शुक्रवार, 8 जुलाई 2011

क्या भारतीय क्रान्तिकारी हिंसा के समर्थक थे?

डा. अजय कुमार मिश्र

आज न सिर्फ अपने मुल्क में वरन समूची दुनिया के युवाओं को उनके अपने देश के इतिहास, उनके नायकों और हर उस बात से दूर किया जा रहा है, जिससे वे प्रेरणा ले सकते हैं। सब कुछ इतने चुपचाप हो रहा है कि एक सामान्य आदमी यह समझ ही नहीं सकता कि इसके पीछे की वजह क्या है? ऐसी तमाम साजिशों में से एक है देश के क्रांतिकारियों के चरित्र के बारे में कुछ ऐसे विचारों का प्रस्तुतिकरण जो या तो अधूरे होते हैं या फिर पूरी तरह गलत। इस पहलू के बारे में सबसे ज्यादा प्रसिद्ध क्रांतिकारी भगत सिंह ने लिखा है। भगत सिंह का क्रांतिकारी आंदोलन में पदार्पण ऐसे समय में हुआ, जब काकोरी कांड से ताल्लुक रखने वाले और आतंकवादी कार्यदिशा को अपनाने वाला संगठन विघटन के कगार पर था। इसके बाद ही उत्तरी भारत में नौजवान भारत सभा नामक नाम से एक क्रांतिकारी संगठन बनाया गया। इस संगठन को बनाने में भगत सिंह, भगवती चरण बोहरा, सुखदेव आदि क्रांतिकारियों का योगदान था। यह ऐसा संगठन था, जो खुले तौर पर देश को आजाद करवाने के लिए जनता के बीच प्रचार का काम करता था। जाहिर है यह काम कोई आतंकवादी संगठन नहीं कर सकता था। यह भारत का पहला क्रान्तिकारी संगठन था, जिसने समाजवाद को अपना ध्येय घोषित किया था। इसके घोषणा पत्र में कहा गया था कि क्रान्ति जनता द्वारा जनता के हित में होगी। क्रान्तिकारी का आशय बम और पिस्तौल वाले आदमी से नहीं हैं। पंजाब नवजवान सभा के पश्चात गठित एच़एस़आऱए. ने अपने घोषणा पत्र में कहा कि ‘‘हम हिंसा में विश्वास रखते हैं-अपने आप में अंतिम लक्ष्य के रूप में नहीं, बल्कि एक नेक परिणाम तक पहुंचने के लिए अपनाये गये तौर एक तरीके के रुप में। हमें हमारी आतंकवादी नीति के कारण कई बार सजायें हुई हैं। हमारा जबाब है कि क्रान्तिकारियों का मुद्दा आतंकवाद नहीं होता. हम यह विश्वास रखते हैं कि आतंकवाद के रास्ते ही क्रान्ति आयेगी’’अंग्रेज भारत में इसलिए अपना राज चला सके क्योंकि वे सारे भारत को डराने में कामयाब हुये। क्रांतिकारियों ने जनता से सवाल किया, ‘‘ वे इस सरकारी दहशत का किस तरह मुकाबला करें? सिर्फ क्रान्तिकारियों की ओर से मुकाबले की दहशत ही उनकी दहशत को रोकने में कामयाब हो सकती है। समाज में एक लाचारी की गहरी भावना फैली हुयी है। इस खतरनाक मायूसी को कैसे दूर किया जाय? सिर्फ कुर्बानी की रूह को जगाकर खोये आत्म विश्वास को जगाया जा सकता है। आतंकवाद का एक अन्तर्राष्टय पहलू है। इंग्लैण्ड के काफी शत्रु हैं जो हमारी ताकत के पूर्ण प्रदर्शन से हमारी सहायता करने को तैयार हैं। यह एक बड़ा लाभ है।’’
आतंक के औचित्य को स्पष्ट करते हुये भगत सिंह ने लिखा है‘‘पूरी गलतफहमी की जड़ आतंक की गलत व्याख्या है, आतंक व जुल्म बल-प्रयोग से होते हैं, इसलिये बल प्रयोग से बहुत सारे अच्छे व बुरे काम होते हैं। जुल्म इनमें से एक है। बल प्रयोग को आतंक कहना बल-प्रयोग करने वाले की इच्छा पर विचार करने के बाद कहा जा सकता है। यदि बल-प्रयोग किसी नीच इच्छा से किया जाय तो वह आतंक कहलाता है, लेकिन वही बल-प्रयोग किसी गरीब, अनाथ की मदद के लिये या ऐसे ही किसी और काम के लिए किया जाय, तो वह आतंक नहीं, बल्कि पुण्य कहलाता है। बल प्रयोग करना कोई जुल्म, अत्याचार या आतंक नहीं, बल्कि बल-प्रयोग करने वाले की नीयत पर निर्भार करता है। यदि बल-प्रयोग किसी नेक काम के लिये किया जाता है तो उसे आतंक का दोषी नहीं ठहराया जा सकता, लेकिन यदि वही बल प्रयोग उसने अपने व्यक्तिगत हित या निर्दोषों को दु:ख पहुचाने के लिये किया है तो उसे नि:संदेह ‘आतंकवादी’ कहा जा सकता है। आतंक हमेशा घृणा योग्य है। जालिमों व गुण्डो की गुण्डई रोकने के लिये बल-प्रयोग किया जाय, तो वह आतंक नहीं बल्कि अच्छा और भला काम होता है।’’ दुनिया के अच्छे कामो के परख की एक कसौटी है- यह कि वे काम दुनिया को सुख व आराम देने वाले हों। किसी को दुख देना आतंक है, लेकिन दुख देने वाले जालिम को मिटाना पुण्य है। ताकत का गलत इस्तेमाल आतंक कहलाता है जब कि जब कि इसको रोकना अच्छा कार्य कहलाता है। इसके पूर्व पंजाबी पत्र कीरती में लिखे गये अपने लेखों की श्रृंखला में भगत सिंह ने ‘आतंकवादी कौन? में ब्रिटिश सरकार को ही आतंकवादी की संज्ञा दी तथा लिखा कि भारतीय आतंकवाद के विरूद्ध संघर्ष कर रहे हैं और ऐसे भारतीयों को आतंकवादी कहा नहीं जा सकता।
सांडर्स वध के पश्चात 11 दिसम्बर 1928 को लाहौर में चिपकाये गये पर्चे में एच़ एस़ आऱ ए. की ओर से लिखा गया था ‘‘ हमें एक आदमी की हत्या करने का खेद है। परन्तु यह आदमी उस निर्दयी, नीच और अन्यायपूर्ण व्यवस्था का एक अंग था जिसे समाप्त कर देना आवश्यक था। इस आदमी की हत्या हिन्दुस्तान में ब्रिटिश शासन के कारिन्दे के रूप में की गयी है। यह सरकार संसार की सबसे अत्याचारी सरकार है। मनुष्य का रक्त बहाने के लिये हमें खेद है। परन्तु क्रान्ति की बेदी पर रक्त बहाना आवश्यक हो जाता है। हमारा उद्देश्य एक ऐसी क्रान्ति से है जो मनुष्य द्वारा मनुष्य के शोषण का अन्त कर देगी।
केन्द्रीय एसेम्बली बम काण्ड पर 6 जून 1929 को अदालत में बयान देते हुये भगत सिंह ने कहा‘‘ जेल में कुछ पुलिस अधिकारी आये थे। उन्होने हमें बताया कि लार्ड इर्विन ने इस घटना बाद ही एसेम्बली के दोनो सदनो के सम्मिलित अधिवेशन में कहा है कि यह विद्रोह किसी व्यक्ति विशेष के खिलाफ नहीं, वरन सम्पूर्ण शासन व्यवस्था के विरूद्ध था। यह सुनकर हमने भाप लिया कि लोगों ने हमारे काम के उद्देश्य को सही तौर पर समझ लिया है। मानवता का प्यार करने में हम किसी से पीछे नहीं हैं। हमे किसी से व्यक्तिगत द्वेष नहीं है और हम प्राणि-मात्र को हमेशा आदर की दृष्टि से देखते है। हम न तो बर्बरतापूर्ण उपद्रव करने वाले देश के कलंक हैं नही हम पागल है। हम तो केवल अपने देश के इतिहास, उसकी मौजूदा परिस्थिति तथा अन्य मानवोचित आकांक्षाओं के मननशील विद्यार्थी होने का विनम्रतापूर्ण दावा भर कर सकते है। हमें ढोंग तथा पाखण्ड से नफरत है’’। इसी बयान में उन्होने आगे कहा कि ‘‘ गवर्नर जनरल की कार्यकारिणी के पूर्व सदस्य स्वर्गीय श्री एस़ आऱ दास ने अपने प्रसिद्ध पत्र में अपने पुत्र को लिखा था कि इंगलैण्ड की स्वप्ननिद्रा भाग करने के लिये बम का उपयोग आवश्यक था। श्री दास के इन्हीं शब्दो को सामने रखकर हमने एसेम्बली भवन में बम फेंके थे। हमने यह काम मजदूरों की तरफ से प्रतिरोध व्यक्त करने के लिये किया था। उन असहाय मजदूरों के पास अपने मर्मान्तक क्लेशों को व्यक्त करने का कोई और साधन नहीं था। हमारा एकमात्र उद्देश्य था ‘बहरों को सुनाना’ और उन पीड़ितों की मॉगो पर ध्यान न देने वाली सरकार को समय रहते चेतावनी देना’’। इसी केस की सुनवायी में उच्चन्यायालय में बयान देते हुये भगत सिंह ने कहा ‘‘ इन्कलाब जिन्दाबाद से हमारा वह उद्देश्य नहीं था जो आम तौर पर गलत अर्थों में समझा जाता है। पिस्तौल और बम इन्कलाब नहीं लाते, बल्कि इन्कलाब की तलवार विचारो की सान पर तेज होती है और यही वह चीज है जो हम प्रकट करना चाहते थे। हमारे इन्कलाब का अर्थ पूजीवादी युद्धों की मुसीबतो का अन्त करना हैं मुख्य उद्देश्य और और उसकी प्रक्रिया समझे बिना निर्णय देना उचित नहीं है। गलत बातें हमारे साथ जोड़ना साफ-साफ अन्याय है’’।
क्रान्ति के बारे में अपना दृष्टिकोण स्पष्ट करते हुये द्वितीय लाहौर षडयन्त्र केस में लाहौर की निचली अदालत में बयान देते हुये भगत सिंह ने कहा था कि क्रान्ति से उनका आशय एक ऐसी सामाजिक व्यवस्था की स्थापना से है जिसको घातक खतरों का सामना न करना पड़े और जिसमें सर्वहारा वर्ग की सत्ता को मान्यता हो तथा एक विश्वसंघ मानवजाति को पूजीवाद के बन्धन से और साम्राज्यवादी युद्धों से उत्पन्न होने वाली बरबादी और मुसीबतों से बचा जा सके। इसी बयान में भगत सिंह ने यह कहा था कि ‘‘ क्रान्ति के लिये खूनी संघर्ष अनिवार्य नहीं है, और न ही उसमें व्यक्तिगत प्रतिहिंसा का का कोई स्थान है। वह बम और पिस्तौल की संस्कृति नहीं है,। क्रान्ति: वर्तमान व्यवस्था, जो खुले तौर पर अन्याय पर टिकी हुयी है बदलनी चाहिये।
2 फरवरी 1931 में नवजवान कार्यकर्ताओं के नाम अपने संदेश में भगत सिंह ने लिखा- एसेम्बली बम काण्ड में दी गयी हमारी परिभाषा के अनुसार इन्कलाब का अर्थ मौजूदा ढांचे में पूर्ण परिवर्तन और समाजवाद की स्थापना है। इस लक्ष्य की प्राप्ति के लिये हमारा पहला कदम ताकत हासिल करना है। वास्तव में ‘राज्य’ यानी सरकारी मशीनरी, शासक वर्ग के हाथों में अपने हितो की रक्षा करने और उन्हे आगे बढ़ाने का यन्त्र ही है। हम इस यन्त्र को छीनकर अपने आदर्शों की पूर्ति के लिये इस्तेमाल करना चाहते हैं। हमारा आदर्श है-नये ढंग से सामाजिक संरचना, यानी मार्क्सवादी ढंग से। इसी लक्ष्य के लिये हम सरकारी मशीनरी का प्रयोग करना चाहते हैं।भारत सरकार का प्रमुख लार्ड रीडिंग की जगह यदि सर पुरूषोत्तम दास ठाकुर दास हों या लार्ड इर्विन की जगह सर तेज बहादुर सप्रू आ जायें तो जनता पर क्या फर्क पड़ने वाला है। जनता को समझना होगा कि क्रान्ति उनके हित में है और उनकी अपनी है। सर्वहारा श्रमिक वर्ग की क्रान्ति, सर्वहारा वर्ग के लिये। क़्रान्ति करना बहुत कठिन काम है। यह किसी एक आदमी की ताकत के वश की बात नहीं है और न ही एक निश्चित तारीख को आ सकती है। यह तो विशेष सामाजिक-आर्थिक परिस्थितियों से पैदा होती है और एक संगठित पार्टी को ऐसे अवसर को सम्भालना होता है और जनता को इसके लिये तैयार करना होता है। क्रान्ति के दुस्साध्य कार्य, शक्तियों को संगठित करना होता है। इसके लिये क्रान्तिकारी कार्यकर्ताओं को अनेक कुर्बानी देनी होती है। गांधीवाद पर टिप्पणी करते हुये उन्होने लिखा कि ‘‘साबरमती के सन्त’’ को गांधीवाद दूसरा शिष्य नहीं दे पायेगा। अपनी स्वयं की स्थिति स्पष्ट करते हुये उन्होने इसी संदेश में लिखा था-ऊपरी तौर पर मैने एक आतंकवादी की तरह काम किया है,लेकिन मै एक आतंकवादी नहीं हू। मैं एक क्रान्तिकारी हू, जिसके दीर्घ कालिक कार्यक्रम-सम्बन्धी ठोस व विशिष्ट विचार है।
गांधी जी के विचार ‘बम की पूजा’ का उत्तर देते हुये भगत सिंह ने लिखा था कि हिंसा का अर्थ है अन्याय के लिये किया गया बल प्रयोग, परन्तु क्रान्तिकारियों का यह उद्देश्य नहीं है। दूसरी ओर अहिंसा का जो आम अर्थ समझा जाता है, वह है आत्मिक शक्ति का सिद्धान्त। उसका उपयोग व्यक्तिगत तथा राष्टय अधिकारों को प्राप्त करने के लिये किया जाता है। अपने आपको कष्ट देकर आशा की जाती है कि इस प्रकार अन्त में अपने विरोधी का हृदय परिवर्तन सम्भव हो सकेगा। क्रान्तिकारियो को विश्वास है कि देश को क्रान्ति से ही स्वतन्त्रता मिलेगी। वे जिस क्रान्ति के लिये प्रयत्नशील हैं और जिस क्रान्ति का रूप उनके सामने स्पष्ट है उसका अर्थ केवल यह नहीं है कि विदेशी शासकों व उनके पिट्ठुओं से क्रान्तिकारियों का सशस्त्र संघर्ष हो, बल्कि इस सशस्त्र संघर्ष के साथ-साथ नवीन सामाजिक व्यवस्था के द्वार देश के लिये मुक्त हो जायें। क्रान्ति पूजीवाद, वर्गवाद तथा कुछ लोगों के विशेषाधिकार दिलाने वाली परम्परा का अन्त कर देगी। यह राष्ट को अपने पैरों पर खड़ा करेगी, उससे नवीन राष्ट और नये समाज का निर्माण होगा। क्रान्ति की सबसे बड़ी बात यह होगी कि यह मजदूर तथा किसानो का राज्य कायम कर उन सब सामाजिक अवांछित तत्वों को समाप्त कर देगी जो देश की राजनैतिक शक्ति को हथियाये बैठें है। आतंकवाद सम्पूर्ण क्रान्ति नहीं और क्रान्ति आतंकवाद के बिना पूर्ण नहीं। यह तो क्रान्ति का एक आवश्यक अंग है। आतंकवाद आततायी के मन में भय पैदा करता है और पीड़ित जनता में प्रतिशोध की भावना जागृत कर उसे शक्ति प्रदान करता है। अस्थिर भावना वाले लोगों को इससे हिम्मत बंधती है तथा उसमें आत्मविश्वास पैदा होता है। जैसा दूसरे देशों में होता आया है वैसे ही भारत में आतंकवाद क्रान्ति कारूप धारण कर लेगा और अन्त में क्रान्ति से ही देश को सामाजिक राजनैतिक तथा आर्थिक स्वतन्त्रता मिलेगी।
भारतीय मुक्ति संघर्ष के इतिहास में गांधी जी के नेतृत्व में आन्दोलन के समानान्तर चले इस आन्दोलन के बैचारिक पक्ष का सही आकलन नहीं किया गया है तथा क्रान्तिकारियों का गलत आकलन किया गया है। जब कि वास्तविकता इसके विपरीत है। इसके प्रवर्तक व्यर्थ की हिंसा के विरूद्ध थे लेकिन अपरिहार्य परिस्थितियों मे वे हिन्सा को सही मानते थे।
डा. अजय कुमार मिश्र, मऊ, मोबाइल नं.09935226428

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