मंगलवार, 6 सितंबर 2011

पैदा हुई जनवादी विकल्प की जरूरत


दिनकर कपूर
अन्ना आन्दोलन की जीत ने देश में काफी समय बाद जनता की प्रभुसत्ता को स्थापित किया है। इस आन्दोलन ने पुनः साबित किया कि सत्ता और सरकार चाहे कितनी भी ताकतवर क्यों न हो उसे सच और इस सच के साथ खड़ी हुई जनता की भावनाओं के सामने झुकना पडता है। इस आंदोलन ने पिछले बीस वर्षों के आर्थिक सुधार के दौर में देश में पैदा हुई इस निराशा की भावना के कि कुछ नहीं हो सकता, को भी एक हद तक कम करने का काम किया। कम्युनिस्ट घोषणापत्र में मार्क्स ने लिखा था कि पूंजीवाद विकास के क्रम में मात्र उन हथियारों को ही पैदा नहीं करता, बल्कि उन्हें चलाने वालों को भी पैदा करता है जो उसके विनाश का कारण बनते है। रामलीला मैदान में अन्ना के भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन में लगातार पांच दिन रहते हुए मैने खुद करीब से देखा कि जिसे मध्यम वर्ग का आंदोलन कह कर खारिज किया जा रहा है, उसमें और कोई नहीं पिछले 20 वर्षा से मनमोहन सिंह द्वारा शुरू किए गए आर्थिक सुधार कार्यक्रमों के बदौलत पैदा हुई मजदूर वर्ग की नयी पीढ़ी रही है। साफ्टवेयर, शापिंग माल्स, पत्रकारिता, सर्विस सेन्टरों, एनजीओं आदि में काम करने वाले ऐसे नौजवान है, जो इस सुधार के बाद दिल्ली और उसके आस-पास के इलाके में बसने आये और जिन्हें चौतरफा शोषण का शिकार रोज ब रोज की जिन्दगी में होना पडता है। रामलीला मैदान में पश्चिम उ0प्र0, एनसीआर और हरियाणा के उन इलाकों से किसानों की बड़ी जमात आयी जिनकी जमीनें कारर्पोरेट और बडे घरानों के मुनाफे के लिए सरकारों ने धोखा धड़ी कर लूट ली है। वह आदिवासी थे जिन्हे प्राकृतिक संसाधनों की लूट के लिए कारपोरेट-सरकार-माफिया गठजोड़ ने बर्बाद कर दिया। वह घरेलू महिलाएं थी जो नित बढ़ती महंगाई के चलते अपनी गृहस्थी के तनाव में तिल-तिल कर घुट रही है। उन छात्र नौजवानों की मौजूदगी थी, जिन्हें पहले पढ़ने के लिए जूझना होता है और फिर पढ़ाई के बाद रोजगार की चिन्ता के साथ जीना पडता है।
आंदोलन शुरू जरूर हुआ भ्रष्टाचार के खिलाफ पर वास्तव में यह केन्द्र बन गया हर उस आक्रोष का जो व्यवस्था के खिलाफ था। इसलिए इस आंदोलन को समझने के लिए जितने पुराने फ्रेमवर्क थे, बुद्धिजीवी थे, तथाकथित आंदोलनकर्ता थे या देष के राजनीतिक दल थे वह असफल साबित हुए। आंदोलन के शुरू से ही बुद्धिजीवीयों का एक बड़ा हिस्सा इसे संविधान व संसद की सर्वोच्चता को चुनौती देने वाला और लोकतंत्र के लिए खतरा बताता रहा। कांग्रेस का समूचा नेतृत्व दिशाविहीन हो इसे पूर्व में हुए रामदेव के आंदोलन की तरह ही कुचलकर खत्म कर देने पर अमादा था। भाजपा इस आंदोलन के प्रति अपने रूख को ही तय नहीं कर पा रही थी। पहले उसने अन्ना की गिरफ्तारी के खिलाफ जेल भरों का आव्हान किया पर बाद में उसे वापस ले लिया। यदि आशा कहीं से पैदा हुई तो वामपंथ की तरफ से ही जिसने 70 के दशक में जय प्रकाश आंदोलन के समय की गयी गलती से सबक लेते हुए अन्ना की गिरफ्तारी के खिलाफ पूरे देश में लोकतांत्रिक अधिकारों पर हमले को मुद्दा बनाकर विरोध प्रदर्शन किया और 9 पार्टियों के साथ मिलकर २३ अगस्त को देशभर में सरकारी लोकपाल को रद्द करने और नया सशक्त लोकपाल बनाने के लिए अन्ना हजारे के प्रतिनिधियों से तत्काल वार्ता करने की मांग को उठाया। दरअसल इस आंदोलन ने देश के लोकतंत्र की सीमाओं को एक बार फिर उजागर किया है। चाहे हम कितना भी समृद्ध और मजबूत लोकतंत्र के, पूरी दुनिया में सबसे बडे लोकतंत्र होने के कसीदे पढ़े सच तो यह है कि इस देश में न्यूनतम लोकतंत्रिक सुधार भी बडे आंदोलनों के बाद ही सम्भव हो पाते है। इस मामले में भी अन्ना पक्ष की मांग महज इतनी ही थी कि देश में जो कानूनी रास्ते से, नीतियां बनाकर लूट और भ्रष्टाचार किया जा रहा है, जिस पर सर्वोच्च न्यायालय तक ने गहरी चिंता जाहिर की है, उस पर रोक के लिए प्रभावी और सशक्त लोकपाल कानून बनाया जाए। यह मांग 2 जी स्पैक्ट्रम, राष्ट्रमंडल खेल, केजी बेसिन, आदर्श हाउसिंग सोसाइटी घोटाले की पृष्टभूमि में और भी प्रासंगिक हो गयी। कहीं न कहीं देश के जनमानस में यह संदेश था कि सरकार देश की सम्पत्ति की लूट पर प्रभावशाली रोक लगाने से बचने की कोशिश कर रही है। इसीलिए उसने पिछले चालीस साल से भी ज्यादा समय से लोकतांत्रिक सुधार के इस न्यूनतम काम को पूरा करने के बजाए मुहं बचाने के लिए नख दंत विहीन सरकारी लोकपाल को संसद में पेष कर उसे स्थायी समिति के हवाले कर दिया है। संसद सर्वोच्चता की दुहाई देने वालों से कोई पूछे कि यदि संसद और सरकार ने अपने न्यूनतम लोकतंत्रिक सुधार के दायित्व को पूरा किया होता तो क्या अन्ना जैसे किसी भी बुजुर्ग को अनशन पर बैठने की जरूरत पडती। वास्तव में जबसे मनमोहनी सुधार शुरू हुआ है इस देश में जनआंदोलन के दबाव में जो भी जनपक्षधर कानून बने थे या सरकार के सामाजिक दायित्व तय किये गये थे उनसे एक-एक कर हर तरह की सरकारों ने अपने कदम पीछे खीचें और उन्हें पलट देने का ही प्रयास किया। सरकारों ने सचेतन ढ़ग से देश की लोकतांत्रिक संस्थाओं को कमजोर करने की ही को कोशिशें की चाहे वह राज्यों की विधानसभाएं हो या फिर सर्वोच्च संसद। बिना संसद में बहस किए पेट्रोलियम पदार्थो की कीमत बाजार के हवाले कर दी गयी। बजट के बाद भी आए दिन कीमतें बढ़ाकर महंगाई थोपी गयी। सदनों की बहस के स्तर को चैराहे की गप्पबाजी में बदल दिया गया। सत्रों की अवधि घटाकर हर मसले पर होने वाली बहस का दायरा खत्म कर दिया गया। सुप्रीम कोर्ट, कैग, मानवाधिकार आयोग तक को धमकाया गया और महिला आयोग, अनुसूचित जाति- जनजाति आयोग और पिछड़ा वर्ग आयोग तो सरकारों के जेबी संगठन बन गए। सीबीआई जैसी महत्वपूर्ण संस्थाओं का केन्द्र में अपनी सरकार बनाने और बचाने के लिए दुरूपयोग किया गया उ0 प्र0 के एक उदाहरण से हम स्थिति समझ सकते है जहां की दोनो प्रमुख पार्टियां सपा-बसपा के मुखिया आय से अधिक सम्पत्ति के मामले में सीबीआई की जद में है और जेल जाने से बचने के लिए केन्द्र सरकार की हर मसले में सुर में सुर मिलाते रहते है। यही नहीं इस दौर में देश में जितनी भी लोकतांत्रिक आवाजें उठी उन्हें या तो निर्ममता के साथ कुचल दिया या फिर अनसुना कर दिया गया। देशभर में किसानों, नौजवानों समेत समाज के विभिन्न तबकों के आंदोलनों पर दमन और मणिपुर में सशस्त्र बल विशेषाधिकार कानून जैसे काले कानून के खात्में के लिए दस वर्षो से भी ज्यादा समय से अनषनरत इरोम शर्मिला के प्रति भारतीय राजव्यवस्था की अनदेखी
इसके उदाहरण है। इस आंदोलन के प्रति भी भारतीय शासक वर्ग का और उसकी दो प्रतिनिधि पार्टियों कांग्रेस और भाजपा का यही रूख था। हद तो यह हो गयी कि इन दलों ने बजाए इसके कि पिछले 20 वर्षों से जारी लोकतांत्रिक संस्थाओं के सरकारों द्वारा उडाए जा रहे मजाक और उन्हे बार-बार कमजोर करने की दलों द्वारा की गयी कोशिशों पर आत्माआलोचना करने के, इस बात की समीक्षा करने कि आखिर वह कौनसी कारगुजारियां रही है जिन्होने इतना अविश्वास आमजनमानस के अंदर पैदा कर दिया, इस
आंदोलन का भण्डाफोड करने में और इसे अलगाव में डालने में ही अपनी पूरी ताकत लगा दी। आंदोलन के वक्त दिल्ली में तो आमचर्चा थी कि उन दलित-मुस्लिम-पिछडे़ नेताओं के लिए सरकार ने अटैची खोल दी है जो इस आंदोलन का विरोध कर सकें। एक दलित नेता ने तो बकायदा दिल्ली में इसी पैसे के बदौलत आंदोलन के विरोध में मार्च तक किया। इस आंदोलन के बरखिलाफ संविधान की दुहाई देते हुए डा० अम्बेडकर को खडा करने की कोषिष की। जबकि इतिहास गवाह है कि डा0अम्बेडकर ने खुद मौजूदा संविधान से अपने को अलग कर लिया था। एक मुस्लिम नेता ने आंदोलन के तौर तरीके पर सवाल उठाएं। लेकिन इन तबकों के बीच से पैदा हुयी नयी पीढ़ी ने जो आज मुख्यधारा में रहकर विकास चाहती है इन तमाम प्रयासों को नकार दिया। इतना ही नहीं हमने देखा कि कांग्रेस और भाजपा दोनों ने यूपीए और एनडीए के उन लोगों को आंदोलन के खिलाफ संसद में बोलने के लिए उतारा जो खुद आंदोलन से पैदा हुए है चाहे वह शरद यादव हो या लालू यादव। यह संसद में लोकपाल कानून के जरिए देश में दलित, पिछडा, अल्पसंख्यक कार्ड खेलने में लग गए। हमारे जैसे लोगों को आष्चर्य होता है कि दलित, पिछडा, अल्पसंख्यक के सामाजिक न्याय का नाम लेकर लोकतांत्रिक सुधार के महिला आरक्षण से लेकर लोकपाल के कानूनों को रोकने में शासक वर्ग के औजार बने इन तथाकथित सामाजिक न्याय के मसीहाओं का जलवा पिछडे मुसलमानों को अलग आरक्षण देने, दलित ईसाइयों व मुसलमानों को अनु-जाति का दर्जा देने की संस्तुति करने वाली रंगनाथ मिश्र आयोग की रिर्पोट को लागू कराने व अति पिछडों को पूरे देश में अलग आरक्षण कोटा देने पर क्यों नही दिखाई देता ? जहां-जहां इनकी सरकारें रही है या इस समय है वहां इनका पालन क्यों नहीं हो रहा। सबने देखा कि इस आंदोलन को सहयोग कर रहे हर तरह के लोगों पर हमला किया गया। मीडिया के खिलाफ चिल्ला- चिल्ला कर भाषण देने वालों को समाचार चैनलों में राखी सांवत के नाच और लाफ्टर शो से इतनी बड़ी दिक्कत कभी नहीं हुई जितना कि इस आंदोलन की कवरेज से। ओमपुरी जैसे लोगो पर भाजपा ने शराब पीकर भाषण देने का आरोप लगाया और जिन्हें आज भी आतंकित किया जा रहा है। इतना ही नहीं अग्निवेश जैसो का इस्तेमाल आंदोलन को तोड़ने के लिए किया गया। 'रस्सी जल गयी ऐठन नहीं गयी' की कहावत को चरितार्थ करते हुए अभी भी सरकार का रूख आत्मविश्लेषण का नही अपितु आंदोलन को पुनः अलगाव में डालने का ही है। एक तरफ अन्ना को फूल का गुलदस्ता दिया जा रहा है वहीं दूसरी तरफ बदले की भावना से कार्य करते हुए उनके सहयोगियों की हर तरह से धेरेबंदी की जा रही है। इस आंदोलन में रहते हुए मैने महसूस किया कि आंदोलन में कहीं भी धर्म, जाति के नाम पर कोई भेदभाव नहीं था। बल्कि गोविन्दाचार्य, चेतन चैहान, सीपी ठाकुर, वरूण गांधी से लेकर तमाम ऐसे नेता थे, जिन्हें आयोजकों ने सचेत ढ़ग से मंच पर बुलवाने से मना कर दिया। बहरहाल हर प्रकार के कुत्सित प्रचार, दमन और अवहेलना के कोशिशों को नकार कर यह आंदोलन सफल हुआ। इस आंदोलन की जो भी कमियां हों उन पर खुले दिल से विचार हो सकता है पर इसने सत्ता से टकराने और जीत जाने की जनाकांक्षाओं को निश्चित रूप से बहुत बढ़ा दिया है। इसको चलाने वालों के ऊपर यह एक बड़ी जबाबदेही है कि वह इन जनाकांक्षाओं को देश में प्रतिरोध की एक बडी शक्ति में तब्दील करें। साथ ही यह भी कि लोकतंत्र को मजबूत करने के लिए जिन सुधारात्मक सवालों को वह उठा रहे है वह राजनीतिक क्षेत्र में भी उनसे दखल देने की मांग करेगा क्योंकि मौजूदा राजनैतिक परिपाटी इसके खिलाफ है। इस नाते शुरूवात चाहे जहां से आंदोलनकर्ताओं ने की हो उन्हें जनपक्षधर जनवादी राजनीतिक विकल्प का केन्द्र भी बनाना होगा।
(दिनकर कपूर, राष्ट्रीय प्रवक्ता, जन संघर्ष मोर्चा, ई0 डी0 17 डायमण्ड़ डेरी कालोनी, उदयगंज, लखनऊ मो0 न0 09450153307)

3 टिप्‍पणियां:

  1. इस अमानवीय पूंजीवाद को वही वर्ग नियंत्रित कर सकते हैं, जो खुद
    इस से सर्वाधिक पीड़ित हैं। उन वर्गों का मोर्चा अस्तित्व में आना और
    उस का विकल्प बनना जरूरी है। वही वर्तमान अंतर्विरोधों को हल कर सकता है।

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  2. अब तक के ज़्यादातर विश्लेषणों से बेहतर और संतुलित नजरिया! और ये बीच का रास्ता भी नहीं है. इसमें 'घटित' का विश्लेषण है न कि जड़ सूत्रों का संवाद विरोधी प्रक्षेपण.
    लेकिन दिनकर के लेख से पहले इसी ब्लॉग पर चस्पां आनंद स्वरुप वर्मा जी और अंजनी कुमार के शुध्तावादी क्षोभ की बात कर लें- दोनों जन प्रतिरोध को एक डिफाल्ट जाविये से देखने का दुराग्रह कर रहे हैं. उन्हें लगता है कि प्रतिरोध का शायद कोई निश्चित व्याकरण होता है. यानी अगर वह उनकी मान्यताओं के अनुरूप चले तो वह जन प्रतिरोध है नहीं तो वह फासिस्ट क्रंदन में बदल जाने वाला एक बेसुरा आलाप है. वर्मा जी और अंजनी- दोनों के लेखों में भाषा और तर्क की हल्ला बोल शैली किसी को आश्वस्त नहीं कर सकती. खासकर, नई पीढ़ी, जो कभी जनवादी विचारों के संपर्क में नहीं आई है, वह तो ऐसे विश्लेषण से बिदक ही जायेगी.
    मुझे लगता है कि बौद्धिकता का प्रयोजन विरोधी विचार को सिर्फ धराशाई करना नहीं होता. अगर वह जन चेतना के मौजूदा स्पेस में जगह नहीं बना पाती, और लोगों की समझ ( उसका स्तर चाहे जैसा हो) का सम्मान करते हुए उसे संवाद के जरिये संवारने की जिम्मेदारी नहीं उठाती तो कोई कितना ही जोर लगा लें, लोग आपकी बात नहीं सुनेगें. ऐसा इसलिए कि दुनिया में हर किसी के पास जिंदगी जीने और जीवन की परिस्तिथियों को नापने-जोखने का कोई न कोई विचार जरूर होता है. और व्यक्ति या समाज किसी की बात पर तभी कान देगा जब उसे लगेगा कि नई बात कुछ गुत्थियों को खोल सकती है. अगर किसी में जनता के नज़रिए ( जो कई बार अस्प्पष्ट भी हो सकता है) को सब्र के साथ सुनने की सलाहियत नहीं है तो आप शौक़ से फरमान और हिदायतें जारी करते रहें, जनता आपकी नहीं सुनेगी.
    जिन वामपंथियों को अन्ना आन्दोलन में कुछ भी जनवादी या प्रगतिशील नहीं दिखा उन्हें अपने सूत्रों और प्रस्थापनाओं को रिफ्रेश करना चाहिए. हर प्रतिरोध की अतीत की क्रांतियों से अनिवार्य रूप से तुलना करना गलत है क्योंकि हर आन्दोलन या उभार वर्तमान की डायनेमिक्स से भी तय होता है. और अगर कोई विश्लेषक वर्तमान के अद्वितीय कारकों को महत्त्व नहीं देना चाहता या उन्हें समझना नहीं चाहता तो ये आन्दोलन का नहीं बल्कि उसका अपना संकट है.
    वर्मा जी और अंजनी के विश्लेषण को ध्यान से देखें तो पता लगाया जा सकता है कि दरअसल वे अन्ना आन्दोलन से उतना एंगेज नहीं कर रहे जितना प्रतिरोध के किसी मूलगामी और शुद्ध बिंदु की बात कर रहे हैं. और जैसा दिनकर जी ने अपने लेख में ज़िक्र किया है, वे शौपिंग मालों, कॉल सेंटरों आदि और बाजार के बनते बिगड़ते उपक्रमों में काम करनी वाली उस पीढ़ी को नहीं देख रहे जो अपनी तमाम चमक दमक और खनक के बावजूद पूरी व्यवस्था में सायबर कुली से ज्यादा नहीं हैं. आखिर ऐसे लोगों को अन्ना से क्या मिल रहा था?
    किस्सा कोताह ये कि स्थापित जनवादी अपनी तरफ से कुछ विधेयात्मक नहीं करते क्योंकि उन्होंने खुद को टीका टिपण्णी तक सीमित कर लिया है. और जब दूसरी तरह की राजनीतिक शक्तियां सार्वजनिक वृत्त को अपने पक्ष में कर लेती हैं तो जनवाद के पहरेदारों को उसमें फासीवाद की आहट सुनाई देने लगती है.
    असल में अन्ना आन्दोलन पर वामपंथी खेमे की टिप्पणियाँ उसके अपने संकट की गवाही है. दिक्कत ये है कि जिसे अकर्मण्यता कहा जाना चाहिए, उसे कुछ 'बड़े लोग' तरह तरह के तर्कों से ढकने की कोशिश कर रहे हैं.
    दिनकर कपूर का विश्लेषण इसीलिए आश्वस्त करता है क्योंकि एक तो उसमें प्रदत्त निष्कर्षों और पूर्व आग्रहों की जकड़न नहीं है और दूसरे उसमें जनता को मूर्ख और किसी का टूल नहीं माना गया है.

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  3. शहीदों का सन्देश........
    क्रांतिकारियों का लेख पढ़े
    (अन्ना हजारे आन्दोलन पर क्रांतिकारियों के विचार)


    वर्ग रूचि का आंदोलनों पर असर

    http://krantikarisandesh.blogspot.com/p/blog-page_9588.html

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