शुक्रवार, 9 सितंबर 2011

गिनीपिग अर्थात परीक्षण चूहे बनने की नियति से मुक्ति का सवाल

सुभाष गाताडे
आंध्र प्रदेश के गुण्टूर जिले के पिडुगुराल्ला कस्बे की जक्का कुमारी, शाइक बीबी, कोम्मू करूणाम्मा या पायला धनलक्ष्मी या उनकी तमाम सहेलियां, जो घर की कमजोर आर्थिक स्थिति के चलते मजदूरी करने के लिए मजबूर हैं, कुछ माह पहले की हैद्राबाद की अपनी यात्रा को कभी नहीं भूल पाएंगी। एक्सिस नामक फार्मा कम्पनी के एजेण्ट उन्हें बहुत पैसे देने का वायदा करके हैद्राबाद के मियापुर ले गए थे जहां पर उन्हें तीन दिन के लिए अलग अलग इंजेक्शन दिए गए और बाद में घर जाने दिया गया। प्रयोगशाला से घर लौटने पर कइयों के जोड़ों मे दर्द, हाथ में सुजन, गले में खराश जैसे विभिन्न लक्षण विकसित हुए, कुछ के लिए पैदल चलना असम्भव सा हो गया। जब यह ख़बर मीडिया की सूर्खियां बनीं तब जिलाधीश ने जिला चिकित्सा अधिकारी को पिदुगुराल्ला जाने का निर्देश दिया। बाद में इस बड़े काण्ड का पर्दाफाश हुआ कि कितने बड़े पैमाने पर निरक्षर, गरीब महिलाओं को फंसा कर तरह तरह की दवाओं के परीक्षण का काम उन पर चल रहा है। ताज़ा खबर यह है कि मीडिया में हो रहे शोरगुल के मद्देनज़र सरकार ने एक्सिस कम्पनी पर कार्रवाई शुरू की है। टुकड़े टुकड़े में आनेवाली ख़बरें ही बताती है कि न एक्सिस कोई पहली दवा कम्पनी है जो इस अनैतिक काम में मुब्तिला है और न पिडुगुराल्ला की औरतें गिनीपिग/परीक्षण चूहे बनने की पहली मिसाल। दुनिया भर में दवा कम्पनियों का रेकार्ड यही बताता है कि वे इस अनैतिक काम में लिप्त रहती हैं। विकसित देशों की तुलना में भारत जैसे तमाम विकसनशील देशों में दवा कम्पनियों के दो तिहाई परीक्षण सम्पन्न होते हैं। अकेले हिन्दोस्तां की बात करें तो यह अनुमान लगाया जाता है कि दुनिया का हर चैथा परीक्षण यहां होता है तथा आज की तारीख में चिकित्सा परीक्षण का बाज़ार डेढ बिलियन डाॅलर को लांघ चुका है। दूसरे, समूचे दवा परीक्षण उद्योग का लगभग आधा हिस्सा भारत के नियंत्राण में है। कल्पना ही की जा सकती है कि चिकित्सा परीक्षण के उद्योग के होते विस्तार के साथ कितने मासूम लोग इसी तरह कालकवलित होंगे। पिछले साल संसद में प्रश्न का उत्तर देते हुए स्वास्थ्यमंत्री दिनेशचन्द्र द्विवेदी ने इस विस्फोटक तथ्य को उजागर किया था कि यहा ड्रग ट्रायल के दौरा विगत तीन सालों में 1519 लोगों की मृत्यु हुई है। (राजस्थान पत्रिका, 6 अगस्त 2010) अर्थात यहां हर साल पांच सौ से अधिक लोग दवा परीक्षण के दौरान ही मर जाते हैं। अभी ज्यादा दिन नहीं हुआ जब इन्दौर के हवाले से ख़बर छपी थी कि किस तरह वहां के सरकारी एवं निजी अस्पतालों के डाक्टरों ने सभी चिकित्सकीय मापदण्डों को ताक पर रख कर 1100 बच्चों को बड़ी बड़ी फार्मा कम्पनियों द्वारा तैयार की जा रही दवाइयों के असर को जानने के लिए परीक्षण चूहों की तरह अर्थात गिनीपिग की तरह इस्तेमाल किया और लाखों रूपए कमाए। इसमें अठारह अस्पतालों के 40 डाक्टरों के नाम हैं, जिन्होंने इस बहती गंगा में हाथ धो लिया। अगर हम ‘मंथली इन्डेक्स आफ मेडिकल स्पेशालिटीज’ के ताजे अंक को (सन्दर्भः टाईम्स आफ इण्डिया 3 जून 2011) देखें तो पता चलता है कि वर्ष 2005-2010 के बीच जहां समूचे मध्यप्रदेश के पांच मेडिकल कालेजों में 2,365 मरीजों को चिकित्सकीय परीक्षण के लिए पंजीकृत किया गया उनमें से 1,521 मीहज इन्दौर स्थित एमजीएम मेडिकल कालेज और उससे सम्बधित एम वाय हास्पिटल में ही दाखिल किए गए, जिनका बहुलांश -1,170 - बच्चों का ही था। इस काम को अंजाम देने के लिए कितने बड़े स्तर पर हेराफेरी की गयी इसका अन्दाज़ा इससे भी लग सकता है कि इन्दौर के कालेज के परीक्षण के लिए कालेज की तरफ ‘एथिक्स कमेटी’ से नहीं बल्कि दक्षिण के किसी निजी मेडिकल कालेज की एथिक्स कमेटी से पत्रा लिखवाये गये। इस परीक्षण में मुब्तिला वरिष्ठ डाक्टरों ने इस ‘बिजनेस’ में 50-60 लाख रूपए कमाए। गुजरात एवं आंध्र प्रदेश के आदिवासियों पर हुए एचपीवी वैक्सिन के परीक्षण के दौरान हुई मौतों को लेकर बनी कमेटी की रिपोर्ट पिछले माह प्रकाशित हुई है। केन्द्र द्वारा नियुक्त इस कमेटी ने (द हिन्दू 10 मई 2011) पाया था कि ‘इसके पर्याप्त सबूत मिलते हैं जब इन परीक्षणों के दौरान तमाम नैतिकता सम्बन्धी उल्लंघन हुए’ फिर आदिवासी युवतियों की सहमति हासिल करने का सवाल रहा हो या परीक्षण के दौरान या बाद में उनकी सुरक्षा का सवाल रहा हो।’ आंध्र प्रदेश एवं गुजरात की लगभग 23,000 आदिवासी युवतियों का इस योजना के तहत टीकाकरण किया गया था, जिस काम को ‘पाथ’ नामक एक अन्तरराष्ट्रीय एन जी ओ ने दो अमेरिकी फार्मा कम्पनियों के लिए किया था। इस परीक्षण के तहत जब सात आदिवासी युवतियों की मौत हुई और यह बात सामने आयी कि बड़े पैमाने पर नीतिशास्त्राीय उल्लंघन हुए हैं तब इस वैक्सिन के परीक्षण की योजना स्थगित की गयी थी और जांच कमेटी बिठायी गयी थी। यहभी पता चला था कि पहली दुनिया के मुल्कों में पहले से प्रचलित इस टीके को लगाने के तमाम खतरनाक परिणाम सामने आ चुके हैं, न केवल इन टीकों से स्वस्थ किशोरियों को मौत की नींद सुला दिया है और कम्पनियों के इस टीके की खेपों को बाजार से हटाना भी पड़ा है। इस सन्दर्भ में यह सवाल स्पष्ट तौर पर पूछे जाने की जरूरत है कि मुल्क के निवासियों के शरीरों को नयी नयी दवाओं के परीक्षणों के आखाड़ा बनाने की इन कोशिशों को लेकर भारत की संसद अभी तक मौन क्यों है ? ऐसा क्यों नहीं हो रहा कि ऐसे परीक्षणों को रोकने के लिए या उनपर सख्त नियंत्राण कायम करने के लिए अभी तक कानून नहीं बनाया जा सका है। ध्यान रहे कि इस सन्दर्भ में इण्डियन कौन्सिल फार मेडिकल रिसर्च की तरफ से मनुष्यों पर चिकित्सकीय परीक्षणों को लेकर दिशानिर्देश भी जारी किए गए है, मगर इन दिशानिर्देशों पर आधारित बिल संसद के सामने पेश तक नहीं किया जा सका है। अधिक विचलित करनेवाली बात यह है कि अनाधिकृत चिकित्सकीय परीक्षणों के खिलाफ मुहिम चलाना तो दूर रहा, भारत सरकार ने बहुदेशीय कम्पनियों एवं निजी इकाइयों की मांग पर पहले से चले आ रहे ‘ड्रग्स एण्ड कास्मेटिक्स रूल्स 2005’ के प्रावधानों को उल्टे हल्का कर दिया है जिसकी वजह से भारत की सरजमीं पर विदेशी दवाओं के परीक्षण का काम अधिक आसान हुआ है। ऐसी आवाज़ें कहां विलुप्त हो गयी हैं जो आम लोगों के शरीरों पर किए जा रहे इस खिलवाड़ की मुखालिफत करने को तैयार हों।

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