सोमवार, 11 फ़रवरी 2013

चौरी चौरा कांड : उपद्रव नहीं, किसान प्रतिरोध


चौरी चौरा कांड : उपद्रव नहीं, किसान प्रतिरोध
पुलिस थाने हमेशा ही जनता के दमन की प्रतीक रहे हैं। भारत में फैले ब्रिटिश साम्राज्य के लिए अंग्रेजों द्वारा स्थापित थाने दमनकारी भूमिका निभाते थे। ये थाने ब्रिटिश सरकार की शोषणकारी और जनविरोधी नीतियों को जनता के ऊपर जोर-जबरदस्ती से लागू करवाने में बहुत ही अहम भूमिका निभाते थे। उन्हें ही सबसे पहले जनता के गुस्से का भी शिकार बनना पड़ता था। 4 फरवरी 1922 को गोरखपुर के चौरी चौरा में यही हुआ, जब अंग्रेजों के जुल्म से तंग आकर आक्रोशित किसानों ने ब्रिटिश साम्राज्य के लिए (दमन के प्रतीक) चौरी चौरा थाने को फूंक दिया, जिसमें 22 पुलिस कर्मी मारे गए।
                           देवेन्द्र प्रताप
चौरी चौरा की घटना को अंग्रेजों ने भले ही  एकउपद्रवमात्र कहा हो, लेकिन इस घटना का भविष्य में देश के क्रांतिकारी आंदोलन पर गहरा प्रभाव पड़ा। क्रांतिकारी कार्रवाइयों के लिएउपद्रवशब्द बड़ा भ्रामक है। यह देश की आजादी के लिए हुए क्रांतिकारी आंदोलनों, विद्रोहों आदि के प्रति हमारे नजरिए को अंग्रेजों के जाने के बाद आज भी प्रभावित कर रहा है।
गोरखपुर का चौरी चौरा कांड आज भी अपने सही मूल्यांकन की बाट जोह रहा है। किसी भी आंदोलन, विद्रोह या क्रांति में से अगरचेतनाको निकाल दिया जाए, तो हर घटना एकउपद्रवही लगेगी। विद्रोह जहां उपनिवेशवाद से विरोध के संदर्भ में अपेक्षाकृत ज्यादा सकारात्मक शब्द है, वहीं उपद्रव पूरी तरह नकारात्मक शब्द है। मनुष्य की क्रांतिकारी चेतना का सबसे बेहतर प्रदर्शन किसी देश में क्रांति के रूप में दिखाई देता है, क्योंकि इसमेंसचेतनताका अंश ज्यादा होता है। यह नहीं भूलना चाहिए किउपद्रवके लिए भी आदमी कीचेतनाही जिम्मेदार होती है। यदि मनुष्य की इसचेतनाका कोई मूल्य है, तो उसकेउपद्रवका भी मूल्य होना चाहिए। ऐसा नहीं हो सकता कि चौरी चौरा के किसानों की भीड़ ने बिना किसी वजह के और बिना सोचे-समझे ही चौरी चौरा थाने को फूंक दिया होगा। मनुष्य की स्वाभाविक प्रतिरोध की इस चेतना का मूल्य आंकने के चलते ही ब्रिटिश साम्राज्यवाद के खिलाफ हुए सन्यासी विद्रोह, मोपला विद्रोह और यहां तक कि 1857 के पहले स्वतंत्रता संग्राम को भी एक विद्रोह कह दिया जाता है। इस चेतना का मूल्य आंकने के चलते कई इतिहासकार अपने विश्लेषण में इन विद्रोहों को लेकर ब्रिटिश साम्राज्यवादियों की दार्शनिक भाषा बोलने लगते हैं। इस तरह वे ब्रिटिश भारत में किसान प्रतिरोध की वास्तविक चेतना का मूल्य आंकने में विफल हो जाते हैं। गांधी जी भी चौरी चौरा के मामले में किसान प्रतिरोध की इस चेतना के साथ सही न्याय नहीं कर पाए, क्योंकि उन्होंने भी इसेउपद्रवके तौर पर ही लिया। यही वजह रही कि उन्होंने इस घटना के बाद असहयोग आंदोलन को बंद कर दिया। यह गोरखपुर में चौरी चौरा के क्रांतिकारी किसानों के लिए किसी दंड से कम नहीं था। अगर गांधी जी ने यह कदम नहीं उठाया होता तो शायद क्रांतिकारियों की एक धारा उनसे छिटककरहिन्दुस्तान रिपब्लिकन एसोसिएशनके गठन की ओर नहीं जाती। क्योंकि, चौरी चौरा कांड के बाद ही विस्मिल और अन्य क्रांतिकारी विचारों वाले युवाओं का गांधीवाद से मोहभंग हुआ। इसलिए भले ही उस समय ये क्रांतिकारी युवा गांधी से बहुत ही कम उम्र के थे या उन्होंने दुनिया कम देखी थी, लेकिन उन्होंने चौरी चौरा के किसान प्रतिरोध की चेतना को समझने में कोई भूल नहीं की। वे अपनी इस समझ को कहां तक विकसित कर पाए, यह अलग बात है, लेकिन उनका प्रस्थान बिंदु सही था। क्रांतिकारी चेतना का यह प्रस्थान बिंदुकाकोरी कांडके रूप में सामने आता है। इस तरह चौरी चौरा कांड ने काकोरी कांड के लिए वैचारिक धरातल पर धाय का काम किया। यह चौरी चौरा के बाद गांधीवाद से वैचारिक धरातल पर अलग हुए क्रांतिकारियों का सचेतन व्यवहार था। दूसरी ओर क्रांतिकारियों का यह कदम चौरी चौरा से एक कदम आगे था। चेतना समय सापेक्ष होती है। चौरी चौरा के समय किसानों की जो चेतना थी, काकोरी कांड के क्रांतिकारियों की चेतना उससे एक कदम आगे थी, जबकि एचएसआरए में यह अपने सर्वोत्कृष्ट रूप में प्रदर्शित होती है। जिस चौरा चौरी के क्रांतिकारी चेतना को अक्सर नजरअंदाज कर दिया जाता है, यह नहीं भूलना चाहिए कि कांग्रेस को दो फाड़ करने में इसका बहुत बड़ा योगदान था।
इतिहास के आइने में चौरी चौरा
गांधी जी के असहयोग आंदोलन के दौरान कार्यकर्ता शांतिपूर्वक जनता को जागरूक कर रहे थे। इस दरमियान 1 फरवरी, 1922 को चौरीचौरा थाने के एक दारोगा ने असहयोग आंदोलन के कार्यकर्ताओं की जमकर पिटाई कर दी। इस घटना पर अपना विरोध दर्ज करवाने के लिए लोगों का एक जुलूस चौरी चौरा थाने पहुंचा। इसी दरमियान पीछे से पुलिस कर्मियों ने सत्याग्रहियों पर लाठीचार्ज तथा गोलियां चलाई। जिसमें 260 व्यक्तियों की मौत हो गई। हर तरफ खून से सने शव बिखरे पड़े थे। इसी के बाद क्रांतिकारी किसानों ने वह किया, जिसे इतिहास में चौरी चौरा कांड के नाम से जाना जाता है।
मालवीय जी ने लड़ा ऐतिहासिक मुकदमा
चौरी चौरा कांड में कुल 172 व्यक्तियों को फांसी की हुई। अदालत के इस निर्णय के विरुद्ध पंडित मदनमोहन मालवीय और पंडित मोती लाल नेहरू ने इलाहाबाद उच्च न्यायालय में अपील की। मालवीय जी की जोरदार अपीलों के चलते 38 व्यक्ति  बरी हुए, 14 को फांसी की जगह आजीवन कारावास हुआ, जबकि 19 व्यक्तियों की फांसी बरकरार रही। बाकी सत्याग्रहियों को तीन से लेकर आठ साल की सजा मिली। कुल मिलाकर मालवीय जी फांसी के सजा पाए 170 लोगों में से 151 को छुड़ाने में सफल रहे।
चौरी चौरा के शहीद
2 जुलाई 1923 को फांसी पर लटकाए गए क्रांतिकारियों में अब्दुल्ला उर्फ सुकई, भगवान, विकरम, दुधई, कालीचरण, लाल मुहम्मद, लौटू, महादेव, लाल बिहारी, नजर अली, सीताराम, श्यामसुंदर, संपत रामपुर वाले, सहदेव , संपत चौरावाले, रुदल, रामरूप, रघुबीर और रामलगन के नाम शामिल हैं।
शहीदों की याद में डाक विभाग की मुहर
चौरी चौरा कांड के शहीदों की याद में गोरखपुर के चौरीचौरा डाकघर ने एक विशेष प्रकार की विशेष मुहर जारी की है। मोहर के बीचोंबीच लिखा है- ‘असहयोग आंदोलन चौरी-चौरा कांड 4 फरवरी 1922 मोहर के किनारे लिखा है-‘ब्रिटिश साम्राज्य भयभीत, क्रांतिकारी आंदोलन की शुरुआत, वंदे मातरम।

4 टिप्‍पणियां:

  1. पुलिस चौकी में आग लगाना किसानो ने केवल दंगो के कारण नहीं किया था उन्होने उन पर हुये समान व्यवहार का आईना अंग्रेज़ो को दिखाया था जिससे वे डर गये थे लेकिन गांधी जी ने युवा वर्ग का साथ नहीं दिया https://www.jivaniitihashindi.com/chauri-chaura-incident-history-%E0%A4%9A%E0%A5%8C%E0%A4%B0%E0%A5%80-%E0%A4%9A%E0%A5%8C%E0%A4%B0%E0%A4%BE-%E0%A4%95%E0%A4%BE%E0%A4%82%E0%A4%A1/

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