गुरुवार, 2 फ़रवरी 2012

उद्योगों की उपेक्षा अमरीका का आत्मघाती कदम, भारत यह भूल न करे

  डा. बनवारी लाल शर्मा
 दुनिया को विकास का पाठ पढ़ाने वाले विकसित देश -अमरीका और यूरोपीय संघ आज दुनिया को मुँह दिखाने लायक नहीं रहे हैं। बात पुरानी नहीं है, कोई 30 साल पहले 1980 में अमरीका के तत्कालीन राष्ट्रपति रोनाल्ड रीगन और ब्रिटेन की आयरन लेडी प्रधानमंत्री मारगरेट थैचर ने शिकागो स्कूल के अर्थशास्त्री मिल्टन फ्रीडमैन के साथ दुनिया को विकास का मंत्र दिया था जिसे वाशिंगटन आमराय (वाशिंगटन कान्सेन्सस) कहा गया।  इसके तहत दुनिया को विकास की सीढ़ी पर चढ़ने के लिए उदारीकरण, भूमण्डलीकरण और निजीकरण का रास्ता बताया गया। विश्व बैंक और मुद्राकोष के कर्ज के चाबुक से फिर बाद में विश्व व्यापार संगठन-डब्लूटीओ के ताकतवर कोड़े से ना-नुकर करते देशों को इस रास्ते पर धकेला गया। दुनिया भर के देशों के बाजार खोल दिये गये इन धनी देशों के कारपोरेटों के लिए। कई सदियों तक अपने उपनिवेश स्थापित करके दुनिया को लूटने वाले इन औद्योगिक देशों को फिर से लूटने का नया मौका मिल गया, राज्य उपनिवेशवाद की जगह कारपोरेट उपनिवेशवाद कायम करके। लूट की इस नयी कारपोरेटी व्यवस्था में एक पोल रह गयी जो इस औद्योगिक देशों के लिए आत्मघाती सिद्ध हो रही है। सस्ते श्रम वाले गरीब देशों के बाजार खुल जाने के बाद अमरीका और यूरोप के औद्योगिक देशों के कारपोरेटों ने अपने उद्योगों को ‘डिलोकलाज’ करना शुरू कर दिया, यानी उद्योगों का मैन्यूफैक्चरिंग भाग तीसरी दुनिया के देशों में कराना चालू कर दिया। वहाँ सस्ते श्रम और कमजोर श्रम और पर्यावरणीय कानूनों का लाभ उठाकर खूब मुनाफा कमाया। इसे अर्थशास्त्र के तुलनात्मक लाभ के सिद्धान्त से उचित ठहराया। 
नतीजा यह हुआ है कि कारपोरेटों को सस्ता श्रम मिल जाने के कारण मुनाफा तो हुआ, पर अमरीका और यूरोप के देशों के रोजगार नष्ट होते गये और डि-इण्डस्ट्रलाइजेशन (अनौद्योगीकरण) शुरु हो गया। इन कारपोरेटों ने सस्ता सामान बनवाकर उसे अपने देश (और अन्य देशों में) खपाने के लिए भारी विज्ञापन किया और आम लोगों के दिमाग में खूब लालच भरा। नतीजन, इन देशों के नागरिक उत्पादन तो कम करते हैं, पर उपभोग खूब करते हैं। इस अजीबोगरीब हालात के कुछ नमूने देखें। अमरीका में पैनसैल्वानिया राज्य में, रीडिंग नामक एक शहर है। यह मजदूरों के शहर के नाम से मशहूर था। तरह-तरह के उद्योग, खासतौर से स्टील के कारखाने यहाँ चलते थे। 86,000 की आबादी वाले इस शहर में 1993 से 2005 के बीच 20 कारखानों पर ताला पड़ गया। इन कारखानों में हरेक में 300 से लेकर 4000 मजदूर काम करते थे। अमरीका के सेंसस ब्यूरों के अनुसार, यह शहर अमरीका का सबसे गरीब शहर हो गया है, यहाँ 41.3 प्रतिशत निवासी गरीबी रेखा के नीचे हैं। हालात ये हैं कि ग्रेटर बकर््स फुड बैंक संस्था इन गरीब लोगों को मुफ्त खाद्य सामग्री बाँटती है। कपड़े, जूते, कारें जैसे सामान बनाने वाली और बड़ी संख्या में रोजगार देने वाली कम्पनियो जैसे नाइक, एडिडास, रीबाॅक आदि ने अपना 100 प्रतिशत उत्पादन कारोबार विदेशों जैसे ंबंगलादेश, हाँगकाँग, चीन,  अमरीका और यूरोप में बेरोजगारी और अर्धबेरोजगारी का कारण उद्योगों को अन्य देशों में भेजना तो है ही, एक और कारण भी है। इन देशों की अर्थव्यवस्थाओं में उद्योग के स्थान पर वित्तीय और सेवा क्षेत्र ;पिदंदबम ंदक ेमतअपबम ेमबजवतेद्ध को ज्यादा बढ़ावा दिया है। वित्तीय क्षेत्र में सट्टेबाजी के कारण अस्थिरता आयी और फिर ज्यादा मुनाफा कमाने के चक्कर में बड़ी-बड़ी बैंकों और बीमा कंपनियों ने गलत नीतियाँ अपनायी जिससे 2007 से वित्तीय संकट पैदा हो गया। सर्विस सैक्टर में सूचना तकनीक ;प् ज्द्ध का ज्यादा बोलबाला है। पर इसमें विदेशों में सस्ते श्रम वाले काॅलसेंटरों में रोजगार ट्रान्सफर हो गया।
    इन धनी देशों के कारपोरेट भस्मासुर बन गये हैं। अब ये अपने ही देशों को घूल चटा रहे हैं। हालात ऐसे बन गये हैं कि कम्पनियाँ और बैंकों को तो बेल आउट देना ही पड़ रहा है, देश भी दिवालिया हो गये हैं, उन्हें भी बड़े-बड़े बेलआउट दिये जा रहे हैं। ग्रीस, पुर्तगाल, इटली, आयरलेंड के उदाहरण सामने हैं। सबसे बड़ा नुकसान हुआ है रोजगारों का। भयंकर बेरोजगारी इन दुनिया के चैधरी कहलाने वाले देशों में फैल रही है। अमरीका में 9-10 प्रतिशत है, यूरोप में तो 20 प्रतिशत के आस पास है। काफी समय तक इसे बर्दाश्त करने के बाद लोगों का धीरज अब टूट गया है और लोग अमरीका और यूरोप में सड़क पर उतर आये हैं। आॅक्यूपाई वाल स्ट्रीट आदि आन्दोलन इसी के नतीजे हैं। यों तो भारत सरकार अमरीका को अपना आदर्श मानती है पर उससे सबक नही ले रही है। भारत भी वही गलती कर रहा है जो अमरीका ने की है। भारत में भी उद्योगों का विनाश हो रहा है। देशी-विदेशी बड़े कारपोरेटों के हाथ में अर्थव्यवस्था थमाने से छोटे-मझोले उद्योग खत्म हो चले हैं। मैन्यूफैक्चरिंग के बड़े उद्योगों का विकास गिर रहा है। जहाँ औद्योगिक विकास दर 12-13 प्रतिशत थी, वह इस समय 2-3 प्रतिशत पर आ गयी है। विदेशों, खासतौर से चीन के बने सामानों ने भारत के बाजार पाट दिये हैं। कौन सा सामान बचा है जो चीन से न आता हो? दीपावली के दिये और गणेश-लक्ष्मी भी तो चीन के बने आ रहे हैं। अमरीका की तर्ज पर भारत के कारपोरेट भी विदेशों में पूंजी निवेश करने में ज्यादा दिलचस्पी दिखा रहे हैं।  यहाँ भी सरकार वित्तीय और सर्विस क्षेत्र पर ज्यादा ध्यान दे रही है। खेती की उपेक्षा तो हो ही रही थी, मैन्यूफैक्चरिंग क्षेत्र भी पिट रहा है। इन सबका कुल मिलाकर नतीजा यह है कि देश में बेरोजगारी आसमान छू रही है। उस पर महँगाई ने आग में घी डालने का काम किया है। खुदरा बाजार में विदेशी पूंजी निवेश 51 प्रतिशत करके बेरोजगारी को और बढ़ाने का काम होगा और परिस्थिति विस्फोटक हो सकती है।  इस देश को अमरीकी-यूरोपीय माॅडल को फेंक देना होगा, कृषि को अधिक लाभकारी बनाना होगा और कृषि से सम्बद्ध छोटे मझोले उद्योगों को बढ़ावा देना होगा, तभी देश की बेरोजगारी दूर होगी और देश खुशहाल बनेगा।

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