गुरुवार, 8 दिसंबर 2011

इटली और यूनान पर बैंकरों का शासन

जिन्होंने दर्द दिया अब वे ही दवा देंगे
    ऐसा लगता है कि कल यानी सोमवार की सुबह तक यूनान और इटली दोनों देशों पर तथाकथित 'टेकनोक्रेटिक' सरकार का शासन हो जायेगा। हालाँकि ये दोनों प्रधान मन्त्री, यूनान के जिओर्ज पपेंद्रेयू और इटली के सिल्विओ बर्लुस्कोनी संसदीय चुनावों में बाकायदा जीत कर सत्ता में आये थे और कभी संसद में विश्वास मत में पराजित नहीं हुए, फिर भी उन्हें हटा दिया गया है और उनकी जगह पर दो अनिर्वाचित केन्द्रीय बैंक के पूर्व बैंकर और हेज फण्ड और इनवेस्टमेंट बैंकों के पूर्व एक्सेक्युटिव प्रधान मन्त्री बन रहे हैं। हम कह सकते हैं कि अब से यूनान और इटली की जनता पर सीधे वित्तीय बाजार का शासन होगा।
    पपेंद्रेयू का कहना है कि जनतान्त्र को बाजार से ऊपर रखा जाना चाहिए। बर्लुस्कोनी फरमाते हैं कि तकनीकशाहों का शासन "एक गैरजनवादी तख्ता पलट होगा" जो 2008 के चुनाव परिणामों के खिलाफ होगा। लेकिन हो यही रहा है। यूनान में लुकास पपादेमोस प्रधान मन्त्री बनाने वाले हैं। वे यूनान के केन्द्रीय बैंक के मुखिया थे जब यूनान ने 'यूरो' में प्रवेश किया और इसे हासिल करने में अपनी प्रधान भूमिका को ही अपनी उपलब्धि बताते हैं। अब वे यूनान को 'यूरो' में बनाये रखने के लिए पद सम्हाल रहे हैं. जबकि सरकोजी का कहना है कि यूनान को 'यूरो' में शामिल किया जाना एक गलती थी। जब यूनानी अधिकारी यूरोपीय संघ के आधिकारियों को अपनी वित्तीय स्थिति के बारे में गुमराह कर रहे थे तो उनके मुखिया पपादेमोस ही थे और उन्होंने ही अमीरों से टैक्स न लेने के फैसलों द्वारा यूनान की अर्थ व्यवस्था को इस दशा में पहुँचाया है। यूनान का शासन उसी व्यक्ति के हाथ में होगा जो यूनान को रसातल में पहुचने के लिए सबसे अधिक जिम्मेदार है। यह उसी प्रकार होगा जैसे ओबामा को इसलिए पद छोड़ना पड़े कि वे कल्याणकारी खर्चों में पर्याप्त कटौती करके बजट को सन्तुलित करने में असफल रहे और उसकी जगह एलन ग्रीनस्पान काबिज हों जाएँ।
    इटली में मारिओ मोंटी और ग़िउलिअनो अमाटो पद सम्हालने वाले हैं। मोंटी मुख्यधारा के अर्थशास्त्र के प्रोफ़ेसर हैं और उन्होंने थोड़े समय के लिए गोल्डमैन शैक्स (चौंकिए मत) में काम किया और फिर लम्बे समय के लिए यूरोपीय संघ के प्रतिस्पर्धा आयुक्त बन गए, जहाँ उन्होंने बाजार के 'उदारीकरण और विनियमन' के लिए काम किया। वे यूरोपीय केन्द्रीय बैंक (इसीबी) के नए प्रधान सुपर मारिओदराघी के गहरे मित्र हैं, जो खुद भी एक इतालवी बैंकर है। 1990 के दशक में जब इटली औए यूनान सहित अनेक देशों ने सरकारी ऋण और घाटे को आधिकारिक खातों से गायब करने के लिए, खासकर, गोल्डमैन शैक्स के साथ मिलीभगत से जानबूझ कर ऋण की अदला-बदली में हिस्सा लिया, तब यह शख्स दराघी इतालवी कोष का महा निदेशक था, उसके बाद वह गोल्डमैन शैक्स में शामिल (2002-2005) हो गया। दराघी और पपादेमोस दोनों ने अमेरिका के एमआईटी से 1978 में अर्थशास्त्र में डाक्टरेट हासिल किया था। अमाटो एक सेंटर लेफ्टपूर्व प्रधान मन्त्री हैं जो नब्बे के दशक के भ्रष्ट और बदनाम सामाजिक जनवादी प्रधान मन्त्री क्राक्सी के करीबी हैं। वे इतालवी एंटी ट्रस्ट आयोग के प्रधान थे और इन्होने भी अपने कार्यकाल में अर्थव्यवस्था खासकर वित्तीय सेवाओं के विनियमन के लिए काम किया।
    ये साहब सिल्विओ बर्लुस्कोनी इटली के रुपर्ट मुर्दोक की तरह हैं, या उससे भी गए गुजरे। वे इटली के मीडिया मुग़ल हैं जो पार्टिओं और युवा महिलाओं में अपनी बदनाम दिलचस्पी के साथ साथ तीन तिकड़मों, घूस और भ्रष्टाचार के अनगिनत कारनामों के बूते पिछले पंद्रह सालों से राजनीति में छाए हुए हैं। अपनी दूसरी कारगुजारियों की ही तरह यूरो संकट से उनकी किनाराकशी भी कमाल की थी। सिर्फ पिछले ही सप्ताह उन्होंने कहा, " इटली का जीवन एक समृद्ध देश का जीवन है। उपभोग में कोई कमी नहीं आयी है, हमारे हवाई जहाजों में सीट मिलना मुश्किल हैहमारे रेस्टुरेंट लोगों से भरे हुए हैं". इसके पहले न्यू यार्क स्टाक एक्सचेंज में बोलते हुए उन्होंने फ़रमाया था " इटली अब निवेश करने के लिए बड़ा ही उम्दा देश है... हमारे यहाँ कम्युनिस्टों की तादात घट गयी है और जो अभी बचे हुए हैं वे भी कभी कमुनिस्ट थे, इससे इनकार करते हैं। इटली में निवेश करने का एक और कारण यह है कि हमारे यहाँ खूबसूरत सेक्रेटेरियाँ हैं..... बेहतरीन लडकियाँ। 2009 में मध्य इटली में जब भूकम्प आया था, तो बेघर हुए भूकम्प पीड़ितों से उन्होंने कहा था कि उन्हें अपनी परेशानी को "सप्ताहान्त की कैम्पिंग" की तरह लेना चाहिए।लेकिन यह भांड कम से कम चुन कर आया था। अब उसकी जगह कोई नया निर्वाचित नेता नहीं केन्द्रीय और निवेशक बैंकों का बन्दा होगा। वो सीधे यूरोपीय संघ, यूरोपीय केन्द्रीय बैंक और अन्तरराष्ट्रीय मुद्रा कोष की खतरनाक तकड़ी से आदेश प्राप्त करेगा। अन्तरराष्ट्रीय मुद्रा कोष के प्रधान हैं पूर्व फ़्रांसिसी वित्त मन्त्री क्रिस्तीन लगार्द। लगार्द सरकारों को उनके ऋणों के 'सृजनात्मक लेखाकरण' के लिए सुझाव देने वाले एक वैश्विक फर्म की प्रमुख थीं और अन्तरराष्ट्रीय मुद्रा कोष के दूसरे नम्बर का अधिकारी डेविड लिप्टन एक वैश्विक हेज फण्ड मूर कैपिटल में काम करता था। यूनान के बेलआउट (ऋणोद्धार) पैकेज को सम्हालने वाला यूरोपीय संघ का निकाय है 'इएफएसएफ' और यही इतालवी ऋण को भी खरीद सकता है। इस फण्ड 'इएफएसएफ' का प्रमुख क्लाउस रेग्लिंग भी हेज फण्ड मूर कैपिटल में काम कर चुका है। 2009 में उसने भाषण दिया कि "पूरी योजना के मद्देनजर मौद्रिक संघ आनेवाले दस वर्षों में पिछले दस वर्षों की तुलना में अधिक बेहतर काम करेगा।" 'इएफएसएफ' द्वारा बांड जारी करने के शुल्क की दर 1 प्रतिशत की होगी और इसके सम्भावित कुल राशि 100 अरब अमेरिकी डॉलर का यह हिस्सा बड़े यूरोपीय बैंकों और गोल्डमैन शैक्स जैसों के खाते में जाएगा। वे ही 'बेल आउटके पैसे से मालामाल होंगे।
     ये बैंकर अब सत्ता में इसीलिए हैं कि यूनानी और इतालवी जनता द्वारा चुने गए नेता सरकारी बांडों में पैसा लगाने वाले निवेशकों की माँगों को पूरा करने में असफल रहे। यूरोप के बैंकों, पेनशन और बिमा कम्पनियों और हेज फंडों ने यूनान और इटली में सरकारी ऋणों को खरीदना बन्द कर दिया। ऐसा नहीं है कि इन निर्वाचित नेताओं ने वित्तीय क्षेत्र की माँगों को पूरा करने की कोशिश नहीं की। यूनान के सामाजिक जनवादी नेता वित्तीय पूँजी की धुनों पर थिरकने के लिए दंगे, हड़ताल और अपनी पार्टी में ही विरोध झेलने के लिए तैयार थे। इटली का मध्य-वाम विपक्ष संसद में एक और निष्ठुर बजट को पारित करने देने में सहमत हो गया है। लेकिन ये सारी कोशिशें उनके ऋणदाताओं की क्षुधापूर्ति के लिए पर्याप्त नहीं थीं। अब बैंकर यही चाहते हैं कि उनके अपने लोग ही कमान सम्हालें। और इनकी योजना क्या है ? ये बैंकर सार्वजनिक क्षेत्र के खर्चों पर और अधिक कटौती, जनता पर और ऊँचे टैक्सों का बोझ , राज्य की सम्पद्दा के भरी पैमाने पर निजीकरण और ऐसे ही दूसरे उपायों पर अमल के द्वारा वे यह सुनिश्चित करना चाहेंगे कि यूरोपीय वित्तीय क्षेत्र द्वारा खरीद रखे गए बांडों का पूरा भुगतान हो और उसमें कोई व्यतिक्रम न हो यानी उसका कोई भी हिस्सा नहीं डूबे। यूनान को उसके निजी क्षेत्र के 50 % कर्जों पर आंशिक रूप से व्यतिक्रम के इजाजत दी गयी है, लेकिन इसके बावजूद एक औसत यूनानवासी को अगले दशक तक उसके जीवन स्तर 30% की गिरावट झेलनी पड़ेगी। ;लेकिन इससे भी उसे बोझ से मुक्ति नहीं मिलेगी। दशक के अन्त तक सरकारी कर्ज सकल घरेलू उत्पाद का अन्ततः 120% होगा, जबकि अधिक सम्भावना यही है कि यह 140% हो। इसके भुगतान की जिम्मेदारी यूनानियों की एक पूरी पीढ़ी पर होगी। इतालवी जनता के साथ भी यही कुछ हो रहा है। बारी के निवासी एक 58 वर्षीय इतालवी नागरिक पिएत्रो पप्पगाल्लो बताते हैं, "मैं अपनी बचत के बारे में चिन्तित हूँ कि यह रद्दी कागज में तब्दील हो जा सकता है। इतनी कोशिशों से कुछ जोड़ा था लेकिन मुझे उसका कुछ भी नहीं मिलेगा। अब तक मेरे पेनशन में चार बार बदलाव हो चुका है। मैंने सेवानिवृति की योजना बनायी थी और अब वे कह रहे हैं कि और काम करना होगा। एक पिता के तौर पर मुझे अपने बच्चों की फ़िक्र है जिनके लिए शायद पेनशन होगा ही नहीं
     वित्तीय पूँजी पूरा भुगतान चाहती है और उसे यह बर्दाश्त नहीं है कि उसका जरा सा निवेश भी डूबे। लेकिन यूरो नेतृत्व यह भी चाहता है कि यूनान और इटली जैसे देश जिन्हें वह लम्पट राज्य समझता है वित्तीय होशियारी का अनुसरण करें और सन्तुलित बजट पर अमल करें तथा अपने कर्जे को कम करें जिससे कि पूँजीपतियों के मुनाफों पर टैक्स का बोझ घटाया जा सके। और वे चाहते है कि यूरोज़ोन बचा रहे क्योंकि यह अन्तर्राष्ट्रीय मामलों में यूरोप के महत्व और महत्वाकांक्षा का आधार है। इस दृष्टि से 'यूरो' का बिखरना घातक होगा। लेकिन पिछले महीनों के घटनाक्रम के बाद ऐसा लगता है कि अब वे यूनान को 'यूरो' से निकल भगाने का मन बना चुके हैं यदि वह उनके वित्तीय लक्ष्यों को पूरा नहीं करता है और अपनी जनता के जीवन स्तर में भरी कटौती नहीं करता। लेकिन यदि इटली डूबता है तो यह यूरो को भी ले डूबेगा। और इसे दुरुस्त करने के लिए ही बैंकरों का आगमन हुआ है।
    सचाई यही है कि सामाजिक जनवादी नेताओं द्वारा वित्तीय मितव्ययिता, निजीकरण, पेनशन लाभों में कटौती और श्रम सुरक्षा कानूनों के विनाश की 'नव उदारवादी' नीतियों को लागू करने की सभी कोशिशों के बावजूद यूनान तिकड़ी द्वारा दिए गए लक्ष्यों को पूरा नहीं कर सकता। 2012 में उसका ऋण भुगतान में व्यतिक्रम होना तय है। इटली का मामला थोडा अलग है। हालाँकि इसका सरकारी ऋण का अनुपात यूरोपीय स्तर से ऊँचा है, ज्यादातर क़र्ज़ इतालवी बैंकों से लिए गए है विदेशी बैंकों से नहीं। अगर आप कर्जों पर ब्याज के भुगतान को छोड़ दें तो सरकार ने 'अपने बही खातों को सन्तुलित करना' शुरू कर दिया है और इतालवी अभी भी विदेशों में सामन बेच सकते हैं। इस तरह इटली जीवन स्तर, नौकरियों और सार्वजनिक सेवाओं की कीमत पर भुगतान संकट से बच सकता है।
    साम्राज्यवाद का दौर वित्तीयपूँजी के शासन का दौर होता है। लेकिन सरकारों के उठने बैठने से लेकर रोजमर्रा के कामकाज और जीवन के हर क्षेत्र में उनकी जो दखलन्दाजी आज देखने में आ रही है वह अभूतपूर्व है। इटली और यूनान को वित्तीय पूँजी के हाथों जो जलालत झेलनी पड़ रही है, उसने बहुत सारे लोगों को चिंतित और परेशान कर दिया है। कीन्स के अनुयायी यह तर्क दे रहे हैं कि यदि लोकतान्त्रित ढंग से चुनी हुईं ये सरकारें सार्वजनिक क्षेत्र से निजी क्षेत्र द्वारा लिए गए कर्ज को वापस लेने की कोशिश करें और इस प्रक्रिया में यदि बैंक भड़क जाएं तो उपभोक्ताओं की बचत को सुरक्षित रखते हुए बैंकों को अधिग्रहित कर लिया जाए और उद्योग एवं जनसामान्य को आसान शर्तों पर ऋण देकर अर्थव्यवस्था को गतिमान किया जाए तो समस्या का समाधान हो जाएगा। लेकिन आज की स्थिति में यह एक हवाई कल्पना ही है। अतीत में जब ऐसी चीजें हुईं थीं तो दुनिया भी दूसरी थी और पूँजीवाद भी दूसरे किस्म का था। आज दुनिया के पैमाने पर जिस तरह पूँजीवादी लूट है और उसको सम्भव बनाने वाली नव उदारवादी नीतियों का जो स्वरूप है उसमें यह किसी भी तरह से सम्भव नहीं है कि दुनिया के नए शहंशाहों को अपने मुनाफे में रत्ती भर की कटौती करने को बाध्य किया जा सके। अगर यूरोप जैसे मजबूत राष्ट्रों की सरकारें उनके आदेशों को सामने नतमस्तक होने के लिए तैयार हैं तो फिर दूसरों का पूछना ही क्याइस बात की थोड़ी समझदारी कि यूनान और इटली को यह जलालत क्यों झेलनी पड़ी इसे समझने से हो सकती है कि आखिर यह संकट पैदा ही क्यों हुआ? दरअसल बजट घाटों से पैदा हुए भुगतान के संकट से निकलने का सरकारों के पास परम्परिक तौर पर दो रास्ते हुआ करते थे। पहला यह कि वह टैक्सों की दर को ऊँचा कर राजस्व वसूली को बढ़ा कर घाटे की पूर्ति करती थी। ऐसा करने का उसके पास कानूनी अख्तियार होता था और अमूमन ऐसा ही किया जाता था। लेकिन अगर किसी कारण से ऐसा करना तात्कालिक तौर पर सम्भव नहीं हो तो उसके पास दूसरा रास्ता यह होता था कि वह अपने केन्द्रीय बैंक से पैसा उधर ले लेती थी और आवश्यकतानुसार केन्द्रीय बैंक अधिक नोट छाप कर उसकी भरपाई कर सकता था।  

    सरकारों के भुगतान की इस क्षमता के कारण उनके द्वारा लिए गए ऋणों को ऋणदाता वित्तीय संस्थाओं द्वारा अत्यन्त ही सुरक्षित समझा जाता था और इसीलिए उन्हें 'सोवेरेन' ऋणों का नाम मिला था। लेकिन जब राष्ट्र और उनकी सरकारें ही 'सोवेरेन' न रह जायें तो उनके ऋणों का क्या हो?कुछ ऐसा ही मामला 'यूरो जोन' के देशों के साथ हो रहा है। ये दोनों ही पारम्परिक समाधान आयरलैण्ड, पुर्तगाल, यूनान और इटली जैसे संकटग्रस्त देशों को उपलब्ध नहीं हैं। दरअसल, इन अधिकारों को यूरोपीय केंद्रीय बैंक, अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष और यूरोपीय संघ की तिकड़ी ने अधिग्रहित कर लिया। इस तिकड़ी की मिलीभगत से पूरी दुनिया की तरह ही यूरोप की सरकारें नीतियों के जिस ताने बाने का अनुसरण कर रही हैं, उसके अनुरूप अमीरों के मुनाफे और बचत से किसी छेड़खानी का अधिकार नहीं है। इसके चलते, सरकारों द्वारा टैक्स उगाही कर अपने घाटे की पूर्ति करने की सम्भावना बहुत ही कम हो जाती है। दूसरी ओर, अधिक नोट छाप कर घाटे की पूर्ति करने का विकल्प भी 'यूरो' के आने के साथ समाप्त हो चुका है। क्योंकि 'यूरो' किसी एक सरकार के इच्छाओं और आवश्यकताओं के अनुसार न संचालित होकर कुछ ऐसे आर्थिक नियम कानूनों से संचालित होता है, जिनकी देख रेख और उनको लागू करने की जिम्मेदारी यूरोप के पैमाने पर कुछ बड़े बैंकों और वित्तीय संस्थाओं द्वारा सामूहिक रूप से पूरी की जाती है। इस प्रक्रिया पर भी इसी तिकड़ी का एकाधिकार है। ऐसी हालत में सरकारों के पास ऐसा कोई विकल्प नहीं रहा है कि वे अपनी समस्याओं का खुद समाधान कर सकें। सरकारों के सार्वभौमिकता का ह्वास का यह पहलू यूरोप के संकट के पैदा होने से पहले प्रत्यक्ष नहीं हुआ था और अब जब वह खुल कर सामने आ गया है तो 'यूरो जोन' का अस्तित्व ही खतरे में है।
    यहाँ यह बात स्पष्ट कर देनी चाहिए कि सरकारों की यह ऋणग्रस्तता इसलिए नहीं पैदा हुई है कि उन्होंने कल्याणकारी योजनाओं या अन्य मदों में अनाप-शनाप खर्च किया है, जैसा कि यह तिकड़ी हमें मानने को मजबूर कर रही है। दरअसल, बहुत सारा कर्ज तो इन्हीं बैंकों और वित्तीय संस्थाओं को ऋणोद्धार (बेलआट) के द्वारा रक्षा करने के कारण हुआ है। इसके अलावा इसका एक बड़ा हिस्सा अमीरों को न छूने की रुढ़िवादिता के कारण इकट्ठा हुआ है। ऐसी परिस्थिति में अब वही बैंक और वित्तीय संस्थाएं उन कर्जों को सरकार को वापस मांग रही हैं जो दरअसल उन्हीं का उद्धार करने के लिए ली गईं थीं। वस्तुतः यह एक ऐसा गड़बड़झाला है जिसमें वे ही संस्थाएं जो संकट के पैदा होने के मूल में है, उसके समाधानकर्ता के रूप में हाजिर हुई हैं। समाधान का उनके पास जो एक मात्र रास्ता है वह यही है कि जनता को हासिल हो रही सुविधाओं में और कटौती किया जाए और तथाकथित मितव्ययिता के द्वारा उन्हें उनके वेतन, पेंशन, बचत आदि पर और डाका डाला जाए। यह एक ऐसा समाधान है जो लंबे समय में नहीं बल्कि तत्काल ही समस्या को और अधिक घनीभूत रूप से वापस ला देगी। यह एक ओर तो पूरे यूरोप में मितव्ययिता के खिलाफ जारी आक्रोश को और बढ़ा देगी और दूसरी ओर अति संचय के संकट को और घनीभूत कर देगी।
    ऐसे में असली समाधान तो एक ही है कि इस बात को पुरजोर तरीके से रखा जाए कि यह संकट दरअसल पूँजीवाद का संकट है। नवउदारवादी नीतियों ने संकट को गहरा बना दिया है लेकिन संकट उसके चलते नहीं है। इन नीतियों में बदलाव करने के बाद भी संकट टल सकता है, खत्म नहीं हो सकता है। मजदूरों की ताकत का उठ खड़ा होना और पूँजीवाद का नाश ही समस्या का समाधान है।

साभार 


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