सोमवार, 30 मई 2011

एक थैला सीमेंट

 याशिकी हायामा

योशिजो सीमेंट के थैले खाली कर रहा था। अपने शरीर के अधिकतर अंगों को वह किसी तरह सीमेंट की धूल से बचाये हुए था, लेकिन उसके केशों और मूछों पर एक मोटी पपड़ी जम गयी थी। वह अपनी नाक साफ करके सिमेंट की उस पपड़ी को निकालने के लिए अकुल रहा था, जिसके कारण नासापुटों के भीतर बाल सलाख-से कड़े हो गयो थे; लेकिन सीमेंट घोलने का यन्त्र हर मिनट में दस खेप तैयार करके फेंक रहा था और उसे भरते रहने में ढ़ील की कोई गुंजाइश नहीं थी।

योशिजो का काम का दिन ११ घंटे का था। इसके दौरान उसे एक बार भी ढंग से नाम साफ करने का अवसर न मिलता। जब थोड़ी देर की दोपहर की छुट्टी में उसे भूख लगी होती तो वह जल्दी-जल्दी किसी तरह कौर निगलता रहता। उसे आशा थी कि तीसरे पहर के कुछ देर के विश्राम में उसे अवसर मिलेगा, लेकिन जब उसका समय आया तो उसने पाया कि उस बीच सीमेंट घोलने के यन्त्र को खोलना है। तीसरे पहर तक उसे लगने लगा था कि उसकी समूची नाक सीमेंट घोलने के यन्त्र को खोलना है। तीसरे पहर तक उसे लगने लगा था कि उसकी समूची नाक सीमेंट बन गई है। दिन किसी तरह पूरा हो रहा था। थकान से उसकी बाहें शिथिल हो चुकीं थीं और थैले ढोने के लिए उसे पूरा जोर लगाना पड़ रहा था। एकाएक थैला उठाते समय उसने देखा, सीमेंट में एक छोटा-सा लकड़ी का डिब्बा है।
"क्या हो सकता है यह?" उसे कुतूहल हुआ, लेकिन कुतूहल शान्त करने के लिए काम की गति धीमी नहीं की जा सकती थी। हड़बड़ा कर उसने नपाई के चौखटे में सीमेंट भरा और उसे मिलाने के खांचे में डाल दिया। बेल्चा उठाकर वह फिर सीमेंट ढोने लगा।
मन-ही-मन डिब्बा उठाया और अपने लबादे की जेब में डाल लिया।
"अरे मारो गोली, वजन तो कुछ नहीं है। उसमें और जो हो सो हो, पैसा तो ज्यादा नहीं होगा।" इस तनिक-सी देर से भी वह अपने काम में पिछड़ गया था औश्र अब उसे दुगुनी तेजी से सीमेंट ढोकर मशीन में डालना पड़ा।
स्वयंचालित यन्त्र की तरह उसने एक और थैला खाली किया और नपाई के नये खांचे में सीमेंट भरने लगा।
अंत में मशीन की रफ्तार कुछ धीमी हुई और फिर वह रुक गयी। योशिजो के उस दिन की छुट्टी का समय आ गया। यन्त्र से लगी हुई रबर की नली को उसने उठाया और मुंह-हाथ धोने का हल्का-सा उपक्रम किया। फिर उसने अपने नाश्ते का डिब्बा गले में टांग लिया और अपनी कोठारी की ओर चल पड़ा। एक ही विचार उसके मन पर छाया हुआ था: पेट में कुछ भोजन पड़ना चाहिए और उससे भी जरूरी यह कि तेज साके शराब का गिलास मिल जाना चाहिए।,
वह बिजलीघर की इमारत के सामने से गुजरा। उसका निर्माण-कार्य लगभग पूरा हो गया था और अब जल्दी ही उन्हें बिजली मिलने लगेगी। सुदूर क्षितिज पर सांझ के धुंधलके में कैरा पर्वत-शिखर की बर्फ चमक उठी थी। योशिजो केह पसीने से लथपथ शरीर में सहसा एक कंपकंपी दौड़ गयी थी और वह ठंड से सिहर उठा। जिस रास्ते वह चल रहा था, उसके किनारे-किनारे किसी नदी बह रही थी। दूधिया झाग के नीचे से एक घरघराहट उसकी तेज गति का संकेत दे रही थी।
"ऐसी की तैसी?" योशिजो ने सोचा, "हद है, बस हद है! उस औरत के फिर बच्चा होने वाला है!"
उसका ध्यान कोठरी में कुलबुलाते छ: बच्चों की ओर जाड़ो का अंत होते-न होतेकत जन्म लेने वाले सातवें बच्चे की ओर अपनी घरवाली की ओर गया, जो धड़ाधड़ एक के बाद एक बच्चा जनती चली जा रही है—एक गहरी उदासी उस पर छा गयी।
"अब सोचो", वह मन-ही-मन बुदबुदाया, "राज की १ येन ९० सेन मजदूरी मिलती है, जिसमें से फी पड़ी ५० सेन के हिसाब से दोपड़ी चावल लेने होते हैं। फिर रहने-सहने का खर्च रोज का ९० सेन हो जाता है। १.९० तो इसी में गया-अब शराब के लिए कुछ कहां से बच रहेगा!"
एकाएक उसे जेब में पड़े डिब्बे की याद आयी। डिब्बा निकालकर उसने अपनी पतलून की पिछाड़ी पर रगड़कर उसका सीमेंट साफ किया। डिब्बे पर कुछ लिखा नहीं था, लेकिन वह सावधानी से मुहरबनद किया गया था।
"भला ऐसे डिब्बे को कोई मुहरबन्द क्यों करना चाहेगा? वह जो भी हो, बुझौवल का शौकीन जान पड़ता है।"
सड़क के किनारे के पत्थर पर पटकने पर भी डिब्बे का ढक्कन नहीं खुला। गुस्से में योशिजो ने उसे सड़क पर डाल कर एड़ियों से कुचलना शुरू किया। अन्त में डिब्बा टूट गया। कपड़े के चिथड़े में लिपटा हुआ एक कागज देखकर योशिजो ने उठा लिया और पढ़ने लगा।
"मैं नूमुरा सीमेंट कम्पनी में मजदूरी करती हूं। मेरा काम सीमेंट के थैले सीना है। जिस नौजवान से मेरी सगाई हुई थी, वह भी उसी कम्पनी में काम करता था। उसका काम था पिसाई की मशीन में पत्थर झोंकना। ७ अक्तूबर की सुबह जब वह एक बड़ा ढोका मशीन में डालने की कोशिश कर रहा था, उसका पैर कीचड़ में फिसला और पत्थर के साथ ही वह मशीन में गिर गया।
"उसके साथियों ने उसे खिंचकर निकालने की कोशिश की, लेकिन कोई नतीजा न निकला। डूबते आदमी की तरह वह पत्थर के साथ ही धंसता चला गया। पत्थरों के साथ ही उसका शरीर भी मशीन में पिस गया और दूसरी तरफ चूरा बाहर फेंकने के लिए पाइप में से गुलाबी चूरा बनकर निकला—यह चूरा भी ढुलाईवाली पेटी के सहारे महीन पीसनेवाली चक्की में पहुंच गया और उसके इस्पात के पाटों के नीचे चला गया। मुझे लगा, पिसाई के दौरान भी वे मानो कोई मन्तर पढ़ रहें हों। वहां से चूरा भट्टी में पहुंचा और पक कर सीमेंट के रूप में तैयार होकर निकल आया।
" उसकी हड्डियां, उसका मांस-मज्जा, उसका मन-सब पिसकर चूरा हो गये थे। हां, मेरा पति थोड़ा-सा सीमेंट-भर बनकर रह गया था। बचा था सिर्फ उसकी पोशाक का एक चिथड़ा। आज दिन-भर मैं वे थैले सीती रही हूं, जिनमे उस खेप का सीमेंट भरा जायेगा।
"उसके सीमेंट बनने के दूसरे ही दिन मैं यह चिट्ठी लिख रहीं हूं। इसे पूरा करके मैं इस खेप के एक थैले में डाल दूंगी।
"क्या तुम जो भी इस देखोगें, मजदूर हो? अगर तो मेहरबानी करकह मुझे जवाब देना। इस थैले का सीमेंट कहां काम आ रहा है? मैं जानना चाहती हूं।
"कुल कितना सीमेंट उससे बना और सब-का-सब एक ही जगह काम आया या अलग-अलग? क्या तुम पलस्तर करनेवाले हो या राज-मिस्त्री?
"मैं नहीं चाहती कि वह किसी थियेटर के गलियारे या किसी बड़े भवन की दीवार का हिस्सा बन जाये। लेकिन ऐसा होना रोकने के लिए मैं कर क्या सकती हूं! अगर तुम मजदूर हो तो यह सीमेंट किसी ऐसी जगह में मत लगाना।
"लेकिन फिर सोचती हूं इससे क्या फर्क पड़ेगा! जहां चाहों, यह सीमेंट लगा देना। जहां भी वह लगया जायेगा, लगन से अपना काम पूरा करेगा। वह था ही नेक और इमानदार और जहां भी उसका भाग्य उसे ले जायेगा, वहां अपना काम पूरे मन से करेगा।
"उसका दिल बहुत नरम था, लेकिन साथ ही वह तगड़ा और साहसी भी था। अभी बिलकुल जवान था—२५वां साल लगा ही था। मुझे यह भी जानने का अवसर नहीं मिला कि वह मुझसे कितना प्रेम करता है और अब मैं उसके लिए कफन सी रही हूं—कफन क्या, सीमेंट का थैला सी रही हूं। दाहघर की जगह वह भट्ठी में झोंका जायेगा, लेकिन उससे विदा लेने के लिए मैं उसकी कब्र तक कैसे पहुंचूंगी, क्योंकि मैं कैसे जान सकती हूं कि तुम उसे कहां दफनाया जायेगा—पूरब या पश्छिम, दूर या पास कहीं....इसलिए मैं चाहती हूं कि तुम इस चिट्ठी का जबाब जरूर देना। तुम अगर मजदूर हो तो जवाब तो दोगे न? और उसके बदले में मैं उसकी पोशाक के कपड़े का एक टुकड़ा तुम्हें देती हूं—हां यही टुकड़ा है, जिसमें चिट्ठी लपेटी गयी है। उसके पत्थर का चूरा, उसके शरीर का पसीना—सब इसी कपड़े में है। जो पोशाक पहनकर वह मुझे सीने से लगाता था—ओह कितनी कड़ी होती थी उसकी कौली!—उसका कुल यह टुकड़ा ही बचा है?
"मेरे लिए इतना तो कर दोगे ने? मैं जानती हूं कि मैं तुम्हारे ऊंपर बहुत बोझ डाल रही हूं, लेकिन मेरी विनती है कि मुझे यह जरूर बता देना कि यह सीमेंट किस दिन काम आया, कैसी जगह लगाया गया और उसका ठीक पता क्या है। और अपना नाम-पता भी लिख देना। और तुम भी सावधानी से रहना—अपना खयाल रखना—रखोगे न? नमस्कार।"
बच्चों का हुड़दंग एक बार फिर योशिजो के आस-पास घिर आया था। एक बार फिर उसने चिट्ठी के अनत में दिया हुआ नाम और पता पढ़ा और फिर एक ही घूंट में चाय का वह प्याला खाली कर गया, जिसमें उसने अभी-अभी साके शराब भरी थी।
"मैं नशे में धुत्त हो आऊंगा!" उसकी घरवाली ने कहा, "तो आपके पास नशा करने की सहूलियत है? और बच्चों का क्या होगा?"
योशिजो ने घरवाली के बढ़े हुए पेट की तरफ देखा और उसे सातवें बच्चे की बात याद हो आयी।

सोमवार, 23 मई 2011

FORUM AGAINST WAR ON PEOPLE

A Release to the Press
Report and Resolution of the Public Meeting Against Military intervention in Central India
Held in Gandhi Peace Foundation, New Delhi, on 21 May 2011
Today, on 21st March, Forum against War on People successfully conducted a public meeting to register strong protest against the army encroachment in Abujhmad, Bastar. The speakers included eminent political activists, writers, civil rights activists, trade union activists and media persons. All the speakers in unison registered their strongest protest against the latest move by the Indian state to build the country’s biggest army base in Abujhmad, Bastar. Although it is being called a ‘army training camp’ people are in no illusion that it is a calculated step by the Indian state to move in the army in this already militarized zone of central India. The real intension of the Indian government is clear to everyone with its repeated attempts to use both official armed forces like police and paramilitary as well as unofficial vigilante gangs like Salwa judum and others, to forcefully evict the people of this region and crush their resistance movements. The state wants to hand over these mineral rich regions to the MNCs. All their efforts so far have failed to crush the resistance of the people and hence they have called in the army now. Writer Arundhati Roy expressed similar opinion. “the deployment of the army came after the jan jagran abhiyan, salwa judum and the operation greenhunt, all of which failed…so now they have called in the army” she added, “this democracy is a democracy of the elite. In India the elite has become the state. The rest of the people do not form a part of this group and are seen as liable to be disposed of.” Retired IAS officer B.D. Sharma, who has long experience of working in Chhattisgarh said, “The formation of the army camp flouts even the government laws and decisions of not to encroach upon tribal lands. The army camp will not be an isolated structure, but will lead to a range of paraphernalia connected with it, and outsiders will throng the region and the Madias, the original inhabitants of the land will perish. The Governor of Chhttisgarh in his discretion has the power to say that any law shall not apply to the tribal areas. I wish to see that this assembly demands that the Governor is reminded of his responsibility and duty”. A. B. Bardhan, general secretary of CPI asked, “Who is making preparations, giving training to the army, readying the army and air force? Air force is not a ‘sitting duck’. This is one of the most dangerous ventures, even if the excused is of in ‘self defense’. This army encroachment is a calculated move. I may not agree with the Maoists. But I say this openly, that in the training camp the state wants to oust the Maoists from Bastar and destroy their mass base. Hundreds of kilometers will be destroyed”. Admiral Vishnu Bhagwat, in his solidarity message stated that the army has clearly noted that the problems in central India is a socio-economic one and it is not good for the army to get involved in internal political ‘squabbles’. He said that the chief of the air staff has warned against co-lateral damage and its consequences and their clear disagreement in army deployment. Eminent economist Amit Bhaduri held this operation is intrinsic to the current economic policies that the state is pursuing. “It is not only about direct capture of resources, but it is also to make this country hospitable to corporate industrialization.” Sumit Chakravarti, the Editor of Mainstream demanded that other Left and democratic forces to be vocal against this operation. The speakers also criticized the way the army is being coerced and their opinions controlled, to enter into this region despite their open disagreement. Aparna from CPI ML (New Democracy), writer Madan Kashyap, Justice Rajinder Sachar, Pankaj Bisht, Girija Pathak from CPI ML (Liberation) and others have also addressed the public meeting.
Resolution
At the end the meeting resolved:
This meeting organized by the Forum Against War on People in New Delhi on 21st May 2010 demands that the Union Government immediately withdraw its decision to sanction the setting up of an army camp in Bastar. This 600 square kilometer camp in the heart of the country will result in the total decimation of the Abujhmadi adivasis who inhabit the area. In addition, it is clear that this is a step to further the interests of the MNCs and corporates who are out to seize the resource rich land, especially in lieu of the Supreme Court stopping the Salwa Judum and other formations from fulfilling this role. Moreover, this will allow the use of the army against the resistance being offered by the tribals and the entire resistance movement.
The fact that all this is being done while still maintaining that the army will not be used against the people exposes the government’s double-speak. The Manmohan Singh Government is coercing the army to fight in this region to safeguard the corporate interests. The army too had in the recent past publicly declined to embark on this war against their own people. The rank and file of the army after all are drawn from the villages of India and this will pit them against their own brothers and sisters.
This meeting unequivocally condemns the fact that the government is willing to even annihilate the Abujhmadi adivasis in its service to the MNCs and the corporates for the loot of India’s resources.
The meeting also demands that:
1.The war against the people must be stopped immediately;
2.All MOUs with various MNCs and corporates be made public and scrapped forthwith;
3.All central forces be withdrawn at the earliest.
21 May 2011
SAR Geelani G N Saibaba and Mrigank on behalf of the Forum

गुरुवार, 19 मई 2011

मंगलवार, 17 मई 2011

पश्चिम बंगाल चुनावः नक्सलबाड़ी से जंगल महल


जाने-माने पत्रकार पुण्य प्रसून वाजपेयी का यह आलेख आज प्रभात खबर,रांची में छपा है. पश्चिम बंगाल चुनावों के इतिहास और वर्तमान पर, उनके मुद्दों और राजनीति पर तथा उसके दूरगामी नतीजों पर रोशनी डालता हुआ यह आलेख उन सभी आलेखों से अलग है, जो या तो सीपीएम पर निशाना साधते हुए कम्युनिज्म को भी खारिज कर रहे हैं या फिर सीपीएम के समर्थन में ममता बनर्जी की विधान सभा चुनाव में जीत के प्रतिक्रियावादी अर्थ तलाश रहे हैं. जाहिर है, ममता बनर्जी उस राजनीति का हिस्सा हैं और उस राजनीति के जरिए ही सत्ता में आयी हैं जो फासीवादी और जनविरोधी चरित्र के आधार पर खड़ी है. ऐसे में उनके लिए सीपीएम या किसी भी पार्टी से बहुत अलग कुछ कर पाने की उम्मीद सही नहीं है. इसके संकेत दिखने भी लगे हैं, जब प बंगाल के वित्त मंत्री और दूसरे मंत्रालयों के लिए उद्योग जगत से जुड़ी हस्तियों के नाम सामने आ रहे हैं. फिर भी, पिछले साढ़े तीन दशक के सीपीएम के कथित वामपंथी शासन के बाद एक मध्यमार्गी पार्टी के राज्य के शासन में आने का क्या अर्थ है और इसमें कैसे भविष्य की आहटें छुपी हैं, इसकी तरफ यह आलेख संकेत करता है.
आमार बाड़ी नक्सलबाड़ी. यह नारा 1967 में लगा, तो सत्ता में सीपीएम के आने का रास्ता खुला. और पहली बार 2007 में जब आमारबाड़ी नंदीग्राम का नारा लगा, तो सत्ता में ममता बनर्जी के आने का रास्ता खुला.
1967 के विधानसभा चुनाव में पहली बार कांग्रेस हारी और पहली बार मुख्यमंत्री प्रफ़ुल्ल चंद्र सेन भी हारे. वहीं 2011 में पहली बार सीपीएम हारी और पहली बार सीपीएम के मुख्यमंत्री बुद्धदेव भट्टाचार्य भी हारे. बुद्धदेव को उनके दौर में मुख्य सचिव रहे मनीष गुप्ता ने ठीक उसी तरह हराया, जैसे 1967 में कांग्रेसी सीएम प्रफ़ुल्ल सेन को उनके अपने मंत्री अजय मुखर्जी ने हराया. ममता के मंत्रिमंडल के अनमोल हीरे मनीष गुप्ता हैं और 1967 में तो अजय मुखर्जी ही संयुक्त मोरचे की अगुवाई करते हुए मुख्यमंत्री बने.
1967 में नक्सलबाड़ी से निकले वाम आंदोलन ने उन्हीं मुद्दों को कांग्रेस के खिलाफ़ खड़ा किया, जिसकी आवाज नक्सलवादी लगा रहे थे. किसान, मजदूर और जमीन का सवाल लेकर नक्सलबाड़ी ने जो आग पकड़ी, उसकी हद में कांग्रेस की सियासत भी आयी और वाम दलों का संघर्ष भी. और उस वक्त कांग्रेस ने वामपंथियों पर सीधा निशाना यह कह कर साधा कि संविधान के खिलाफ़ नक्सलवादियों की पहल का साथ वामपंथी दे रहे हैं. और संयोग देखिये 2007 में जब नंदीग्राम में केमिकल हब के विरोध में माओवादियों की अगुवाई में जब किसान अपनी जमीन के लिए व मजदूर-आदिवासी अपनी रोजी-रोटी के सवाल को लेकर खड़े हुए, तो इसकी आग में वामपंथी सत्ता भी आयी और ममता बनर्जी ने भी ठीक उसी तर्ज पर माओवादियों के मुद्दों को हाथों-हाथ लपका, जैसे 1967 में सीपीएम ने नक्सलवादियों के मुद्दों को लपका था.
यानी इन 44 बरस में बंगाल में सत्ता परिवर्तन के दौर को परखें, तो वाकई यह सवाल बड़ा हो जाता है कि जिस संगठन को संसदीय चुनाव पर भरोसा नहीं है, उसकी राजनीतिक कवायद को जिस राजनीतिक दल ने अपनाया, उसे सत्ता मिली और जिसने विरोध किया, उसकी सत्ता चली गयी. 1967 के बंगाल चुनाव में पहली बार सीपीएम ने ही भूमि सुधार से लेकर किसान मजदूर के वही सवाल उठाये, जो उस वक्त नक्सलबाड़ी एवं कृषक संग्राम सहायक कमेटी ने उठाये. 2007 में नंदीग्राम में केमिकल हब की जद में किसानों की जमीन आयी, तो माओवादियों ने ही सबसे पहले जमीन अधिग्रहण को किसान- मजदूर विरोधी करार दिया. और यही सुर ममता ने पकड़ा.
1967 से लेकर 1977 के दौर में जब तक सीपीएम की अगुवाई में पूर्ण बहुमत वाम मोरचा को नहीं मिला, तब तक राजनीतिक हिंसा में पांच हजार से ज्यादा हत्याएं हुईं. जिसमें तीन हजार से ज्यादा नक्सलवादी तो डेढ़ हजार से ज्यादा वामपंथी कैडर मारे गये. सैकड़ों छात्र जो मार्क्स- लेनिन की थ्योरी में विकल्प का सपना संजोये किसान-मजदूरों के हक का सवाल खड़ा कर रहे थे, वह भी राज्य हिंसा के शिकार हुए. हजार से ज्यादा को जेल में ठंस दिया गया. और इसी कड़ी ने कांग्रेसियों को पूरी तरह 1977 में सत्ता से ऐसा उखाड़ फ़ेंका कि बीते तीन दशक से बंगाल में आज भी कोई बंगाली कांग्रेस के हाथ सत्ता देने को तैयार नहीं है. इसीलिए राष्ट्रीय पार्टी का तमगा लिये कांग्रेस ने 1967 के दाग को मिटाने के लिए उसी ममता के पीछे खड़ा होना सही माना, जिसने 1997 में कांग्रेस को सीपीएम की बी टीम से लेकर चमचा तक कहते हुए कांग्रेस के राष्ट्रीय अधिवेशन में बगावत कर अपनी नयी पार्टी तृणमूल बनाने का ऐलान किया था.
लेकिन ममता के लिए 2011 के चुनाव परिणाम सिर्फ़ माओवादियों के साथ खड़े होकर मुद्दों की लड़ाई लड़ना भर नहीं है. बल्कि 1971-1972 में जो तांडव कांग्रेसी सिद्धार्थ शंकर रे नक्सलबाड़ी के नाम पर कोलकाता के प्रेसीडेंसी कॉलेज तक में कर रहे थे. कुछ ऐसी ही कार्रवाई 2007 से 2011 के दौर में बुद्धदेव भट्टाचार्य के जरिये जंगल महल के नाम पर कोलकाता तक में नजर आया. इसी का परिणाम हुआ कि मई 2007 में नंदीग्राम में जब 14 किसान पुलिस फ़ायिरग में मारे गये, उसके बाद से 13 मई 2011 तक यानी ममता बनर्जी के जीतने और वाम मोरचे की करारी हार से पहले राजनीतिक हिंसा में एक हजार से ज्यादा मौतें हुई. करीब 700 को जेल में ठूंसा गया. आंकड़ों के लिहाज से अगर इस दौर में दलों और संगठनों के दावों को देखें, तो माओवादियों के 550 कार्यकर्ता मारे गये. तृणमूल कांग्रेस के 358 कार्यकर्ता मारे गये. सौ से ज्यादा आम ग्रामीण- आदिवासी मारे गये. सिर्फ़ जंगल महल के 700 से ज्यादा ग्रामीणों को जेल में ठूंस दिया गया. तो क्या जिन परिस्थितियों के खिलाफ़ साठ और सत्तर के दशक में वामपंथियों ने लड़ाई लड़ी, जिन मुद्दों के आसरे उस दौर में कांग्रेस की सत्ता को चुनौती दी, उन्हीं परिस्थितियों और उन्हीं मुद्दों को 44 बरस बाद वामपंथियों ने सत्ता संभालते हुए पैदा कर दी. जाहिर है ऐसे में बड़ा सवाल यही है कि सत्ता संभालने के बाद ममता बनर्जी नहीं भटकेगी, इसकी क्या गारंटी है. जबकि ज्योति बसु ने मुख्यमंत्री का पद संभालने के बाद जो पहला निर्णय लिया था, वह नक्सलवादियों के संघर्ष के मूल मुद्दे से ही उपजा था.
21 जून 1977 को ज्योति बसु ने सीएम पद की शपथ ली और 29 सितंबर 1977 को वेस्ट बंगाल लैंड अमेंडमेंट बिल विधानसभा में पारित करा दिया. और दो साल बाद 30 अगस्त 1979 में चार संशोधन के साथ दि वेस्ट बंगाल लैंड फ़ार्म होल्डिंग रेवेन्यू बिल-1979 विधानसभा में पारित करवाने के बाद कहा, अब हम पूर्ण रूप से सामंती राजस्व व्यवस्था से बाहर आ गये. और इसके एक साल बाद 27 मई 1980 को ट्रेड यूनियनों से छीने गये सभी अधिकार वापस देने का बिल भी पास किया. इसी बीच 10 वीं तक मुफ्त शिक्षा और स्वास्थ्य सेवा भी ज्योति बसु ने दिलायी. यानी ध्यान दें तो सीपीएम पहले पांच बरस में नक्सलबाड़ी से उपजे मुद्दों के अमलीकरण में ही लगी रही. और जनता से उसे ताकत भी जनवादी मुद्दों की दिशा में बढ़ते कदम के साथ मिला. लेकिन जैसे-जैसे चुनावी प्रक्रिया में सत्ता के लिए वामपंथियों ने अपनी लड़ाई पंचायत से लेकर लोकसभा तक के लिए फ़ैलायी और चुनाव के केंद्र में सत्ता न गंवाने की सोच शुरू हुई, वैसे-वैसे सीपीएम के भीतर ही कैडर में प्रभावी ताकतों का मतलब वोट बटोरनेवाले औजार हो गये. और यहीं से राजनीति जनता से हट कर सत्ता के लिए घुमड़ने लगी.
जाहिर है ममता ने भी चुनाव जनता को जोर पर मां, माटी, मानुष के नारे तले जीता है. और सत्ता उसे जनता ने दी है. इसलिए ममता के सत्ता संभालने के बाद बिलकुल ज्योति बसु की तर्ज पर बंगाल में कुछ निर्णय पारदर्शी होंगे. जैसे जंगल महल के इलाके में ज्वाइंट-फ़ोर्स का ऑपरेशन जो माओवादियों को खत्म करने के नाम पर हो रहा है, वह बंद होगा. राज्य की बंजर जमीन पर इंफ्रास्ट्रक्चर शुरू कर औद्योगिक विकास का रास्ता खुलेगा. छोटे किसान, मजदूर और आदिवासियों के लिए रोजगार और रोजगार की व्यवस्था होने से पहले रोजी-रोटी की व्यवस्था ममता अपने हाथ में लेगी. बीपीएल की नयी सूची बनाने और राशन कार्ड बांटने के लिए एक खास विभाग बना कर काम तुरंत शुरू करने की दिशा में नीतिगत फ़ैसला होगा. जमीन अधिग्रहण के एवज में सिर्फ़ मुआवजे की थ्योरी को खारिज कर औद्योगिक विकास में किसानों की भागीदारी शुरू होगी. यानी कह सकते हैं कि माओवादियों के उठाये मुद्दे राज्य नीति का हिस्सा बनेंगे. लेकिन यहीं से ममता की असल परीक्षा भी शुरू होगी.

ममता के सामने चुनौती माओवादियों को मुख्यधारा में लाने का भी होगा और अभी तक सत्ताधारी रहे वाम कैडर को कानून-व्यवस्था के दायरे में बांधने का भी.ज्योति बसु ने नक्सलवादियों को ठिकाने अपने कैडर और पुलिसिया कार्रवाई से लगाया. और उस वक्त सत्ता राइट से लेफ्ट में आयी थी. लेकिन ममता का सोच अलग है. यहां लेफ्ट के राइट में बदलने को ही बंगाल बरदाश्त नहीं कर पाया, राइट से निकली ममता कहीं ज्यादा लेफ्ट हो गयी. इसलिए बंगाल पुलिस के पास भी वह नैतिक साहस नहीं है, जिसमें वह माओवादियों को खत्म कर सके. क्योंकि बंगाल पुलिस का लालन-पोषण बीते दौर में उन्हीं वामपंथियों ने किया, जिसका कैडर वाम फ़िलासफ़ी को जमीन में गढ़ कर सत्ता में प्रभावी बना. जाहिर है ममता ने सीपीएम का हश्र देख लिया और बंगाल के मानुष के अतिवाम मिजाज को भी समझ लिया है, जो बीते 44 बरस में नहीं बदला है.
इसलिए ममता डिगेगी यह तो असंभव है, लेकिन ममता माओवादियों से तालमेल बैठा कर कैसे सत्ता चलाती है और बंगाल को कैसे बदलती है, नजर सभी की इसी पर है.
Sabhar Hasia blog

बुधवार, 11 मई 2011

अपने ही बनाए कानून को तोड़ रहा है फेसबुक
देवेन्द्र प्रताप
पूंजीवाद कैसे खुद अपने ही बनाए कानूनों को तोड़ता है, इसका एक जीता-जागता उदाहरण फेसबुक है। फेसबुक के नियमों के मुताबिक इसका इस्तेमाल नाबालिकों के लिए प्रतिबंधित है। इस नियम के बावजूद हकीकत यह है नाबालिक बच्चे इसका सबसे ज्यादा इस्तेमाल कर रहे हैं। अमेरिका में हुए एक सर्वे के मुताबिक इस समय पूरी दुनिया में करीब 50 करोड़ लोग फेसबुक का इस्तेमाल करते हैं। इनमें से फेसबुक के 75 लाख उपभोक्ता 13 साल से कम उम्र के हैं। अमेरिका में उपभोक्ताओं से जुडेÞ मामलों के प्रकाशक कंज्यूमर रिपोर्ट ने एक सर्वेक्षण के आधार पर कहा है कि वर्ष 2010 में फेसबुक का इस्तेमाल करने वाले करीब दो करोड़ नाबालिग बच्चों में से लगभग 75 लाख बच्चों की उम्र 13 साल से कम है। इसमें से भी करीब 50 लाख से ज्यादा ऐसे बच्चे हैं, जिनकी उम्र 10 साल या इससे भी कम है। फेसबुक का इस्तेमाल करने वाले ज्यादातर बच्चे अमेरिका और यूरोप के ही हैं। सबको पता है कि यूरोपीय और अमेरिकी समाजों में समाज में एलिएनेशन सबसे ज्यादा है। यही वजह है कि लोग अपने बच्चों के ऊपर ज्यादा ध्यान नहीं दे पाते। परिवार के ज्यादातर सदस्यों के कामकाजी होने के कारण, उनके पास बच्चों के लिए समय नहीं है, नतीजा बच्चे टीवी या सोशल नेटवर्किंग साइटों का ज्यादा इस्तेमाल करते हैं। जरा सोचिए ये बच्चे फेसबुक पर क्या करते होंगे? इंटरनेट की दुनिया से परिचित किसी भी व्यक्ति के लिए इन फेसबुकिया बच्चों की मन:स्थिति को समझना ज्यादा मुश्किल नहीं है। कंज्यूमर रिपोर्ट के अनुसार पिछले साल दस लाख बच्चे साइबर अपराध के विभिन्न मामलों के शिकार बने। सर्वेक्षण के मुताबिक, केवल 18 फीसदी अभिभावकों ने अपने बच्चों निगाह रखने के लिए उन्हें फेसबुक पर अपना मित्र बनाया है। दिक्कत यह है कि अगर माता-पिता अपने बच्चों को फेसबुक से दूर भी रखना चाहें, तो उन्हें यह वेबसाइट कोई मदद नहीं देती है। ऐसे में उस कानून का क्या मतलब है, जो नाबालिकों को फेसबुक के इस्तेमाल से रोकता है।

मंगलवार, 10 मई 2011

श्रीमती अंबिका सोनी
सूचना एवं प्रसारण मंत्री, भारत सरकार
नई दिल्ली
मैं आपका ध्यान टेलीविजन चैनलों पर चल रहे “सुरक्षा कवच” कार्यक्रमों की तरफ ले जाना चाहता हूं। हमारे देश में हमेशा से अंधविश्वास को बेचने की प्रथा रही है, पहले पंडे-पाखंडी बेचते थे अब आधुनिक पंडे (चैनल वाले) बेच रहे हैं। हर चैनल पर या तो राशिफल वाले मिलेंगे या फिर चैनल के एंकर आपको किसी आपदा की भविष्यवाणी करते दिखाई देंगे। लगता है कि लगभग चैनल अंधविश्वास की इस मंडी में जितना माल बेच सकता है बेच रहा है। पहले जो काम सड़क, बस स्टैंड, रेलवे स्टेशन और सरकारी अस्पतालों के बाहर बैठनें वाले ढोंगी बाबा करते थे वो काम अब भव्य ग्राफिक्स और टेलीकॉलिंग के ज़रिए चुके हुए टीवी कलाकार और चैनल कर रहे हैं। टीवी चैनल अपने 24 घंटे के रनडाउन में से आधे-आधे घंटे के चंक के हिसाब से कम से कम 5 घंटे ऐसे कार्यक्रमों को देता है। टेलीशॉपिंग का कॉन्सेप्ट भी टेलीविजन के विकास के साथ आगे बढ़ता गया है। दूरदर्शन के समय में भी दोपहर में टेली होम शॉपिंग कार्यक्रम आता था जिसमें आप फोन करके घर में उपयोग कि जानें वाली वस्तुऐं जैसे, जूसर-मिक्सर, नॉन स्टिक बर्तन, बिजली वाल टोस्टर, वैक्यूम क्लीनर, टू-इन-वन स्टिरियो आदि मंगवा सकते थे। पहले जरूरतों में वस्तुओं को खोजा गया फिर जैसे-जैसे चैनल बढ़ने लगे, विदेशों की तर्ज़ पर वस्तुओं में जरूरतों को पैदा किया गया। सन् 2000 के बाद से होम शॉपिंग का कॉन्सेप्ट वही रहा वस्तुएं बदली तो ऐसी बदली कि बस!
ब्लडप्रेशर कम करनें की मैगनैटिक माला हो या कमर दर्द कम करनें वाला गद्दा, मोटापा कम करनें वाली सोना स्लिम बेल्ट हो या रंग गोरा करनें वाला रूप अमृत। सबने कहीं ना कहीं इस तथाकथित मध्यम वर्ग में अपना-अपना बाज़ार बनाया और चैनलों के साथ-साथ लाभ कमाया। पहले इन विज्ञापनों की फिल्में भी भारत में नही बनती थी। आपने देखा होगा कि विदेशी लोगों पर कैसे फर्राटे से हिंदी चिपका दी जाती थी और वो अपने सोफा-कम-बेड और सोना स्लिम बेल्ट से होने वाले लाभों का बखान करते। भारतीय मानसिकता गोरे रंग वालों के प्रभाव से कितना मुक्त हो पाई है आपको ज्यादा पता है। धीरे-धीरे होम शॉपिंग के कार्यक्रमों का प्रचार-प्रसारण टीवी चैनलों पर मोटापा कम करने, गंजापन कम करने, लंबाई बढ़ाने और इंगलिश सीखानें वाले उत्पादों ने ले लिया था अब सोना स्लिम बेल्ट, रूप अमृत(गोरेपन के लिए) और ऐबरोलर(पेट कम करने) के विज्ञापन भारत में ही शूट होनें लगे । 2005 के आते-आते टीवी चैनलों की संख्या बढ़ी। टीवी न्यूज़ चैनलों ने भी अपने प्रभाव का इस्तेमाल करते हुए कथित टीआरपी के लिए अपने दर्शकों को भूत-प्रेत और जादू-टोना ख़ूब जमकर बेचा।(हालांकि यह मामला केवल टीआरपी का नहीं है। अपनी सांस्कृतिक जमीन बेचने का मामला है।) पता नहीं कहां-कहां से किवदंतियों पर कई प्रोफाइल पैकेज चलाए।चैनलों ने समझा दिया कि भूत-प्रेत और शनिदेव से डरा कर टीआरपी का मीटर घुमाया जाता है। इसका बाज़ार पर भी गज़ब प्रभाव पड़ा और जो कंपनी कल सोना स्लिम बेल्ट और रूप अमृत बनाती थी अब वो नज़र रक्षा कवच, धन लक्ष्मी कवच, बाधामुक्ति कवच, कुबेर कुंजी, शिव परिवार, महाधनलक्ष्मी पैंडेंट, एक मुखी रूद्राक्ष और शनि कवच जैसे ना जानें कितने उत्पाद टीवी पर बेचते है। शुरुआत में ऐसे कार्यक्रम रात 12 बजे के बाद से सुबह 8 बजे तक हर आधे घंटे के अंतराल में प्रासारित किए जाते थे। कुछ चैनल इनके प्रसारण के समय विज्ञापन लिखा एक बग दिखाते थे लेकिन अब तो अधिकतर चैनल ऐसा नहीं करते। हालांकि चैनल ऐसे कार्यक्रमों से पहले डिस्क्लेमर देता है कि “इस कार्यक्रम में दिखाई गई किसी भी साम्रगी से चैनल का कोई लेन-देना नहीं है”।लेकिन आपको ज्यादा पता है कि डिस्कलेमर कितना पढ़ने और सुनाने के लायक प्रस्तुत किया जाता है। डिस्कलेमर केवल कानून की तकनीकी जरूरतों को पूरा करता है ताकि सरकार ये दावा कर सके कि चैनल कानून के मुताबिक काम करते हैं। आजकल टीवी पर किसी भी समय, किसी भी चैनल पर आपको फिल्मी दुनिया से चूका कोई चेहरा दिखाई देता है और शनि कवच की ख़ूबी बताने लगता है, रति अग्निहोत्री, मुकेश खन्ना, अरुण गोविल, हिमानी शिवपुरी, आलोक नाथ जैसे कुछ ऐसे नाम है जिन्हें किसी ज़मानें में आप जानते होंगे लेकिन आजकल ये शनिबाबा कवच और नजर रक्षा यंत्र बेचते दिखते हैं। आपके घर में क्लेश, परीक्षा में पास ना होना, व्यापार में घाटा होना, बच्चा ना होना, धन लाभ ना होना, किसी की नज़र लगना, जंतर-मतंर जादू-टोना सबका एक ही तरीके का इलाज अलग-अलग पैकिंग और अलग-अलग भाव में केवल एक फोन पर उपलब्ध है। क्या न्यूज़ चैनल, क्या कथित मनोरंजन चैनल, क्या फिल्म या कार्टून के चैनल सभी पर समाज में अंधविश्वास को बढ़ाने वाले इन उत्पादों के विज्ञापन धड्ल्ले से प्रसारित होते है। आप शाम को 5 बजे के बाद से और सुबह 10 तक किसी भी समय 30 मिनट के इस विज्ञापन को लगभग किसी भी टीवी चैनल पर देख सकते है।चैनलों का नया नामकरण “ के “ चैनल हुआ है। पहले तीन सी चलता था अब एक के सारे चैनलों के कार्यक्रमों का विषय हैं।
सूचना एंव प्रसारण मंत्रालय के अनुसार ऐसे विज्ञापन जिनमें अपने उत्पाद के चमत्कारीय और आलौकिक प्रभावों का बखान हो वे केबल टेलीविजन नेटवर्क नियम 1994 के विज्ञापन कोड के नियम 7(5) का उल्लंघन करते है। सूचना प्रसारण मंत्रालय द्वारा टीवी चैनलों की प्रसारण सामग्री पर नज़र रखनें वाली संस्था इलैक्ट्रोनिक मीडिया मॉनिटरिंग सेंटर हर महीनें लगभग सैंकड़ों की तादात में ऐसे विज्ञापनों की वॉएलेशन रिपोर्ट मंत्रालय को सौंपता होगा । लेकिन फिर भी समाज में अंधविश्वास को बढ़ाना देनें वाले इन विज्ञापनों और इस प्रकार की प्रसारण सामग्री पर सूचना एंव प्रसारण मंत्रालय किसी भी प्रकार का अंकुश नहीं लगा पाया है।क्या सरकार की सहमति से इस तरह के कार्यक्रम चल रहे हैं ?आखिर भारतीय समाज में वैज्ञानिक नजरिया विकसित करने के बजाय समाज की आंखों में धूल झोंक रहे हैं। बाज़ार में इसी प्रकार के अन्य उत्पाद एक के बाद एक आ रहे है। पहले नज़र रक्षा कवच था फिर शनि कवच, धन लक्ष्मी कवच, नवरत्न अंगूठी, कुबेर कुंजी, शिव परिवार, बाधा मुक्ति कवच...पता नहीं क्या-क्या? कोई 3500रु. में तो कोई 2250 में, किसी के साथ एक मुखी रुद्राक्ष फ्री तो किसी के साथ अभिमंत्रित लोबाण,भस्म,सिंदूर,त्रिशूल और राई फ्री।
हम आपसे मांग करते हैं कि चैनलों को जो इस तरह से छूट दी जा रही है वो तत्काल वापस ली जानी चाहिए और उनके खिलाफ केबल एक्ट के तहत कार्रवाई की जानी चाहिए।
आपका
अनिल चमड़िया

सोमवार, 9 मई 2011

आखिर अलग होने की क्या जरूरत है?देवेन्द्र प्रताप
अंग्रेजों से आजादी मिलने के साथ ही हिंदुस्तान के दो टुकड़े कर दिए गए। महात्मा गांधी तक उसे नहीं रोक पाए। यानी भारत राष्ट्र की नींव में अलगाव का पत्थर इस्तेमाल किया गया, न कि एकता का। यही अलगाव था कि हमारे ऊपर अंग्रेजों ने 200 सालों तक राज किया। यह अलगाव क्या था? क्या वह अलगाव आज दूर हो गया है? जी हां यहां मैं इसारा कर रहा हूं, जाति-पांति का, हिंदू-मुसलमान का। अलगाव दूर होने के बजाय वह और मुकम्मल बनाया जा रहा है। ऐसे लोगों के द्वारा जिन्होंने आजादी की जंग में कोई योगदान नहीं किया उनके द्वारा। कौन हैं ये लोग इन्हें चिन्हित किया जाना आज बेहद जरूरी है। बहरहाल इस मुद्दे पर फिर कभी चर्चा की जाएगी। इस बार हम देश के विभाजन का एक और किस्सा सुना रहे हैं। सबसे पहले हम आपको इसके बारे में सूचना देंगे, बाद में फिर इस सूचना के सहारे समस्या में और गहरे उतरा जाएगा। मैं बात कर रहा हूं, अलग राज्यों के आंदोलनों के बारे में। इस समय देश में 25 से ज्यादा अलग राज्यों के आंदोलन चल रहे हैं। ये राज्य क्यों अलग होना चाहते हैं, प्रस्तुत आलेख में आपको इसकी हल्की फुलकी जानकारी मिल जाएगी। शेष फिर। हां यह देश से अलग नहीं होने जा रहे हैं, बल्कि किसी खास राज्य से अलग होकर अपना अलग राज्य बनाना चाहते हैं। बहुत जल्दी में ये सूचनाएं इकठ्ठा किया था, अखबार के लिए। उन्हें तो सिर्फ इन्फार्मेशन चाहिए थी सो उनका काम हो गया। अब यहां देने का एक मकसद यह है कि इसमें कुछ घटाना बढ़ाना हो तो आप बता दीजिए, ताकि जल्दी से हम इस मुद्दे पर अपना ध्यान लगाएं कि आखिर इस अलगाव की जड़ कहां है। पहले ही साफ कर दूं कि मेरे पास कोई हल नहीं है। हां मैं तो इस बात में यकीन करता हूं कि अगर सौ मूर्ख अपना दिमाग लगाएंगे तो कुछ बेहतर नतीजा जरूर आएगा .
हरित प्रदेश
पश्चिमी उत्तर प्रदेश के बंटवारे की जब से शुरुआत हुई तब से अभी तक उसे कई नाम मिले। गन्ना प्रदेश, किसान प्रदेश, जाटिस्तान, ब्रज प्रदेश, पश्चिमांचल और फिर हरित प्रदेश जैसे नाम इसके इतिहास को बयां करते हैं। इनमें से सबसे नया नाम हरित प्रदेश है। हरित प्रदेश की मांग को राष्ट्रीय लोकदल ने राष्ट्रीय मुद्दा बनाया। उन्होंने इसके लिए लम्बी लड़ाई भी लड़ी, लेकिन आज भी यह मुद्दा अधर में लटका हुआ है। छ: करोड़ की जनसंख्या वाले प्रस्तावित हरित प्रदेश में उत्तर प्रदेश के छ: मंडलों (मेरठ, सहारनपुर, मुरादाबाद, बरेली, आगरा और अलीगढ़) के 22 जिले (आगरा, बरेली, मैनपुरी, फिरोजाबाद, अलीगढ़, बरेली, बदायूं, बुलंदशहर, एटा, मथुरा, मेरठ, गाजियाबाद, रामपुर, सहारनपुर, मुजफ्फरनगर, बिजनौर, हरिद्वार, शाहजहांपुर, महामाया नगर, बागपत, गौतमबुद्ध नगर और ज्योतिबाफुले नगर) शामिल हैं। मायावती ने करीब 12 साल पहले मथुरा में एक मीटिंग के दौरान इस मांग का समर्थन किया था। 2009 में उन्होंने उत्तर प्रदेश को दो हिस्सों में विभाजित करने के लिए प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह को एक पत्र भी लिखा। इसी तरह का एक पत्र वे 2007 में भी लिख चुकी हैं। 1955 में भीमराव अंबेडकर ने भी उत्तर प्रदेश को तीन हिस्सों (पूर्वी, मध्य और पश्चिमी प्रदेश) में विभाजित करने का सुझाव दिया था। आज अगर उनके सुझाव पर गौर किया गया होता तो इलाहाबाद, कानपुर और मेरठ क्रमश: उत्तर प्रदेश के प्रस्तावित पूर्वी प्रदेश, मध्य प्रदेश और पश्चिमी प्रदेश की राजधानी होते।
पश्चिमी उत्तर प्रदेश को उत्तर प्रदेश के पंजाब का दर्जा हासिल है। उत्तर प्रदेश के ज्यादातर उद्योग प्रस्तावित हरित प्रदेश की सीमा में ही आते हैं। इसके बावजूद सरकारी उपेक्षा के चलते इस क्षेत्र के कई लघु उद्योग और सहकारी चीनी मिलें आज बंद हो चुकी हैं। चीनी मिलों की बंदी ने दसियों हजार लोगों का रोजगार छीन लिया। नाइंसाफी यह कि सरकार को इस क्षेत्र से राज्य की कुल आय का 72 प्रतिशत हिस्सा प्राप्त होता है, लेकिन वह इस आय का मात्र 18 प्रतिशत हिस्सा ही इस इलाके के विकास के ऊपर खर्च करती है। तरक्की में कीर्तिमान स्थापित करने के बावजूद यह क्षेत्र शिक्षा के मामले में राज्य के दूसरे इलाकों से पिछड़ा हुआ है, वहीं दूसरी ओर यहां अपराध का स्तर बहुत ऊंचा है। स्थिति यह है कि आज मेरठ और मुजफ्फर नगर जैसे शहरों को क्राइम सिटी कहा जाने लगा है।
हरित प्रदेश की लड़ाई के पीछे की एक बड़ी वजह यहां हाईकोर्ट की बेंच का न होना भी है। पश्चिमी उत्तर प्रदेश के लिए अलग से हाईकोर्ट की कोई बेंच नहीं है। इसके लिए यहां के लोगों को इलाहाबाद जाना होता है। इलाहाबाद से मेरठ 637 किमी, मुजफ्फरनगर 693 किमी, सहारनपुर 752 किमी, बागपत 700 किमी, गाजियाबाद 662 किमी, बिजनौर 692 किमी, गौतमबुद्ध नगर 650 किमी, अलीगढ़ और मथुरा 501 किमी, आगरा 464 किमी, एटा 497 किमी, और मैनपुरी 462 किमी की दूरी पर है। मेरठ से इलाहाबाद हाईकोर्ट जाने के लिए सिर्फ दो ट्रेनों की सुविधा है। ऐसे में यहां के लोगों को इलाहाबाद जाने में बेहद परेशानी उठानी होती है। मुकद्मे के लिए यहां से इलाहाबाद जाने वाला व्यक्ति आमतौर पर प्रति सुनवाई 3000-4000 खर्च करता है। यह राशि उससे अलग है, जो मुवक्किल अपने वकील को देता है। एक मोटे अनुमान के मुताबिक इस इलाके के लोग साल भर में तकरीबन 100 करोड़ रुपये इलाहाबाद हाईकोर्ट में मुकद्मेबाजी पर ही खर्च कर देते हैं। जाहिरा तौर पर ऐसे में इलाहाबाद के वकील कभी नहीं चाहेंगे कि यहां हाईकोर्ट के बेंच खोली जाए। हरित प्रदेश की लड़ाई लड़ने वाली शक्तियों का मानना है कि अलग राज्य बनने से ही इस मसले का समाधान हो सकता है।
पूर्वांचल
प्रस्तावित पूर्वांचल राज्य का कुल क्षेत्रफल उत्तर प्रदेश का एक तिहाई और उत्तरांचल के डेढ़ गुने से ज्यादा है। इसमें उत्तर प्रदेश के आठ मण्डलों (इलाहाबाद, वाराणसी, मिर्जापुर, गोरखपुर, आजमगढ, बस्ती, फैजाबाद व देवीपाटन) के 27 जिले (इलाहाबाद, गोरखपुर, वाराणसी, चन्दौली, गाजीपुर, बलिया, देवरिया, कुशीनगर, महराजगंज संतकबीरनगर, सिद्धार्थनगर, बस्ती, बलरामपुर, गोंडा, कौशाम्बी, बहराइच, श्रावस्ती, फैजाबाद, अंबेडकरनगर, आजमगढ़, मऊ, सुलतानपुर, प्रतापगढ़, भदोही, मिजार्पुर व सोनभद्र) शामिल हैं। 18 करोड़ की आबादी वाले उत्तर प्रदेश की आधी आबादी (9 करोड़) पूर्वी उत्तर में रहती है। वर्तमान में पूर्वांचल के अंतर्गत उत्तर प्रदेश विधानसभा की 147 और लोकसभा की 28 सीटे हैं। यहां से 147 विधायक और 28 सांसद चुने जाते हैं, लेकिन विकास के मामले में पूरा इलाका पिछड़ा हुआ है।
इस समय पूर्वांचल की 26 चीनी मिलों में से ज्यादातर बंद हो चुकी हैं। गोरखपुर फर्टिलाइजर कारखाना देश के पांच प्रधानमंत्रियों के आश्वासन (नरसिम्हा राव, एचडी देवगौडा, आई के गुजराल, अटल बिहारी वाजपेयी और मनमोहन सिंह) के बावजूद आज तक नहीं खुल सका। इस क्षेत्र के करीब डेढ़ करोड़ युवा आज बेरोजगार हैं, जबकि पांच करोड़ लोग गरीबी रेखा से नीचे जीवन जीते हैं। रोजगार के अवसर की कमी और बढ़ती बेरोजगारी यहां एक स्थाई समस्या बन चुकी है। यहां से पलायन के पीछे की यह एक बड़ी वजह है। पूर्वांचल में 12 हजार मेगावाट बिजली पैदा होती है, बावजूद इसके यहां के लोग बिजली के लिए तरसते हैं। विजली की कमी के चलते इस क्षेत्र के लघु उद्योग दम तोड़ रहे हैं। हथकरघा के लिए प्रसिद्ध मऊ, साड़ी के लिए बनारस, पीतल के बर्तन के लिए मिर्जापुर, कालीन के लिए भदोही और मिट्टी के बर्तनों के लिए चुनार, आज अपनी किस्मत पर आंसू बहा रहे हैं। बनारस के बुनकर आज अपना ही खून बेचकर पेट पालने के लिए मजबूर हैं। पूर्वांचल राज्य के गठन पर 50 के दशक की पटेल आयोग की रिपोर्ट योजना आयोग की फाइलों में आज भी दबी है। इसी को आधार बनाकर ‘पूर्वांचल बनाओ मंच’, ‘पूर्वांचल स्थापना समिति’ और ‘अखिल भारतीय लोकमंच’ अलग पूर्वांचल राज्य बनाने के लिए आंदोलन कर रहे हैं।
तेलंगाना
बेराजगारी, विकास कार्यों की उपेक्षा, सिंचाई के साधनों की कमी, राज्य में असमान विकास व सामाजिक-आर्थिक पिछड़ापन और अतीत के जन आंदोलनों (1949 का तेलंगाना आंदोलन, 1969 का प्रसिद्ध छात्र आंदोलन आदि) के दमन ने धीरे-धीरे तेलंगाना की जनता के मन में अलग राज्य का बीज बोया। किसानों की आत्महत्याओं ने भी पृथक तेलंगाना राज्य आंदोलन की जमीन तैयार करने का काम किया। 2000 तक आते-आते तेलंगाना क्षेत्र में पृथकतावादी ताकतों का उदय हो चुका था। 2001 में तेलंगाना राष्ट्र समिति (टीआरएस) क्षेत्र की पृथकतावादी ताकतों का एक साझा मंच बना। टीआरएस द्वारा प्रस्तावित तेलंगाना राज्य में आंध्र प्रदेश के कुल 23 जिलों में से 10 जिले शामिल हैं। प्रस्तावित राज्य में आंध्र प्रदेश की 294 में से 119 विधानसभा सीटें शामिल हैं। 2004 तक टीआरएस ने क्षेत्र की जनता के बीच अपनी अच्छी खासी पैठ बना ली। इस वर्ष उसने कांग्रेस के साथ मिलकर विधानसभा का चुनाव लड़ा। इस चुनाव में टीआरएस को आंध्र प्रदेश की 26 सीटों पर जीत हासिल हुई। इसी साल लोकसभा चुनाव में भी उसे आंध्र प्रदेश की कुल 16 सीटों में से पांच सीटों पर विजय मिली। दिसम्बर 2009 में पृथक तेलंगाना राज्य का आन्दोलन अपने चरम पर पहुंच गया। इसे शांत करने के लिए केंद्र सरकार को काफी मशक्कत करनी पड़ी। ऐसा माना जाता है कि सरकार ने यदि 1969-70 के छात्र आंदोलन के दौरान, ‘तेलंगाना क्षेत्रीय समिति के मुद्दे’ पर हुए समझौते को लागू किया होता, तो आज यह नौबत नहीं आती। फिलहाल तेलंगाना शांत है, लेकिन अगर केंद्र सरकार ने ज्यादा लापरवाही बरती, तो उसे फिर से परेशान होना पड़ सकता है।
विदर्भ
97,321 वर्ग किलोमीटर में फैले विदर्भ क्षेत्र में महाराष्ट्र के 11 जिले शामिल हैं। वरहाठी (मराठी की उपभाषा) भाषा बहुल, तीन करोड़ की आबादी वाले विदर्भ क्षेत्र में विधानसभा की कुल 62 और लोकसभा की 10 सीटें हैं। यहां की कुल आबादी में 76.90 प्रतिशत हिंदू, 13.07 फीसद बौद्ध, 8.3 फीसद मुस्लिम और 2.6 फीसद अन्य धार्मिक समुदाय हैं। कपास, संतरा, अंगूर, गन्ना और सोयाबीन यहां की मुख्य फसलें हैं, जबकि ज्वार, बाजरा और चावल पारंपरिक फसलें हैं। विदर्भ का क्षेत्र अपने खनिज भंडार के लिए खास अहमियत रखता है। यहां कोयला, मैगनीज, लौह अयस्क का भंडार है।
महाराष्ट्र राज्य का गठन और विदर्भ का अलग राज्य बनाये जाने का मुद्दा कमोवेश एक ही समय की घटनाएं हैं। केंद्र सरकार ने ‘अलग राज्य मान्यता कानून 1956’ के तहत विदर्भ को महाराष्ट्र में शामिल किया। पश्चिमी महाराष्ट्र के राजनेताओं के दबाव के कारण 1 मई 1960 को महाराष्ट्र राज्य अस्तित्व में आया। इसके कुछ समय बाद ही राज्य पुनर्गठन आयोग ने विदर्भ को राज्य बनाने और नागपुर को उसकी राजधानी बनाये जाने की बात कही। तब से ही विदर्भ को अलग राज्य बनाए जाने की बात हो रही है। एक समय देश के सबसे उपजाऊ भू भाग रहे विदर्भ में पिछले एक दशकों में करीब 32 हजार किसान आत्महत्या कर चुके हैं। यह समूचे महाराष्ट्र में किसानों की आत्महत्याओं का 75 प्रतिशत है। समस्या से अपरिचित किसी व्यक्ति के लिए यह आश्चर्य का विषय हो सकता है कि कपास, गन्ना, अंगूर और सोयाबीन जैसी नकदी फसलों का उत्पादन करने वाला विदर्भ का किसान, आखिर आत्महत्या क्यों करता है? इस क्षेत्र की सबसे कीमती व नकदी फसल कपास आज किसानों को मौत की नींद सुलाने में लगी है। कपास उत्पादन के लिए यहां का किसान मोनसेंटो और कारगिल जैसी अमेरिकी कंपनियों के बीज, खाद और कीटनाशकों पर निर्भर है। सूदखोरों, विदेशी कंपनियों और बैंकों की तिगड़ी ने इस इलाके में ऐसा चक्रव्यूह रचा है कि किसान उनसे छुटकारा पाने के लिए आत्महत्या का रास्ता अख्तियार करते हैं। केंद्र सरकार ने पिछले तीन साल में इस इलाके के किसानों के लिए 3750 करोड़ रुपए का राहत पैकेज तथा कर्ज माफी के लिए 712 करोड़ रुपए दिए। राज्य सरकार ने भी यहां के विकास के लिए 1200 करोड़ रुपए की विशेष सहायता दी हांलाकि इसका करीब 80 प्रतिशत हिस्सा भ्रष्टाचार की भेंट चढ़ गया। यही वजह है कि विदर्भ को अलग राज्य बनाने की मांग, किसानों की आत्महत्याओं के बढ़ने के साथ ही जोर पकड़ती गयी है। इस आन्दोलन को गति देने में सूखे ने भी खास भूमिका निभाई है। पिछले कुछ सालों से इस इलाके में बारिस नहीं हुई, जिसके चलते यहां का किसान दाने-दाने को मोहताज है। यह अलग बात है कि विदर्भ की मुखालफत करने वाले पश्चिमी महाराष्ट्र के रसूखदार नेताओं की तुलना में विदर्भ आंदोलन का अपना कोई सर्वमान्य नेता नहीं है। यही इसकी सबसे बड़ी कमजोरी है।
सेंट्रल त्रावणकोर
सेंट्रल त्रावणकोर केरल में है। प्रस्तावित सेंट्रल त्रावणकोर राज्य में अलप्पुजा, पथनमथित्ता के साथ ही कोट्टयम, इडुकी और कोलम जिलों के कुछ हिस्से शामिल हैं। पूर्व राष्ट्रपति के आर नारायणन भी कोट्टयम के ही हैं। लोकसभा में केरल कांग्रेस के जोश के. मनी कोट्टयम के ही हैं। सेंट्रल ट्रावणकोर को अगर राज्य का दर्जा हासिल होता है तो अलप्पुजा, कोट्टयम या फिर तिरुवल्ला को राज्य की राजधानी बनाया जाएगा। सेंट्रल ट्रावणकोर का इलाका भारत के सबसे समृद्धतम इलाकों में से एक है। यहां की जनता इसलिए अलग राज्य चाहती है क्योंकि केरल के दूसरे पिछड़े इलाकों की कीमत उन्हें चुकानी पड़ती है। यहां के लोगों की मांग है कि या तो सरकार उनके लिए ‘विशेष प्रशासनिक क्षेत्र’ बनाए या फिर ‘सेंट्रल त्रावणकोर’ को अलग राज्य का दर्जा दे। यह इलाका एक ‘स्मार्ट सिटी’ की दृष्टि से बहुत ही बढ़िया जगह है। आई टी, बीपीओ, बायोटेक, फूड प्रोसेसिंग, ट्यूरिज्म, मेडिकल, बैंक और बीमा जैसे क्षेत्रों में निवेश की दृष्टि से यह इलाका बहुत ही बढ़िया है। जानकारों का मानना है कि अगर सेंट्रल ट्रावणकोर राज्य बनता है तो इसे तरक्की की सीढ़ियां चढ़ने में ज्यादा वक्त नहीं लगेगा।
बुंदेलखंड
बुंदेलखंड आजादी के पहले एक स्वतंत्र राज्य था। इस इलाके को कवियों ने ‘इत चम्बल उत ताप्ती’ कहा है। 1948 में बुन्देलखण्ड और बघेलखण्ड के 35 राजाओं ने भारत सरकार के साथ एक संधि पर हस्ताक्षर कर अपनी-अपनी रियासतों को भारत में मिला दिया। प्रस्तावित बुंदेलखंड राज्य में उत्तर प्रदेश के सात (झांसी, जालान, ललितपुर, हमीरपुर, महोबा, बांदा और चित्रकूट) और मध्यप्रदेश के छ: (दतिया, टीकमगढ़, छतरपुर, पन्ना, दमोह और सागर) जिले शामिल हैं। भौगोलिक तौर पर यह इलाका भारत के मध्य में है। इस इलाके की बोली बुंदेलखंडी है। 60 हजार वर्ग किलोमीटर में फैले प्रस्तावित बुंदेलखंड राज्य की आबादी पांच करोड़ है। अगर यह राज्य बनता है तो झांसी इसकी राजधानी बनेगी। खनिज संपदा से भरपूर बुंदेलखंड की जनता करीब 50 सालों अलग राज्य के लिए आंदोलन कर रही है। इस मुद्दे पर 1955 में राज्य पुनर्गठन आयोग की सहमति के बावजूद आज भी बुंदेलखंड को अलग राज्य का दर्जा नहीं मिल पाया है।यह देश का ऐसा इलाका है जहां पानी के लिए डाका पड़ता है। यहां पानी के लिए गोलियां चलती हैं और न जाने कितनी जिंदगियां हर साल पानी की भेंट चढ़ जाती हैं। केन ,बेतवा, सोन, मंदाकिनी, धसान, सुनार, कोपरा, और व्यारमा जैसे कई छोटी बड़ी नदियां और हर साल मध्यप्रदेश में होने वाली करीब 1100 मिमी वर्षा के बावजूद, आज भी यह एक यक्ष प्रश्न है कि आखिर यह धरती इतनी प्यासी क्यों है? अभी तक अलग राज्य के लिए बुन्देलखण्ड मुक्ति मोर्चा के अध्यक्ष राजा बुन्देला, कर्वी (चित्रकूट) से खजुराहो (मध्यप्रदेश) तक 300 किलोमीटर से भी ज्यादा की पदयात्रा कर चुके हैं। बुंदेलखंड एकीकृत पार्टी और बुंदेलखंड मुक्ति मोर्चा जैसे कुछ स्थानीय संगठन और पार्टियां ही इस आंदोलन की रीढ़ हैं। राष्ट्रीय पार्टियों ने अभी तक इस बुंदेलखंड आंदोलन से खुद को दूर ही रखा है।
कोदगू
कोदगू दक्षिणी भारत का एक प्रसिद्ध हिल स्टेशन है। इसे दक्षिणी भारत का कश्मीर और भारत का स्विटजरलैंड कहा जाता है। आजादी के पहले कोदगू एक स्वतंत्र रियासत थी। भौगोलिक और सांस्कृतिक रुप में कर्नाटक से विल्कुल अलग पहचान रखने के बावजूद 1956 में इसे कर्नाटक के साथ मिला लिया गया। कानून के मुताबिक अंडमान और निकोबार द्वीप में बाहर का कोई व्यक्ति जमीन नहीं खरीद सकता। इसी को आधार बनाकर कोदगू राज्य आंदोलन से जुड़ी शक्तियां कोदगू से बाहरी लोगों को भगाने की मांग कर रहे हैं। कोदगू कावेरी नदी के किनारे बसा है। नदी के किनारे बसे दसियों लाख दक्षिण भारतीयों की पालनहार है कावेरी। कोडगू लोगों के लिए यह मां की तरह है। इसलिए कोडगू क्षेत्र के लोगों का कावेरी से बहुत गहरा नाता है। बाहर जो लोग यहां आये उन्होंने अपने लाभ के लिए कावेरी के किनारे बड़े-बड़े उद्योग लगाए। आज कावेरी गंगा की तरह ही प्रदूषित हो गयी है। इसलिए कोदगूवासियों की मांग है कि न सिर्फ बाहरी लोगों को यहां से भगाया जाए वरन कावेरी के पारिस्थितिक तंत्र को भी बचाया जाए। कोदगू के पर्यावरण को बचाने के लिए स्वयं सेवी संगठनों ने भी कमर कस ली है, इसने कोदगू राज्य आंदोलन को नई गति देने का काम किया है।
गोरखालैंड
1907 में गोरखा क्षेत्र के लिए एक अलग प्रशासनिक इकाई गठित करने की बात उठी। 1986 में सुभाष घिसिंग के नेतृत्व में गोरखा नेशनल लिबरेशन फोर्स (जीएनएलएफ; गठन 1980) ने ‘स्वतंत्र प्रशासनिक इकाई’ की जगह बंगाल से अलग एक स्वतंत्र ‘गोरखा राज्य’ के लिए बहुत ही जबर्दस्त आंदोलन किया। सरकार ने इस आंदोलन का दमन किया, जिसमें सैकड़ों लोग मारे गये और हजारों घायल हुए। 1988 में तत्कालीन गृह मंत्री बूटा सिंह और बंगाल के मुख्यमंत्री ज्योति बसु ने जीएनएलएफ के साथ ‘दार्जिलिंग गोरखा हिल कौंसिल’ एग्रीमेंट पर हस्ताक्षर किया। इस तरह स्वतंत्र गोरखा राज्य की मांग टल गयी। 2004 में सुभाष घिसिंग के साथ मतभेद के चलते उनके सहयोगी विमल गुरुंग उनसे अलग हो गये। 7 अक्टूबर 2007 को रोशन गिरी और विमल गुरुंग ने गोरखा जनमुक्ति मोर्चा (जीजेएम) का गठन किया। 2008 में जीजेएम ने गोरखा राज्य के लिए बहुत बड़ा आंदोलन किया। आंदोलन के हिंसक स्वरुप ग्रहण करते ही सरकार ने सुलह का रास्ता अख्तियार किया। जीजेएम के बढ़ते दबाव के चलते 8 सितंबर 2008 को बंगाल के मुख्यमंत्री, केंद्र सरकार और गोरखा क्षेत्र की पाटियों के बीच राज्य गठन के मुद्दे पर वार्ता हुई, हालांकि यह वार्ता बहुत कारगर नहीं रही। 21 मई 2010 को जीजेएम कार्यकर्ताओं द्वारा अखिल भारतीय गोरखा लीग के नेता मदन तमांग की हत्या के बाद जीजेएम की वर्षों की बनी बनाई मेहनत पर पानी फिरता नजर आया। फिलहाल गोरखालैंड का मसला जीजेएम, बंगाल सरकार और केंद्र सरकार और गोरखालैंड की दूसरी राजनीतिक शक्तियों के बीच दांच पेंच में फंसा हुआ है। घिसिंग द्वारा प्रस्तावित गोरखालैंड में बंगाल के बनरहट, भक्तिनगर, बीरपारा, चालसा, दार्जिलिंग, जयगांव, कालचीनी, कालीमपोंग, कुमारग्राम, कर्स्यांग, मदारीहट, मालबजार, मिरिक और नागरकट्टा शामिल हैं। यह क्षेत्र तीन देशों (नेपाल, भूटान और बांग्लादेश) और भारत के चार राज्यों (बिहार, बंगाल, असम और सिक्किम) के बीच स्थित है। इस समय गोरखालैंड के प्रभावी नेता गोरखा जन मुक्ति मोर्चा के विमल गुरुंग हैं। दार्जिलिंग, कर्स्यांग और कलिमपोंग का क्षेत्रफल 1600 वर्ग किलोमीटर और जनसंख्या 800000 है। इसमें लेप्चा और भोटिया लोगों की आबादी 700000 है। इस इलाके में इनकी जनसंख्या सबसे ज्यादा है। सिलीगुड़ी के मैदानी इलाके की कुल जनसंख्या 800,000 है। इसमें करीब 80 प्रतिशत बंगाली हैं। इसका क्षेत्रफल (नक्सलबाड़ी को छोड़कर) 900 वर्ग किलोमीटर है। इस इलाके में बाकी 20 प्रतिशत में बिहारी, मारवाड़ी, गोरखा और दूसरी जातियां हैं। संकोश नदी के पश्चिम में 4000 वर्ग किलोमीटर में फैले मालबाजार और नगरकट्टा आदि जिलों की कुल आबादी 10,00000 है, इसमें गोरखा सिर्फ 30 प्रतिशत हैं। यदि प्रस्तावित गोरखा क्षेत्र में 6500 वर्ग किलोमीटर इलाके की 26 लाख आबादी और जुड़ जाए तो गोरखामंडल के गोरखा अल्पसंख्यक बन जाएंगे। असेम्बली में भी उनका प्रतिशत कम हो जाएगा या फिर उन्हें इसके लिए आरक्षण का सहारा लेना होगा। गोररखालैंड के विरोधियों ने विमल गुरुंग को एक सुझाव यह भी दिया है कि गोरखा लोगों को सिक्किम में शामिल हो जाना चाहिए, जहां गोरखाओं की अच्छी तादात के साथ ही नेपाली, भोटिया, लेप्चा और कुछ दूसरी मंगोल जातियां भी हैं।उनके इस कदम से बेवजह के राज्य बंटवारे का झंझट भी नहीं होगा और उनकी मांग भी पूरी हो जाएगी। वैसे भी एक समय दार्जिलिंग सिक्किम का ही हिस्सा था।
बोडोलैंड
बोडो जनजाति ब्रह्मपुत्र नदी के कछारी इलाके में रहती है। इसीलिए इस क्षेत्र को बोडो कछारी कहा जाता है। बोडोलैंड में बोडो जनजाति के साथ नेपाली, संथाल, कोच, हिंदू असमी, बंगाली हिंदू और मुस्लिमों के अलावा कई ऐसी जनजातीय समूह भी हैं जो चाय के बागानों में काम करने के लिए यहां आये और यहीं बस गये। बोडो जनजाति का बड़ा हिस्सा अशिक्षित है। जो पढ़ना चाहते हैं उन्हें गोहाटी, डिब्रूगढ़ और शिलांग के कालेजों में प्रवेश नहीं मिलता। यहां के सिर्फ आठ प्रतिशत लोगों के पास ही नौकरी है और दो प्रतिशत लोगों के पास छोटा-मोटा स्थानीय व्यवसाय है। यहां संयुक्त परिवारों का चलन है। आमतौर पर एक परिवार में एक व्यक्ति के ऊपर करीब सात लोग निर्भर हैं। असम की ब्रम्हपुत्र घाटी में बोडो सबसे बड़े भाषायी और जातीय समुदाय हैं। यह भारत की आठवीं सबसे बड़ी अनुसूचित जनजाति है। असम की कुल आबादी 26,655,528 है, जबकि बोडो जाति समूह की कुल आबादी करीब 15 लाख है। इसके बावजूद असम के उत्तरी इलाकों में रहने वाली बोडो जाति आज भी उपेक्षा की शिकार है। बोडो की कुल आबादी का करीब 80 प्रतिशत गरीबी में जीवन बिताता है। शिशु मृत्यु दर के मामले में यह दुनिया में पहले स्थान पर है। यहां प्रति हजार नवजात शिशुओं में से औसतन 75 बच्चे जन्म के बाद ही मर जाते हैं।
यहां ज्यादातर लोगों के पास ठीक-ठाक घर तक नहीं हैं। इलाज कराने के लिए अस्पताल नहीं। यहां के लोगों के लिए मलेरिया और डायरिया भी लाइलाज बीमारियां हैं। 2003 में जारी असम की मानव विकास रिपोर्ट के अनुसार इस इलाके में गरीबों की संख्या उत्तरपूर्व के सात राज्यों में से सबसे ज्यादा है। करीब 90 प्रतिशत आबादी की जीविका का साधन कृषि है, जबकि इनमें से करीब 60 प्रतिशत लोगों के पास इतनी जमीन नहीं है कि उससे गुजारा चल सके। राज्य की ओर से मिलने वाली मदद का 80 प्रतिशत भ्रष्टाचार की भेंट चढ़ जाता है। अभी तक अलग बोडो राज्य के लिए 1987 से 1993 के बीच करीब सात बार हिंसात्मक संघर्ष हो चुके हैं। सरकार ने इन प्रदर्शनों से बचने के लिए बीच का रास्ता निकाला। 2003 में गठित बोडोलैंड टेरीटोरियल कौंसिल (बीटीसी) इसी का परिणाम थी। नेशनल डेमोक्रेटिक फ्रंट आॅफ बोडोलैंड (एनडीएफबी) ने लंबे समय तक भारत सरकार के साथ इस समस्या का समाधान करने की कोशिश की लेकिन उसका कोई खास नतीजा नहीं निकला। एनडीएफबी का बोडोलैंड के मुद्दे पर बहुत ही बुनियादी मतभेद है। इसीलिए पिछले दिनों एनडीएफबी ने उल्फा से साफ तौर पर कह दिया कि, ‘उल्फा बोडो जनजातियों के मामले में अपनी टांग न अड़ाये। यह मामला भारत सरकार और हमारे बीच का है। आज हर बोडो स्वतंत्र बोडो राज्य के गठन के लिए अपनी कुर्बानी देने के लिए तैयार है।’
सोनांचल
सरकारी उपेक्षा के चलते आज समूचा सोनांचल माओवादियों आंदोलन के प्रभाव में है। 2005 में हरीराम चेरो के नेतृत्व में सोनांचल संघर्ष समिति ने मिर्जापुर, सोनभद्र और चंदौली जिलों को मिलाकर सोनांचल राज्य के गठन करने की मांग उठाई। 2007 में सोनांचल राज्य के गठन के लिए हजारों आदिवासियों ने लखनऊ में विधान सभा के सामने प्रदर्शन भी किया, लेकिन उनकी बात नहीं सुनी गयी। सोनांचल के मसले से असहमत लोगों का तर्क है कि क्षेत्रफल की दृष्टि से यह इलाका बहुत छोटा है। इस मसले पर सोनांचल की पक्षधर शक्तियों का तर्क है कि प्रस्तावित सोनांचल राज्य क्षेत्रफल की दृष्टि से मिजोरम, मेघालय, त्रिपुरा, सिक्किम और अरुणांचल से बहुत बड़ा है। इसके गठन में एक पेंच यह भी है कि पूर्वांचल राज्य की मांग करने वाले संगठनों ने सोनांचल के तीनों जिलों को पूर्वांचल के मानचित्र में दिखाया है। पूर्वांचल आंदोलन के नेता सोनांचल के नेताओं की तुलना में ज्यादा रसूख वाले हैं। इसलिए फिलहाल तो सोनांचल के रास्ते में पूर्वांचल एक बड़ी बाधा बना हुआ है। प्राकृतिक सम्पदा से भरपूर विंध्य के पहाड़ी आदिवासी भयंकर गरीबी में जीवन जीते हैं। बड़ी आबादी मुख्यधारा से कटी हुई है। यहां की प्राकृतिक सम्पदा न सिर्फ दूसरे राज्यों के काम आ रही है, बल्कि यहां पत्थर की खदानों में काम करने वाले ज्यादातर आदिवासियों के लिए ये खदानें मौत का कुंआ बन चुकी हैं। एक मोटे अनुमान के मुताबिक सोनांचल में प्रतिदिन एक आदमी इन खदानों की भेंट चढ़ जाता है। मरने वालों में से ज्यादातर अनुसूचित जाति/अनुसूचित जनजाति के होते हैं। इसी तरह की सैकड़ों समस्याओं ने यहां के लोगों को पृथक सोनांचल राज्य का आंदोलन छेड़ने के लिए विवश किया।
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किसका देश, किसकी धरती
देवेन्द्र प्रताप
आज अगर कश्मीर को देश से अलग होने की बात होती है, तो ज्यादातर हिंदू खून उबाल मारने लगता है। क्या वजह है इसकी? वहां की ज्यादातर आबादी मुस्लिम है इसलिए हिंदुओं को लगता है कि कश्मीर के लोगों को पाकिस्तान भड़का रहा है। कुछ को यह भी लगता है कि कश्मीर के लोगों को पाकिस्तान ज्यादा पसंद है, क्योंकि वह एक मुस्लिम राष्ट्र है। वैसे यह भी पूरी तरह सही नहीं है, क्योंकि वहां मुस्लिमों के साथ हिंदू, सिख जैसी जातियां भी हैं। हां, जैसे हमारे यहां मुस्लिमों के साथ दूसरे धार्मिक समुदाय अल्पसंख्यक हैं, उसी तरह वहां मुस्लिमों के अलावा दूसरे अल्पसंख्यक हैं। बहरहाल, कश्मीर को हिंदू एक तरफ तो मुस्लिम बहुल होने के बावजूद हिंदुस्तान से अलग नहीं होने देना चाहते, वहीं दूसरी ओर यहां ऐसे लोगों की भी अच्छी खासी तादाद है, जो भारत से सारे मुसलमानों को पाकिस्तान खदेड़ देना चाहते हैं। अरे भाई और भी मुसलमान मुल्क हैं, वहां क्यों नहीं? क्या आपको पाकिस्तान से कुछ ज्यादा ही लगाव है। इस बारे में मैं आपका उत्तर जानता चाहता हूं। अब अगर इसी तर्क को आधार बनाया जाए और यह मानकर चलें कि भारत देश का स्वरूप कैसा है, तो फिर हम किसी नतीजे तक पहुंचने में कामयाब हो सकते हैं। सभी को पता ही है कि भारत एक संघीय गणराज्य है। गणराज्य का मतलब कई सारे राज्यों का एक समूह। ऐसे में किसी राज्य की बहुसंख्यक आबादी की भावना का महत्व बढ़ जाता है। वह चाहे कश्मीर हो या फिर कोई अन्य राज्य। इसी तर्क को अगर और आगे बढ़ाया जाए और जिलों और फिर तहसीलों के भी डेमोक्रेटिक राइट की अगर बात की जाए, तो हमारे पास कई ऐसे जिले और तहसील होंगी, जहां से हिंदुओं को बाहर करने का फरमान जारी किया जाना चाहिए। आखिर जो तर्क राज्य या देश के बारे में लागू होता है, वह किसी छोटे भौगोलिक इकाई के ऊपर क्यों नहीं लागू हो सकता। क्या हम देश के स्तर पर अगर अल्पसंख्यक और बहुसंख्यक का खेल खेल सकते हैं, तो जिला या फिर तहसील के स्तर पर क्यों नहीं। इसके पीछे का क्या कारण है? मैं स्वयं भी इस बात को जानना चाहता हूं। कुछ लोग कहते हैं कि भारत के मूल निवासी हिंदू हैं न कि मुसलमान। मुसलमान तो आक्रांता हैं। वह तो एक परदेसी है, जो यहां आकर कब्जा जमाकर बैठ गया। यह बात भी नहीं समझ में आती। मूल निवासी की पूरी अवधारणा ही बड़ी झोल वाली है। मूल निवासी तो यहां के शूद्र हैं, यह बात ऐतिहासिक सबूतों के साथ साबित भी हो चुकी है। ऐसे में इस भौगोलिक इलाके के लिए आक्रांता तो यहां के सवर्ण हुए, जिन्होंने भारत के ज्यादातर संसाधनों पर कब्जा जमा रखा है। इस संदर्भ में बात की जाती है, तो हिंदू सवर्ण के रूप में सामने आ खड़ा होता है। अब वह एक सवर्ण ही नहीं एक राजा की तरह बात करने लगता है। न जाने कितने रूप हैं, इसके। सही बताऊं तो इन सबने मिलकर एकदम से दिमाग का दही बना दिया है। फिलहाल तो सोने का मन कर रहा है। हां नाम पता दे दे रहा हूं, अगर यह पहेली कुछ समझ में आ जाए तो फोन कर लीजिएगा।

शुक्रवार, 6 मई 2011

बोतल बंद पानी का वैश्विक बाजार



देवेन्द्र प्रताप
अमेरिका और यूरोप में 19 वीं सदी में ही बोतलबंद पानी का बाजार पैदा हो गया था। इसकी एक वजह वहां दुनिया में सबसे पहले औद्योगिकीकरण का होना भी था। बोतलबंद पानी की पहली कंपनी 1845 में पोलैण्ड के मैनी शहर में लगी। इस कंपनी का नाम था ‘पोलैण्ड स्प्रिंग बाटल्ड वाटर कंपनी’ था। 1845 से आज दुनिया में दसियों हजार कंपनियां इस धंधे में लगी हुई हैं। बोतलबंद पानी का यह कारोबार आज 100 अरब डालर पर पहुंच गया है।
भारत में बोतलबंद पानी की शुरुआत 1965 में इटलीवासी सिग्नोर फेलिस की कंपनी बिसलरी ने मुंबई महानगर से की। शुरुआत में मिनिरल वाटर की बोतल सीसे की बनी होती थी। इस समय भारत में इस कंपनी के 8 प्लांट और 11 फ्रेंचाइजी कंपनियां हैं। बिसलरी का भारत के कुल बोतलबंद पानी के व्यापार के 60 प्रतिशत पर कब्जा है। पारले ग्रुप का बेली ब्रांड इस समय देश में पांच लाख खुदरा बिक्री केंदों पर उपलब्ध है। इस समय अकेले इस ब्रांड के लिए देश में 40 बॉटलिंग प्लांट काम कर रहे हैं।

     पानी के ऊपर शोध करने वाली अमेरिकी संस्था ‘नेचुरल रिसोर्सेज डिफेंस काउंसिल’ के अनुसार ‘चलती कार में बोतलबंद पानी नहीं पीना चाहिए, क्योंकि कार में बोतल खोलने पर रासायनिक प्रतिक्रियाएं काफी तेजी से होती हैं और पानी अधिक खतरनाक हो जाता है। बोतल बनाने में एंटीमनी नाम के रसायन का भी इस्तेमाल किया जाता है। विशेषज्ञों का कहना है कि बोतलबंद पानी जितना पुराना होता जाता है, उसमें एंटीमनी की मात्रा उतनी ही बढ़Þती जाती है।’ अगर यह रसायन किसी व्यक्ति के शरीर में जाता है, तो उसे जी मिचलाने, उल्टी और डायरिया जैसी समस्याओं का सामना करना पड़ सकता है। इससे साफ है कि बोतलबंद पानी शुद्धता और स्वच्छता का दावा चाहे जितना करें लेकिन वह सेहत की दृष्टि से सही नहीं है।
      कैलीफोर्निया के ‘पैसिफिक इंस्टीटयूट’ ने भी इसी तरह के एक शोध में दावा किया है कि अमेरिका में ‘बोतलबंद पानी का व्यापार करने वाली कंपनियां इस संबंध में निर्धारित मानकों की अनदेखी कर रही हैं, लेकिन इसका पता तभी चलता है, जब कोई हादसा हो जाता है। 1990 से लेकर 2007 के बीच कम से कम सैकड़ों बार ऐसा देखने में आया कि बोतलबंद पानी का व्यापार करने वाली कंपनियों ने ही अपने उत्पाद को बाजार से हटा लिया। और यह सब हुआ भी बहुत गुपचुप तरीके से। उपभोक्ताओं को इसकी खबर तक नहीं लगी। कंपनियों के इस कदम के पीछे उनका प्रदूषित बोतलबंद पानी था।’ बोतलबंद पानी का व्यापार करने वाली कंपनियों के पानी से लाभ कमाने की कीमत आम लोगों को चुकानी पड़ रही है। आज समूची दुनिया में जहां भी इन कंपनियों ने अपने बाटलिंग प्लांट लगाए हैं, वहां भूजल स्तर बहुत तेजी से नीचे चला गया और इसका खामियाजा उस इलाके में रहने वाले लोगों को उठाना पड़ा। ऊपर से एक बोतल पानी तैयार करने में करीब दो लीटर पानी बर्बाद हो जाता है। इसके बावजूद बाजार में आने वाला बोतलबंद पानी स्वास्थ्य की दृष्टि से पीने योग्य ही है, इस बात की कोई गारंटी नहीं है।
बोतल बंद पानी का बाजार
वर्तमान समय में हमारे देश में बोतलबंद पानी का व्यापार करने वाली करीब 100 कंपनियां हैं, और 1200 बाटलिंग प्लांट हैं। इसमें पानी का पाउच बेचने वाली और दूसरी छोटी कंपनियों का आंकड़ा शामिल नहीं है। अमेरिका और यूरोप में 1950 के आसपास पाया गया कि प्राकृतिक पानी में फ्लोराइड की कमी के चलते दांत खराब हो जाते हैं। इसलिए बोतल बंद पानी के व्यापार में लगी फ्लोराइड युक्त पानी बेचना शुरू कर दिया। इसी के साथ कुछ ऐसे तत्वों को भी पानी में मिलाया गया, जो स्वास्थ्य की दृष्टि से लाभकारी होते हैं। कोका कोला और पेप्सिको कंपनी ने इसी बात को ध्यान में रखते हुए स्वास्थ्य की दृष्टि से फायदेमंद कोल्ड ड्रिंग्स बाजार में उतारे। 1999 में अमेरिका में एक बोतल पानी की कीमत 0.25 से दो डालर के बीच थी, जबकि लोगों के घरों पर पहुंचने वाले पानी की कीमत एक पैसे से भी कम बैठती थी। एनआरडीसी के अध्ययन के अनुसार अमेरिका में नलों के जरिए घर पहुंचने वाले पानी से बोतलबंद पानी 240 से 10 हजार गुना ज्यादा मंहगा पड़ता था। इसमें से एक बोतल के लिए किए जाने वाले भुगतान का 90 प्रतिशत से ज्यादा हिस्सा बोतल और पैकिंग आदि पर होने वाले खर्च के लिए भुगतान करना होता था। हालांकि बाद में पानी का बाजार बढ़ा लेकिन पानी की गुणवत्ता पर भरोसा करना आज जुआ खेलने जैसा हो गया है। इस समय दुनिया में बोतलबंद पानी का व्यापार खरबों में पहुंच गया है। शुद्धता और स्वच्छता के नाम पर बोतलों में भरकर बेचा जा रहा पानी भी सेहत के लिए खतरनाक है।
वेल्स
दक्षिणी वेल्स में बुंडानून दुनिया का एकमात्र ऐसा शहर है, जहां नागरिकों ने खुद पहलकदमी लेकर अपने यहां बिकने वाले बोतल बंद पानी प्रति प्रतिबंध लगवाया। इस आंदोलन की अगुआई वहां के एक व्यापारी किंग्सटन ने की। आंदोलन के बाद सरकार पर दबाव बना और उसने शहर की सीमा के भीतर बोतलबंद पानी की बिक्री पर रोक लगा दी। बुंडानून के इस कदम के बाद दुनिया के कई और मुल्कों में भी बोतल बंद पानी पर बिक्री के खिलाफ आवाज उठी।
यूरोपीय संघ
यूरोपीय संघ में मिनिरल वाटर और स्प्रिंग वाटर को ही बोतलबंद पानी के रुप में मान्यता मिली हुई है। वहां भूगर्भ जल को ही मिनिरल वाटर या खनिज जल माना जाता है। बोतलबंद कंपनियों के लिए यह जरुरी है कि पानी के परिशोधन की प्रक्रिया में, पानी में मौजूद स्वास्थ्य की दृष्टि से लाभदायक तत्व नष्ट न होने पायें।
की बिक्री को ही मान्यता मिली है। वहां पर संक्रमित पानी की बिक्री पूरी तरह प्रतिबंधित है।
अमेरिका
अमेरिका बोतलबंद का सबसे बड़ा बाजार है। मेक्सिको, चीन और ब्राजील का स्थान इसके बाद है। 2008 में अमेरिका में बोतलबंद पानी की बिक्री 8.6 बिलियन थी। यह यहां बिकने वाले कुल बोतलबंद लिक्विड का 28.9 प्रतिशत है। कार्बोनेटेड साफ्ट ड्रिंक, फलों के जूस और खिलाड़ियों के पेय पदार्थों का स्थान इसके बाद आता है। एक सर्वे के अनुसार एक अमेरिकी आदमी साल भर में औसतन 21 गैलन पानी पी जाता है। अमेरिका में पानी के निजीकरण के खिलाफ आवाज समय-समय पर आवाज भी उठती रही। यूनाइटेड चर्च आॅफ क्रिश्चियन्स, यूनाइटेड चर्च आॅफ कनाडा जैसे धार्मिक संगठनों तक ने इसके खिलाफ आवाज उठाई। हालांकि पानी का निजीकरण आज भी न सिर्फ बदस्तूर जारी है, वरन 50 के दशक से सैकड़ों गुना और तेजी के साथ।
पाकिस्तान
1990 के बाद कमोवेश दुनिया के ज्यादातर मुल्कों में दूषित पानी की समस्या ने गंभीर रुप लेना शुरु कर दिया। इसी के साथ ऐसी कंपनियां भी सामने आयीं, जिन्होंने बोतलबंद पानी को साफ पानी का पर्याय बनाना शुरु कर दिया। ऐसा करना उनके व्यापार के लिए जरुरी था। पाकिस्तान में भी इन्होंने अपने पांव पसारे। वहां सबसे पहले नेस्ले ने बोतलबंद पानी बेचना शुरु किया। धीरे-धीरे पेप्सी, कोका कोला, फ्रांसीसी कंपनी एवियन और कई स्थानीय कंपनियां भी इस क्षेत्र में उतरीं।
भारत
इस समय भारत में बोतलबंद पानी का कुल व्यापार 14 अरब 85 करोड़ रुपये का है। यह देश में बिकने वाले कुल बोतलबंद पेय का 15 प्रतिशत है। कोका कोला के एक रिपोर्ट के अनुसार इस समय दुनिया की ज्यादातर बड़ी कंपनियां भारत के बाजार में अपने पेय पदार्थों को बेच रही हैं। कुछ साल पहले बहुराष्ट्रीय कंपनियों के बोतल बंद पेय पदार्थ सिर्फ यहां के धनी तबके की पसंद हुआ करती थे, लेकिन आज औसत आदमी भी इन कंपनियों का बोतलबंद पानी और दूसरे पेय पदार्थों खरीद रहा है। हांलाकि यहां इनके माल का स्टैंडर्ड यूरोप, अमेरिका और एशिया के दूसरे मुल्कों की अपेक्षा पिछड़ा हुआ है। इस समय हमारे देश में कुल 200 बोतलबंद कंपनियां अपना माल बेच रही हैं। भारत में बोतलबंद पानी के व्यापार में लगी 80 प्रतिशत कंपनियां देशी हैं। दुनिया में बोतलबंद पानी का सबसे ज्यादा इस्तेमाल करने वाले देशों की सूची में भारत 10 वें स्थान पर है। भारत में 1999 में बोतलबंद पानी की खपत एक अरब 50 करोड़ लीटर थी, 2004 में यह आंकड़ा 500 करोड़ लीटर पर पहुंच गया। इसके बावजदू यहां महानगरों में सैकड़ों ऐसी कंपनियां हैं, जिनके लिए पानी के लिए तय मानकों के कोई मायने नहीं हैं। संयुक्त राष्ट्र संघ की ओर से 122 देशों में पानी के स्टैंडर्ड के ऊपर किए गये एक अध्ययन में भारत को 120 वें स्थान पर रखा गया है। यहां एक दिन में प्रति व्यक्ति बोतलबंद का औसत उपयोग 5 लीटर है, जबकि यूरोप में यही 111 लीटर, अमेरिका में 45 लीटर और वैश्विक औसत 24 लीटर बैठता है। समझा जा सकता है कि भारत की गरीबी के चलते यहां प्रति व्यक्ति बोतल बंद पानी की खपत बेहद कम है। यूरोप और अमेरिका में भोजन बनाने में भी एक बड़ी आबादी इस पानी का ही उपयोग करती है। यह भी एक वजह है कि वहां इसकी खपत ज्यादा है। 1999 से 2004 के बीच भारत में बोतलबंद पानी उद्योग की विकास दर 25 प्रतिशत थी। बोतल बंद उद्योग के तरक्की की कीमत यहां के आम आवाम को चुकानी पड़ रही है। उसे साफ पानी तो मिलता नहीं बोतलबंद पानी की बात ही क्या है। कई अध्ययनों से यह साबित हो चुकी है कि जिन क्षेत्रों में शीतल पेय बनाने के संयंत्र लगे हैं, वहां धरती के गर्भ में मौजूद पानी के स्तर में बहुत तेजी से गिरावट आयी है।

ऐज रिपोर्ट सेज
‘ग्लोबल एनवायरमेंट आउटलुक’ (जीयो-3) की रिपोर्ट के अनुसार 2032 तक यह इलाका दुनिया के सबसे गरीब क्षेत्रों में है। अगर यहां पानी का संकट गंभीर होता है, तो यहां रहने वाली आबादी का बड़ा हिस्सा डायरिया, हैजा और टायफाइड जैसी बीमारियों की चपेट में आ सकता है। इस समय जबकि पानी का संकट इतना गंभीर नहीं है, तब हालत यह है कि दुनिया में प्रति आठ सेकंड पर एक बच्चा जल जनित बीमारियों के कारण मर रहा है। अनुमान है कि 2032 तक संसार की आधी से अधिक आबादी भीषण जल संकट की चपेट में आ जाएगी।
वर्ल्ड हेल्थ आॅर्गनाइजेशन (डब्ल्यूएचओ) की एक रिपोर्ट के अनुसार इस समय दुनिया एक बड़ी आबादी के लिए पीने के लिए साफ पानी और भोजन का ही बड़ी मुश्किल से इंतजाम कर पाती है। ऐसे लोगों के लिए भविष्य में जीने का संकट उत्पन्न हो जाएगा। संसार के उद्योग बचे-खुचे साफ पानी को भी दूषित करने का काम कर रहे हैं। एशिया में उद्योगों से निकलने वाला 35 प्रतिशत पानी ही वाटर ट्रीटमेंट प्लांट से परिशोधित हो पाता है। जबकि दक्षिण अमेरिका में यह 14 प्रतिशत और अफ्रीका में तो नाममात्र का ही है। विकासशील देशों में पानी सप्लाई के दौरान भी इसका बड़ा हिस्सा लीक होकर बह जाता है। ऐसी स्थिति में भी अगर भारत जैसे विकासशील देशों ने अपने जल प्रबंधन पर ध्यान नहीं दिया तो भविष्य अंधकारमय हो जाएगा और इसका सबसे ज्यादा शिकार बनेंगे गरीब और मध्यमवर्गीय लोग जिनकी संख्या इस देश में 70 करोड़ के आसपास है।
अमेरिका की संस्था ‘नेचुरल रिसोर्सेज डिफेंस काउंसिल’ द्वारा प्रकाशित रिपोर्ट के अनुसार, ‘बोतलबंद पानी और साधारण पानी में कोई खास फर्क नहीं है। मिनरल वाटर के नाम पर बेचे जाने वाले बोतलबंद पानी के बोतलों को बनाने के दौरान एक खास रसायन पैथलेट्स का इस्तेमाल किया जाता है। इसका इस्तेमाल बोतलों को मुलायम बनाने के लिए किया जाता है। इस रसायन का प्रयोग सौंदर्य प्रसाधनों, इत्र, खिलौनों आदि के निर्माण में किया जाता है। इसकी वजह से व्यक्ति की प्रजनन क्षमता पर नकारात्मक असर पड़ता है। बोतलबंद पानी के जरिए यह रसायन लोगों के शरीर के अंदर पहुंच रहा है। यह रसायन उस वक्त बोतल के पानी में घुलने लगता है जब बोतल सामान्य से थोड़ा अधिक तापमान पर रखा जाता है। ऐसी स्थिति में बोतल में से खतरनाक रसायन पानी में मिलते हैं और उसे खतरनाक बनाने का काम करते हैं।’