रविवार, 30 अक्तूबर 2011

क्रांति को प्रेम से क्या खतरा है

क्रांति और प्रेम एक सिक्के के दो पहलू हैं. क्रांति प्रेम से ही पनपती है. दुनिया की बड़ी-बड़ी क्रांतियां प्रेम की वजह से ही हुई हैं. चाहे देश प्रेम हो या फिर किसी के प्रति प्रेम. ऐसे में एक क्रांतिकारी को प्रेम हो जाए तो इसमें ग़लत क्या है? जबसे यह ख़बर आई है कि आर्म्ड फोर्सेस स्पेशल पावर एक्ट को मणिपुर से हटवाने के लिए पिछले 11 सालों से आमरण अनशन कर रहीं 39 वर्षीय इरोम शर्मिला को ब्रिटिश मूल के देसमोंड कोटिंहो से प्यार है, मानो भूचाल आ गया हो. मणिपुर के लोग इस ख़बर से ख़़फा हैं. आख़िर क्यों?
मामले की शुरुआत तब हुई, जब कोलकाता से प्रकाशित होने वाले एक अख़बार ने शर्मिला के उस बयान को सार्वजनिक किया, जिसमें उन्होंने यह स्वीकार किया था कि उन्हें ब्रिटिश मूल के देसमोंड कोटिंहो से प्यार है. यह ख़बर बीते 5 सितंबर को आई थी. 48 वर्षीय देसमोंड लेखक एवं सामाजिक कार्यकर्ता हैं. शर्मिला ने कहा था, जिसे मैं प्यार करती हूं, वह मेरा बेसब्री से इंतज़ार कर रहा है. वह यहां मुझसे मिलने आया था, मगर मेरे समर्थकों ने मना कर दिया. एक साल से पत्र द्वारा उनका देसमोंड  से संपर्क चल रहा है. पिछले 9 मार्च को शर्मिला और देसमोंड के बीच एक अल्प समय की मुलाक़ात हुई थी. देसमोंड द्वारा लिखे पत्र शर्मिला ने अपने बेड के बगल में एक कॉर्ड बॉक्स में संभाल कर रखे हैं. शादी को लेकर पूछे गए एक सवाल के जवाब में शर्मिला कहती हैं, मैं तभी शादी करूंगी, जब मेरी मांग पूरी हो जाएगी. उन्होंने कहा कि वह (देसमोंड) ब्रिटिश सिटीजन होने के नाते हमारे रिश्ते को मना कर रहे हैं. शर्मिला नाराज़गी मिश्रित लहज़े में कहती हैं, वह बहुत एकपक्षीय और निर्दयी हैं.
इधर शर्मिला के समर्थक अख़बार में छपी यह ख़बर देखते ही भड़क गए और उन्होंने उक्त अख़बार की प्रतियां जलाते हुए इस ख़बर का विरोध किया. शर्मिला के समर्थकों का मानना है कि 11 सालों से आर्म्ड फोर्सेस स्पेशल पावर एक्ट-1958 को लेकर आमरण अनशन कर रहीं शर्मिला के बारे में मुख्य धारा के किसी भी अख़बार ने जब आज तक कोई पॉजिटिव स्टोरी नहीं छापी, तो उनके निजी जीवन की बातों को इतना उछालने की क्या ज़रूरत है. जस्ट पीस फाउंडेशन ऑफ मणिपुर के अध्यक्ष एवं शर्मिला के भाई इरोम सिंहजीत ने कहा कि शर्मिला भी एक इंसान हैं और कोई भी इंसान प्रेम कर सकता है. इसमें ग़लत क्या है? उनके संघर्ष पर फोकस न करके उसकी निजी ज़िंदगी पर ज़्यादा फोकस किया जा रहा है. गृहमंत्री पी चिदंबरम द्वारा अफसपा क़ानून में संशोधन से संबंधित ताजा बयान पर सिंहजीत ने कहा कि शर्मिला की मांग साफ है, अफसपा हटाया जाना चाहिए, न कि उसमें संशोधन हो. सिंहजीत ने कहा कि अगर अन्ना हजारे मणिपुर में पैदा होते तो उनकी मांगों को भी सरकार न सुनती, चुप रहती.  हालांकि मणिपुर में प्रेम विवाह के 95 प्रतिशत मामलों को समर्थन मिलता है, बावजूद इसके इस राज्य में किसी सामाजिक कार्यकर्ता को प्यार होने पर आपत्ति जताना अटपटा लगता है. क्या शोषित और पीड़ित लोगों की सेवा में अपना जीवन बिताने वाली शर्मिला को एक आम इंसान की तरह किसी से प्यार नहीं हो सकता? यह एक निजी मामला है. इंसान प्यार न करे तो कौन करेगा. यह एक इंसानी फितरत है. शर्मिला कहती है कि ग़रीब, शोषित और पीड़ितों के लिए लड़ना और आवाज़ उठाना एक अलग चीज है और प्यार एक अलग चीज है. दोनों अलग-अलग काम हैं. इससे मेरे संघर्ष पर कोई असर नहीं पड़ेगा. मेरी मांग जब तक पूरी नहीं होगी, तब तक मेरा अनशन जारी रहेगा. देसमोंड और हमारे बीच दोस्ती है, यह मैं मानती हूं, मगर इससे मेरे संघर्ष पर कोई फर्क़ नहीं पड़ने वाला. मैं भी एक मनुष्य हूं, मुझे एक मनुष्य की नज़र से देखिए, शर्मिला के रूप में देखिए.
(Pardes blog se sabhar)

शनिवार, 29 अक्तूबर 2011

आधुनिक दासता

डा. डेविड सी. कार्टेन
‘‘आधुनिक और सम्पन्न’’ उत्तर में भी लाखों कामगारों की दुर्दशा का वर्णन शुरुआती औद्योगिक क्रान्ति के दिनों की याद दिलाता है। आधुनिक सम्पन्न सान फ्रान्सिस्को की ठेके की वस्त्रों की दुकानों के हालातों के वर्णन पर विचार कीजिए: ज्यादातर दुकानें अंधेरी, ठसाठस भरी और बिना खिड़की वाली हैं- 12 घण्टे दिन का काम, कोई छुट्टी का दिन नहीं और केवल दोपहर के भोजन के लिए अन्तराल, यह सामान्य बात है। और इस धनी कास्मोपोलिटन नगर में अनेक दुकानों में राक्षसी नियम लागू होते हैं जो उन्नीसवीं सदी की याद दिलाते हैं। ‘‘कामगारों को आपस में बातें करने की इजाजत नहीं थी, और वे हमें शौचालय जाने की इजाजत नहीं देते थे।’’ यह बात एक एशियाई वस्त्र कामगार ने कही। निर्माताओं में सबसे नीची कीमतों की सौदेबाजी करने के जोश का बयान रखते हुए खाड़ी क्षेत्र के 600 सिलाई के ठेकेदार गलाकाट प्रतिस्पर्धा में जुटे रहते हैं जो अक्सर डार्विनीय तल तक दौड़ होती है। निर्माताओं के पास बोलियों को नीचा रखने की एक और शक्तिशाली चिप होती है। सान फ्रान्सिस्को में अन्तरराष्ट्रीय महिला वस्त्र कारीगर संघ की प्रबन्धक केटीक्वान इसकी व्याख्या इस प्रकार करती हैं। ‘वे कहती हैं अगर आप इसे नहीं लेते तो हम उसे जहाज द्वारा विदेशों में भेज देंगे और आपको काम नहीं मिलेगा और आपके कारीगर भूखे मरेंगे। 1992 में अमेरिका के संरक्षण वाले देश सैपान में श्रम विभाग द्वारा वस्त्रों की दुकानों की जाँच में श्रमिकों के हालात बँधुआ गुलामों के समान पाये गये। चीनी कामगारों, जिनके पासपोर्ट जब्त कर लिये गये थे, सप्ताह में 84 घण्टे काम करते थे और न्यूनतम से भी कम वेतन पाते थे। भूगोल द्वारा परिभाषित दक्षिण और उत्तर में हालातों के बीच की रेखा लगातार और अधिक धूमिल होती जाती है। 20 वर्षीय वस्त्र कारीगर डोर्का डियाज पहले होण्डुराज में अमरीका आधारित बहुराष्ट्रीय कम्पनी लेजली फे में काम करती थी। उसने अमरीकी प्रतिनिधि सभा की श्रम-प्रबन्धन सम्बन्धों की उपसमिति के सामने बयान दिया कि वह लेजली फे के लिए होण्डुराज में 12-13 साल की लड़कियों के साथ काम करती थी। उन्हें एक फैक्ट्री में बन्द करके ताला लगा दिया जाता था। फैक्ट्री के अन्दर तापमान अक्सर 100 डिग्री पहुँच जाता था और वहाँ पीने के लिए साफ पानी नहीं था। हफ्ते में 54 घण्टे काम करने के लिए उसे 20 डालर से थोड़ा सा ज्यादा वेतन मिलता था। वे और उसका 3 साल का बेटा लगभग भूखे रहते थे। अप्रैल 1994 में मजदूर संघ संगठित करने के आरोप में उसे निकाल दिया गया। दक्षिण अफ्रीका में तायवान की मालकियत वाली स्वैटर फैक्ट्री में एक घण्टे के पचास सेण्ट की मजदूरी पर बुनाई मशीन पर काम करने वाली अश्वेत महिलाओं ने जब यह जाहिर किया कि नेलसन मण्डेला के चुनाव के बाद उन्हें मजदूर संगठन बनाने, बेहतर वेतन पाने और थोड़ा सा सम्मान पाने की आशा है तो तायवानी मालिकों ने अपनी सात अफ्रीकी फैक्टरियाँ अचानक बन्द कर दीं और 1000 कारीगरों की छुट्टी कर दी। अफ्रीका में वेतनमान कम है फिर भी वे ब्राजील या मैक्सिको के वेतनमानों के दूने हैं और थाईलैण्ड या चीन के वेतनमानों से कई गुना अधिक हैं।5 इस बात को ध्यान में रखते हुए कि दक्षिण में संभावित विदेशी निवेशक आशंकित हो गये हैं, न्यूयार्क टाइम्स ने सुझाव दिया, ‘‘सरकार पूँजीवाद के प्रति लम्बी अवधि के लिए निष्ठावान रहेगी, इस पर सन्देह है। इस पर भी सन्देह है कि अपोषित बहुसंख्यक लोगों की आशाओं को पूरा कर पायेंगे।’’ बड़ी पूँजी और लाखों डालर मुआवजों के पैकेजों की दुनिया में लालच काम करेगा। दक्षिण के अनेक देशों में यह कहना अतिशयोक्ति नहीं होगी कि हालात गुलामी के कगार पर पहुँच चुके हैं। विदेशी निवेशकों और कारपोरेशनों का चहेता देश चीन बन गया है क्योंकि वहाँ सस्ता श्रम है और अति नीची कीमतों पर कच्चा माल मिल जाता है। चीन के फैक्टरी मजदूरों के हालात पर बिजनेस वीक ने लिखा है, ‘‘चीन के तटवर्ती प्रदेशों में विदेशी पूँजी से चल रहे कारखानों में 60 लाख चीनी लोग काम करते हैं। इन कारखानों में दुर्घटनाएँ बहुत होती हैं। कुछ कारखानों में कामगारों को सजा दी जाती है, पीटा जाता है, नंगा करके तलाशी ली जाती है और यहाँ तक कि काम के घण्टों में शौचालय जाने की मनाही कर दी जाती है। फ्यूजियान प्रदेश के जियामिन शहर की एक विदेशी मालकियत वाली कम्पनी में कुल मजदूरों की तादात का दसवाँ भाग यानी 40 मजदूरों की पुरानी पड़ गयी मशीनों से अंगुलियाँ कट गयीं। सरकारी रिपोर्ट के मुताबिक पिछले साल गुआनडोंग में 45000 औद्योगिक दुर्घटनाएँ हुईं जिनमें 8700 लोगों की जानें गयी। पिछले महीने एक गुआनडोंग कारखाने में 70 मजदूर मारे गये। यों तो बताया गया है कि चीन की सरकार मानकों में कसावट लाने की कोशिश कर रही है, परन्तु जब से उसने बाजार की शक्तियों को मुक्त करने का निर्णय लिया है, वह भारी बेरोजगारी की समस्या का सामना कर रही है। करोड़ों ग्रामीण मजदूर शहरों की ओर रोजगार की तलाश में जा रहे हैं। 1994 के मध्य में शहरी बेरोजगारी 50 लाख थी जो एक साल में 25 प्रतिशत बढ़ गयी। केवल 1993 में हेलोंगजियांग प्रांत में 20 लाख कामगारों का रोजगार छिन गया। लाखों शहरी कामगार वेतन में कटौती का सामना कर रहे हैं। सरकारी उद्यमों में शहरों का लगभग आधा कार्यबल रोजगार पाता है। इन उद्यमों में धन घट रहा है जिससे भारी छँटनी के और कारखानों के बन्द होने के आसार बन रहे हैं। अपराधों और भ्रष्टाचार की ऊँची दर के कारण मानकों में कसावट लाने के लिए ‘‘इस मुक्त बाजार चमत्कार’’ में सरकार के प्रयत्नों में रुकावट आ रही है। बांग्लादेश में कपड़ों की सिलाई के कारखानों में अनुमानित 14 साल से कम के बच्चे ज्यादातर लड़कियाँ अनुमानित 80,000 प्रति सप्ताह कम से कम 60 घण्टे काम करती हैं। गिनती में या अन्य प्रकार की गलतियाँ करने पर उनके पुरुष सुपरवाइजर उनकी पिटाई करते हैं या उन्हें फर्श पर मुर्गा बना देते हैं या 10 से 13 मिनटों तक सिर के बल खड़ा होने को मजबूर करते हैं। यह मामला केवल कपड़ों की सिलाई उद्योग में ही नहीं है। भारत में 5.5 करोड़ से ज्यादा बच्चे दासता के हालातों में काम करते हैं, इनमें से ज्यादातर बंधुआ मजदूर एक तरह के गुलाम की तरह अत्यन्त दयनीय हालात में काम करते हैं। हर बच्चे की अपनी ही कहानी है। बंधुआ मुक्ति के कुछ महीनों बाद देवानन्दन ने एक पत्रकार को बताया कि जब वह स्कूल को जा रहा था तो उसे यह वायदा करके फँसाया गया कि एक करघे पर 2 घण्टे काम करके उसे 100 डाॅलर प्रति माह मिलेंगे। जब वह राजी हो गया तो उसे एक कमरे में ताले में बन्द कर दिया। जहाँ वह खाना खाता था, सोता था और सबेरे चार बजे से देर शाम तक हर दिन कुछ पेनियों पर काम करता था। भारत के पूर्व मुख्य न्यायाधीश श्री पी. एन. भगवती ने 14 से 20 घण्टे रोज काम करने वाले बच्चों के प्रमाण सार्वजनिक रूप से दिये हैं। उन्हें पीटा जाता है, लाल गर्म छड़ों से दागा जाता है और पेड़ों से उलटा लटका दिया जाता है। भारत का कालीन उद्योग हर साल 30 करोड़ डाॅलर का निर्यात करता है और यह निर्यात मुख्यतः संयुक्त राज्य और जर्मनी को होता है। ये कालीनें 300,000 बच्चों द्वारा बनायी जातीं हैं जो हर रोज 14 से 16 घण्टे, हफ्ते में सात दिन और साल में 52 हफ्ते काम करते हैं। इनमें से अनेक बंधुआ मजदूर हैं जो अपने माता-पिता के कर्ज का भुगतान करने के लिए बेच दिये गये हैं या छोटी जाति के माता-पिता के घर से उनका अपहरण कर लिया गया है। उनमें से जो भाग्यशाली हैं, उन्हें मामूली सा वेतन मिल जाता है। जो अभागे हैं, उन्हें कोई भी वेतन नहीं मिलता। कालीन निर्माता यह तर्क देते हैं कि पाकिस्तान, नेपाल, मोरोक्को और अन्य स्थानों के उद्योग से मुकाबला करने के लिए उन्हें बालश्रम का सहारा लेना पड़ता है क्योंकि इन देशों में भी बालश्रम का इस्तेमाल होता है। भूमण्डलीकृत प्रतिस्पद्र्धी दुनिया में जैसे ही हम तल तक दौड़ में घुसते हैं तो यह समझदारी होगी कि हम यह ध्यान में रखें कि यह तल कितना गहरा है जिसमें हम दौड़ रहे हैं।
(डेविड सी. कार्टन अमरीकी शोधकर्ता हैं जिन्होंने 'व्हेन कारपोरेशन रूल द वर्ल्ड' पुस्तक लिखी
है। उसी पुस्तक से सह लेख लिया गया है)

शुक्रवार, 28 अक्तूबर 2011

रामकथा के विभिन्न रूप पर एतराज किसे है ?

सुभाष गाताडे
शिक्षा संस्थान और सैनिक स्कूलों में क्या फरक होता है। शिक्षा संस्थान जहां उसमें दाखिला लेनेवाले छात्रों में ज्ञान हासिल करने का जज्बा पैदा करते हैं, स्वतंत्रा चिन्तन के लिए उन्हें तैयार करते हैं, उनकी सृजनात्मकता को नए पंख लगाने में मुब्तिला होते हैं, वही सैनिक स्कूलों की कोशिश ऐसे इन्सानरूपी रोबोट(यंत्रामानव) बनाने की होती है, जो सोचें नहीं बस्स अपने सीनियरों के आदेशों पर अमल करने के लिए हर वक्त़ तैयार रहें। लाजिम है कि विचारद्रोही प्रवृत्तियां समाज में जबभी हावी होती हैं हम यही पाते हैं कि वे शिक्षा संस्थानों और सैनिक स्कूलों के फरक को मिटा देना चाहती हैं। वे ऐसे माहौल को बनाना चाहती हैं कि ज्ञान हासिल करने की पहली सीढ़ी - हर चीज़ पर सन्देह करने की प्रवृत्ति - से शिक्षा संस्थान में तौबा किया जा सके और वहां आज्ञाकारी रोबो का ही निर्माण हों। दिल्ली के अकादमिक जगत में इन दिनों जारी विवाद को लेकर यही कहने का मन करता है। और इसका ताल्लुक कन्नड एवं अंग्रेजी भाषा के मशहूर कवि, नाटककार एवं विद्वान प्रोफेसर ए के रामानुजन (1929-1993) के उस चर्चित निबन्ध ‘थ्री हंड्रेड रामायणाज्: फाइव एक्जाम्पल्स एण्ड थी्र थाटस आन ट्रान्सलेशन’ से है जिसमें दक्षिण एवं दक्षिण पूर्व एशिया में विद्यमान रामायण कथाओं की विभिन्न प्रस्तुतियों की चर्चा की गयी है। अपने अनुसन्धान में उन्होंने यह पाया था कि विगत 2,500 वर्षों में दक्षिण एवं दक्षिणपूर्व एशिया में रामायण की चर्चा अन्य तमाम अन्य भाषाओं , समूहों एवं इलाकों में होती आयी है। मालूम हो कि अन्नामीज, बालीनीज, बंगाली, कम्बोडियाई, चीनी, गुजराती, जावानीज, कन्नड, कश्मीरी, खोतानीज, लाओशियन, मलेशियन, मराठी, उड़िया, प्राकृत, संस्कृत, संथाली, सिंहली, तमिल, तेलगु, थाई, तिब्बती आदि विभिन्न भाषाओं में रामकथा अलग अलग ढंग से सुनायी जाती रही है। उनके मुताबिक तमाम भाषाओं में रामकथा के एक से अधिक रूप मौजूद हैं। उन्होंने यह भी पाया था कि संस्कृत भाषा में भी 25 अलग अलग रूपों में (महाकाव्य, काव्य, पुराण, पुरानी दन्तकथात्मक कहानियां आदि) रामायण सुनायी जाती रही है। वैसे यह बात सर्वविदित ही है कि दक्षिण एव दक्षिण पूर्व के देशों में रामकथाओं का प्रभाव किसी न किसी रूप में आज भी दृष्टिगोचर होता है। मिसाल के तौर पर इंडोनेशिया जैसे मुस्लिमबहुल मुल्क में सड़कें, बैंक, ट्रैवेल एजेंसीज, या अन्य उद्यम मिलते हैं, जिनके नाम रामायण के पात्रों पर रखे गए हैं। लोकसंस्कृति में भी किस हद तक रामकथा का वजूद बना हुआ है इसे एक उदाहरण से समझा जा सकता है। इण्डोनेशिया में बच्चे के जनम पर ‘मोचोपाट’ नामक समारोह होता है। अगर परिवार हिन्दु है तो वह धार्मिक आयोजन कहलाता है और अगर परिवार गैरहिन्दु है तो उसे संस्कृति के हिस्से के तौर पर आयोजित किया जाता है। ‘मोचोपाट’ में एक जानकार व्यक्ति लोगों के बीच बैठ कर रामायण के अंश सुनाता है, और फिर श्रोतागणों में उस पर बहस होती है। कभी कभी यह आयोजन दिन भर चलता है। मकसद होता है परिवार में जो नया सदस्य जनमा है वह रामायण के अग्रणी पात्रों की तरह बने। आठवीं-नववीं सदी में इण्डोनेशिया में पहुंची रामायण कथा जावानीज भाषा में लिखी गयी थी। सवाल यह उठता है कि एक सच्चे भारतीय के लिए - रामकथा के यह विभिन्न रूप, जिसने अलग-अलग समुदायों, समूहों में पहुंच कर अलग अलग रूप धारण किए हैं- यह हक़ीकत किसी अपमान का सबब बननी चाहिए, या मुल्क की बहुसांस्कृतिकता, बहुभाषिकता, बहुविधता को ‘सेलेब्रेट’ करने का एक अवसर होना चाहिए। साफ है कि ऐसे लोग जो भारत की साझी विरासत की हक़ीकत को आज तक जज्ब़ नहीं कर पाए हैं और भारत का भविष्य अपने खास इकहरे एजेण्डा के तहत ढालना चाह रहे हैं, उन्हें रामायण के इन विभिन्न रूपों की मौजूदगी की बात को कबूल करना भी नागवार गुजर रहा है और इसलिए उन्होंने इसे आस्था के मसले के तौर पर प्रोजेक्ट करने की कोशिश की है। मालूम हो कि विश्वविद्यालय के इतिहास विभाग के अध्यापकों की अनुशंसा पर वर्ष 2006 में इस निबन्ध को पाठयक्रम में शामिल किया था। वर्ष 2008 में हिन्दुत्ववादी संगठनों की छात्रा शाखा ने इसे लेकर विरोध प्रदर्शन किया। उनका कहना था कि इस निबन्ध का पाठयक्रम से हटा देना चाहिए। अन्ततः मामला सुपी्रम कोर्ट पहुंचा तब उसके निर्देश पर चार सदस्यीय कमेटी बनायी गयी, जिसके बहुमत ने यह निर्णय दिया कि प्रस्तुत निबन्ध को छात्रों को पढ़ाया जाना चाहिए, सिर्फ कमेटी के एक सदस्य ने इसका विरोध किया। मामला वही खतम हो जाना चाहिए था, मगर जानबूझकर इस मसले को अकादमिक कौन्सिल के सामने रखा गया, जहां बैठे बहुलांश ने अपने होठों को सीले रखना ही मंजूर किया। फिलवक्त ‘बहुमत’ से इस निबन्ध को पाठयक्रम से हटा दिया गया है। प्रस्तुत विवाद को लेकर प्रख्यात कन्नड साहित्यकार प्रो यू आर अनन्तमूर्ति के विचार गौरतलब हैं ‘‘ भारत ने हमेशा ही श्रृति, स्मृति और पुराणों में फरक किया जाता रहा है। अलग अलग आस्थावानों के लिए अलग अलग ढंग की श्रृतियां हैं, जो वेदों, कुराणों की तरह लगभग अपरिवर्तित रहती हैं। दूसरी तरफ स्मृति और पुराण गतिमान होते हैं और समय एवं संस्कृति के साथ बदलते हैं। भास जैसे महान कवियों ने महाभारत की समूची समस्या को बिना युद्ध के हल किया। यह बात विचित्रा जान पड़ती है कि आधुनिक दौर में धार्मिक विश्वासों एवं आचारों का व्यवसायीकरण एवं विकृतिकरण किया जा रहा है। हमारे पुरखे आस्था/विश्वासों की जिस विविधता को सेलिब्रेट करते थे, उस सिलसिले को हम लोगों ने छोड़ दिया है।’ सवाल निश्चित ही महज एक निबन्ध का नहीं है। यह सोचने एवं तय करने की जरूरत है कि शिक्षा संस्थानों में पाठयक्रम तय करने का अधिकार अध्यापकों का अपना होगा या वहां दखलंदाजी करने की राज्य कारकों या गैरराज्यकारकों को खुली छूट होगी। निबन्ध को लेकर खड़ा विवाद दरअसल इस बात का परिचायक दिखता है कि अकादमिक संस्थानों में विचारों के सैन्यीकरण का दौर लौट रहा है, जिस पर आस्था का मुलम्मा चढ़ाया जा रहा है। अभी ज्यादा दिन नहीं बीता जब शिवसेना के शोहदों ने मुंबई विश्वविद्यालय में पढ़ाये जा रहे रोहिण्टन मिश्त्री  के उपन्यास ‘सच ए लांग जर्नी’ को हटाने में कामयाबी हासिल की थी, तो कुछ अन्य अतिवादी तत्वों ने सुप्रीम कोर्ट के आदेश के बावजूद जेम्स लेन की ‘शिवाजी’ पर प्रकाशित किताब पर सूबा महाराष्ट्र में अघोषित पाबन्दी लगा रखी है। ऐसे सभी लोग जो शिक्षा संस्थानों को खास ढंग से ढालना चाहते हैं उन्हें इस वर्ष के नोबेल पुरस्कार विजेताओं पर निगाह डालनी चाहिए। इस वर्ष का रसायन का नोबेल इस्त्राएली मूल के डैनिएल शेश्टमान को क्वासिक्रिस्टल्स की खोज को लेकर मिला है, जिसने पदार्थ की स्थापित धारणाओं को भी चुनौती दी है। मालूम हो कि जब प्रोफेसर शेश्टमान ने पहली दफा यह संकल्पना रखी तो ऐसा वाहियात विचार रखने के लिए विश्वविद्यालय ने उन्हें रिसर्च ग्रुप छोड़ने के लिए कहा, मगर वह डटे रहे। सभी मानवीय ज्ञान क्या मानव की इसी अनोखी आदत से विकसित नहीं हुआ है, सभी चीजों पर सन्देह करो। निश्चित ही शिक्षा संस्थानों को कुन्द जेहन रोबोट के निर्माण की फैक्टरी के तौर पर देखनेवाले लोग इस सच्चाई को कैसे जान सकते हैं !

शनिवार, 22 अक्तूबर 2011

कारपोरेट विरोधी विश्वलहर: भारत में एक बेसुरा राग

बनवारी लाल शर्मा
पिछले तीस साल से वाशिंगटन आमराय की घोषणा पत्र के बाद भूमण्डलीकरण, उदारीकरण और निजीकरण की नीतियों को विश्व बैक, अंतरराष्ट्रीय मुद्राकोष, विश्व व्यापार संगठन और दुनिया की ताकतवर तिकड़ी संयुक्त राज्य अमरीका, यूरोपीय संघ औ जापान ने दुनिया पर लादा है और जो कारपोरेटी कहर दुनिया ने झेला है, उसके खिलाफ अब पूरी दुनिया में एक एक करके विरोध की आवाजे उठने लगी है। 1984 में दुनिया की सबसे बडी कारपोरेट त्रासदी भोपाल गैस काण्ड में प्रकट हुई तभी से भारत के कुछ संवेदनशील समाजकर्मी आजादी बचाओ आंदोलन के नाम से कारपोरेट जगत का लगातार विरोध कर रहे है और जहां उनकी ताकत बन जाती है वहां से कारपोरेटों को उखाड भी रहे हैं। 1995 में मैक्सीको में मुद्रा संकट के आते ही लातिनी अमरीका में एक के बाद एक देश में कारपोरेटों के खिलाफ संघर्ष तेज हुए और महाद्वीप ने कारपोरेट समर्थक सत्ताओं का सफाया करके नयी जन समर्थक सरकारें गठित की उस महाद्वीप में तो कारपोरेटों ने एक देश अर्जेण्टीना को दिवालिया देश घोषित करा दिया था। कारपोरेट विकास माडल ने दुनिया में मन्दी, महंगाई, बेरोजगारी, भुखमरी और गैर बराबरी फैलादी है। पिछले 10 महीने से कारपोरेट विरोधी लहर उत्तरी अफ्रीका, मध्य एशिया और लातिनी अमरीका में फैल गयी है। ट्यूनीशिया से शुरू हुआ महंगाई, बेरोजगारी और अधिनायकवाद के खिलाफ युवाओं का आंदोलन मिश्र, यमन, सीरिया और लीबिया तक फैल गया है। ट्यूनीशिया, मिस्र और लीबिया में आंदोलनकारियों ने तानाशाहों की गददी उखाड दी है और उन्हें देश से बाहर भागने या जेल में सीकचों में बंद करने या मौत के घाट उतारने के लिए मजबूर कर दिया है। इजराइल में लाखों लोग महगाई के खिलाफ सडकों पर निकल आये हैं। जापान में फुकूशिमा हादसे के लिए जिम्मेदार न्यूक्लियर कंपनी के खिलाफ दसियों हजार जापानी नागरिकों की सड़कों पर उतर पडें है। पिछले पाँच महीने से चिली में विद्यार्थी कुशिक्षा और महंगाई के खिलाफ आदोलन कर रहे हैं। यूरोप में तो इन दिनों घमासान मचा हुआ है। कारपोरेट कंपनियों और बैंकों की बदौलत ग्रीस, पुर्तगाल, आयरलैड, स्पेन, इटली जैसे देश दिवालिया होने के कगार पर है। एक तरफ महंगाई बेरोजगारी से आम आदमी की जिंदगी दूभर कर दी है तो दूसरी तरफ डूबती बैंकों कम्पनियों को बेल आउट किया जा रहा है। दुनिया के अन्य कोनों से भी ऐसी खबरे आ रही है हांलांकि कारपोरेट नियंत्रित मीडिया ऐसी खबरों को दबाता है।
कारपोरेट विरोध की ताजी नयी कड़ी
भस्मासुर को सिर पर हाथ रखते ही भस्म करने की ताकत देने के बाद जब भस्मासुर ने शिव के ही सिर पर हाथ रखने की अजमायश की तो शिव इधर उधर भागने लगे। ठीक वैसे ही संयुक्त राज्य अमरीका ने कारपोरेटों को लालच फैलाकर लूट करने की ताकत दी, वे ही कारपोरेट अब अमरीका पर ही अपना जादू अजमाने लगे है और अब अमरीकी सड़क पर निकलने लगे हैं। कारपोरेटों का मक्का न्यूयार्क की वाल स्ट्रीट है। सभी बडी कम्पनियां वाल स्ट्रीट के स्टाॅक मार्केट में रजिस्टर होती है और वहीं से उनकी ताकत नापी जाती है। वाल स्ट्रीट की कम्पनियां ही अमरीकी और पूरी दुनिया की अर्थव्यवस्था को तो नियंत्रित करती ही है, वे अमरीका की राजनीति को भी चलाती है। जो वाल स्ट्रीट कम्पनियां जार्ज बुश के शासन को नियंत्रित कर रही थीं वे ही बराक ओबामा के शासन पर हावी है। इसलिए मंदी की तरफ से बडे़ बडे़ कारपोरेटों, बैकों और कंपनियों को बचाने के लिए बुश ने बेलआउट में हजारों अरब डालर दिये, ओबामा ने भी वही किया। एक तरफ बैंको और कंपनियों को सरकारी मदद दी जा रही है मंदी से बचाने के लिए, वहीं आज अमरीकी बेरोजगारी की मार झेल रहा है। तीन साल तक अमरीकियों ने सहा पर अब सब्र का बंध टूट गया है। १५ सितम्बर से वालस्टीट घेरो आन्दोलन शुरू कर दिया है। आन्दोलनकारी कह रहे है कि वाल स्ट्रीट यानी उसकी कंपनीयों से कारपोरेटी लालच, बेरोजगारी और महंगाई अमरीका में फैली है जिससे जनजीवन तबाह हो गया है। यह आंदोलन अमरीका के अन्य शहरों वाशिंगटन डीसी, बोस्टन, सान फ्रान्सिस्कों, लास एंजलिस, बाल्टीमोर, मेमफिस में भी फैल गया है। पिछले 3-4 दिन से वाल स्ट्रीट घेरों की तर्ज पर डीसी का विरोध करो आंदोलन वाशिंगटन से शुरू हो गया है। पहले दिन कोई 200 प्रदर्शनकारियों ने व्हाइट हाउस पर मार्च किया पर अब पूरे देश से लोग वाशिंगटन आने लगे है। आंदोलनकारियों ने ऐलान किया है कि यह आंदोलन 4 महीने तो चलेगा ही। अमरीका से शुरू हुआ कारपोरेट विरोधी आन्दोलन दुनिया के 82 देशों के 941 शहरों में फैल गया है। सब जगह आन्दोलन अहिंसक है, केवल रोम में हिंसा भड़क उठी है। विश्वभर में एक राग, भारत में एक बेसुरा राग: भारत में कारपोरेटी लूट और गुलामी के खिलाफ आजादी बचाओ आंदोलन और अन्य कई संगठन संघर्ष कर रहे हैं। न्यूक्लियर प्लांटों के खिलाफ फतेहाबाद (हरियाणा) कूडनकुलम (तमिलनाडु), जैतापुर (महाराष्ट्र), मीठीबिरडी (गुजरात) में आंदोलन चल रहे है। हजारीबाग नेल्लोर (आंध्र प्रदेश), छिदंवाडा (म0प्र0), चन्द्रनगर (विदर्भ), और कटनी (म0प्र0) मे थर्मल पावर प्लाटों और कोयले की खदानों के खिलाफ किसान संघर्षरत है ; पोस्कों के खिलाफ उडीसा में आंदोलन चल रहा है तो भूमि अधिग्रहण के खिलाफ ग्रेटर नोयडा बडे़ बांधों के खिलाफ उत्तरखण्ड में आंदोलन चल रहे हैं। जगह जगह किसान अपनी जमीन बचाने के लिए लड़ रहे हैं और पुलिस की गोली से शहीद हो रहे हैं। ऐसे परिदृश्य में एक कानून बनवाने के लिए बेसुरा राज अन्ना टीम ने छेड़ दिया है और देश केन मध्यवर्गीय क्षेत्र में भटकाव की स्थिति पैदा कर दी है। कारपोरेटी मीडिया के समर्थन पर खड़ा किया गया यह भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन बडी चतुराई से भ्रष्टाचार की जननी कारपोरेट को बचाता हुआ भ्रष्टाचार की दाई की ओर निशाना साध रहा है। उदाहरण के लिए हाल के हिसार लोकसभा उपचुनाव में अन्ना की टीम के सरकारी दिमाग वाले और एन.जी.ओ. संस्कृति वाले नेता वहां के जीवन के हमेशा के लिए संकट में डालने वाले परमाणु प्लांट के खिलाफ एक शब्द भी नहीं बोले जबकि पिछले 425 दिनों से किसान वहां धरने पर बैठे हुए हैं और तीन किसान शहीद हो गये हैं। भ्रष्टाचार हटाने का कोई कार्यक्रम देने में असफल नेता एक पार्टी को हराने का एकमात्र कार्यक्रम कर रहे है। मजे की बात यह है कि बीच बीच में कारपोरेट घरानों के संगठन भी भ्रष्टाचार खत्म करने की आवाज उठाते हैं। यह सही है कि अन्ना के आंदोलन ने देश में चल रहे जमीनी आंदोलनों को क्षति पहुंचायी है। जमीनी आंदोलन दुनिया में उठी कारपोरेट विरोधी लहर में शामिल होकर निर्णायक लडाई में कामयाब होंगे।
(अन्तरराष्ट्रीय ख्याति के गणितज्ञ प्रो0 बनवारी लाल शर्मा, आजादी बचाओ अन्दोलन के राष्ट्रीय संयोजक
हैं)

मंगलवार, 11 अक्तूबर 2011

आर पार के मुकाम पर है सुजुकी मजदूरों की लड़ाई


साथियों,

भारत में सुजुकी कारपोरेशन की स्वामित्व वाली गुडग़ांव स्थित तीनों कंपनियों की पांच फैक्टरियों में से चार में हड़ताल आज, 10 अक्टूबर, 2011 को भी जारी रही और उनमें उत्पादन पूरी तरह ठप रहा। इन चारों फैक्टरियों में मजदूर पूर्ववत् फैक्टरी के अंदर धरने पर बैठे रहे। हालांकि सुजुकी प्रबंधन द्वारा मजदूरों के हिंसा में लिप्त होने और कुछ मजदूरों को हड़ताल से ''मुक्त'' करवाने की झूठी खबरों को फैलाया जा रहा है, इसका मजदूरों पर मनोबल और एकता पर कोई असर नहीं पड़ा है।
मारुति सुजुकी इण्डिया लि. के प्रबंधन द्वारा पिछले 30 सितम्बर की मध्य रात्रि को हुए समझौते के उल्लंघन करने, मजदूरों का उत्पीडऩ जारी रखने और उन्हें सबक सिखाने की कोशिश के विरोध में आरम्भ हुई इस हड़ताल नें अलग-अलग फैक्टरियों तथा स्थायी और अलग-अलग किस्म के अस्थायी मजदूरों के बीच ऐसी एकता को जन्म दिया और मजबूत किया है जो इस इलाके के मजदूर आंदोलन के इतिहास में अभूतपूर्व है। सुजुकी प्रबंधन मजदूरों की इस एकता को ही तोडऩे की हर सम्भव कोशिश कर रहा है। कल, यानी 9 अक्टूबर को, सुजुकी मोटरसाइकिल इण्डिया प्रा., लि. परिसर में ठेकेदार तिरुपति एसोसिएट से जुड़े हुए गुण्डों द्वारा मजदूरों पर हमला करने की उकसावे की कार्रवाई उसके इसी कोशिश का हिस्सा है। वे यह प्रयास कर रहे हैं कि किसी तरह मजदूरों की इस जायज हड़ताल को एक ''कानून व्यवस्था'' का मुद्दा बनाकर प्रशासन की दखलंदाजी को आमंत्रित किया जाए। लेकिन कल सुजुकी मोटरसाइकिल में उनकी यह कोशिश नाकाम साबित हुई है। मजदूरों के प्रतिनिधि द्वारा लगातार कोशिश करने के बाद आखिरकार पुलिस को एफआइआर दर्ज करने और दो अपराधियों को गिरफ्तार करने को मजबूर होना पड़ा है। हालांकि इस मामले में शुरू में हरियाणा पुलिस का रवैया भी हीला-हवाली का था। लेकिन ठेकेदार के गुण्डों द्वारा की गई कार्रवाई इतनी स्पष्ट तौर पर उकसावे भरी थी कि पुलिस को आखिरकार कार्रवाई करने पर मजबूर होना पड़ा। और मीडिया के अधिकतर हिस्से ने भी घटनाक्रम के उसी रूप को ही प्रकाशित करना पड़ा, जो सही था।
मारुति सुजुकी के मजदूरों की लड़ाई अब ऐसी जगह पर पहुंच गई है जहा पीछे हटने की कोई गुंजाइश नहीं है और सामने जो कुछ है वह आर पार की लड़ाई है। इस लड़ाई में सुजुकी की तीन अन्य फैक्टरियों के मजदूरों ने भी अपने रोजी रोटी और भविष्य को दांव पर लगा दिया है। मजदूरों के बीच भाइचारे का इससे अच्छा उदाहरण मिलना सम्भव नहीं है। ऐसे में वे सभी लोग जो मजदूरों के युगांतरकारी शक्ति और एकता पर विश्वास करते हैं, यह कर्तव्य बन जाता है कि इस लड़ाई को सफलता के मुकाम तक पहुंचाने में अपनी पूरी ताकत लगा दें। क्योंकि, जैसा कि, हमने पहले भी कहा है, यह एक ऐसी लड़ाई है जिसपर सिर्फ मारुति सुजुकी या फिर सुजुकी कारपोरेशन के मजदूरों के भविष्य का फैसला नहीं होने वाला है बल्कि इस पूरे इलाके में मजदूर आंदोलन के भविष्य की दशा दिशा भी तय होने वाली है। पूंजी के एकतरफा हमलावर रवैये के वर्तमान दौर में गुडग़ांव के मजदूरों ने जिस एकता और संयम का प्रदर्शन किया है वह निश्चित तौर पर वह सराहनीय है। और उनके इस संघर्ष को चौतरफा सहयोग और समर्थन दिया जना चाहिए।
हम एक बार फिर सभी राजनीतिक और सामाजिक संगठनों, बुद्धिजीवियों, छात्रों, युवाओं, नागरिकों और समाज के विभिन्न तबके के लोगों को मजदूरों के इस संघर्ष का समर्थन करने और उन्हें हर तरह का सहयोग प्रदान करने की अपील करते हैं। मारुति-सुजुकी के संघर्षरत साथियों को कोई भी आर्थिक सहयोग 'मारुति सुजुकी एम्प्लाइज यूनियन' के द्वारा इस्तेमाल किये जा रहे निम्न खाते में भेजें :
Account no. 002101566629
IFSC code: ICIC0000021
SHIV KUMAR
ICICI Bank,
Branch- Gurgaon, Sector-14, Haryana, India.

मारुती सुजुकी मजदूरों के आंदोलन का तीसरा चरण


अंजनी कुमार
मारूती सुजुकी, मानेसर के मजदूर एक बार फिर 7 अक्टूबर 2011 से आंदोलन की राह पर हैं। 32 दिन के हड़ताल के बाद 30 सितंबर 2011 को हुए समझौते अमल को अभी हफ्ता भर भी नहीं गुजरा कि एक बार फिर मारूती सुजुकी के प्लांट न. 2 पर प्रबंधन ने 1200 मजदूरों को गेट के भीतर आने से रोक दिया। यह एक लाकआउट की तरह है। ऐसा पिछली बार भी इसी तरह का लाकआउट किया गया था। उस समय प्रबंधन ने काम करने वाले सारे ही मजदूरों को बाहर कर दिया था। इस बार पहली षिफ्ट के सारे मजदूर अंदर थे। उन्होंने बाहर निकाले गए मजदूरों के पक्ष में काम रोक दिया और परिसर से बाहर जाने से इंकार कर दिया। यह खबर मारूती सुजुकी के अन्य प्लांट तक पहुंची और मानेसर स्थित सुजुकी पावरट्रेन इंडिया प्रा. लि., सुजुकी मोटरसाइकल इंडिया प्रा. लि. व मारूती सुजुकी इंडिया लि. के मजदूरों ने काम ठप्प कर दिया। मारूती सुजुकी प्रबंधन समझौते के बावजूद हड़ताल पर गए मजदूरों को वापस लेने को तैयार नहीं है। प्रबंधन न केवल हड़ताल कर रहे मजदूरों पर पुलिस-प्रशासन से बलप्रयोग के लिए उकसा रहा है साथ ही वह नीजी गंडों का भी खुला प्रयोग कर रहा है। प्रबंधन एक तरफ समझौते के मुताबिक बर्खास्त 44 मजदूरों को प्रक्रिया द्वारा वापस लेने की बात कर रहा है और दूसरी और समझौते की स्याही सूखी भी न थी कि 1200 मजदूरों को निकाल बाहर कर दिया। मजदूरों में गुस्सा स्वभाविक था। आज मानेसर में स्थित मारूती सुजुकी के पांचों प्लांट में हजारों मजदूर हड़ताल पर हैं और वहां काम ठप्प है। प्रबंधन ठेकेदारों के माध्यम से लाए गए मजदूरों से जोरजबरदस्ती कर काम कराने की जुगत में है और इसके लिए वह मजदूरों को हिंसा के लिए उकसा भी रहा है पर मजदूरों की एकता के सामने इस तरह के प्रयोग अभी तक सफल नहीं हो सके हैं। इस बीच प्रबंधन प्रेस बयान में फैक्टरी के अधिकारी व मजदूरों पर हड़ताली मजदूरों द्वारा हमले में घायल होने को बार बार दोहरा रहा है पर इस बयान की सच्चाई को अभी तक पेश नहीं कर पाया है। एक भी घायल सुपरवाइजर, प्रबंधक अधिकारी या काम पर लगे मजदूर को न तो अस्पताल में और न ही पुलिस डायरी में दर्ज किया गया है। हां, इस बीच सुजुकी मोटरसाइकल प्लांट में ठेकेदारों ने प्रबंधकों के शह पर मजदूरों पर पिस्टल व बीयर की बोतल से हमला जरूर किया जिसमें तीन मजदूरों को चोट आई। इस संदर्भ में ठेकेदार की गिरफ्तारी भी हुई है। यह मारुती सुजुकी प्रबंधन ही है जो न तो मजदूर, प्रबंधन व सरकार के प्रतिनीधियों के बीच हुए समझौते को लागू कर रहा है और न ही मजदूरों के किसी भी तरह के अधिकार को मान्यता देने को तैयार है। हर बार सरकार के दबाव में मजदूरों पर न केवल शर्तें लादी गई साथ ही उनके पुराने अधिकार भी छीन लिए गए। हर समझौता उपलब्धि के बजाय हार की तरह हुआ। पर प्रबंधन सारा दोष मजदूरों पर लाद कर फैक्टरी में ठेकेदारों के माध्यम से ठेका मजदूर प्रथा पर श्रम के लूट को अपनी संपन्नता में बदलने पर आतुर है। इसके पहले 29 अगस्त 2011 से 30 सितंबर २०११ के बीच मारूती सुजुकी प्लांट न. 2 में मुख्यतः इसी में काम करने वाले मजदूरों ने लाकआउट के खिलाफ एकजुट होकर खिलाफत किया। इस दौरान अन्य पांच प्लांट के मजदूरों ने दो दिन का कामबंदी किया था। गुडगांव व दिल्ली के मजदूर यूनियनों ने मजदूरों के पक्ष में एकजुट होकर हरियाणा सरकार पर लाकआउट को खत्म करने का दबाव बनाया। अंततः प्रबंधन, हरियाणा सरकार प्रतिनिधि व मजदूर प्रतिनिधियों की उपस्थिति में 1 अक्टूबर 2011 को तय हुआ कि सभी मजदूर 3 अक्टूबर 2011 से अपने अपने शिफ्ट के अनुसार काम पर आएंगे। 3 से 6 अक्टूबर के बीच ऐसा क्या हुआ जिससे एक बार फिर मजदूर आंदोलन की राह पर गए। मारूती सुजुकी प्रबंधन का दावा है कि मजदूर काम में जानबूझकर बाधा डाल रहे हैं और उन्हें समझौते के अनुसार वे इस तरह की कार्यवाई नहीं कर सकते। प्रबंधन ने यह भी दावा किया हड़तालियों बहुत से मजदूर हिस्सेदार नहीं हैं और हड़ताली मजदूर इन काम रहे मजदूरों पर हमला कर रहे हैं और काम में बाधा डाल रहे हैं। प्रबंधन इस बात को नहीं बता रहा है कि 6 अक्टूबर 2011 दूसरी शिफ्ट में आ रहे 1500 मजदूरों में से 1200 मजदूरों को गेट के अंदर काम पर आने से क्यों रोक दिया। इन मजदूरों में से अधिकांश कैजुअल मजदूर हैं। प्रबंधन यह नहीं बता रहा है कि वह या तो इन मजदूरों की छंटनी कर था या कंपनी का एक बार फिर लाकआउट कर रहा था। अंदर काम कर रह सशंकित मजदूरों ने शाम 4 बजे से काम रोक दिया और कंपनी परिसर से बाहर निकलने से मना कर दिया। इन मजदूरों के समर्थन में मानेसर में सुजुकी से जुड़े सभी प्लांट के मजदूरों ने काम रोक दिया और परिसर से बाहर जाने से इंकार कर दिया। इस बार हड़ताल व्यापक रूप
लेकर आया है।
8 अक्टूबर 2011 को मारूती सुजुकी प्रबंधन ने प्रेस को बताया कि 355 कांट्रेक्ट मजदूरों को हड़ताली मजदूरों ने बुरी तरह पीटा है। बहरहाल 9 अक्टूबर तक इस संदर्भ में किसी मजदूर की गिरफ्तारी नहीं हुई थी और न ही किसी घायल मजदूर के भर्ती होने की खबर आई। पर 9 अक्टूबर की सुबह में सुजुकी मोटरसाइकल प्लांट में हड़ताल कर रहे मजदूरों पर गंुडों ने षराब की बोतलों से हमला जरूर किया जिसमें 3 मजदूर बुरी तरह घायल हुए। इन गंुडों ने हवा में पिस्टल से फायरिंग भी किया। सुजुकी के मजदूर खिड़की दौला थाना में प्रबंधन व उन गुंडों के खिलाफ एफआईआर दर्ज कराने के लिए थाने के सामने षाम 5 बजे तक इकठ्ठा रहे पर थानेदार ने मामला दाखिल करने से मना कर दिया। अंततः मजदूर इस संदर्भ में कमिश्नर को एक प्रपत्र ही सौंप पाये। इससे इतना पता चलता कि माहौल को प्रबंधक हिंसक रास्ते पर ले जाना चाहता है और इसके लिए वह मजदूरों को दोषी ठहरा देने के लिए दांवपेंच कर रहा है। 9 अक्टूबर 2011 को हड़ताल कर रहे मजदूरों से बातचीत से इतना तो जरूर पता चलता है कि फैक्टरी के भीतर कामकाज को प्रबंधन ने काफी पेचिदा बना रखा है। जून के महीने में 13 दिन के हड़ताल के बाद प्रबंधन ने मजदूरों की मूल मांग यूनियन बनाने का अधिकार को स्वीकार नहीं किया और इसे लंबित रखा। लेकिन मजदूरों से 26 दिन मुफ्त काम कराने की स्वीकृति जरूर ले लिया और इसे लागू भी किया। इसके बाद लगभग डेढ़ महीने के भीतर प्रबंधन ने चुनकर 58 मजदूरों को नौकरी से बाहर कर दिया जिसमें से 15 को वापस न लेने का नोटिस जारी कर दिया था। फैक्टरी के मजदूरों को गिरफ्त में लेने के लिए प्रबंधन ने 29 अगस्त को लाकआउट कर दिया और नई भर्ती लेने की घोषणा कर दिया। मजदूरों की एकजुटता व 32 दिनों के संघर्ष के बाद एक बार फिर समझौता हुआ। इस बार ४४ मजदूरों को बर्खास्तगी पर रखा गया जिसमें मारूती सुजुकी इंप्लाईज यूनियन के नेतृत्व व पदाधिकारी षामिल हैं। सभी मजदूरों से गुड कंडक्ट पर हस्ताक्षर करने की अनिवार्यता को लादा गया। यूनियन की मान्यता नहीं दी गई। इस समझौते के बाद काम के दूसरे दिन 4 अक्टूबर को मजदूरों को लाने के लिए बस नहीं भेजी गई। मजदूरों ने बताया कि 95 प्रतिशत मजदूर के काम का स्टेशन यानी वह जिस काम को पहले से करते आ रहे थे व जिसमें उनकी खूबी बनी हुई है उससे हटाकर दूसरे तरह के काम दिए गए। इससे एक तरफ मजदूरों को काम करने में दिक्कत आ रही थी और साथ ही उनकी उत्पादकता भी प्रभावित हो रही थी। प्रबंधन इस बात का फायदा यह आरोप लगाने में कर रहा था कि मजदूर अपना काम नहीं कर रहे हैं और काम में जानबूझकर बाधा डाल रहे हैं। मजदूरों ने बताया कि प्रबंधन ने गुड कंडक्ट फार्म के अतिरिक्त फार्म पर हस्ताक्षर कराया जिसमें 32 दिन के काम के बदले 64 दिन मुफ्त में काम करने की बाध्यता थी। 6 अक्टूबर को 44 बर्खास्त मजदूरों को वापस लेने के बजाय प्रबंधन ने 1200 मजदूरों को ही बाहर कर दिया। प्रबंधन मजदूरों को बड़े पैमाने पर कांट्रेक्ट पर रखता है। इससे इन मजदूरों को नियमित करने व उनके प्रति दायित्व से बच निकलता है। मारुती सुजुकी के मानेसर प्लांट के लिए ऐसे कांट्रेक्टरों की संख्या 52 है जो सस्ते में प्रबंधन को मजदूर मुहैया कराते हैं। कांट्रेक्ट मजदूर पिछले समय से चले आ रहे हड़ताल में सक्रिय भागीदारी करते रहे हैं। इस बार प्रबंधन इन मजदूरों को ही काम से निकाल दिया
है जिससे कि आगे आने वाले कांट्रेक्ट मजदूर हड़ताल जैसी कार्यवाईयों से अलग रहें। साथ ही ऐसे ही ठेकेदारों के द्वारा 9 अक्टूबर को हड़ताल कर रहे मजदूरों पर हमला भी करवाया। लेकिन हर बार की तरह इस बार भी मजदूर डरने के बजाय आंदोलन का रास्ता चुनना ही बेहतर समझा। मजदूरों को विभिन्न श्रेणियां में बांटकर अकूत मुनाफा कमाने वाली इस कारपोरेट कंपनी हर बार जितना ही शातिराना रास्ता अख्तियार कर रही है मजदूरों का आंदोलन उतना ही व्यापक व गहरा हो रहा है। इस बार का हड़ताल मजदूरों के सामने कई सारी चुनौतियों के साथ आया है। मजदूरों के एक कदम पीछे हटने का फायदा प्रबंधन उस पर दस तरह
के षर्तों को लादकर जोर जबरदस्ती कर मजदूरों के काम के हालात को बद से बदतर बनाता गया है और उन्हें श्रम करने की मषीन में तब्दील कर देने का पूरा जोर लगाया है। हरियाणा की सरकार ने इसमें काफी सहयोग भी किया है। लेकिन इसके साथ मारूती सुजुकी के आम मजदूरों व उनके नेतृत्व को यह बात भी समझ में आया है कि एकता, एकदूसरे पर भरोसा, अन्य संगठनों से मोर्चा बनाकर प्रबंधन इनके तानेबाने के खिलाफ कैसे लड़ा जाय। प्रबंधन अपने अकूत मुनाफे में मजदूरों को किसी तरह की हिस्सेदारी नहीं देना चाहेगा। इसके लिए वह न तो यूनियन की मांग को स्वीकार करेगा और न ही राजनीतिक चेतना से लैस लोगों
को वह फैक्टरी के भीतर रहने देगा। ऐसे में निश्चय ही वह न केवल हिंसा का सहारा लेगा साथ ही वह राज्य मशीनरी का भी प्रयोग करेगा। मजदूरों व नागरिक समाज का यह दायित्व है कि न केवल प्रबंधन के इस तरह के षडयंत्र के खिलाफ एकजुट हो साथ ही मजदूरों के हक के पक्ष में उनके संघर्ष में हिस्सेदारी करे।
(अंजनी कुमार स्वतंत्र पत्रकार हैं )

रविवार, 9 अक्तूबर 2011

रामलीला मैदान से ‘लिबरेशन पार्क’ तक


देवेन्द्र प्रताप
इस समय एक तरफ जहां दुनिया में सुपर पॉवर की हैसियत रखने वाला अमेरिका आर्थिक मंदी के तले दबा चीख रहा है, अमेरिका के हृदय स्थल न्यूयार्क में वाल स्ट्रीट के पास सुपर पॉवर के हृदय पर कब्जे के लिए एक अनोखा धरना चल रहा है। यह धरना ‘अकुपाई वाल स्ट्रीट’ के नाम से चलाया जा रहा है। वाल स्ट्रीट के बगल में स्थित एक सार्वजनिक पार्क में कुछ युवाओं द्वारा शुरू किया गया यह धरना आज हजारों लोगों को अपने से जोड़ चुका है। 17 सितंबर से शुरू हुए इस धरने की बदौलत आज उस सार्वजनिक पार्क को ‘लिबरेशन पार्क’ कहा जाने लगा है। धरने में शामिल युवा सोसल नेटवर्किंग सीटों के माध्यम से अपने विचारों और मांगों को लगातार जनता के बीच पहुंचा रहे हैं। इसी का नतीजा रहा कि पिछले एक हप्ते के दौरान अमेरिका के दूसरे हिस्सों में भी इनके समर्थन में धरने पर बैठने का सिलसिला शुरू हो गया।
लिबरेशन पार्क में धरने पर बैठे लोगों ने ‘अकुपाई वॉल स्ट्रीट’ नाम की अपनी वेबसाइट पर लिखा है कि उनकी लडाई कारपोरेट लूट के खिलाफ हैं। वे जनता के साथ होने वाली हर तरह की नाइंसाफी और बर्बरता के खिलाफ हैं। यही वह वजह रही, जिसने इस धरने को न सिर्फ शुरू करने, वरन लोगों को ऐक्यबद्ध होने के लिए भी मजबूर किया। यह आंदोलन पूरी तरह अहिंसक तौर-तरीकों से चलाया जा रहा है और ऐसा लगता है कि इसे चलाने वाले लोगों को आंदोलन को जल्दी समाप्त करने की कोई जल्दी नहीं है। इस आंदोलन में काले, गोरे, हिप्पी, वामपंथी, लिबरल और दूसरे विचारों को मानने वाले लोग भी शामिल हैं, लेकिन वे अमेरिका की किसी पार्टी के प्रतिबद्ध कार्यकर्ता नहीं हैं। दुनिया के कामकाजी लोगों के नाम अपने संदेश में इन्होंने कहा है कि वे कारपोरेट की लूट के खिलाफ अपने संघर्ष में उन्हें (लिबरेशन पार्क के आंदोलनकारियों को) अपना साथी समझें। यह आंदोलन अमेरिका में मौजूद भ्रष्टाचार के खिलाफ भी है, लेकिन उसका मुख्य विरोध कारपोरेट लूट से है। वहां का प्रतिष्ठित मीडिया ‘लिबरेशन पार्क’ के इस आंदोलन से पहले पूरी दूरी बनाकर चल रहा था, लेकिन अब आन्दोलन के दबाव में अब वह अपनी झेंप मिटने में लग गया है। जिस समय आन्दोलन शुरू हुआ तो न्यूयार्क टाइम्स जैसे अख़बार ने लिखा कि ‘आंदोलनकारी अपने उद्देश्य को लेकर स्पष्ट नहीं हैं। ये लोग न्यूयार्क वाल स्ट्रीट पर कब्जा करना चाहते हैं, लेकिन क्यों? इस बारे में वे कुछ भी साफ करने में असमर्थ हैं।’
न्यूयार्क टाइम्स के इस दावे को धरने से जुड़े लोगों की वेबसाइट खोखला साबित कर देती है। ‘अकुपाई वॉल स्ट्रीट’ पर मौजूद सामग्री को पढ़ने से यह बिल्कुल साफ हो जाता है कि वहां के लोग अमेरिका की उस कारपोरेट लॉबी से नाराज हैं, जिसकी वजह से अमेरिका की दुनिया में चौधराहट कायम है। वे इस बात से भी नाराज हैं कि यही कारपोरेट लॉबी वहां की राजनीतिक पार्टियों को संचालित करती है और इनके माध्यम से अपने फायदे के लिए देश-विदेश में नीतियां बनवाती हैं। उन्होंने लोगों का दवा इलाज न होने, अशिक्षा, बेरोजगारी और अन्य सामाजिक-आर्थिक, यहां तक कि सांस्कृतिक समस्याओं तक के लिए इसी लॉबी को जिम्मेदार बताया है। जाहिरा तौर पर यह आंदोलन अपने अंदर बहुत ही दूरगामी महत्व के कार्यभारों को समेटा हुआ है। इसलिए, अगर यह आंदोलन आगे बढ़ता है, तो बहुत संभावना है कि यह आंदोलन अमेरिका की सीमा को पार कर यूरोप और तीसरी दुनिया की जनता को भी अमेरिका की कारपोरेट लॉबी के खिलाफ खड़ा कर दे, हालांकि वर्तमान माहौल में जबकि दुनिया में जनांदोलनों का झंझावात पीछे गया है, ऐसे में इस बात की भी पूरी संभावना है कि यह आंदोलन अपने तय लक्ष्य को पाए बिना समाप्त हो जाए। इसके बावजूद चूंकि बहुत सारे फैसले सिर्फ हार-जीत से तय नहीं होते, इसलिए इस आंदोलन का अपना महत्व है।
इस संदर्भ में दो आंदोलनों को याद करना बेहद जरूरी है। इनमें से पहला है इस साल 12 मार्च को कैलिफोर्निया के सान डियागो शहर से शुरू हुआ आंदोलन और दूसरा भारत में रामलीला मैदान से शुरू हुआ अन्ना हजारे का भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन।
कैलिफोर्निया के अनिवासी भारतीयों ने भारत में बढ़ते भ्रष्टाचार के खिलाफ 12 मार्च को करीब 240 मील लंबा मार्च निकाला था। यह मार्च सान डियागो में मार्टिन लूथर किंग जूनियर के स्मारक से शुरू होकर लॉस एंजिल्स होते हुए 26 मार्च को सैनफ्रांसिस्को में गांधी जी की प्रतिमा पर जाकर समाप्त हुआ। जवाहर कामभामापति और श्रीहरि अटलूरी के नेतृत्व में आयोजित इस मार्च के समर्थन में अमेरिका और यूरोप के दूसरे मुल्कों के अनिवासी भारतीयों ने भी वहां भारत में भ्रष्टाचार के खिलाफ मार्च का आयोजन किया। यूरोप और अमेरिका में आयोजित इन प्रदर्शनों को ‘दूसरे दांडी मार्च’ का नाम दिया गया। इसमें शामिल लोगों की मांग थी कि भारत में भ्रष्टाचार के खिलाफ संयुक्त राष्ट्र के प्रस्ताव को लागू किया जाए। भारत में भ्रष्टाचार के खिलाफ विदेश में अनिवासी भारतीयों का यह इस सदी का सबसे बड़ा प्रदर्शन था। हालांकि इसे विदेशों में और खासकर अमेरिका में तो भरपूर प्रचार मिला, लेकिन भारतीय मीडिया में इसे कम जगह ही मिली। यही वजह रही कि भ्रष्टाचार के नीचे दबी भारत की जनता को इसके बारे में पता तक नहीं चला।
जहां तक न्यूयार्क के ‘लिबरेशन पार्क’ में चल रहे आंदोलन की बात है, इसे सोशल नेटवर्किंग साइटों की वजह से जरूर प्रचार मिला, लेकिन वहां के अपेक्षाकृत ज्यादा संगठित कारपोरेट मीडिया ने एक तरह से इसका बहिष्कार ही किया। दूसरी ओर भ्रष्टाचार के खिलाफ गांधीवादी अन्ना हजारे के आंदोलन को देश-विदेश के कारपोरेट मीडिया का भरपूर समर्थन मिला और वह कहीं ज्यादा असरकारी साबित हुआ। इसके बावजूद भारत से ताल्लुक रखने वाले इन दोनों आंदोलनों और लिबरेशन पार्क के आंदोलन की दूरगामी मारक क्षमता में जमीन-आसमान का अंतर है। जहां विदेश में हुए ‘दूसरे दांडी मार्च’ और स्वदेश में अन्ना हजारे की ‘दूसरी आजादी’ की लड़ाई समाज में मौजूद बेरोजगारी, गरीबी और दूसरी सामाजिक समस्याओं की जड़ भ्रष्टाचार में तलाशने की कोशिश करती है, वहीं ‘लिबरेशन पार्क’ की लड़ाई से जुड़े हुए लोग इसके लिए दुनिया के पैमाने पर मौजूद अतिसंगठित कारपोरेट लॉबी और उसकी लूट को जिम्मदार ठहराते हैं। ‘लिबरेशन पार्क’ के लोगों की ‘जनलोकपाल’ जैसी कोई मांग नहीं है, क्योंकि उन्हें इस बात का विश्वास नहीं है कि ऐसे किसी कानून से उनके द्वारा उठाई जाने वाली समस्याओं का समाधान हो जाएगा। बहरहाल इन आंदोलनों में बड़े पैमाने पर जनभागीदारी रही है, इसलिए इनसे बहुत कुछ सीखा जा सकता है। जहां तक बात इन आंदोलनों में कौन सही है और कौन गलत, तो फिलहाल यह फैसला जनता को करना है और ऐसा लगता है कि अभी यह भविष्य के गर्भ में है।

शनिवार, 8 अक्तूबर 2011

अमेरीका में वॉल स्ट्रीट कब्जा करो आंदोलन: स्वर्ण किले पर दावेदारी


अंजनी कुमार
वैश्वीकरण के दौर में बुद्धिजीवियों के हिस्से ने अमेरिका को इम्पायर यानी महान सम्राट के नाम से संबोधित किया था। यह नाम उसकी अपराजेयता और उसका खात्मा होने पर साम्राज्य के पहले जैसे बने न रहने के में दिया गया था। इस बात में कितनी सच्चाई है यह अब भविष्य के गर्भ में है। पर यह भी सच है कि आज यूरोपीय साम्राज्यवाद अपने ही भार से जिस तरह भहरा रहा है उससे अमेरिकी साम्राज्यवाद अछूता नहीं रह गया है। ग्रीस का बजट घाटा और बाजार में देनदारी व खुद सरकार की वैश्विक बाजार में गिर चुकी साख की बीमारी पड़ोसी देशों में इस कदर फैलती जा रही है कि उसने महज दो सालों में अमेरिका की वित्तीय साख में भी बट्टा लगा दिया है। वैश्विक मुद्रा कोष की अध्यक्षा ने साफ घोषित कर दिया कि यदि इस तरह के हालात बने रहे तो मुद्रा कोष इस तबाही को संभल नहीं पाएगा। अब तक कुल 160 बिलियन डॉलर ग्रीस में झोंक देने के बाद भी संप्रभू साख यानी सरकार चलाने के लिए जरूरी आय को हासिल करने की क्षमता हासिल नहीं हो पा रही है।
चंद दिनों पहले सरकारी खर्च की कटौती के लिए 30 हजार लोगों को नौकरी से बाहर कर दिया गया। यही हालत इटली, स्पेन, फ्रांस आदि देशों की भी है। अमेरिका में त्रिस्तरीय उच्च ग्रेड के एक हिस्से के ए से बी हो जाने का असर यह हुआ है कि लाखों लाख लोग सड़क पर फेंक दिए गए। आय को बचाने के लिए सामाजिक कटौती करने की नीति पर चर्चा होने लगी। बावजूद इसके वॉल स्ट्रीट पर हालात नहीं सुधरे। बोइंग कंपनी से निकाले जाने वालों की संख्या में कमी नहीं आई। ओबामा ने एक तरफ रोजगार के अवसर बनाने का आश्वासन दिया, तो दूसरी ओर वित्तीय साख को हासिल करने के लिए हर संभव प्रयास करने का आश्वासन भी पर सूचकांक की गिरावट में कभी -कभार के चंद सुधारों के बाद भी हालात बिगड़ते ही गए। आज खुद अमेरिका में स्थितियां इतनी जटिल होती गई हैं और कारपोरेट व वित्तीय संस्थानों की पकड़ इतनी मजबूत हो चुकी है कि वहां कींस के सिद्धांत पर अमल की बात करना भी एक क्रांतिकारी काम हो गया है। अमेरिका में इस इंपायर के स्वर्ण किला वॉल स्ट्रीट पर कब्जा करने का अभियान चल रहा है। वॉल स्ट्रीट पर कब्जा यानी वित्तीय संस्थानों की घेराबंदी। वॉल स्ट्रीट के सूचकांकों के ऊपर या नीचे होने से सिर्फ कंपनियों में शेयर खरीदने वालों की ही तबाही नहीं होती, इससे सीधा बाजार भाव व आय और रोजगार जुड़ा होता है। यहां प्रति मिनट अरबों डालर हवा की तरह भले उड़कर जाता या आता हुआ न दिखे, पर रोजमर्रा की जिंदगी में यह बेहद ठोस रूप में आता-जाता है।
सितंबर 2011 के मध्य में अमेरिका में नौकरी खोजने वाले युवा, नौकरी खो देने वाले कर्मचारी, श्रम करने वाले विभिन्न विभागों के लोग, मध्यम आय वर्ग के बुजुर्ग आदि एक लंबे सुगबुगाहट सोशल नेटवर्क पर एक दूसरे के साथ संपर्क बनाने के बाद विभिन्न जुटानों, चैराहों पर बहस-मुबाहिसों के बाद 17 सितंबर को न्यूयार्क की सड़कों पर मार्च किया। 18 सितंबर को न्यूयार्क के एक चैराहे- 12 स्ट्रीट, जिसे अब ‘लिबर्टी चैराहा’ कहा जा रहा है, पर आम सभा- जनरल एसेंबली बुलाई गई। न्यूयार्क पुलिस ने वहां किसी भी तरह का टेंट आदि लगाने पर रोक लगा दी। बावजूद इसके मेडिकल, भोजन उपलब्ध कराने वाले गु्रप व मीडिया खुलकर सहयोग में आ गए। यहां विभिन्न समूहों के बीच चली घंटों बहस के बाद नारा तय किया : आॅक्यूपाई वॉल स्ट्रीट यानी वॉल स्ट्रीट पर कब्जा करो। 18 सितंबर की सुबह वॉल स्ट्रीट की ओर हजारों लोगों ने मार्च किया गया। इसके बाद अमेरिका के विभिन्न शहरों में इस तरह के जुटान व वित्तीय और पुलिस सस्थानों के खिलाफ प्रदर्शन का सिलसिला शुरू हो गया। वाशिंगटन, लॉस ऐजेंल्स, शिकागो, बोस्टन मियामी, पोर्टलैंड, ओरेगों, सीएटल, देनेवर आदि शहरों में हजारों की संख्या में लोग इकठ्ठा होकर वॉल स्ट्रीट कब्जा करो के अभियान में लग गए। विभिन्न टेड यूनियनों ने इसमें भागीदारी का खुलकर समर्थन किया है। अमेरिका की सबसे बड़ी यूनियन एएफएल-सीआईओ ने ब्रुकलिन पुल पर कब्जा करने की रणनीति का समर्थन देते हुए इसके अध्यक्ष ने कहा कि वॉल स्ट्रीट हमारे नियंत्रण से बाहर हो गया है। इस पर कब्जा करने की नीति से हमारी ओर इनका ध्यान खींचना आसान होगा। सैनफ्रांसिस्को लेबर काउंसिल ने इस प्रदर्शन को समर्थन देते हुए नारा दिया: संपत्ति की असमानता को खत्म करो, बेघरों को घर दो, गरीबी खत्म करो,भ्रष्टाचार खत्म करो। आॅक्यूपाई वॉल स्ट्रीट मूवमेंट ने 13 मांग को सामने रखा है: जीने के लिए वेतन, बीमार होने पर दवा करा सकने की मेडिकल सुरक्षा, बेरोजगारी भत्ता, मुफ्त शिक्षा, तेल की तबाह करने वाली अर्थव्यवस्था को खत्म करने के लिए उर्जा के अन्य साधनों का अनिवार्य प्रयोग, अधिसंरचना विकास के लिए एक ट्रिलियन डालर का निवेश, नस्ल व लैंगिक बराबरी को लागू करना, प्रवास पर रोक का खात्मा, चुनाव को पारदर्शी बनाना, सभी तरह के कर्ज का खात्मा, देनदारी सूचकांक एजेंसी का खात्मा, यूनियन बनाने व मजदूरों को अपना यूनियन चुनने का अधिकार। 12 लाख की सक्रिय सदस्यता वाली यूनियन अमेरिकी स्टील वर्कर्स ने इस आंदोलन में हिस्सेदारी करने का निर्णय लिया है। न्यूयार्क की 40 हजार सदस्यता वाली ट्रांसपोर्ट वर्करस यूनियन, जिसमें रिटायर लोग भी शामिल हैं, ने इसमें भागीदारी व जरूरत पड़ने पर हड़ताल पर जाने का निर्णय लिया है। आज अमेरीका में एक करोड़ लोग सामान्य जीवन जीने की सुविधाओं से बंचित हो चुके है। यहां 20 प्रतिशत युवा बेरोजगार है। प्रतिवर्ष लाखों लोग नौकरी से बाहर किए जा रहे हैं। दूसरी ओर उतनी ही तेजी से धनाढ्यता के टापू खड़े हो रहे हैं। इस आंदोलन को नोअमी क्लेन, नोम चोम्सकी, माइकेल मूर, एनी रैंड, जोसेफ स्टील्ज, जार्ज सोरोस आदि ने खुल समर्थन दिया है व इसमें भागीदारी की है। इसमें विभिन्न वैचारिक धाराओं- अराजकतावादी, लिबरल, समाजिक जनवादी जैसे लोग शामिल हो रहे हैं। इस प्रदर्शन के प्रति पुलिस का रवैया काफी कड़ा है। अब तक हजारों लोगों को गिरफ्तार किया जा चुका है। सैकड़ों लोग पुलिस के बल प्रयोग से बुरी तरह घायल हुए हैं। इस अभियान में शामिल प्रदर्शनकारी महिलाओं के खिलाफ पुलिस अत्यंत हिंसक और यौन उत्पीड़क व्यवहार कर रही है। यह अमेरिका में अपने ही लोगों के खिलाफ के खिलाफ किया जा रहा व्यवहार एक भिन्न तरह का नमूना है, जो बताता है कि वहां की राजसत्ता किस तरह अपना नकाब उतार कर फेंक चुकी है। अमेरिका में चल रहा आंदोलन यूरोप में चल रहे मजदूर आंदोलन का विस्तारित रूप है। यह उपर से देखने पर अरब में उभरकर आए जनांदोलन जैसा दिख सकता है। यह रूप की समानता भले ही हो, पर अंतर्वस्तु में एकदम भिन्न है। यह आंदोलन एक भिन्न देश व सन्दर्भ में उभरकर आया है। जिसकी काफी हद तक समानता यूरोप में उठ रहे असंतोष, मजदूर व आम लोगों के द्वारा किए जा रहे हड़ताल प्रदर्शन के साथ है। दरअसल यह पूंजी के साम्राज्य का उतरता हुआ आवरण है, जो बुरी तरह झीना हो चुका है। बमुश्किल चार साल पहले- 2008 में मंदी की मार से एशियाई व यूरोपीय देश बुरी तरह तबाह थे। उस समय यह दावा किया गया कि मंदी खत्म हो चुका है और पूंजीवादी अर्थव्यवस्था एक बार फिर पटरी पर है। पर न तो उस समय मंदी की मार खत्म हुई और न ही उससे निपटने के शगूफे सफल हो पाए। जापान का विकास दर .05 प्रतिशत के आसपास बना। यूरोपीय देशों में जर्मनी, स्वीडेन जैसे कुछ देषों को छोड़कर वहां के हालात बद से बदतर बने रहे। अमेरीका में 1947 से 2011 की षुरूआत तक औसत विकास दर 3.80 प्रतिशत रहा है वह 2011 के मध्य में आकर 1.30 प्रतिशत रह गया है। आमतौर पर मैन्यूफैक्चरिंग यूनिटों में विकास दर गिरने का अर्थ बड़े पैमाने पर मजदूरों की छंटनी होना होता है। जब यह आम बिमारी की तरह फैलने लगता है तब इसका सीधा असर बैंकिंग या वित्तिय पूंजी पर होता है। पूंजीवादी व्यवस्था पर खड़ी सरकार के आय व व्यय पर पड़ने वाले इसके असर से इसके न केवल विभिन्न संस्थान संकट में जाते हैं बल्कि यदि संकट गंभीर हो तो खुद सरकार के होने का ही संकट खड़ा हो जाता है। मध्यम आयवर्ग के लोगों की आय में या तो सीधी कटौती की जाती है या उनकी खरीद क्षमता को ही गिराकर उनसे अधिक वसूल किया जाने लगता है। मध्यम व उच्च आय के लोग अपनी जरूरत पूरा करने के लिए कर्ज के सहारा भी लेते हैं जिसे आय न होने के चलते भर पर पाना मुश्किल होता है। वित्तिय बाजार में यह संकट बचत से अधिक खर्च के रूप में प्रकट होता है। वैश्वीकरण के दौर में पूंजीवादी साम्राज्यवाद ने जिस वृहद एकाकार होते वैश्विक पूंजी के राज का चित्र खींचा था वह एक एक देश में अपने विषिष्ट संकटों के साथ दूसरे देशों के आम संकट से मिलकर एक वृहद संकट का चित्र खड़ा कर रहा है। वैष्वीकरण के दौर में जिस वित्तिय पूंजी के सहारे गैर उत्पादक कार्य के माध्यम से अर्थव्यस्था को फूंककर फुलाया गया वह आज अपनी वास्तविक जमीन को खोजते हुए नीचे आ रहा है। आज भारत व चीन में जो विकास दर दिख रहा है उसके पीछे भागकर आ रही वित्तिय पूंजी का निवेश ही जो अमेरीकी संकट के दौरान कमाई का जरिया खोजने में लगी हैं। वैष्विक मुद्रा की दावेदारी करने वाले डालर को राजनीतिक जोरजबरदस्ती के बदौलत उसकी साख को अमेरीका बचाने में लगा है। वास्तविक उत्पादन विनिमय में मुद्रा की यह भूमिका पहले से कहीं अधिक जटिल व आक्रामक होकर उभरा है। वैष्वीकरण जिस पूंजीवादी साम्राज्यवाद को बचाने के लिए युद्ध व वित की व्यवस्था के साथ उभरा आज वह तबाही का मंजर खड़ा करते हुए अंतत: खुद अपने ही देश में बन रहे दलदल में फंस गया है। वॉल स्ट्रीट पर कब्जा आंदोलन यह बता रहा है कि मंदी 2008 के बाद भी खत्म नहीं हुआ बल्कि वह बढ़ता गया है। आज इस मंदी की बाढ़ से लोगों का दम घुट रहा है। यह मिडिया ही है जो संकट की तस्वीर देने के बजाय यह दिखाने की कोशिश कर रहा है कि मंदी तो बस ग्रीस तक है और वह भी उबर ही जाएगा जबकि अमेरीकी अर्थव्यवस्था अपने ही पैरों पर गिरने को हो रही है। यहां यह जरूर याद कर लेना ठीक होगा कि मंदी से धनिकों की संपत्ति में इजाफा होना नहीं रूकता और न ही उनके सीइओ की तनख्वाहों में कमी आती है। हां, धनिकों का एक हिस्सा तबाह हो जाता है और संचित नीधि का बंटवारा चंद पूंजीपति अपनी ताकत के अनुसार कर लेते हैं। पूंजीवाद जब तक है वह अपने राजनीति व अर्थनीति में धनी होने का सिद्धांत है। इसकी सबसे बड़ी मार आम जन व श्रमिक समुदाय पर पड़ता है। आज अमेरीका के आम लोग व श्रमिक समुदाय जिस वॉल स्ट्रीट कब्जा आंदोलन के साथ आगे आये हैं वह अमेरीकी पूंजीवादी साम्राज्यवाद के खिलाफ संघर्ष की शुरूआत है। यह आंदोलन धनिकों पर नियंत्रण रखने, सरकार की नीतियो में फेर बदल कर जन के पक्ष में ले आने, बेरोजगार व नौकरी खो रहे लोगों को सामाजिक सुरक्षा देने व मजदूरों को उनके यूनियन बनाने के अधिकार के साथ सामने आया है। यदि हम इसे अमेरीका के श्रमिक आंदोलन के इतिहास के सामने रखकर देखें तो यह बेहद कमजोर दिखेगा। पर यदि हम इसे आज के सन्दर्भ में रखें तो निश्चय ही इसके विभिन्न मायने निकलेगें।
(अंजनी कुमार, स्वतंत्र पत्रकार हैं)

बुधवार, 5 अक्तूबर 2011

औद्योगिक हादसे के शिकार तुगलकाबाद के मजदूर

 समर्थन में आगे आओ!
तुगलकाबाद के फैक्ट्री हादसे के शिकार मजदूरों के परिवारवाले जो पिछले लगभग आठ महीने से अपने अधिकारों के लिए संघर्ष करते आ रहे हैं, समाज के जनपक्षधर व मानवाधिकार संगठनों और न्यायप्रिय जनता से समर्थन की अपील करते हैं।
गौरतलब है कि विगत 25 जनवरी की शाम पांच बजे नई दिल्ली की तुगलकाबाद एक्सटेंशन की गली नंबर 8 में स्थित एक गारमेंट फैक्ट्री में भीषण आगजनी की घटना हुई थी। यह फैक्ट्री अपने यहां फैशनेबल कपड़ों को तैयार कर विदेश में एक्सपोर्ट करती थी। रिहायशी इलाके की महज 80 गज के प्लाट पर बनी इस चारमंजिला फैक्ट्री के चौथे माले पर यह घटना हुई। घटना के समय वहां 36 मजदूर काम कर रहे थे। एक बहुत छोटे जगह में तेजी से आग पकड़ने वाले कपड़ों, कपड़ों को धुलने के लिए इस्तेमाल किए जाने वाले अत्यंत ज्वलनशील साल्वेंट, जेनरेटर, बॉयलर और डीजल के स्टॉक के बीच मजदूर काम करते थे। घटना के बाद सरकार ने महज 16 मजदूरों के मरने और तीन के घायल होने की बात को ही स्वीकारा है। मजदूर परिवारों के अनुसार यह संख्या इससे कहीं अधिक है। मजदूरों का यह भी आरोप है कि पुलिस और फैक्ट्री मालिक की मिलीभगत से कई जली हुई लाशों को ठिकाने लगाया गया था।
हादसे के शिकार अधिकतर मजदूर नौजवान उम्र के लड़के-लड़कियां थे। इन मजदूरों की आमदनी से ही उनके परिवारवालों की रोजी-रोटी चलती थी। हादसे के बाद इनके परिवारवाले भारी भरकम कर्ज के बोझ तले दब गए और भुखमरी के कगार पर हैं। न्याय की आस में ये लोग पिछले लगभग आठ महीने से दर-दर की ठोकरें खा रहे हैं। चूंकि फैक्ट्री को अवैध तौर पर चलाया जा रहा था, इसलिए हादसे की अंतिम जिम्मेदारी पुलिस, नगर निगम और श्रम विभाग की होती है। लेकिन, अभी तक न तो दिल्ली सरकार ने इस जिम्मेदारी को लेकर फैक्ट्री मालिक पर उचित कार्रवाई की है और न मजदूर परिवारों को सम्मानजनक मुआवजा मिला है। हालत यह है कि हत्यारा कारखाना मालिक आज भी बेखौफ होकर अपना व्यापार चला रहा है। दिल्ली सरकार ने सिर्फ लोक दिखावे के लिए कुछेक मृतक मजदूर परिवारों को एक-एक लाख रुपये और घायलों को बीस-बीस हजार रुपये की सहायता दी है। सरकार का यह कदम पीड़ित मजदूरों के साथ एक भद्दे मजाक के अलावा और क्या हो सकता है? अभी तक घायल मजदूरों के परिवारवाले इलाज के लिए पचास से साठ हजार रुपये कर्ज ले चुके हैं। बावजूद इसके हादसे के शिकार मजदूर आज भी अपाहिज बने हुए हैं। मजदूरों की मांग है कि सरकार प्रभावित मजदूर परिवारों को तत्काल उचित मुआवजे दे और फैक्ट्री मालिक पर हत्या का मामला चलाए।
तुगलकाबाद का यह हादसा कोई अकेली घटना नहीं है। राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र में ऐसी घटनाएं अक्सर घटती रहती हैं। इस घटना के तीन महीने बाद ही 27 अप्रैल 2011 को पश्चिमी दिल्ली के पीरागढ़ी औद्योगिक क्षेत्र की एक जूता फैक्ट्री में भी भीषण आगजनी की घटना हुई थी। इस घटना में दस मजदूर जलकर राख हो गए। हैरतअंगेज बात यह थी कि आगजनी के समय मालिक नदारद था और फैक्ट्री गेट पर बाहर से ताला पड़ा था। नतीजतन मजदूरों को बाहर निकलने का रास्ता ही नहीं मिला। इस कांड में भी मजदूर परिवारों की कोई सुनवाई नहीं हुई। तुगलकाबाद हो या फिर पीरागढ़ी, हर जगह एक ही कहानी दोहराई गई। ऐसी घटनाएं अखबारों के पन्नों में एक छोटी सी खबर मात्र बन जाती हैं। सरकारी महकमा कुछ घड़ियाली आंसू बहाता है और मजदूर न्याय की गुहार लगाते -लगाते थककर चूर बैठ जाते हैं। इस तरह मजदूरों की उपेक्षा और वंचना का सिलसिला लगातार चलता रहता है।
आज मजदूर आबादी में 90 प्रतिशत हिस्सा असंगठित व ठेका मजदूरों का है। इस बड़ी आबादी को न्यूनतम संवैधानिक अधिकार भी हासिल नहीं। कानूनी और गैरकानूनी दोनों तरीकों से इन मजदूरों को अधिकारों से वंचित रखा जाता है। इन्हीं करोड़ों मजदूरों के बेहिसाब शोषण के दम पर देश का आर्थिक विकास कायम है। पिछले 20 सालों में जिस अनुपात में देश ने तरक्की की है, उससे कई गुनी तेज रफ्तार से मजदूरों की जिंदगी बद से बदतर होती गई।
पूंजी के मालिकों ने आज पूरे देश को मुनाफा कमाने के एक खुले चारागाह में बदल दिया। पूंजीपतियों ने खुद को मजदूरों की किसी भी जिम्मेदारी को उठाने से खुद को मुक्त कर लिया है। वे समझते हैं कि जब नेताओं और अधिकारियों को खरीदा जा सकता है, तो ऐसे में उनकी कानून मानने की कोई बाध्यता नहीं और मजदूरों से घबड़ाने का तो सवाल नहीं उठता। हम समझते हैं कि इस समय की सबसे बड़ी आबादी मजदूरों की है, वही उत्पादक वर्ग भी है। इसलिए अगर उसे न्यूनतम अधिकारों से वंचित रखा जाता है, तो शेष नागरिक आबादी के संवैधानिक अधिकार भी अर्थहीन हो जाएंगे। इसलिए अब वक्त आ गया है कि पूंजी के मालिकों का मनमानापन रोका जाए और एकजुट होकर आवाज उठाई जाए। तो आइए भाइयो! तुगलकाबाद के मजदूरों की इस लड़ाई में हम भी अपनी हिस्सेदारी तय करें।

श्रमिक अधिकार मोर्चा संपर्क : 93108 18750, 98113 52320

मंगलवार, 4 अक्तूबर 2011

हरसोरिया के शानदार संघर्ष का यह अंजाम क्यों?

जय प्रकाश
हरियाणा का गुड़गांव इलाका मेडिकल से जुड़े सामान बनाने का एक बहुत बड़ा केंद्र है। यहां के उद्योग विहार के प्लॉट नं 110-111, फेज-4 में ‘हरसोरिया हेल्थ केयर प्रा. लि.’ नाम से एक आधुनिक फैक्ट्री है। कंपनी का कुल सालाना व्यवसाय 30 करोड़ डालर का है। कंपनी के उत्पाद का 98 प्रतिशत हिस्सा विदेश निर्यात किया जाता है। मेडिकल से जुड़े सामान बनाने वाली कंपनियों में हरसोरिया का अपना अलग नाम है। दुनिया के 40 देशों में इसका बाजार फैला हुआ है। दुनिया के सामने कंपनी अपने मजदूरों की गुणवत्ता पर गर्व करती है, जबकि फैक्ट्री के अंदर मजदूरों के साथ मैनेजमेंट का सलूक कुछ और ही चीज को बयां करता है। कंपनी में 640 मजदूर काम करते हंै। इनमें से 300 मजदूर स्थाई हैं और शेष कैजुअल तथा ठेका श्रमिक हैं। मजदूरों में कुछ को न्यूनतम वेतन ही दिया जाता है और कुछ को इससे भी कम मिलता है। इस फैक्ट्री में मजदूरों को कोई सुविधा हासिल नहीं है। उल्टे उनके साथ अक्सर ही गाली गलौज की जाती है। यहां तक की फैक्ट्री अधिकारी मजदूरों को जाति सूचक गालियां भी देते हैं। फैक्ट्री के अंदर खुफिया कैमरों से मजदूरों के ऊपर चैबीस घंटे निगरानी रखी जाती है। अभी पिछले दिनों कंपनी ने मजदूरों को मैक्स नाम की एक निजी बीमा पॉलिसी लेने के लिए बाध्य किया था। इसके लिए हर मजदूर की पगार में से 500 रुपये प्रतिमाह जमा कराया गया। बाद मंे जब मजदूरों ने इसका विरोध किया, तो मैक्स नाम की कंपनी मजदूरों का पैसा हड़प कर भाग गयी। इन्हीं सब बातों से आजिज आकर मजदूरों ने यूनियन बनाने का फैसला लिया। जनवरी 2011 में उन्होंने यूनियन का रजिस्ट्रेशन भी करवा लिया। एक केंद्रीय ट्रेड यूनियन ने इस काम मंे उनकी मदद की।
मजदूरों का यूनियन बनाना फैक्ट्री मैनेजमेंट को गंवारा नहीं हुआ। वह मजदूरों से बदला लेने के मौका तलाशता रहा। सात अप्रैल को यूनियन अध्यक्ष की एक सुपरवाइजर के साथ मामूली कहासुनी हो गयी। यह सुपरवाइजर यूनियन के खिलाफ मजदूरों को भड़काने में लगा हुआ था। इस मामूली घटना को बहाना बनाकर मैनेजमेंट ने यूनियन के अध्यक्ष और सचिव समेत कार्यकारिणी के सातों सदस्यों को आठ अप्रैल को सस्पेंड कर दिया। मैनेजमेंट के इस तानाशाहाना रवैए का सभी मजदूरों ने एकजुट होकर विरोध किया और मैनेजमेंट से अपने अध्यक्ष को काम पर वापस लेने की मांग की। मैनेजमेंट ने इसका जवाब 9 अप्रैल की रात की शिफ्ट में काम कर रहे 250 मजदूरों को फैक्ट्री के अंदर बंधक बना कर दिया। उसने पांच दिन तक बगैर खाना-पीना और पंखे के भयंकर गर्मी में उन्हें कैद रखा। इसी दौरान मैनेजमेंट ने नौ और मजदूरों को सस्पेंड कर दिया।
मैनेजमेंट के चंगुल से मुक्त होने के बाद मजदूर फैक्ट्री के पास ही एक पार्क में धरने पर बैठ गये। मैनेजमेंट ने उन्हें डराया, धमकाया, लेकिन उन्होंने अध्यक्ष का निलंबन वापस लिए बिना काम पर जाने से इंकार कर दिया। इस प्रकार 17 दिन लगातार दिन तक मजदूर अपनी जगह डटे रहे। इधर 25 अप्रैल को मैनेजमेंट ने जब फैक्ट्री से माल निकालना चाहा तो मजदूरों ने इसका विरोध किया। लेकिन मैनेजमेंट प्रशासन से मिलकर मजदूरों से निपटने की योजना बना चुका था। फक्ट्री को पुलिस ने चारों ओर से घेरकर पुलिस ने मजदूरों के ऊपर बर्बर लाठीचार्ज किया। इस पुलिसिया हमले में काफी मजदूर घायल हुए और कुछ को गंभीर चोटें आयीं। आंदोलन का कू्ररता से दमन करने के बाद डीएलसी और केंद्रीय ट्रेडयूनियन ने मिलकर एक ऐसे समझौते को अंजाम दिया, जिसे अभी तक कोई भी मजदूर पचा नहीं पा रहा है। इस समझौते के तहत यूनियन के पदाधिकारियों को न सिर्फ संस्पेंड ही रहना था बल्कि कंपनी द्वारा उनके ऊपर इनक्वाइरी बिठाने की बात कही गयी। कंपनी ने बाकी मजदूरों को काम पर वापस लौटने को कहा। हरसोरिया के मजदूरों के शानदार आंदोलन का जो अंत हुआ, उसकी किसी न कल्पना नहीं की थी। लोग एक बेहतर समझौते की उम्मीद कर रहे थे।
यह समझौता तो दरअसल मालिकों द्वारा मजदूरों को यूनियन करने के एवज में दी गयी सजा को स्वीकारना ही हुआ, जबकि यूनियन बनाना और अन्य कानूनी अधिकारों के लिए संघर्ष करना मजदूरों का संवैधानिक अधिकार है। मालिकों और मैनेजमेंट ने इस मामले में एक गैरकानूनी काम किया है। दरअसल हरसोरिया के मजदूर अपनी लड़ाई में अकेले ही रह गये। अगर मजदूरों की इस न्यायपूर्ण लड़ाई में दूसरी यूनियनों का साथ मिला होता तो परिणाम कुछ और ही निकलता। आंदोलन के इस नतीजों ने पूरे गुड़गांव क्षेत्र के मजदूर आंदोलन की एक गंभीर कमजोरी को सामने ला दिया। यहां सक्रिय सभी केंद्रीय ट्रेड यूनियनें मजदूरों के व्यापक हितों को तरजीह देने की जगह अपने-अपने संकीर्ण सांगठनिक हितों को ज्यादा तरजीह देते हैं। फैक्ट्री स्तर के नेतृत्व की तरह ही आजकल केंद्रीय ट्रेड यूनियनें भी आमतौर पर मजदूरों की व्यापक एकता को आगे बढ़ाने की कोई कोशिश नहीं कर रहीं हैं। जब तक क्षेत्र में एक दूसरे की मदद और विरादराना भाईचारे का माहौल नहीं तैयार किया जाता, मजदूर आंदोलन उसकी कीमत चुकाता रहेगा।

अंधेरे में गुम हो जाते ये किसके बच्चे


शांतनु
हमारे देश की कुल आबादी का अस्सी फीसद अर्थात 96 करोड़ लोग मेहनतकश पेशा लोग हैं। इसका एक बड़ा हिस्सा तो हमेशा ही गरीब और अभाव से जूझता रहता है। 1991 में नई आर्थिक नीति के लागू होने के बाद से इस आबादी का बहुत तेजी से कंगालीकरण हुआ है। इनकी रोजी-रोटी छिनने का सबसे ज्यादा असर उनके बच्चों पर पड़ा है। आज मामूली सुविधाओं के अभाव में बीस लाख बच्चे हर साल मौत के मुंह में समा जाते हैं। लेकिन बात बस इतनी सी नहीं है? देश के मेहनतकशों के बच्चों के खिलाफ शासक वर्गों की साजिश इससे भी ज्यादा खतरनाक है।
भारत के संविधान देश के हर नागरिक को बराबरी का दर्जा देने की बात करता है, लेकिन एक कोरी बकवास से ज्यादा कुछ नहीं है। देश की मेहनकश व गरीब जनता के बच्चे जन्म से ही भेदभाव और उपेक्षा के शिकार होते हैं। भारत के राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वे ने वर्ष 2005-06 के बीच देश के 70 फीसदी अर्थात 10 में से 7 बच्चों को कुपोषित पाया। इस सर्वे के अनुसार छह माह से ज्यादा और 5 साल से कम उम्र के 8 करोड़ 60 लाख बच्चे कुपोषण के शिकार हैं। इनमें से ढाई करोड़ बच्चों की स्थिति स्वास्थ्य के सबसे खराब मानकों को भी पीछे छोड़ देती है। इन बच्चों के लिए तय है कि या तो वे जल्दी ही मर जायेंगे या फिर जिंदगी भर घुट-घुटकर मरेंगे। शेष 6 करोड़ 10 लाख कुपोषित बच्चों की हालत ठीक हो सकती है, बशर्तें उन्हें ठीक से भोजन पानी मिले। दुनिया का दानदाता बनने का दंभ भरने वाला संयुक्त राष्ट्र संघ भी यह जानता है कि इन कुपोषित बच्चों के जिन्दा रहने की संभावना कम ही है। ऐसे बच्चों को गम्भीर संक्रामक रोग लग जाने की सम्भावना हमेशा बनी रहती है। इसलिए डायरिया, निमोनिया और मीजल्स जैसी सामान्य बीमारियों में ही इनकी मौत हो जाती है। गरीब बच्चों की असामयिक मौत का सबसे बड़ा कारण कुपोषण ही है। जो बच्चे कुपोषण के बाद भी जीवित रह जाते हैं वे उनका जीवन एक जिंदा लाश से ज्यादा और कुछ नहीं होता। हो सकते हैं कि इनमें से कुछ स्कूल भी जाएं, लेकिन वहां भी उन्हें अपमान ही झेलना होता है, क्योंकि उनका मानसिक विकास कम होने के कारण वे पढ़ाई में कुछ बेहतर नहीं कर पाते। शरीर और दिमाग की कोशिकाओं के स्वस्थ विकास के लिए प्रोटीन की सबसे ज्यादा जरूरत होती है। प्रोटीन का सामान्य स्रोत- दूध, दालें, अंडे व मांस-मछली हैं। आमतौर पर इन बच्चों को यह नसीब ही नहीं होता है।
जब हमारा मुल्क अंग्रेजों से आजाद हुआ था, अनाज और अन्य जरूरी चीजें बहुत कम पैदा होती थीं। लेकिन आज अनाज समेत व्यक्ति के उपभोग की सभी जरूरी चीजों का उत्पादन सैकड़ों गुना बढ़ गया है। हां कुछ लोग जनसंख्या के बढ़ने की बात भी करते हैं, इसलिए बताते चलें कि जिस अनुपात में उत्पादन बढ़ा है, उस अनुपात में जनसंख्या नहीं बढ़ी है। आज इस उत्पादन को और ज्यादा बढ़ाने की तकनीक और साधन भी देश के अन्दर मौजूद है। इसके बावजूद यह देश अगर अपने बच्चों को भरपेट भोजन नहीं दे सकता और उन्हें भूखो मारता है, तो क्या यह इस देश के लिए शर्म की बात नहीं है? इतनी बड़ी संख्या में कुपोषित बच्चों की फौज के साथ कोई मूर्ख देश ही विश्व महाशक्ति बनने के सपने देखेगा। विश्व बैंक के कर्मठ कार्यकर्ता रह चुके वर्तमान प्रधानमंत्री खुद बच्चों की कुपोषण की समस्या को ‘राष्ट्रीय शर्म’ का दर्जा दे चुके हैं। लेकिन यह सिर्फ एक दिखावा से ज्यादा और कुछ नहीं है। इन बच्चों की हडिडयों को अपने दानदाताओं को दिखाकर सरकार में बैठे लोग और एनजीओ अपनी जेबें गर्म करते हैं।
ये नरकंकाल भी उनकी कमाई का एक जरिया हैं। इन कफनखसोटों से इससे ज्यादा उम्मीद भी क्या की जा सकती है। सरकार की मिड-डे-मील और आंगनबाड़ी योजनाएं भी ऐसे ही कुछ कदम भर हैं। बच्चों में कुपोषण की घटना को मेहनतकश तबके की दुर्दशा से काटकर देखना असली समस्या से नजरें चुराना है। एक बच्चा बीमार और कमजोर इसलिए पैदा होता है, क्योंकि उसकी मां को गर्भ के दौरान उचित भोजन नहीं मिलता। ऐसे में बच्चे की समस्या को उसकी माँ से अलग करके कैसे समझा जा सकता है? एक ऐसे बच्चे का परिवार किसी तरह नमक और रोटी का जुगाड़ कर पाता है, ऐसी स्थिति में परिवार को छोड़कर सिर्फ बच्चे की स्कूली पढ़ाई को पूरा कैसे कराया जा सकता है? दिखावा समाधान कैसे बन सकता है? लेकिन इसका मतलब यह नहीं कि इस समस्या का समाधान नहीं हो सकता है। इसका समाधान भी हमारे देश के अन्दर ही मौजूद है। इसके लिए हमें किसी के सामने हाथ फैलाने की जरूरत नहीं है।
दरअसल मेहनतकश आबादी की बदहाली, गांवों से उनका पलायन और कुपोषण की समस्याओं को हर हाथ को रोजगार और उचित मेहनताना देकर खत्म किया जा सकता है। लेकिन सरकार इसके लिए गंभीर ही नहीं है। कारण, समाज के रसूखदार लोग जो पूंजी और संपत्ति पर कुंडली मारकर बैठे हुए हैं, इससे उनके हितों पर चोट पहुंचेगी। वे मेहनतकश जनता का शोषण करके ही अपनी तिजोरियां भरते हैं।
इसलिए वे जनता की खुशहाली कभी नहीं चाहेंगे। वे यही चाहते हैं कि कुपोषित बच्चे कम से कम गुजारे पर उनके लिए पीढ़ी दर पीढ़ी मजदूरी करते रहें। यही वजह है कि आज सरकारी नीतियां हमारे करोड़ों बच्चों के वर्तमान और भविष्य का दम घोंट रही हैं। आज इन बच्चों के परिवारों में रोजी-रोटी के लिए हाहाकार मचा है और हमारे देश का शासक वर्ग अमीर तबके की आमदनी अपने सारे रिकार्ड तोड़कर आसमान छू रही है। ऐसा लगता है कि भूखां-नंगांे के इस देश में उन्होंने अपने लिए एक अलग देश बना रखा है। जिस देश में करोड़ों बच्चे कुपोषण के शिकार हों, वहां के जन प्रतिनिधियों को संसद में दिखावे और झूठी बहसों के नाम पर हर रोज करोड़ों रुपये फूंकने का क्या अधिकार है? आखिर यह पैसा किसका है जिसे वे इस तरह उड़ा रहे हैं? और आखिर वे किसके प्रतिनिधि हैं? लेकिन यह बात इतनी आसान नहीं है। अगर वे इतनी आसानी से जनता को मौत के मुंह में ढकेल पा रहे हैं, उसकी मेहनत के पैसे पर डाका डाल रहे हैं, करोड़ों बच्चों को कुपोषित बना रहे हैं तो जाहिर है यह यूं ही नहीं हो रहा है। वे इस बात को बखूबी जानते हैं कि जनता के खिलाफ उनके हित एक हैं, इसलिए वे बहुत ज्यादा संगठित हैं। जनता के किसी बड़े असंतोष को बेरहमी से कुचलने के लिए यह तत्काल एकजुट हो जाता है।
एक कहावत है कि बहुत पहले पहले जब रोम देश में रोजी रोटी के लिए हाहाकार मचा हुआ था, वहां चारांे तरफ आग लगी हुई थी, तो वहां का सम्राट नीरो आराम से बैठा बांसुरी बजा रहा था। हमारे देश में जब अंग्रेजों का राज था और जनता भूखों मर रही थी, पूरा देश नरक बना हुआ था, तब अंग्रेजों के क्लबों में हमारे देशी राजे-रजवाडे और सामंत भी उनके दलालों के रुप में उसका भरपूर लुत्फ उठाया करते थे। आज अंग्रेज तो नहीं हैं, लेकिन सब कुछ जस का तस आज भी जारी है। सवाल यह उठता है कि यह सब कब तक ऐसे ही चलता रहेगा?
(शांतनु , मेहनतकश पत्रिका के संपादक हैं. उनका यह लेख मेहनतकश पत्रिका के अंक-४ में प्रकाशित हो चुका है. पत्रिका के बारे में जानने या मांगने के लिए mehnatkash2010@gmail.com पर संपर्क किया जा सकता है.)