रविवार, 3 अप्रैल 2011

तहरीर स्क्वायर पर लिखी जा रही नई इबारत

देवेन्द्र प्रताप
मिस्र या ईजिप्ट उत्तरअफ्रीका का एक देश हैं। मिस्र की सीमा सिनाई प्रायद्वीप के द्वारा एशिया से भी जुड़ी हुई है। इसके उत्तर में भूमध्य सागर, उत्तर पूर्व में गाजा पट्टी और इस्राइल हैं। मिस्र के पूरब दिशा में लाल सागर जबकि पश्चिम में लीबिया एवं दक्षिण में सूडान स्थित हैं। मिस्र लगभग 10,10,000 वर्ग किलो मीटर के क्षेत्र में फैला हुआ है। घोर रेगिस्तान और समुद्र के अनूठे संगम के प्रतीक काहिरा शहर में मनोरंजन के तमाम तमाशे हैं। बेहद महंगे पंचतारा होटल हैं। चमचमाती टैक्सियां हैं। मसाज पार्लर हैं। तटों पर न्यूनतम वस्त्रों में धूप-स्रान करते लोग हैं, पर मूल शहर बेहद छोटा और दरिद्र है।
अरब क्षेत्र में मिस्र की सदा ही अपनी एक अलग पहचान रही है। इसलिए 19 वीं सदी में जब फ्रांस व ब्रिटेन ने इसे अपने कब्जे में लेना चाहा तो उन्हें बहुत सतर्कता बरतनी पड़ी। उन्होंने मिस्र पर बाहुबल का जोर आजमाने के बजाय, पिठ्ठू शासकों के माध्यम से अपने हितों को पूरा किया। बावजूद इसके मिस्र पर काबिज विदेशी शक्तियों को कभी भी मिस्र की जनता ने पशन्द नहीं किया। उन्नीसवीं सदी ब्रिटेन और फ्रांस के विरुद्ध मिस्र जनता के प्रतिरोध की गवाह बनी। इस सदी में वह विदेशी शक्तियों से अपने देश को आजाद तो नहीं करा पायी लेकिन उसने हार भी नहीं माना।1956 में मिस्र की जनता ने गमाल अबदेल नासिर के नेतृत्व मेंअपने बादशाह फारुक का तख्ता पलट दिया। इस क्रांति ने उसे समूचे अरब का नेता बना दिया। नासिर जब तक सत्ता में रहे उन्होंने अपने देश को विदेशी प्रभाव से बचाये रखा। नासिर को यूरोप की वैज्ञानिक प्रगति पशन्द थी। संकट यह था कि अगर वे इसके लिए यूरोप या फिर अमेरिका के आगे हाथ फैलाते तो फिर से गुलाम बनने का खतरा भी था। उन्हें देश का विकास तो पशन्द था लेकिन आजादी की कीमत पर नहीं। इसलिए उन्होंने भरसक कोशिश की कि मिस्र की आजादी को बरकरार रखते हुए देश का विकास किया जाए। उस समय यह संकट उन सभी देशों के साथ था जिन्होंने जल्दी ही उपनिवेशवाद से खुद को आजाद किया था। गुटनिरपेक्ष आन्दोलन इसी का परिणाम था। तीसरी दुनिया की जनता मिस्र की इस भूमिका को कभी नहीं भूल सकती। वह उसके साथ करीबी महसूस करती है। यही वजह है कि आज जब मिस्र उथल-पुथल के दौर से गुजर रहा है तो भारत समेत तीसरी दुनिया के जनमत का बड़ा हिस्सा मिस्र की जनता के साथ है।
अंग्रेजों से आजादी हासिल करने के बाद से ही मिस्र की सत्ता पर सेना का कब्जा रहा। कर्नल नासिर भी सेना से आये थे। यह अलग बात है कि उनके काल में मिस्र में तानाशाही नहीं कायम हो पायी। नासिर के बादचाहे सद्दात रहे हों या फिर हुस्री मुबारक ये विशुद्ध रुप में सेना के प्रतिनिधि के तौर पर ही हुकूमत में रहे। यह भी कह सकते हैं कि सेना के सहारे ही इन्होंने अपनी हुकूमत को बचाये रखा। सेना की इसी भूमिका की वजह से ही वहां तानाशाही शासन के खिलाफ मिस्र की जनता सड़क पर उतरती रही।
मिस्र की जनता आज फिर अपने देश में तानाशाही हुकूमत के खात्में के लिए सड़कों पर है। वहां के राष्ट्रपति हुस्नी मुबारक ने मिस्र के ऊपर 30 सालों तक राज किया। जब टुनिसिया की जनता ने अपने यहां क्रांतिकारी परिवर्तन के लिए आन्दोलन शुरु किया तो उसने बहुत जल्दी ही समूचे अरब को अपनी जद में ले लिया। मिस्र के ऊपर भी इसका प्रभाव पड़ा। नतीजा मिस्र की जनता ने भी तुनिसिया की राह पकड़ी। 24 जनवरी को मिस्र की राजधानी काहिरा की जनता ने मुबारक की तानाशाही के खिलाफ जंग का ऐलान कर दिया। पांच ही दिनों में इस आन्दोलन की आग ने समूचे मिस्र को अपने लपेट में ले लिया। जनान्दोलन के बढ़ते दबाव का भांपकर मुबारक ने सबसे पहले अपने मंत्रिमण्डल को बर्खास्त कर आन्दोलन की आग को शान्त करना चाहा। जब इससे बात नहीं बनी तो 29 जनवरी को मुबारक ने अपने करीबियों को उपराष्ट्रपति और प्रधानमंत्री की कुर्सी पर बिठाकर जनता को शान्त करना चाहा। कहते हैं तानाशाह कभी नहीं सीखता। यह बात मुबारक के ऊपर एकदम फिट बैठती है। मुबारक के इन घड़ियाली आसुओं का जनता के कोई फरक नहीं पड़ा। आज काहिरा के इस कुरूक्षेत्र में समाज का हर तबका शामिल है। व्यापारी, पत्रकार,कालेजों के प्रोफेसर, वहां के आम नौकरी पेशा वाले लोगों के साथ फिल्मी जगत की दुनिया के कलाकर भी आज मुबारक के खिलाफ नारे लगा रहे हैं। छात्र और नौजवान तो हर सामाजिक बदलाव में मुख्य शक्ति होते ही हैं। मिस्र में भी वे सबसे आगे हैं। जब पानी सर तक आ गया तब मुबारक को समझ में आया कि जनता इस बार निर्णायक लड़ाई के मूड में है। कहते हैं ‘खिसियानी बिल्ली खम्भा नोचे'। मुबारक ने फिर पैंतरा बदला। आन्दोलन के 14 वें दिन एक अमेरिकी पत्रकार को दिए इंटरव्यू में मुबारक की यही खिसियाहट नजर आयी। उन्होंने कहा ‘मैं राष्ट्रपति पद से उकता गया हूं। मैं गद्दी छोड़ना चाहता हूं मगर डरता हूं कि मेरे हटते ही मिस्र में अराजकता फैल जाएगी’। वाह! क्या कहने मुबारक साहब!
1789 की क्रांति ने समूचे यूरोप को प्रभावित किया था। फ्रांस की जनता जब वर्साई के राजमहल पहुंची तो वह सिर्फ रोटी मांगने गयी थी। जो लोग वहां गये थे उनमें से ज्यादातर ने शायद ही अपने जीवन में कभी क्रांति के बारे में सोचा था। कइयों के लिए तो यह शब्द ही बेगाना था। वे एक ही चीच से परिचित थे, और वह थी रोटी। रानी ने उन्हें रोटी दिलवाने के बजाय सवाल किया कि ‘तुम लोगों को रोटी नहीं मिलती तो ब्रेड क्यों नहीं खाते?’इसके बाद भी सत्ता की ज्यादती और पुलिस का दमन जारी रहा। इसी ने फ्रांस की जनता को अपने यहां क्रांति करने के लिए मजबूर किया। फिर क्या था? यह आग वहां ऐसे फैली कि बाद के दौर में एक मुहावरा ही बन गया कि ‘पेरिस को छींक आते ही फ्रांस को बुखार आ जाता है।’
कमोवेश यही हालत मिस्र की भी है। वहां की राजधानी काहिरा की हलचल समूचे को मिस्र को और मिस्र की हलचल समूचे अरब को अपने साथ कर लेती है। जब तक अरब में अमेरिका घुसा नहीं था, तब तक वह दुनिया से कटा हुआ था। सांस्कृतिक तौर पर जुड़ाव की बात अलग है। लेकिन बावजूद इसके वह एक अलग ही दुनिया थी। जब उसने तेल पर कब्जे के लिए इस क्षेत्र में प्रवेश किया तभी इस विषय के जानकारों की ओर से यह भविष्यवाणी कर दी गयी थी कि ‘अरब के दलदल से दुनिया के तानाशाह का बच निकलना अब नामुमकिन है।’ इसलिए आज इस बात की बहुत ज्यादा सम्भावना है कि भूमण्डलीकरण के इस दौर में अरब की से हलचल से समूची धरती को बुखार आ जाए। वैसे अभी तो यह शुरुआत है। आगे आगे देखिए होता है क्या?
राख के नीचे सोया था दावानल
इस बार राष्ट्रपति हुस्नी मुबारक के खिलाफ मिस्र की जनता का आन्दोलन 17 जनवरी से शुरु हुआ। वहां के हालात एकाएक नहीं खराब हुए हैं। वहां की जनता तीस वर्षों से समस्याओं के नीचे दबी हुई थी। लेकिन मुबारक प्रशासन ने इस दौरान अपने कान में रुई डाले रखा। नतीजतन जनता ने आजिज आकर आन्दोलन का रास्ता अख्तियार किया। मिस्र की जनता के आन्दोलन के बारे में अमेरिका ने परस्पर विरोधी टिप्पड़ियां की हैं। इससे दुनिया का जनमानस मिस्र के आन्दोलन को लेकर भयंकर भ्रम में है। मिस्र के बुद्धिजीवियों ने अमेरिकी टिप्पड़ियों को सिरे से एक मनगढ़न्त किस्सा करार दिया है। डा. अल्ला अल अस्वनी मिस्र के ऐसे ही जनपक्षधर लेखकों में से एक हैं। उन्हें अरब की जनता प्यार करती है। उनका उपन्यास ‘इस्लाम एल-अती पेपर्स’ मुबारक शासन में कई वर्षों तक प्रतिबन्धित रहा। उन्होंने एक साक्षात्कार में आन्दोलन की कवरेज कर रहे विदेशी पत्रकारों को बताया कि ‘इस बार मुबारक के लिए सम्भव नहीं है कि वे अपनी सत्ता को बचा पायें, जैसा कि वे पिछले 30 सालों में करते आ रहे हैं।’ उन्होंने कहा कि ‘मिस्र की जनता के अन्दर मुबारक सरकार के खिलाफ अर्से से आक्रोश जमा हुआ था। यह आन्दोलन तो बस जनता की भावनाओं का विस्फोट मात्र है। यहां की जनता ने वर्ष 2003 में भी मुबारक के खिलाफ आन्दोलन किया था लेकिन, मुबारक किसी तरह अपनी सत्ता को बचाने में कामयाब रहे। लेकिन आज मिस्र के हालात पहले से बहुत बदल गये हैं। यहां की जनता ने अपनी हार से सबक लिया है। मौजूदा आन्दोलन उसी का प्रतिफल है। तुनिसिया की जनता द्वारा अपने शासक को उतार फेंकने की घटना से भी मिस्र की जनता ने सबक और साथ ही प्रेरणा लेने का काम किया है।’
यह विशुद्ध रुप में एक जनआन्दोलन है न कि किसी तरह का अतिवादी आन्दोलन। अगर इसे मुश्लिम भाईचारे की भावना से प्रेरित आन्दोलन मानें (जैसा कि यूरोप और अमेरिका के कई मीडिया घराने इसे साबित करने पर तुले हुए हैं) तो भी यह सवाल उठना लाजिमी है आखिर क्यों मिस्र की जनता अपने ही धर्म के शासक के खिलाफ आन्दोलन करने पर उतारू हो गयी? आखिर ऐसी क्या बात रही कि सउदी अरब के शासक की मिस्र की जनता के नाम धार्मिक अपील का भी यहां की जनता के ऊपर कोई फर्क नहीं पड़ा।
इस आन्दोलन में लाखों की संख्या में महिलाएं, बुजुर्ग, अमीर, गरीब व समाज के वे सभी तबके शामिल हुए जो वर्षों से मुबारक शासन से पीड़ित थे। तानाशाही के खिलाफ अतीत में भी जितने आन्दोलन हुए हैं, उसमें समाज के सभी तबके शामिल हुए हैं। यहां भी यही हाल रहा। इसलिए धार्मिक संगठनों का इस आन्दोलन में शामिल होना कोई आश्चर्यजनक बात नहीं है। जनता ने मुबारक के खिलाफ हर उस अस्त्र का इस्तेमाल किया है जो इस आन्दोलन की सफलता के लिए जरुरी है।
युवा आखों के सपने
मिस्र के आन्दोलन की शुरुआत युवाओं ने की। उन्होंने संचार के आधुनिक साधनों-फेसबुक, टिवटर और मोबाइल सेवाओं का जमकर इस्तेमाल किया। युवाओं की यह पीढ़ी मुबारक के शासन में ही जवान हुई है। इन्हीं लोगों ने सबसे पहले जनता को मुबारक सरकार को संगठित करने का काम शुरु किया। जनता ने भी युवा आंखों में तैरते नई दुनिया के ख्वाव को पढ़ लिया। इसलिए वह तुरन्त इनके साथ हो ली। ऐसा लगा जैसे वह पहले से ही तैयार बैठी थी।
सेना का रवैया
मुबारक के खिलाफ आन्दोलन छिड़े हुए अभी पांच दिन ही हुए थे कि सेना के लिए उन्हें नियंत्रित कर पाना सम्भव नहीं रह गया। एक हप्ते बाद सेना ने मुबारक प्रशासन को यह स्पस्ट कर दिया कि वह अपने नागरिकों के ऊपर गोली नहीं चलाएगी। आन्दोलन ने जैसे-जैसे गति पकड़ी, उसने सेना के बीच भी अपने समर्थक तैयार किया। सेना के सैकड़ों जवान अपनी नौकरी की परवाह छोड़ आन्दोलन में शामिल हो गये। इसने सेना के अन्दर आन्दोलन का आधार बढ़ाने का काम किया। अभी तक सेना तटस्थ रही है। दूसरी ओर जनता मुबारक को बिना हटाए तहरीर चौक हटने का नाम नहीं ले रही है। जब मुबारक ने जनता को डराने के लिए टैंक उतारे तो हजारों नौजवान टैंक के सामने लेट गये। आज वे काहिरा की सड़कों पर खड़े धूल फांक रहे हैं। जनता की एकता के सामने वे लाचार हैं।
बारहवें दिन के प्रदर्शन के दौरान जब उपराष्ट्रपति उमर सुलेमान तहरीर चौक गये तो उनके ऊपर फायरिंग हुई। हमले में बाल-बाल बच गए हैं जबकि उनके दो बॉडीगार्ड मारे गए। 14 वें दिन भी स्थिति में कोई बदलाव नहीं हुआ है। सेना भी इंतजार कर रही है कि ‘ऊंट किस करवट बैठेगा?’
मुबारक का जाना अलबरदेई का आना
ऐसा अन्दाजा लगाया जा रहा है कि मुबारक अमेरिका के उद्देश्य को पूरा करने के योग्य नहीं रह गया था। इसलिए वह अलबरदेई को लांच करना चाह रहा है। मौका भी उसके हाथ लग गया। इसलिए वह चाहता है कि किसी तरह मुबारक को बचाते हुए अलबरदेई के हाथ में कमान संभाल दी जाए। उधर नये उपराष्ट्रपति ओमार सुलेमान भी अमेरिका के विश्वस्त हैं। अमेरिका ने मिस्र में नई व्यवस्था के लिए अपनी ओर से तैयारी पूरी कर ली है। अब देखना यह है कि वह इसे लागू कर पाता है कि नहीं।
सउदी अरब
सऊदी अरब के बादशाह ने मिस्र के घटनाक्रम की कड़ी आलोचना की है। उन्हें डर है कि कहीं यह आन्दोलन उनके अपने देश में न फैल जाए। सउदी अरब ने कहा है कि ‘कोई भी अरब या मुश्लिम देश अभिव्यक्ति की आजादी और स्वतंत्रता के नाम पर मिश्र की सुरक्षा और स्थिरता से खिलवाड़ करने वालों को बर्खास्त नहीं करेगा।’ वहीं दूसरी ओर अमेरिका, ब्रिटेन, फ्रांस, जर्मनी, जापान समेत ताकतवर देश भी मुबारक को अपना मौन व गुप्त समर्थन जारी रखे हुए हैं। हांलाकि इनमें से ज्यादातर ने मीडिया में मुबारक को संयत बरतने व जनता की मांगों पर गौर करने के लिए मुबारक को नशीहत दी है।
मिस्र, इजराइल, फिलिस्तीन सम्बन्ध
काहिरा की हर धड़कन अरब में सुनी जा सकती है। फिलिस्तीनी समस्या के समाधान के दिशा में भी मिस्र ने काफी प्रयास किया है। कुल मिलाकर इससे अमेरिका को फायदा ही हुआ है। राष्ट्रपति सद्दात ने इजरायल के साथ एक कामकाजी समझौता किया था। उसके बाद से अरब जगत और इजरायल के बीच काफी सामंजस्यपूर्ण सम्बन्ध रहे। हांलाकि यह नहीं भूलना चाहिए कि सद्दात को इस समझौते की कीमत अपनी जान देकर चुकानी पड़ी थी।
आज इजरायल अमेरिका के बल पर भले ही दम्भ से भर जाए लेकिन वह आज भी मिस्र को अहमियत देता है। अरब में एक कहावत प्रसिद्ध है-‘मिस्र के सहयोग के बिना यहां न तो युद्ध हो सकता है और न सीरिया के बिना कोई समझौता।’ मिस्र की सीमा इजरायल से भी लगती है। इसलिए वह बहुत ही बारीकी से मिस्र में हो रही घटनाओं का अध्ययन कर रहा है। उसका डर स्वाभाविक है। मिस्र में तख्तापलट का असर इजरायल समेत अरब के दूसरे देशों पर भी पड़ेगा।
ट्यूनीशिया
अल अबदीन बेन अली 35 वर्षों तक ट्यूनीशिया के रहे। साल के शुरु में उनकी सत्ता के खिलाफ बगावत फूटने के बाद वे सऊदी अरब भाग गये। इस समय तुनिसिया नये परिवर्तन की हवा चल रही है।
तुनिसिया की राह चले सीरिया व सूडान
मिस्र के अलावा यमन, सूडान और जॉर्डन में भी आम जनता सरकार के विरोध में सड़क पर उतर आयी है और शासन तथा शासकीय व्यवस्था में परिवर्तन की मांग कर रही है। जॉर्डन में यह मांग अभी वर्तमान सरकार के इस्तीफÞे तक ही सीमित है।
यमन
ट्यूनीशिया की घटना का यमन पर भी असर पड़ा है। यमन में जनता ने व्यवस्था परिवर्तन से कम कुछ भी मानने से इंकार कर दिया है। यमन में तानाशाही शासन बहुत ही क्रूर रहा है। यहां नागरिक स्वतंत्रता बस नाम की चीज है। वहां सैनिकों और इसलामी कट्टरपंथियों के बीच होने आने वाली बेहद आम बात है। पिछले दिनों यमन के बंदरगाह में अमेरिकी नौसेना के वाहन पर हुआ इसलामी कट्टरपंथियों ने हमला किया था। अमेरिका ने यहां की तमाम सरकारों को अभी तक अपना पिठ्ठू बनाकर काम किया है। बहुत ही छोटा मुल्क होने के बावजूद इसने अलकायदा से खिलाफ उसकी लड़ाई में अमेरिका का साथ दिया। यमन में इस समय अमेरिका के खिलाफ लोगों में गहरा आक्रोश है।
ईरान
ईरान ने इसके विपरीत यह आशा प्रकट की है कि मिस्र के शासक अपने देश की मुस्लिम आवाम की ‘आशा एवं आकांक्षाओं’ के अनुरूप शासकीय व्यवस्था में आवश्यक सुधार लायेंगे, न कि सुरक्षा एजेंसियों द्वारा इसको कुचलने का प्रयास करेंगे।
एशिया में फैल रहा अरब डर
अरब के जानकारों का मानना है कि तुनिसिया की आग समूचे अरब में फैलेगी। लेकिन एक सवाल यह भी उठना चाहिए कि क्या एशिया पर इसका कोई असर नहीं होगा। एक सवाल सहज ही दिमाग में आता है कि क्या मिश्र की यह आग पाकिस्तान को भी अपने लपेटे में ले सकती है।
चीन
एशिया में चीन और जापान की खास अहमियत रही है। जैसे ही तुनिसिया में आन्दोलन फूटा चीनी सरकार तुरन्त सचेत हो गयी। उसने तुरन्त ही अरब जगत की हलचल से जुड़े समाचारों के प्रसारण के चीन मे प्रसारण पर पाबन्दी लगा दी।
भारत
भारत को करीब 70 फीसद तेल की आपूर्ति इसी क्षेत्र से होती है। हमारे विदेशी मुद्रा भंडार में खाड़ी देशों में कार्यरत भारतीयों द्वारा भेजे जाने वाला‘मनीआॅर्डर’का मुख्य योगदान है। मिश्र में करीब 3600 भारतीय मूल के नागरिक (पीआईओ)रहते हैं। आन्दोलन के बाद से इनकी परेशानी बढ़ गयी है। पश्चिमी एशिया के साथ भारत के अच्छे व्यावसायिक सम्बन्ध रहे हैं। इसलिए अरब का दर्द भारत भी दुखी कर सकता है।
श्रीलंका
श्रीलंका की प्रमुख विपक्षी दल यूनाइटेड नेशनल पाटी ने अपने देश में ऐसे ही विद्रोह की चेतावनी दी है। यूएनपी ने कहा कि श्रीलंका सरकार की ओर से विपक्ष के ऊपर कराये जाने वाले हमले बढ़ते ही जा रहे हैं। सरकार ने अखबारों की स्वतंत्रता पर सेंसर लगा दिया है। वह अपने खिलाफ आने वाली हर खबर को दबा देती है। अब तो सामान्य मांगों के लिए आन्दोलन करने वाले छात्रों तक को गिरफ्तार किया जाने लगा है। अगर सरकार इन्हें नहीं रोकती तो श्रीलंका में भी अरब जगत जैसी ही बगावत छिड़ सकती है। पार्टी के डिप्टी लीडर जयसूर्या ने कहा है कि श्रीलंका की शासक पार्टी आम जनता की आवाज का ज्यादा दिनों तक नहीं दबा पाएगी। अरब जगत में हो रहे बदलाव से सरकार को सबक लेना चाहिए।
अमेरिका
मिस्र को अमेरिका से हर साल 1.3 अरब डालर की सैन्य मदद मिलती है। अमेरिकी मदद पाने वाले राष्ट्रों में मिश्र दुनिया में चौथा सबसे बड़ा देश है। मिस्र को मिलने वाली यह मदद अरब में उसकी मजबूत स्थिति के चलते है। फिलहाल तो अमेरिका ने इजराइल के रुप में अरब में अपना एक और हितैषी तैयार किया है। लेकिन जब बात फिलिस्तीन और इजराइल की हो तो मिस्र ही दोनों के बीच मध्यस्थ की भूमिका निभाता है। ईरान, सीरिया जैसे देशों को काबू करने में भी मिश्र अमेरिका का मददगार रहा है। यही वजह है कि ईरान के मामले में सख्त रुख अपनाने वाले ओबामा, मिश्र में मुबारक को शालीनता का पाठ पढ़ा रहे हैं। अमेरिका लोकतंत्र समर्थकों से भी बैर नहीं लेना चाहता साथ ही, वह मध्यपूर्व के अपने सबसे विश्वस्त सहयोगी को भी नहीं खोना चाहता।
मोहम्मद अलबरदेई
लोकतंत्र समर्थकों के नेता और आईएईए के पूर्व प्रमुख मोहम्मद अलबरदेई को अमेरिका का विश्वस्त माना जाता है। जैसे ही मिस्र में आन्दोलन शुरु हुआ वे अमेरिका से मिश्र पंहुचे। मिस्र पहुंचते ही उन्होंने ऐलान किया कि ‘मुबारक को अब जाना ही होगा।’
बाजार
डाबर ने मिस्र में अपना कारखाना बंद किया .मिस्र की सरकार की ओर से इंटरनेट,फेसबुक आदि पर पाबन्दी लगाने के कारण उसे अभी तक 410 करोड़ रुपए का नुकसान हुआ है। आर्गेनाइजेशन फॉर इकोनॉमिक co-operation ऐंड डेवलपमेंट (ओईसीडी) ने कहा है कि यह घाटा तो शुरुआती दिनों का है। हर रोज यह घाटा बढ़ता ही जा रहा है। मिस्र की अर्थव्यवस्था में इंटरनेट और दूसरे संचार माध्यमों का योगदान तीन से चार प्रतिशत रहा है। इसलिए आन्दोलन जितना लम्बा खिंचेगा यह घाटा भी बढ़ेगा।
सबसे ज्यादा प्रभावित
-काहिरा, अलेक्सांड्रिया इस दौरान सबसे ज्यादा प्रभावित रहे।
-शफाह शहर में सेना मुख्यालय पर जनता ने किया हमला।
-जनता की ताकत के आगे मुबारक के टैंक बेअसर
अरब जगत में तानाशाही
इस समय अरब जगत के कुल 25 देशों में से 16 में तानाशाही है। तुनिसिया में बगावत फूटने के बाद से दस देशों की जनता ने बगावती तेवर अख्तियार कर लिया है। अल कायदा काअल जवाहिरी भी इसी खूबसूरत देश का रहने वाला है। ट्यूनीशिया के तानाशाह जिन अल अबदीन बेन अली को तो देश छोड़कर भागना ही पड़ गया है। इस समय अरब के ज्यादातर राष्ट्राध्यक्ष डर के साये में हैं।

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