से देखता है। ‘मजार‘ के स्थान पर ‘चिता’ करना भी इसी वर्ग की कारस्तानी लगती है। चूंकि, ‘मजार’ शब्द से शहीद के मुसलमान होने का आभास होता है और ‘चिता’ से हिंदू होने का, इसलिए इस वर्ग ने अपनी अलगाववादी मानसिकता के चलते शहीदों को हिंदू-मुसलमान बना दिया। चिता के बारे में हम सभी जानते हैं कि उस पर अंतिम संस्कार के बाद अस्थियां चुनने की एक क्रिया होती है। उस के बाद चिता स्थल पर कोई नहीं जाता।
‘चिता पर नहीं मजार पर मेले’
हिंदी में मजार के लिए समाधि का प्रयोग किया जा सकता है, स्मारक भी चल सकता है, मगर स्मारक और समाधि से हिंदू-मुसलमान दोनों शहीदों का आभास होता है। इसलिए ऐसा लगता है कि एक सोची-समझी योजनानुसार और जानबूझ कर अशफाक की शायरी में ‘मजार’ की जगह पर ‘चिता’ शब्द का प्रयोग किया। चिता का संबंध केवल हिंदू से है, हिंदू के अलावा अन्य किसी भी धर्म में चिता पर अंतिम संस्कार नहीं किया जाता। ऐसा भी होता है कि जहां चिता जलती है, उसी के आसपास समाधि भी बना दी जाती है। राजघाट, शांतिवन, किसान घाट आदि ऐसे ही स्थल हैं, लेकिन यह जरूरी नहीं। कई मामलों में ऐसा भी होता है कि चिता कहीं और जलती है और समाधि या स्मारक कहीं और बनाया जाता है। जगजीवन राम की चिता सासाराम, बिहार में जली, लेकिन उनका स्मारक दिल्ली में बनाया गया है। उनके चिता स्थल पर अंतिम संस्कार के बाद कोई नहीं गया होगा, लेकिन उनकी जन्म तिथि और पुण्य तिथि पर हर साल लोग उन्हें श्रद्धासुमन अर्पित करने समता स्थल पर जाते हैं। इस प्रकार ‘मेले’ ‘चिता’ पर नहीं समाधि पर ही लगते हंै।
शहीद अशफाक का अपमान
आज अनेक बुद्धिजीवी भी ‘मजार’ के स्थान पर बिना सोचे-समझे ‘चिता’ का ही प्रयाग करते हैं। क्या यह शहीद अशफाक उल्ला खां का अपमान नहीं है? ऐसे लोगों को एक शहीद की कविता में व्यक्त की गई भावनाओं में संशोधन का अधिकार किसने दिया? बहरहाल भले ही वे ‘मजार’ के स्थान पर ‘चिता’ लिखकर प्रसन्न होते रहें, मगर मेले तो मजारों पर ही जुटते रहे हैं और हमेशा जुटते भी रहेंगे। अब करना यह चाहिए कि हमें जहां भी किसी शहीद स्मारक पर ‘चिता’ लिखा हो, वहां स्थानीय प्रशासन से यह आग्रह किया जाए कि वे इस गलती को सुधारें। यही शहीद अशफाक उल्लाह खां को सच्ची श्रद्धांजलि होगी।
शहीद अशफाक उल्ला खां की पूरी कविता-
उरुजे कामयाबी पर कभी हिंदोस्तां होगा
रिहा सैयाद के हाथों अपना आशियां होगा।
चखाएंगे मजा बरबादी-ए-गुलशन का गुलचीं को,
बहार आएगी उस दिन जब अपना बागबां होगा।
जुदा मत हो मिरे पहलू से ये दर्दे वतन हरगिज,
न जाने बादे मुरदन मैं कहां और तू कहां होगा?
वतन की आबरू का पास देखें कौन करता है?
सुना है आज मकतल में हमारा इम्तेहां होगा।
ये आए दिन की छेड़ अच्छी नहीं ये खंजरे कातिल,
बता कब फैसला उनके हमारे दरमियां होगा।
शहीदों की मजारों पर जुड़ेंगे हर बरस मेले,
वतन पर मरने वालों का यही बाकी निशां होगा।
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं)

मंगलवार, 6 अगस्त 2013

अयोध्या के गम

                     
          कृष्ण प्रताप सिंह
पिछले दिनों भाजपा के नए उत्तर प्रदेश प्रभारी अमित शाह का अयोध्या आकर वहां भव्य राममंदिर के निर्माण का एलान करना इतनी बड़ी खबर बना कि उस पर हफ्तों चर्चाएं हुईं। उसी अयोध्या के कड़ी सुरक्षा वाले येलोजोन में बीते हफ्ते संतों-महंतों के खुद को सेकुलर व समाजवादी कहने वाले गुटों के बीच दिनदहाड़े हुई गोलीबारी में एक व्यक्ति की जान चली गई और कई अन्य घायल हो गए, लेकिन किसी ने इतना भी नोटिस नहीं लिया कि उसको लेकर प्रदेश की कानून-व्यवस्था पर सवाल खड़ा करता। सो भी जब इनमें एक गुट के नेता समाजवादी संत सभा के राष्ट्रीय अध्यक्ष बाबा भवनाथदास और दूसरे के हिन्द केशरी हरिशंकरदास हंै। दोनों का ताल्लुक अयोध्या के सौहार्द की सबसे बड़ी प्रतीक हनुमान गढ़ी से है। अलबत्ता, हरद्वारी व सागरिया नाम की अलग-अलग पट्टियों से। 
पार्टियों में बंटे संत
यदि इस घटना की चर्चा होती तो आप जानते कि रामजन्मभूमि-बाबरी मस्जिद विवाद अयोध्या का इकलौता या सबसे बड़ा गम नहीं है। धर्म की राजनीति ने उसके साधु-संतों व महंतों तक को न सिर्फ सपाई, भाजपाई, कांगे्रसी व बसपाई संतों के रूप में ही नहीं, बल्कि जातियों के आधार पर भी बांट रखा है। हाईकोर्ट ने प्रदेश के राजनीतिक दलों को जातियों की रैलियां करने से रोक रखा है, लेकिन अयोध्या में प्राय: हर जाति के अलग-अलग मंदिर हैं। यों, कहा जाता है कि अयोध्या का हर घर एक मंदिर है, जिसका पूरा सच यह है कि हर मंदिर एक व्यावसायिक प्रतिष्ठान है, जिनकी परिसम्पत्तियों के विवाद संतों-महंतों को प्राय: अदालतों में खड़ा रखते हैं। न्यायिक सूत्र कहते हैं कि स्थानीय अदालतों को संतों के विवादों से मुक्त कर दिया जाए, तो उनका काम काफी हल्का हो जाए।
संपत्ति विवाद में गिरती हैं लाशें
सरकारी व निजी सुरक्षा अमले से घिरे रहने और प्राय: लग्जरी कारों में नजर आने वाले संत-महंत यजमानों को भले ही लोभ-मोह व माया से परे रहने का उपदेश देते हैं, मंदिरों की परिसंपत्तियों के विवादों में प्राय: लाशें गिराते या गिरवाते रहते हंै। क्योंकि, अदालती फैसले की लंबी प्रतीक्षा उनसे की नहीं जाती और बमों व गोलियों से तुरत-फुरत फैसला बहुत लुभाता है। घातक आग्नेयास्त्र उन्हें इतने पसंद हैं कि लाइसेंस पाने के लिए उनके सैकड़ों आवेदन फैजाबाद के जिलाधिकारी के कार्यालय में धूल फांक रहे हैं। कई साल पहले हुई रामजन्मभूमि के मुख्य पुजारी लालदास की नृशंस हत्या के बाद से संतों की चरण दाबकर चेला बनने और गला दबाकर महंत बन बैठने की परंपरा का बोझ ढोते-ढोते अयोध्या अपनी ऐसी छवि की बंदिनी हो गई है कि याद नहीं कर पाती कि कितने समय पहले यथार्थ की जमीन पर सहज होकर चली थी।
मैली हो गई राम की सरयू
वरिष्ठ कथाकार दूधनाथ सिंह ने अपने ‘आखिरी कलाम’ में अयोध्या को धर्म की मंडी के अतिरिक्त शहर का उच्छिष्ट और गांवों का वमन कहा था। इस उच्छिष्ट और वमन के चलते अयोध्या को छूकर बहने वाली सरयू नदी का वह पानी बुरी तरह प्रदूषित है, जिससे भगवान के भोग के सारे व्यंजन बनते हैं। फिर भी शराब फैक्टरियों व उद्योगों के सरयू में आने वाले प्रदूषण के ट्रीटमेंट के लिए कुछ नहीं किया जा रहा।
नशा, गंदगी और अश्लीलता
अयोध्या की गलियों के बारे में कहा जाता है कि वे दुनिया की सबसे सुंदर पर सबसे गंदी गलियां हैं। इस नगरी के सुंदरीकरण व पर्यटन के अंतरराष्ट्रीय मानचित्र पर लाने के कई प्रयास पिछले दशकों में दम तोड़ चुके हैं। एक समय अयोध्या पैकेज की बड़ी चर्चा थी, लेकिन यह ठंडे बस्ते में चले गई। इसके प्राचीन वैभव, संस्कृति व वास्तुकला का गौरवगान तो बहुत होता है, लेकिन समझा नहीं जाता कि पर्यटक किसी भी शहर की आत्मा से साक्षात्कार करने आते हैं और इस दृष्टि से उसका वर्तमान भी समृद्ध होना चाहिए। अयोध्या में सुरक्षा व्यवस्था को छोड़ दीजिए तो कुछ भी ठीक नहीं है। राम की पैड़ी, रामकथा पार्क और चौधरी चरणसिंह घाट जैसे पर्यटकों के आकर्षण के गिनती के स्थल हैं भी, तो उपयुक्त देखरेख के अभाव में गन्धाते रहते हंै। दूसरी ओर जनरुचियां इतनी बिगाड़ दी गई हैं कि धार्मिक फिल्मों के आवरण में अश्लील सीडियां तक बिकती पाई जाती हैं। धर्म की यह नगरी नशे की गिरफ्त से भी नहीं बच पा रही।
न दिखे कोई गरीब...
जिस फैजाबाद जिले में अयोध्या है, पिछली जनगणना के अनुसार उसकी कुल जनसंख्या 20,88,929 है। इनमें 2,81,273 लोग नगरों या कस्बों में रहते हैं और शेष गांवों में। सिर्फ अयोध्या नगर की बात करें तो उसकी जनसंख्या 50 हजार से थोड़ी ही ज्यादा है। पूर्वी उत्तर प्रदेश के दूसरे हिस्सों की तरह गरीबी यहां भी राष्ट्रीय औसत से कहीं ज्यादा है। लेकिन गरीबों की कितनी फिक्र की जाती है, इसे समझना हो तो जानना चाहिए कि अभी गरीबों की पहचान का काम भी पूरा नहीं हो पाया है। लेखपालों को अलिखित निर्देंश हैं कि वे किसी की आय भी इतनी कम होने का प्रमाणपत्र जारी न कराएं जिससे वह अपने को गरीब प्रमाणित कर सके।
सरयू में सक्रिय खनन माफिया
पूरे फैजाबाद जिले में हाथ कागज, दफ्ती बनाने, दस्तकारी हैंडलूूम और जूते बनाने के छिटपुट उद्योगों के अलावा उद्योग के नाम पर कुछ भी नहीं है। शायद इसका कारण क्षेत्र में किसी भी तरह के कच्चे माल की अनुपलब्धता है। बस सरयू में बालू पाई जाती है, माफिया जिसका अवैध खनन करके कमाई करते हैं। एक बार बालू से शीशा बनाने के उद्योग की स्थापना की बात चली थी, लेकिन वह भी आई गई हो गई। 
राम भरोसे श्रीराम अस्पताल
यहां अनेक लोग खडाऊं, मूर्तियों, कंठियों, फूलमालाओं व सौंदर्य प्रसाधनों आदि की बिक्री से जीविका अर्जित करते हैं, लेकिन चिकित्सा और स्वास्थ्य की सुविधाओं की दृष्टि से किसी का कोई पुरसाहाल नहीं है। भगवान श्रीराम के नाम पर जो अस्पताल है, वह भी भगवान भरोसे ही है।
कहने भर को विश्वविद्यालय
यहां गरीबी के मुख्य दो कारण बताए जाते हैं। पहला यह कि भूमि उपजाऊ होने के बावजूद खेती किसानी पिछड़ी हुई है। दूसरा यह कि नवयुवकों को उपयुक्त शिक्षा व रोजगार नहीं मिल पा रहे। खेती किसानी की हालत सुधारने और उससे संबंधित शोधों को बढ़ावा देने के लिए आचार्य नरेंद्रदेव के नाम पर जो कृषि विश्वविद्यालय खोला गया, भ्रष्टाचार, राजनीति व काहिली ने उसकी जड़ें खोखली कर दी हंै। डॉ. राममनोहर लोहिया के नाम पर जो अवध विश्वविद्यालय है, उसमें अभी तक भाषाओं का विभाग ही नहीं है। इस विश्वविद्यालय में ऐसा कुछ भी नहीं होता जिससे, उसके नाम की थोड़ी बहुत भी प्रासंगिकता सिद्ध हो। कहने को उसमें एक श्रीराम शोधपीठ भी है, लेकिन उसका पिछले बीस-पचीस वर्ष में अयोध्या को लेकर हुए महत्व के शोधों में कोई हिस्सा नहीं है। यही हाल महत्त्वाकांक्षी अयोध्या शोधसंस्थान का भी है। फिलहाल, कोई नहीं जानता कि अयोध्या को इन गमों से निजात कब मिलेगी।

दुनिया की सबसे बड़ी जन गोलबन्दी का भविष्य

विगत एक माह के मिस्र के घटनाक्रम ने दुनिया के प्रेक्षकों को हैरान कर दिया है। वह देश, ऐसा प्रतीत होता है, कि एक गृहयुद्ध की ओर अग्रसर है। एक ऐसे देश में, जिसने सिर्फ दो वर्ष पहले एक अभूतपूर्व जनउभार के


माध्यम से तीस वर्षों से सत्ता पर काबिज तानाशाह होस्नी मुबारक को हटाया गया था और इस मामले में वह दुनिया भर में मिसाल बन गया था, घटनाक्रम ने ऐसा मोड़ ले लिया है कि किसी के लिए भी पक्ष चुनना आसान नहीं है। पिछले माह के शुरू के जिस घटनाक्रम ने राष्ट्रपति मुर्सी को अपदस्थ किया उसके पीछे जिस जन गोलबन्दी का हाथ था उसे मिस्र के इतिहास का नहीं बल्कि दुनिया के इतिहास की सबसे बड़ी जन गोलबन्दी माना जा रहा है। 
  लेकिन इस घटनाक्रम की विडम्बना देखिये, एक चुने हुये राष्ट्रपति को हटा कर, अस्थायी तौर पर ही सही, जो शासन व्यवस्था कायम की गयी वह सैन्य व्यवस्था ही है। मुबारक और उसके बाद मुर्सी के खिलाफ जनता के आक्रोश और व्यापक गोलबन्दी के बावजूद, वस्तुतः दोनों राष्ट्रपतियों को सेना ने ही पदच्युत किया और ढाई वर्षों की प्रक्रिया के बावजूद जो सैन्य ढाँचा मुबारक शासन की रीढ़ था, वह न केवल अपनी जगह मौजूद है बल्कि हाल के घटनाक्रम से और मजबूत ही हुआ है। यह वही सेना है जिसे अमेरिका ने खड़ा किया है और दशकों से वित्त, अस्त्र-शास्त्रों और अन्य संसाधनों द्वारा पाला-पोसा है। इस विरोधाभास का क्या मतलब निकला जाय? क्या जनता के विद्रोहों का निष्फल होना तय है या फिर कोई और बात है? वह कौन सी चीज है जिसकी अनुपस्थिति में जनता के स्वतःस्फूर्त विद्रोहों, आन्दोलनों और कुर्बानियों का निष्फल होना निश्चित सा हो गया है। यह बात सिर्फ मिस्र के घटनाक्रम से नहीं पूरी दुनिया के अनेकों जगहों पर स्वतःस्फूर्त ढंग से फूट पड़ रहे जनता के आक्रोश से सामने आ रही है। 
  वस्तुत 2011 में जनता के विद्रोहों का जो नया सिलसिला आरम्भ हुआ था वह अभी थमा नहीं है। एक ओर तो पश्चिमी एशिया के उन देशों में जहाँ इस प्रक्रिया का आरम्भ हुआ था, यह अमेरिकी साम्राज्यवादी आकाओं और इलाके के भांति-भांति के प्रतिक्रियावादी शासकों की दखलंदाजी से विकृत से विकृततम रूप ग्रहण कर रहा है वहीँ दूसरी ओर दुनिया के पैमाने पर इसका फैलाव जारी है। खास कर संघर्ष के जिन रूपों को 2011 ने जन्म दिया था उन्हें दुनिया के हर नये देश में फूट पड़ रहे आन्दोलन ने अपनाया है। स्वतःस्फूर्त आन्दोलनों की नवीनतम कड़ी में ब्राजील और तुर्की का नाम शामिल हो गया है। जून 2013 में आरम्भ हुए ब्राजील के जनान्दोलन ने उस देश में इस पीढ़ी के विशालतम और सबसे महत्वपूर्ण विरोध प्रदर्शनों को अंजाम दिया है और देश की राजनीतिक व्यवस्था को हिला कर रख दिया है। इसके विस्फोटक फैलाव, आकार और पहुँच ने सरकार सहित पूरे राजनीतिक हलके को आश्चर्यचकित कर दिया। यह आन्दोलन किसी तानाशाह या निरंकुश सरकार के खिलाफ नहीं हुआ बल्कि ऐसे सरकार के खिलाफ हुआ है जो संविधानसम्मत तरीके से चुनी गयी है और एक सुधारवादी पार्टी ‘वर्कर्स पार्टी’ के नेतृत्व में 2003 से कायम है।
   इसी तरह जून के महीने में ही हुआ तुर्की के गेज़ी पार्क का आन्दोलन भी एक चुनी हुई सरकार के के खिलाफ था और अपने तौर-तरीकों और रूप के चुनाव में 2011 के पूर्ववर्ती आन्दोलनों से सादृश्य रखता था। लेकिन इन सभी आन्दोलनों की, यहाँ हमारा अभिप्राय 2011 से शुरू हुए स्वतःस्फूर्त आन्दोलनों की प्रक्रिया से है, एक और समानता उनके अन्तर्निहित कारणों की है। तुर्की, यूनान, ब्राजील, मिस्र और यूरोप के अन्य देशों में जिन आर्थिक कारणों ने व्यापक असंतोष को जन्म दिया और आन्दोलनों की जमीन तैयार की है उनका सीधा सम्बन्ध नव-उदारवादी नीतियों से है। एक तरह के ही जन असंतोष और स्वतःस्फूर्त आंदोलनों के रूप में उनके विस्फोट की विश्वव्यापी फैलाव का कारण समरूप आर्थिक नीतियों की विश्वव्यापी परिघटना में निहित है।
  निश्चित तौर पर जनता के ये विद्रोह सफलता और असफलताओं के थपेड़ों से शिक्षा ग्रहण करेंगे और कालान्तर में और परिपक्व होने की दिशा में बढ़ेंगे। हमें ऐसी ही उम्मीद करनी चाहिए। लेकिन हमें इस कड़वी हकीकत से भी मुँह नहीं मोड़ना चाहिए कि इन आन्दोलनों को अपने नेतृत्व के रूपों का विकास करना होगा। इसके लिए इन आन्दोलन के मौजूदा तदर्थ (या इण्टरनेट की भाषा में आभासी’) नेतृत्व को खुद को ‘‘सड़क की लड़ाई से सब कुछ तय होने’’ के मुगालते से बाहर निकालना होगा, आन्दोलन के दूरगामी लक्ष्यों के बारे में स्पष्टता हासिल करनी होगी और दूर दृष्टिसम्पन्न वास्तविक नेतृत्व के रूप में खुद को संगठित करना होगा। इसके लिए उन्हें विगत शताब्दी के क्रान्तियों के तौर तरीकों और नेतृत्व के रूपों से सकारात्मक-नकारात्मक शिक्षा ग्रहण करनी होगी।    
  सामाजिक माध्यम अच्छा है। उसकी आभासी दुनिया रमणीक है। यह भी सत्य है कि प्रचार और जन-गोलबन्दी में इसके इस्तेमाल में सावधानी की जरूरत तो है पर परहेज की गुञ्जाइश नहीं। लेकिन यह वास्तविक गोलबन्दी का और उसके वास्तविक नेतृत्व का विकल्प नहीं हो सकता है। जैसे राज्य और उसके अंग-उपांग—सेना, पुलिस, अदालत वगैरह आभासी नहीं है, उसी तरह उससे टकराने वाली संरचनाओं को भी वास्तविक होना होगा, और आने वाले समय के प्रतिनिधि के रूप में कहें तो, पतनोन्मुखी मौजूदा संरचनाओं से अधिक वास्तविक होना होगा।
 जनता की पहलकदमी का प्रस्फोट निश्चित तौर पर और हर स्थिति में स्वागतयोग्य है और नयी शताब्दी ने एक दशक बीतते न बीतते उसका शंखनाद कर दिया है। लेकिन जनता की पहलकदमी को यदि जनता के एक बेहतर भविष्य की विचारधारा और उस अनुरूप नेतृत्व की संरचनाओं के साथ नहीं मिलाया जाय तो वही परिणाम सामने आयेगा जो मिस्र और पश्चिम एशिया के अन्य देशों में सामने आ रहा है। एक ऐसी दुनिया जो सभी किस्म के प्रतिक्रियावादियों के आपसी मेलमिलाप व सामंजस्य और उनपर एक महाशक्ति के सर्वस्वीकृत प्रभुत्व के आधार पर चल रही है, यदि जनता की पहलकदमी को सही विचारधारा और सांगठनिक रूपों से मिलान नहीं किया जाय, तो अन्तिम योगफल में उनका फायदा उसी महाशक्ति को मिलेगा।
 (note: yah lekh 'red tulip' se sabhar prakashit hai. Devbrat sen ka nam galti se prakashi ho gaya hai.)

शनिवार, 3 अगस्त 2013

अयोध्या : तीन पीढ़ियां तीन दृष्टिकोण

                                               के पी सिंह, फैजाबाद 

हिंदुओं और मुसलमानों के बीच सदियों से चला आता आपसी भरोसा, अवध की अपनी तरह की अनूठी गंगा-जमुनी संस्कृति की देन है। इसमें मंदिर-मस्जिद विवाद के चलते आई दरारों को प्राय: उस शांति के मुलम्मे से ढक दिया जाता है, जो 2010 में आये हाईकोर्ट के फैसले के बाद भी भंग नहीं हुई। लेकिन, सांप्रदायिकता व कट्टरता के पैरोकार अब इस शांति के तिलिस्म को तोड़ने से भी बाज नहीं आ रहे। गत दशहरे पर अयोध्या के जुड़वां शहर व जिला मुख्यालय फैजाबाद के शहरी व ग्रामीण क्षेत्रों में कथित छेड़छाड़ की एक मामूली सी घटना के बहाने भड़काए गए उपद्रव और अभी 21 अपै्रल, 2013 को कचेहरी में अल्पसंख्यक वकीलों पर हमले इसकी मिसाल हैं। वैसे भी शांति तभी लंबी उम्र पाती है, जब उसे लोगों के दिल व दिमाग में स्वत:स्फूर्त ढंग से प्रवाहित होने दिया जाए और उसकी स्थापना भय, अविश्वास अथवा जोर-जबरदस्ती की बिना पर न की जाए!
...जब धुटने टेकेगा अन्याय: लाल मोहम्मद
जाने क्या बात है कि अयोध्या के कोटिया मोहल्ले के निवासी वयोवृद्ध लाल मुहम्मद की बूढ़ी आखों ने अभी भी उम्मीद का दामन नहीं छोड़ा है। भले ही मूर्तियां रखे जाने के बाद विवादित मस्जिद में बंद तालों को एक फरवरी, 1986 को मुसलमानों का पक्ष सुने बिना खोल दिया गया, ध्वंस के बाद विवादित ढांचे को उसकी जगह पर जस का जस खड़ा करने का प्रधानमंत्री का वादा पूरा नहीं हुआ और हाईकोर्ट का फैसला भी किसी परिणति तक नहीं पहुंच सका!
जन्नतनशीन रहीमुल्ला के एक दिसम्बर, 1936 को पैदा हुए बेटे लाल मोहम्मद 22-23 दिसम्बर, 1949 की उस रात के गिने-चुने प्रत्यक्षदर्शियों में से हैं, जब बाबरी मस्जिद में साजिशन मूर्तियां रखी गईं या रखने वालों की भाषा में कहें तो वहां भगवान राम का ‘प्राकट्य’ हो गया! लाल मोहम्मद बताते हैं कि तब वे होश संभाल रहे थे। 23 दिसंबर, 1949 की सुबह वे आम शुक्रवारों की तरह, अलबत्ता, थोड़े अंदेशे के साथ, खुद से 20-22 साल बड़े अपने मामू  मुन्नू के साथ मस्जिद में नमाज के लिए पहुंचे, तो पाया कि मूर्तियां रखने के लिए मस्जिद के मुअज्जिन मुहम्मद इस्माइल को रात में ही मारपीट कर भगा दिया गया, फिर निषेधाज्ञा लगा दी गई और सुबह होते-होते वहां तैनात पुलिस नमाजियों को अंदर जाने से रोकने लगी।
    इस पर एतराज करने वाले नमाजियों के साथ मुन्नू व लाल मोहम्मद को भी पुलिस ने बेरहमी से पीटा और गिरफ्तार कर जेल भेज दिया। फैजाबाद जेल में हुई सुनवाई में मजिस्ट्रेट द्वारा उन सबको महीने भर की कैद की सजा सुना दी गई और अलग-अलग जेलों में भेज दिया गया। लाल मोहम्मद की अवयस्कता पर भी रहम नहीं किया गया और उनको गोंडा जेल में यातनाओं के बीच बिना कसूर की सजा काटनी पड़ी। लाल मोहम्मद के लिए उस ‘रात’ की सुबह अभी तक नहीं हुई। 1949 में वे दर्जन भर रिक्शों के मालिक थे, जिनको चलवाने से इतनी आय हो जाती थी कि आराम से गुजारा हो सके, लेकिन अब उनके कुल मिलाकर सात बेटे-बेटियां मजदूरी करते हैं और उनके सिर पर छत के नाम पर बस एक झोपड़ी है। इस सबके लिए वे आम हिंदुओं को दोष नहीं देते। 1986, 1990 और 1992 के लिए भी नहीं। कहते हैं कि यह सब हिंदुओं को भरमाने व भटकाने का ‘अहलेदानिश’ का खेल है, जिसे सत्ताधीश, धर्माधीश व राजनीतिबाज मिलकर खेलते रहते हैं। 1949 में यह खेल इसलिए सफल हुआ कि मुसलमान देश का विभाजन कराने की तोहमत के बोझ से दबे हुए थे। 1986, 1990 व 1992 में इसलिए कि शौर्य दिवस, विजय दिवस मनाने वाले हिंदुओं को मालूम नहीं था कि उनके अपने ही नेता उन्हें ठग रहे हैं। लाल मुहम्मद के अनुसार ‘मुसलमानों को अभी भी दबाकर ही रखा जा रहा है! लेकिन बढ़ती चेतना के बीच बहुत दिनों तक उनकी हकतलफी संभव नहीं होगी। एक दिन ऐसा जरूर आयेगा, जब हक बात होगी और अन्याय हार मानने को मजबूर हो जाएगा।’
और भी गम हैं, जमाने में: अनुराग शर्मा
अयोध्या के जुड़वां शहर फैजाबाद में 6 जनवरी, 1971 को जनमे और वकालत व कंप्यूटर तक की पढ़ाई कर चुके युवा उद्यमी अनुराग वर्मा की उम्र 1986 में ताले खोले जाने के वक्त कमोबेश उतनी ही थी, जितनी 1949 में लाल मुहम्मद की। लेकिन उनका विद्रोही मन मंदिर-मस्जिद आंदोलन से जुड़ी कोई भी तारीख याद नहीं रखना चाहता। ताले खुले तो अनुराग हाईस्कूल में पढ़ते थे और समझ नहीं पा रहे थे कि जिस फैसले से दिलों की दूरियां बढ़ रही हैं और भाई-भाई के बीच दीवार खड़ी हो रही है, उसे लेकर दीपावली मनाने के पागलपन का हासिल क्या है? लेकिन 90-92 की हिंसा व हड़बोंग ने उनको विधिवत समझा दिया कि हमने देश बंटने के समय हुई भयावह हिंसा से भी कोई सबक नहीं सीखा। सीखते तो जान जाते कि मंदिर-मस्जिद के अलावा भी दुनिया में कई गम हैं और हिंसा या जोर-जबरदस्ती से विवाद हल नहीं होते, बल्कि और जटिल हो जाते हैं। अनुराग ने कहा, ‘मैं भूलूंगा नहीं, 92 में ध्वंस के बाद के कारसेवकराज में सूनी सड़क पर अपने बीमार दुधमुंहे भतीजे को अस्पताल से घर लाने के लिए विश्व हिंदू परिषद के स्वयंसेवकों से उनकी वैन में लिफ्ट मांगी तो उन्होंने मना कर दिया था। हिंदू होने का हवाला देने पर भी नहीं पसीजे थे, क्योंकि मैं दूसरी जाति से था! पिछले बीस वर्षों में अयोध्या में वह पीढ़ी भी जवान हो गई है, जिसने बाबरी मस्जिद में मूर्तियां रखी जाने से लेकर 1992 में उसके ध्वंस तक कुछ भी अपनी आंखों से नहीं देखा। इस पीढ़ी का आसमान तो पिछली पीढ़ी से अलग है ही, सपने, मंसूबे, विचार, नैतिकताएं, मान्यताएं और मूल्य आदि भी अलग हैं। अच्छे हैं या बुरे, इस पर अलग से बहस की जा सकती है। दुर्भाग्य से जीवनस्थितियों की जटिलताएं व अनिश्चितताएं इस पीढ़ी को आत्ममुग्धता, स्वार्थपरता, कुटिलता व मूल्यहीनता जैसी तोहमतों के हवाले करती जा रही हंै और वह न अपने पर्यावरण को दूषित होने से बचा पा रही है और न चेतनाओं को। इससे वह उम्मीद भी धुंधला रही है कि यह पीढ़ी उसे विरासत में मिले इस विवाद को सौमनस्य के किसी तार्किक बिंदु तक ले जाएगी।
पहचानती नहीं अभी राहवर को: भूमिका
 बीते दशहरे पर फैजाबाद में जो दंगे हुए, उनमें यही पीढ़ी ‘यूपी भी गुजरात बनेगा, फैजाबाद शुरुआत करेगा’ जैसे नारे लगाती और आगजनी व लूटपाट में सबसे अग्रणी भूमिका निभाती दिखी। इससे उन्हीं लोगों की बांछें खिलीं, जो उसके रूप में एक और पीढ़ी को सांप्रदायिक कट्टरताआें व जुनूनों के हवाले करना व लाभ उठाना चाहते हैं। संतोष की बात इतनी ही है कि इस पीढ़ी के भीतर से भी इसकी आलोचना के कुछ स्वर मुखर हैं।
    पूर्वी उत्तर प्रदेश के सबसे बड़े साकेत पीजी कालेज से ड्राइंग-पेंटिंग से एमए कर रही छात्रा भूमिका शायद इसीलिए सांप्रदायिक हिंदू-मुसलमानों को कबीर के शब्दों में लताड़ती हुई हैं-इन दोउन राह न पाई! तो अपनी पीढ़ी से इसलिए नाराज हैं कि वह इनसे पूछती नहीं है कि रास्ता पाने में अभी ये और कितना समय लेंगे? फिर कहती हैं कि शायद इसलिए नहीं पूछ पाती क्योंकि पुरानी पहचानों से विलग हो गई है, लेकिन अपनी कोई नयी पहचान बना नहीं पाई है। सो पहचान के संकट से जूझती हुई खुद भी रास्ता ही तलाश रही है, संक्रमणकाल में जा फंसी है और-चलती है थोड़ी दूर हर इक तेज रौ के साथ, पहचानती नहीं है अभी राहवर को यह!
   भूमिका सवाल उठाती हैं कि इस बात का क्या तुक है कि छ:दिसम्बर को ढहा दिए गए पूजास्थल की तो बीसवीं बरसी मनाई जाए, लेकिन यह तथ्य किसी को याद न आए कि उस दिन अयोध्या में सोलह ‘बाबर की संतानों’ को मार डाला गया था और उनके कई सौ घर जला दिए गए थे? उनके अनुसार यह पूजास्थल से बड़ा नुकसान था, पर इसकी न कोई एफआईआर दर्ज हुई और न कोई जांच हुई। किसी ने इसके लिए आवाज भी नहीं उठाई। वे पूछती हैं कि क्या धर्मों-संप्रदायों के विवाद में आदमियों की जानें इतनी फालतू हो जाती हंै कि उनके जाने का कोई नोटिस ही न लिया जाए? उनके प्रश्नों से उम्मीद बंधती है कि नई पीढ़ी किसी न किसी दिन इस विवाद को अवश्य ही उसकी व्यर्थता का अहसास करा देगी।

यह लेख मेरे ब्लॉग से उठाकर यहाँ भी प्रकाशित किया गया है-
http://www.janadesh.in/InnerPage.aspx?Story_ID=5921%20&Category_ID=16&Title=%E0%A4%A4%E0%A5%80%E0%A4%A8%20%E0%A4%AA%E0%A5%80%E0%A4%A2%E0%A4%BC%E0%A4%BF%E0%A4%AF%E0%A4%BE%E0%A4%82%20%E0%A4%A4%E0%A5%80%E0%A4%A8%20%E0%A4%A6%E0%A5%83%E0%A4%B7%E0%A5%8D%E0%A4%9F%E0%A4%BF%E0%A4%95%E0%A5%8B%E0%A4%A3

http://dainiktribuneonline.com/2012/12/%E0%A4%85%E0%A4%AF%E0%A5%8B%E0%A4%A7%E0%A5%8D%E0%A4%AF%E0%A4%BE-%E0%A4%B5%E0%A4%BF%E0%A4%B5%E0%A4%BE%E0%A4%A6-%E0%A4%A4%E0%A5%80%E0%A4%A8-%E0%A4%AA%E0%A5%80%E0%A4%A2%E0%A4%BF%E0%A5%9F%E0%A4%BE/

नोट : अयोध्या का पूर्वनियोजित था. जानने के लिए पढ़ें-http://www.thehindu.com/news/states/other-states/faizabad-violence-was-wellplanned-and-targets-had-been-selected/article4053796.ece