रविवार, 9 अक्तूबर 2011

रामलीला मैदान से ‘लिबरेशन पार्क’ तक


देवेन्द्र प्रताप
इस समय एक तरफ जहां दुनिया में सुपर पॉवर की हैसियत रखने वाला अमेरिका आर्थिक मंदी के तले दबा चीख रहा है, अमेरिका के हृदय स्थल न्यूयार्क में वाल स्ट्रीट के पास सुपर पॉवर के हृदय पर कब्जे के लिए एक अनोखा धरना चल रहा है। यह धरना ‘अकुपाई वाल स्ट्रीट’ के नाम से चलाया जा रहा है। वाल स्ट्रीट के बगल में स्थित एक सार्वजनिक पार्क में कुछ युवाओं द्वारा शुरू किया गया यह धरना आज हजारों लोगों को अपने से जोड़ चुका है। 17 सितंबर से शुरू हुए इस धरने की बदौलत आज उस सार्वजनिक पार्क को ‘लिबरेशन पार्क’ कहा जाने लगा है। धरने में शामिल युवा सोसल नेटवर्किंग सीटों के माध्यम से अपने विचारों और मांगों को लगातार जनता के बीच पहुंचा रहे हैं। इसी का नतीजा रहा कि पिछले एक हप्ते के दौरान अमेरिका के दूसरे हिस्सों में भी इनके समर्थन में धरने पर बैठने का सिलसिला शुरू हो गया।
लिबरेशन पार्क में धरने पर बैठे लोगों ने ‘अकुपाई वॉल स्ट्रीट’ नाम की अपनी वेबसाइट पर लिखा है कि उनकी लडाई कारपोरेट लूट के खिलाफ हैं। वे जनता के साथ होने वाली हर तरह की नाइंसाफी और बर्बरता के खिलाफ हैं। यही वह वजह रही, जिसने इस धरने को न सिर्फ शुरू करने, वरन लोगों को ऐक्यबद्ध होने के लिए भी मजबूर किया। यह आंदोलन पूरी तरह अहिंसक तौर-तरीकों से चलाया जा रहा है और ऐसा लगता है कि इसे चलाने वाले लोगों को आंदोलन को जल्दी समाप्त करने की कोई जल्दी नहीं है। इस आंदोलन में काले, गोरे, हिप्पी, वामपंथी, लिबरल और दूसरे विचारों को मानने वाले लोग भी शामिल हैं, लेकिन वे अमेरिका की किसी पार्टी के प्रतिबद्ध कार्यकर्ता नहीं हैं। दुनिया के कामकाजी लोगों के नाम अपने संदेश में इन्होंने कहा है कि वे कारपोरेट की लूट के खिलाफ अपने संघर्ष में उन्हें (लिबरेशन पार्क के आंदोलनकारियों को) अपना साथी समझें। यह आंदोलन अमेरिका में मौजूद भ्रष्टाचार के खिलाफ भी है, लेकिन उसका मुख्य विरोध कारपोरेट लूट से है। वहां का प्रतिष्ठित मीडिया ‘लिबरेशन पार्क’ के इस आंदोलन से पहले पूरी दूरी बनाकर चल रहा था, लेकिन अब आन्दोलन के दबाव में अब वह अपनी झेंप मिटने में लग गया है। जिस समय आन्दोलन शुरू हुआ तो न्यूयार्क टाइम्स जैसे अख़बार ने लिखा कि ‘आंदोलनकारी अपने उद्देश्य को लेकर स्पष्ट नहीं हैं। ये लोग न्यूयार्क वाल स्ट्रीट पर कब्जा करना चाहते हैं, लेकिन क्यों? इस बारे में वे कुछ भी साफ करने में असमर्थ हैं।’
न्यूयार्क टाइम्स के इस दावे को धरने से जुड़े लोगों की वेबसाइट खोखला साबित कर देती है। ‘अकुपाई वॉल स्ट्रीट’ पर मौजूद सामग्री को पढ़ने से यह बिल्कुल साफ हो जाता है कि वहां के लोग अमेरिका की उस कारपोरेट लॉबी से नाराज हैं, जिसकी वजह से अमेरिका की दुनिया में चौधराहट कायम है। वे इस बात से भी नाराज हैं कि यही कारपोरेट लॉबी वहां की राजनीतिक पार्टियों को संचालित करती है और इनके माध्यम से अपने फायदे के लिए देश-विदेश में नीतियां बनवाती हैं। उन्होंने लोगों का दवा इलाज न होने, अशिक्षा, बेरोजगारी और अन्य सामाजिक-आर्थिक, यहां तक कि सांस्कृतिक समस्याओं तक के लिए इसी लॉबी को जिम्मेदार बताया है। जाहिरा तौर पर यह आंदोलन अपने अंदर बहुत ही दूरगामी महत्व के कार्यभारों को समेटा हुआ है। इसलिए, अगर यह आंदोलन आगे बढ़ता है, तो बहुत संभावना है कि यह आंदोलन अमेरिका की सीमा को पार कर यूरोप और तीसरी दुनिया की जनता को भी अमेरिका की कारपोरेट लॉबी के खिलाफ खड़ा कर दे, हालांकि वर्तमान माहौल में जबकि दुनिया में जनांदोलनों का झंझावात पीछे गया है, ऐसे में इस बात की भी पूरी संभावना है कि यह आंदोलन अपने तय लक्ष्य को पाए बिना समाप्त हो जाए। इसके बावजूद चूंकि बहुत सारे फैसले सिर्फ हार-जीत से तय नहीं होते, इसलिए इस आंदोलन का अपना महत्व है।
इस संदर्भ में दो आंदोलनों को याद करना बेहद जरूरी है। इनमें से पहला है इस साल 12 मार्च को कैलिफोर्निया के सान डियागो शहर से शुरू हुआ आंदोलन और दूसरा भारत में रामलीला मैदान से शुरू हुआ अन्ना हजारे का भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन।
कैलिफोर्निया के अनिवासी भारतीयों ने भारत में बढ़ते भ्रष्टाचार के खिलाफ 12 मार्च को करीब 240 मील लंबा मार्च निकाला था। यह मार्च सान डियागो में मार्टिन लूथर किंग जूनियर के स्मारक से शुरू होकर लॉस एंजिल्स होते हुए 26 मार्च को सैनफ्रांसिस्को में गांधी जी की प्रतिमा पर जाकर समाप्त हुआ। जवाहर कामभामापति और श्रीहरि अटलूरी के नेतृत्व में आयोजित इस मार्च के समर्थन में अमेरिका और यूरोप के दूसरे मुल्कों के अनिवासी भारतीयों ने भी वहां भारत में भ्रष्टाचार के खिलाफ मार्च का आयोजन किया। यूरोप और अमेरिका में आयोजित इन प्रदर्शनों को ‘दूसरे दांडी मार्च’ का नाम दिया गया। इसमें शामिल लोगों की मांग थी कि भारत में भ्रष्टाचार के खिलाफ संयुक्त राष्ट्र के प्रस्ताव को लागू किया जाए। भारत में भ्रष्टाचार के खिलाफ विदेश में अनिवासी भारतीयों का यह इस सदी का सबसे बड़ा प्रदर्शन था। हालांकि इसे विदेशों में और खासकर अमेरिका में तो भरपूर प्रचार मिला, लेकिन भारतीय मीडिया में इसे कम जगह ही मिली। यही वजह रही कि भ्रष्टाचार के नीचे दबी भारत की जनता को इसके बारे में पता तक नहीं चला।
जहां तक न्यूयार्क के ‘लिबरेशन पार्क’ में चल रहे आंदोलन की बात है, इसे सोशल नेटवर्किंग साइटों की वजह से जरूर प्रचार मिला, लेकिन वहां के अपेक्षाकृत ज्यादा संगठित कारपोरेट मीडिया ने एक तरह से इसका बहिष्कार ही किया। दूसरी ओर भ्रष्टाचार के खिलाफ गांधीवादी अन्ना हजारे के आंदोलन को देश-विदेश के कारपोरेट मीडिया का भरपूर समर्थन मिला और वह कहीं ज्यादा असरकारी साबित हुआ। इसके बावजूद भारत से ताल्लुक रखने वाले इन दोनों आंदोलनों और लिबरेशन पार्क के आंदोलन की दूरगामी मारक क्षमता में जमीन-आसमान का अंतर है। जहां विदेश में हुए ‘दूसरे दांडी मार्च’ और स्वदेश में अन्ना हजारे की ‘दूसरी आजादी’ की लड़ाई समाज में मौजूद बेरोजगारी, गरीबी और दूसरी सामाजिक समस्याओं की जड़ भ्रष्टाचार में तलाशने की कोशिश करती है, वहीं ‘लिबरेशन पार्क’ की लड़ाई से जुड़े हुए लोग इसके लिए दुनिया के पैमाने पर मौजूद अतिसंगठित कारपोरेट लॉबी और उसकी लूट को जिम्मदार ठहराते हैं। ‘लिबरेशन पार्क’ के लोगों की ‘जनलोकपाल’ जैसी कोई मांग नहीं है, क्योंकि उन्हें इस बात का विश्वास नहीं है कि ऐसे किसी कानून से उनके द्वारा उठाई जाने वाली समस्याओं का समाधान हो जाएगा। बहरहाल इन आंदोलनों में बड़े पैमाने पर जनभागीदारी रही है, इसलिए इनसे बहुत कुछ सीखा जा सकता है। जहां तक बात इन आंदोलनों में कौन सही है और कौन गलत, तो फिलहाल यह फैसला जनता को करना है और ऐसा लगता है कि अभी यह भविष्य के गर्भ में है।

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