सोमवार, 4 अप्रैल 2011

...... जब चिड़िया चुग गई खेत



देवेन्द्र प्रताप
किसान जब अपने खेत में लहलहाती फसल देखता है तो आदतन सबसे पहले वह आसमान की ओर देखकर खुदा को धन्यवाद देता है और फिर उस धरती का, जिसने उसके खेतों में सोने सरीखी फसल पैदा की। उसकी मान्यता की बात छोड़ भी दें तो अगर आसमान मेहरबान रहे और धरती उर्वरा हो तो किसान के खेत में सोना ही उगता है। वर्तमान समय में वातावरण में प्रति टन कार्बन के अनुपात में धरती में मात्र 1.7 टन कार्बन ही बचा है। धरती में कार्बन की मात्रा वातावरण से दोगुनी होनी चाहिए। यह एक खतरनाक संकेत है। समय रहते इससे निपटा जाना चाहिए।
उर्वरा धरती

किसान की फसल का अच्छा बुरा होना धरती की सबसे ऊपरी परत के ऊपर निर्भर करता है। यही वह भट्ठी है जिसमें तपकर सोने जैसी फसल पैदा होती है। इस परत की खासियत यह है कि इसमें ऐसे बैक्टीरिया और फसल के लिए दूसरे जरुरी तत्व पाये जाते हैं जो फसल की पैदावार के लिए जिम्मेदार होते हैं। आंख से न दिखाई देने वाले इन सूक्ष्म जीवों में बहुत ही बड़े-बड़े गुन होते हैं। ये सूक्ष्म जीव गोबर या जैविक खाद को फसल के लिए फायदेमन्द पोषक तत्वों में बदल देते हैं।
धरती तरसे भोजन को
धरती दुनिया के सारे प्राणियों के लिए मां जैसे भूमिका निभाती है। मां अपने बच्चों को पालती-पोषती है, उनकी हर नाराजगी को हंस कर सह लेती है और कई बार तो वह खुद भूखी रहती है लेकिन अपने बच्चों को भूखा नहीं रहती। धरती के बच्चों में अनगिनत विशालकाय पेड़-पौधों से लेकर असंख्य ऐसे जीव भी हैं जिन्हें हम अपनी आंखों से नहीं देख सकते। पहले धरती की अपने बच्चों व खुद के लिए भी एक प्राकृतिक व्यवस्था की थी। इस प्राकृतिक व्यवस्था के कारण धरती और उसके बच्चों को भोजन की कमी नहीं होती थी। उसका परिवार धन-धान्य से भरपूर था। आज स्थिति बदल गयी है। उसके बच्चों में से सबसे ज्यादा बुद्धिमान होने का दावा करने वाले मनुष्यों ने अपने भोजन के लिए धरती से और ज्यादा भोजन की मांग करने लगे। रासायनिक खादों कीटनाशकों का इस्तेमाल किया। इससे धीरे-धीरे न सिर्फ धरती की उर्वरा क्षमता कमजोर हुई, वरन उसकी कोख में पलने वाले असंख्य सूक्ष्म जीवाणु - काई, कीडेÞ और अन्य सूक्ष्म जीव, जिनमें से अधिकतर नंगी आंखों से नहीं देखे जा सकते हैं- बेमौत मरने लगे। यही वजह रही कि धरती का कलेजा दु:ख सहते-सहते पत्थर जैसा होता गया। इन जीवों के मरने से प्राकृतिक असुंतन गड़बड़ा गया है। स्थिति यह हो गयी है कि आज वह खुद भी भूखी रहती है और उसके असंख्य बच्चे भी। वह करे भी तो क्या करे। वह लाचार है।
कृषि का औद्योगीकरण
हमारे देश में जब यूरोप और अमेरिका की तर्ज पर हरित क्रांति की शुरुआत हुई, तो यह तर्क दिया गया कि इससे मिट्टी की उर्वरक क्षमता को बढ़ाया जा सकता है। धरती से ज्यादा पाने की खुशी में इसमें मौजूद जैव पदार्थों की ओर ध्यान ही नहीं दिया गया। लेकिन धीरे-धीरे प्रकृति में मौजूद यह भण्डार कम होता गया। आज इसका दुष्परिणाम दुनिया के कई हिस्सों में सामने आ रहा है। धरती के खजाने में सबसे ज्यादा मात्रा कार्बन की होती है। दुनियां में कुल बनस्पतियों में मौजूद कार्बन को मिला भी दिया जाए तो भी धरती के खजाने में मौजूद भण्डार से इसकी मात्रा आधी ही होगी। लेकिन आज यह अनुपात गड़बड़ा गया है। हरित क्रांति की बयार के बहने के पहले हवा और मिट्टी के बीच संतुलन की स्थिति यह थी कि हवा में प्रत्येक टन कार्बन के मुकाबले मिट्टी में करीब दो टन कार्बन मौजूद होता है। वर्तमान समय में प्रति टन वातावरणीय कार्बन के अनुपात में धरती के पास मात्र 1.7 टन कार्बन ही बचा है। जाहिर है यह एक खतरनाक संकेत है। समय रहते इससे निपटा जाना चाहिए। नहीं तो फिर यही कहेंगे कि ‘अब पछताए होत क्या जब चिड़िया चुग गई खेत’।
जलवायु संकट
हरित क्रांति ने जलवायु संकट को भी बढ़ाने में अपना योगदान दिया है। इसने बहुत ही तेजी से धरती की कोख को जैविक तत्वों से खाली करने का काम किया है। आज हालत यह है कि इन जैविक तत्वों को धरती की कोख में अगर वापस भी ला दिया जाए तो भी हम आज कार्बन डाई आॅक्साइड की जितनी मात्रा का पयावरण में उत्सर्जन कर चुके हैं उसका एक-तिहाई ही अवशोषित कर पाएंगे। वैज्ञानिकों की मानें तो अगर दुनिया भर में इसके लिए एक साथ प्रयास किया जाए तो भी हमें करीब 50 साल कार्बन डाई आक्साइड की दो तिहाई मात्रा को सामान्य स्थिति में ला पाएंगे।

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